रविवार, 14 मई 2023

सुनहरे ख़ूबसूरत पिंजरे में कैद 'अच्छी माँ' का मातृ दिवस

आज विश्व मातृ दिवस है....मदर्स डे....सालों से सोशल मीडिया से ख़ासी दूर हूँ तो लोगों के जज़्बातों का शोर मुझ तक छन कर ही पहुँचता है...मुझे इससे सुकून ही रहता है पर ऐसे ख़ास दिनों पर जितना कुछ पहुँचता है, वो भी ज़मीन पर मिलने, दिखने और महसूस होने की हक़ीक़त के मुकाबले कहीं ज़्यादा अवास्तविक जान पड़ता है....वैसे दो साल पहले मैंने अपनी माँ को खोया है...तमाम कोशिशों के बावजूद उस दुःख से उबर नहीं पायी हूँ तो माँ के ज़िन्दगी में होने और न होने के फ़र्क को शायद बहुत अच्छे से जानती हूँ...हालाँकि एक बेहतर समझ बनने के बाद मेरे लिए मेरी माँ, मांओं की परम्परागत छवि के अन्दर कैद न रहकर एक अभिभावक के रूप में ही थीं...लेकिन वो ख़ुद के लिए तो उस छवि में ही रहीं, जब तक रहीं....

मैं अभिभूत हूँ आज लगभग हर किसी की अपनी माँ के लिए भावनाएं देखकर, उनको अपनी माँ के प्रति कृतज्ञ देखकर....न न.....मेरे लिए मदर्स डे जैसा कोई ख़ास दिवस माँ के लिए आरक्षित करने में कोई बुराई नहीं.....मसला असल मायनों में माँ के साथ कुछ ख़ास गुण और भूमिका जोड़कर ज़िन्दगी भर उसके साथ करने वाले अन्याय का है जो स्वार्थ की सभी हदों को पार कर जाता है और अगर हम ऐसा नहीं कर रहे तो इस ख़ास दिन के उत्सव में कोई परेशानी नहीं..जैसे फ़र्ज़ कीजिये कि अगर हमारी मां हमारे लिए सुबह उठकर चाय नाश्ता, स्कूल/ऑफिस का टिफ़िन, दिन और रात का खाना, तमाम तरह के पकवान न बनाये, हमारे लिए अपने कैरियर को तिलांजलि न दे, ख़ुद के लिए शॉपिंग करे, अपनी दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने, घूमने, पार्टी करने जाए, खाना बनाने की जगह पॉपकॉर्न का कटोरा लेकर मैच देखने बैठ जाये....आदि आदि आदि....तब भी क्या हमारा वही रवैया होगा जो आज है? कविताएं भी वैसी ही होंगी? “ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी”...क्या तब भी हम ये ही गीत गायेंगे....कहीं ऐसा तो नहीं कि एक ख़ास दिन पर बच्चों की DP पर आने और शुक्रिया के मैसेज पाने के एवज़ में एक स्त्री को ख़ुद को किनारे कर बच्चों के लिए जीने वाली जो कीमत चुकानी पड़ रही है वो उसके शोषण और उत्पीड़न के सिवा कुछ भी नहीं....बाक़ी चीज़ों में “प्रैक्टिकल” और “रीयलिस्टिक” होने वाले हम जाने क्यों सदियों से माँ के साथ होने वाले इस छल और धोखे के साथ बिलकुल सहज हैं...

