रविवार, 23 फ़रवरी 2014

घोंसला हौसलों का..

अहमदाबाद. यह शहर मेरे लिए अनजाना नहीं लेकिन कुछ ख़ास जाना पहचाना भी नहीं....यहाँ के चटख रंग, ऊर्जावान और मेहनती लोग, साधारण जीवनशैली और गरबे का संगीत...बहुत कुछ है जो किसी को प्रभावित कर देता है पर एक संवेदित नागरिक के तौर पर सोचूं तो गुजरात के साथ काले अध्याय भी जुड़े हुए हैं जिनका असर आज भी ज़िन्दा है.....ख़ैर...इस बार यहाँ आने की वजह पारिवारिक थी...अभी तक बाहर निकलना ज्यादा हुआ ही नहीं पर घर बैठे ही कुछ देखा महसूस किया वहीँ यहाँ साझा करुँगी.

कहते हैं प्रेरणा लेने के लिए दुनिया, लोग, समय, उम्र, क्षेत्र इत्यादि की कोई सीमाएं नहीं होती पर बात यहाँ उससे एक क़दम आगे जाकर जब आपको ये एहसास अपने आस पास के जीव जंतुओं को देख कर हो जाये....ज़रुरत बस ख़ुद को उनसे जोड़कर महसूस करने की होती है.....मसलन कभी झूमकर नाचते हुए मोर को देखिये, जी करेगा कि दुनिया भूलकर उसके साथ झूमें नाचें...ख़ुद के अन्दर के सोये हुए बेपरवाह इंसान को फिर ज़िन्दा कर दें...जंगल में चौकड़ी भरते हिरणों के झुण्ड को देखिये, आप याद करने लगेंगे कि वो आख़िरी बार कब था जब आप दोस्तों के साथ यूँ ही किसी दिन सड़क पर निकल पड़े थे या वो कब था जब आप खुल कर कुछ यूँ हँसे थे कि आँखें गीली हो गयी थीं....सड़क पर या मिट्टी में लोटते उन नन्हे मुन्ने शावकों को देखिये आपको अपने बचपन के दिन याद आ जायेंगे जब खेलते हुए धूल मिट्टी में गिरना पड़ना आम बात होती थी या ज़िद में सड़क पर लेट जाना ब्लैकमेल करने का सबसे आसान तरीका.

ज़िन्दगी उम्मीदों का नाम है और उम्मीदें ज़िन्दा रखने के लिए मज़बूत हौसलों का होना बहुत ज़रूरी है....एक दिन यूँ ही जब आसमान बादलों से घिरा था और कमरे में बैठकर कॉफ़ी की चुस्कियां लेते हुए नज़र बाहर बालकनी में पड़ी तो कबूतरों का एक जोड़ा दिखा...बेहद प्यारा पक्षी होता है ये, जो इस शहर में बेइंतहा पाया जाता है....यहाँ सुबह अलार्म की आवाज़ से न होकर कबूतरों की गुटरगूं से होती है...मेरी बहन का घर ऊंची इमारतों वाली जिस सोसाइटी में हैं वहां अक्सर महिलाएं इसी कोफ़्त में बडबडाती दिख जाएँगी कि इन कबूतरों ने तो जीना दूभर कर दिया है...हर वक़्त शोर...खिड़की या दरवाज़ा खुला छोड़ दो तो अन्दर घुस आते हैं...बालकनी में फिर घोंसला बना दिया है वगैरह वगैरह....कबूतरों के साथ इनकी ऐसी नोकझोंक से दो बातें बहुत याद आती हैं...एक, हर किसी के बचपन में एक ऐसा बुज़ुर्ग (नानी, नाना, दादी, दादा या कोई और भी) ज़रूर होता था जिसे परेशान करना बच्चों का पसंदीदा शगल होता था. ये बुज़ुर्ग परिवार, मोहल्ले, गाँव, कहीं के भी हो सकते थे...बच्चों की शैतानियों से गुस्साए ये बुज़ुर्ग उनको डपटते, भगाते, उनके मां बाप से उनकी शिकायत करते या छड़ी लेकर उनको दौड़ाते कभी भी देखे जा सकते थे....पर किसी दिन अगर ये ही बच्चे उन्हें नहीं दिखते तो सबसे ज्यादा बेचैनी भी इनको ही हो जाती..या किसी दिन माता पिता बच्चों को डांट रहे होते तो बचाने भी सबसे पहले ये ही पहुँचते क्यूंकि डपटने का हक़ सिर्फ इनका ही होता था...एक अलग क़िस्म का रिश्ता होता था इन बुजुर्गों और बच्चों में....कुछ ऐसा ही रिश्ता है यहाँ मंडराते इन कबूतरों और इन महिलाओं में....दूसरी जो बात बहुत याद आती है वो है टॉम एंड जेरी कार्टून....बिलकुल वैसा ही युद्ध छिड़ा रहता है दोनों में...  
    
