बुधवार, 18 अप्रैल 2018

नफ़रतों का दौर और तिरंगे के बदलते मायने


एक अजीब अवसाद में हूँ...घुटन, हताशा, ग़ुस्सा या क्या कुछ कहा जाए...चारों तरफ़ से आने वाली नफ़रत और नकारात्मकता का एक उपाय ख़ुद को ख़बरों और सोशल मीडिया से अलग करना लगा था...बड़ी राहत भी रही...पर ख़बरें पहुँचती हैं क्यूंकि वो उन लोगों के, उस समाज के बारे में हैं जिसका हिस्सा मैं भी हूँ...उन ख़बरों में किसी न किसी रूप में मैं हूँ...मिलने वाली ख़बरें सिवाय इस अवसाद को बढ़ाने के कुछ नहीं करतीं...और आने वाली प्रतिक्रियाएं उम्मीदों को और धुंधला कर देती हैं....

हमारे बीच नफ़रत और हिंसा के हर रोज़ नए उदाहरण गढ़े जा रहे हैं...अमन, शान्ति, भाई - चारे, विविधता जैसी बातों का बुलबुला हर रोज़ ठीक वैसे फुला कर उड़ा दिया जा रहा है जैसे मेले में साबुन के घोल में सींक डुबोकर वो आदमी उड़ाता था...दहशत फैलाने, सबक सिखाने में समूह को मज़ा आ रहा है...वे तंत्र को अपनी मुट्ठी में समझते हैं...उन्होंने ये हिंसा इसी तंत्र की विचारधारा से सीखी है, वे जानते हैं कि उनके जुर्म को सही ठहराने वाले कम नहीं...आख़िर वे धर्म का काम कर रहे हैं...राम का नाम और दम तोड़ते तिरंगे का हाथ में होना इनकी बेगुनाही साबित करने को काफ़ी है...ये अलग बात है कि उस तिरंगे में इनकी श्रद्धा महज़ एक रंग के प्रति है...बाकी नफ़रतें ही नफ़रतें हैं...अख़लाक़, जुनैद हों या कि नन्ही आसिफ़ा... मेरठ, मुज़फ्फरनगर हों या कि बेचैन कश्मीर घाटी....क्या है इसकी जड़ में? नफ़रत...किसके प्रति? एक समुदाय विशेष के प्रति...क्यों? कहाँ से आपकी सोच में ये नफ़रत आई? बहुसंख्यक होने नाते? किसने सिखाया? मां बाप ने? परिवार ने? विद्यालय ने? किताबों ने? स्कूलों ने? नेता ने? सरकार ने? धर्म ने? राम ने, माँ दुर्गा ने या इन सबने मिलकर? किसने सिखाया नफ़रत करना...किसी धर्म या जाति से...इस क़दर कि किसी कि जान लेना कोई बड़ी बात न रहे...कि किसी को डर के साए में धकेलकर सुख मिले...कि बच्चियों, औरतों के बलात्कार दिल बहलाने के खेल हो जाएँ...कहाँ से सीखते हो? तिलक को टोपियों से नफ़रत करने की शिक्षा और उनके ख़िलाफ़ जानवर बन जाने का बल आख़िर मिला कहाँ से? हत्याओं और बलात्कार पर गुरूर से तिरंगा यात्रा निकालना कौन सी राष्ट्रभक्ति है...अपने भीतर के इंसान को मारकर आख़िर क्या हासिल करने चले हैं आप?