आज माँ के प्रति इतनी कृतज्ञता देखकर मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि सब इतना सुन्दर है तो वो कौन सी माएं हैं जो कुपोषण का शिकार हैं, परिवार में बेटे की चाहत पूरी न करने पर तिरस्कृत होती हैं, कई दफ़ा छोड़ दी जाती हैं...हर घंटे में नवजात को स्तनपान करवाने वाली माँ घर के सारे काम के साथ ये काम भी करे और रातों को शिशु के संग जागे भी....कितने ही लोग जानते होंगे कि प्रसव पूर्व व उसके उपरान्त एक बड़ी संख्या में महिलाएं अवसाद का शिकार होती हैं....पर परिवार उनके इस दुःख और चिडचिडेपन पर झुंझलाते ही हैं....थोड़ा और कुरेदें तो बच्चा जनने में कितनी स्त्रियों के माँ बनने के निर्णय में उनकी इच्छा भी शामिल होती है....और जब इतना सोच ही रहे हैं तो साथ में ये भी सोच लें कि स्त्री गर्भधारण करने में अपने या अपने साथी के किसी शारीरिक कारण की वजह से असफल हो तो हमारा ऐसी स्त्रियों, खासतौर से विवाहित स्त्रियों के प्रति क्या रवैया व शब्दावली होती है....गर्भधारण और प्रसव की पूरी तरह से प्राकृतिक प्रक्रिया को हम सब ने पितृसत्ता के पालन पोषण के लिए जिस तरह से महिमामंडित कर सामाजिक प्रक्रिया बनाया है उसने एक स्त्री को कभी एक आम इंसान की तरह जीने ही नहीं दिया...उसके हक़, इच्छाओं, सपनों को कुचल कर उसे एक खूबसूरत पिंजरे में कैद कर दिया...स्त्री को बचपन से उस सुनहरे पिंजरे का लोभ दिखाया गया और सबक ये मिला कि उस पिंजरे के भीतर ही उसकी असल सुन्दरता निखरती है....आसमान की ऊंचाइयां नापने वाली आज़ाद माँ किसी को नहीं चाहिए थी....हमारे आदर के पैमाने तय हैं हीं...हमारे लिए माँ आदरणीय तो है पर कुछ ख़ास प्रकार की माँ को ही ये जगह मिली है....इसपर शायद 4-5 साल पहले लिख चुकी हूँ

तो बात का लुब्ब ए लुबाब ये कि बेशक माँ को सेलिब्रेट कीजिये पर पहले उसे बराबर का इंसान मानिए, उसकी थकन, परेशानियों, झुंझलाहटो, तकलीफों, सपनों को समझिये....उसके परिवार के सदस्य के तौर पर उसके जीवन को अधिक सरल बनाने के लिए ज़िम्मेदारी साझा कीजिये...एक साथी के तौर पर, बेटी-बेटे के तौर पर, उसके सपनों इच्छाओं को जानें, उन्हें समय दें, आराम दें और अभिभावकों को बिना वजह भगवान बनाकर काम के बोझ से लादने के दबाव से मुक्त करें....                 

(लगभग चार साल बाद कुछ लिख रही हूँ....जैसा हमेशा कहती हूँ कि योजना बनाकर नहीं लिखती मन को जो लगता है लिख जाता है....आज भी वैसा ही है लेकिन ज़िन्दगी के एक अजीब उतार चढ़ाव में ऊपर नीचे होने के दौर में शायद खुद को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करना भी मुश्किल हुआ है...तो जो भी टूटा फूटा बन सका वो आपके सामने आ गया |)  

                

8 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी मां कब से बोल रहे पुआ बना दो वो भर भर के अंचार बना रही हैं और डिब्बों को देख के मुस्कुराती हैं, बताओ भला ऐसी होती हैं ममता की मूरत :D
    बहुत सटीक लिखा है बेन, अब लिख रही तो लिखते ही रहना :)

    जवाब देंहटाएं
  2. बेनामी क्या होता है भाई अन्नू नाम है हमारा :D

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सही लिखा तुमने। बहुत सारी संताने खासकर वयस्क लड़के, मां के साथ अपनी इसी मौके की खींची तस्वीर लगा के आज के दिन सोशल मीडिया पर खूब व्यस्त हैं और माएं रोज की तरह झाड़ू पोछा, कपड़ा, बरतन, खाना आदि में व्यस्त। विडंबना है।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सटीक एवं सहज चित्रण किया है आपने ,केवल मातृ दिवस ही नहीं इस तरह के हर दिवस केवल बाजार की आवश्यकताओं पर निर्भर हो गया है , अच्छा है आपने फिर से कलम उठाई ,यानि लिखना शुरू किया , अब बहुत कुछ अच्छा पढ़ने को मिलेगा , बहुत सारी शुभकामनाएँ

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह रश्मि खूब लिखा।
    बाज़ार को तो बस टारगेट चाहिए। फिर उसके लिए भले ही कुपोषण को सुंदर बनाना पड़ जाए।
    इसे जारी रखना।

    जवाब देंहटाएं