हाँ तो....बालकनी में दिखा कबूतरों का जोड़ा अपनी अपनी चोंच में तिनके दबाये....और उन गोल नारंगी चौकन्नी आँखों से इधर उधर टुकुर टुकुर देखते. कपड़ों का जुगाड़ करने के कार्यबोझ से पंछी अभी बचे हुए हैं पर भोजन  और मकान का सवाल इनके सामने भी होता है...तो आज ये जोड़ा अपने आशियाने की तलाश में निकला था और जगह जो उसे पसंद आई, वो थी दीदी की बालकनी में मोड़ कर खडी की हुई कालीन.....जो भी मापदंड होते होंगे एक अच्छे, सुरक्षित, हवादार आशियाने के, उनमें शायद ये जगह एकदम सही बैठी....बस तब फिर क्या तिनका तिनका जोड़कर घर तैयार करने की कवायद शुरू हो गयी.....पंख फैलाये उड़ान भरते हुए दोनों कभी नीम तो कभी अमलतास के  पेड़ पर पहुँच जाते और चोंच में दबा लाते अपने घर के लिए एक तिनका....मैं सोच रही थी कि  कितना अच्छा और आसान होता है इन पक्षियों के लिए....कोई लोन नहीं लेना, कोई ज़मीन नहीं खरीदनी बस ये तय करो कि कहाँ बनाना है घोंसला और शुरू हो जाओ...मेरी ये ग़लतफहमी को कुछ पलों में ही तगड़ा झटका लगा जब बडबडाती हुई मेरी बहन बालकनी में पहुंची.....”उफ़ इन कमबख्त़ कबूतरों ने तो हैरान कर दिया है....घर के बाकी काम क्या कम पड़ते हैं जो ये चले आते हैं काम बढ़ाने...एक तरफ सफाई कर करके दम निकला जाता है उस पर ये चले आते हैं घोंसला बनाने” और बस ये कहने के साथ ही वो आधा बना घोंसला धराशायी कर दिया गया....मैं उसकी परेशानी और गुस्सा समझ सकती थी पर फिर भी अफ़सोस हुआ जो तब और बढ़ गया जब चोंच में तिनका दबाये कबूतरों का वो जोड़ा बालकनी में पहुंचा और अपना घोंसला वहां न पाकर विस्मय से इधर उधर देखने लगा....उन्हें यूँ देखकर मुझे बहुत तकलीफ़ और मायूसी हुई....ऐसा लगा कि कितनी तकलीफ़ हो रही होगी इन दोनों को अपनी इतनी देर की मेहनत को ज़ाया होते देख कर...उनका उत्साह और हौसला टूटा होगा ....पर अब मेरी इस सोच को झटका देने का काम इन कबूतरों का था....पूरी दृढ़ता (जिसे मेरी बहन ढिठाई कहती है) से उन्होंने अपने तिनके दोबारा ठीक उसी जगह रखे....और उनका नन्हा आशियाना बनाने का सिलसिला फिर शुरू हो गया....अब ये खुली चुनौती थी और अब इस खेल में वास्तव में मज़ा आ रहा था....इधर घोंसला गिराया जाता और उधर अगला तिनका ठीक उसी जगह फिर पहुँच जाता...जैसे कहा जा रहा हो कि आप चाहे जो कर लें घर तो यहीं बनेगा...खुली दबंगई जैसा कुछ.....पर हाँ एक बात गौर देने वाली थी....याद करने की कोशिश करूँ तो बामुश्किल ऐसे चंद इंसानों को ही याद कर पाऊँगी जो अपने अन्दर ऐसी ज़िद, हिम्मत, हौसला और मज़बूत इरादे रखते हों...इंसानों को जीवन की चुनौतियाँ और हार इन जीवों की तुलना में जल्दी तोड़ती हैं या कमज़ोर तो कर ही देती हैं और अगर मसला किसी बुनियादी ज़रुरत से जुड़ा हो तो भावनाएं और भी जल्दी आहत होती हैं....मैं हैरान भी थी और बेहद प्रभावित भी...जो सबक मुझ तक पहुंचना था वो अब तक पहुँच चुका था...मैं मुस्कुराकर देख रही थी अपने इन नए जिद्दी बेख़ौफ़ दोस्तों को....6–7 बार तो गिराया ही जा चुका था पर उसी ऊर्जा से बदस्तूर जारी है सिलसिला बनाने का....एक घोंसला हौसलों का !!