साम्प्रदायिक हिंसा, साम्प्रदायिक दंगे, साम्प्रदायिक हत्याएं और साम्प्रदायिक बलात्कार...कहीं कुछ रिकॉर्ड है आपके पास अपनी नफरतों का? कोई दस्तावेज़? कैसे होगा ये तो सरकार के पास भी नहीं...जब होता है तब भी वो आरोपियों को बरी करने के सिवा क्या ही कर पाती है...हमारे यहाँ बच्चे, महिला, बुज़ुर्ग, दलित सबके अधिकार सुनिश्चित करने के लिए कुछ न कुछ कानूनी व्यवस्था है...उनका क्रियान्वयन होना न होना अलग बात है...लेकिन अल्पसंख्यकों के लिए तो ऐसा कोई कानून नहीं...उनकी बराबरी और अधिकार संविधान की प्रस्तावना तक सीमित है जिसका राकेट बनाकर हवा में जब तब उड़ाया जाता है? मूलभूत अधिकार अब किसी कॉमेडी शो जैसे समझे जाएँ...याद कीजियेगा नफ़रतें तो घर घर में हैं...जब बर्तन अलग हो जाते हैं, छुआछूत माना जा रहा होता है, बच्चे के संगी साथी बदले जाते हैं...नींव वहीँ पड़ रही होती है...और हमारे इर्द गिर्द का हर व्यक्ति और संस्थान इसे बल दे रहा होता है ठीक वैसे जैसे पितृसत्ता अपनी जगह बनाती है. 

आसिफ़ा के साथ हुई घटना को पहले सम्पूर्णता में स्वीकारिये...वो बलात्कार है लेकिन उसकी जड़ में साम्प्रदायिकता है...वो एक विशेष समुदाय में दहशत भरने, उसे सबक सिखाने की मंशा से किया गया अपराध है...दलितों, आदिवासियों के साथ भी ऐसा ही होता है...ये दोहरे अपराध है. वो उन्मादी भीड़ हो, आपके बीच के नेता, परिवार वाले या रिश्तेदार, उन्हें पहचानिए जो सीधे या परोक्ष रूप से इन नफ़रतों, इन हिंसाओं के संरक्षक हैं...जो वकील भी हैं, पुलिस भी, मंत्री भी और डॉक्टर भी...ये सब जगह हैं...पूरे समाज में हैं, हर गली मोहल्ले में हैं क्यूंकि ये घर घर में हैं...मेरे और आपके भी...इसलिए मेहरबानी करें अब जब आसिफ़ा के लिए इंसाफ़ की बात करें तो पहले अपनी इस लम्बी बीमारी से बाहर आयें...एक बच्ची के साथ हुए अपराध ग़लत और एक समुदाय विशेष के प्रति नफ़रत जायज़ तो नहीं हो सकती...मेरे जानने में कुछ लोगों को बराबरी की बातें भी सही लगती हैं और आरएसएस-विहिप जैसी संस्थाएं भी...उनकी आस्था मानवाधिकारों में भी है और लक्ष्मी से पाँव दबवाते नारायण से लेकर मूंगा पुखराज में भी...उन्हें बच्चियों का पढ़ना, वंचित समूहों का आगे बढ़ना भी सही लगता है और रामायण महाभारत की कहानियां भी...वहाँ टैगोर भी रोचक हैं और चेतन भगत भी...स्त्री विमर्श भी ज़रूरी है और करवाचौथ तीज भी..इस घालमेल के साथ भला कौन सी दिशा में आगे बढ़ेंगे...निजी तौर पर ये सोच चाहे घर परिवार में हो या बाहर, सिवाय घुटन के और कुछ नहीं देती...
        
मेरे लिए ये पहले इसी नफ़रत का मुद्दा है...यही जड़ है...इसी से महिला हिंसा भी अपनी जगह बना रही है...पेज थ्री या फ़िल्म फ़ेयर और टीवी में साज़िशों के नित नए कीर्तिमान स्थापित करते अवास्तविक कार्यक्रमों से समय निकाल कर कुछ और भी देखें....राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट कहती है कि 2016 में बलात्कार की कुल 38947 घटनाएं हुई हैं...ध्यान दें ये सिर्फ़ वो संख्या है जो रजिस्टर हुई है...इस संख्या में 16863 मामले ऐसे हैं जिनमें पीड़िता की उम्र 18 वर्ष से कम थी...अभी रुकिए और सुनिए...इनमें 520 मामले ऐसे हैं जिनमें पीड़िता 6 वर्ष से भी कम उम्र की थी...आपके परिवार, रिश्तेदारी, अड़ोस पड़ोस में जो बच्चियां है...जी आपकी बेटी, भांजी, भतीजी या पड़ोसी की बिटिया...ठीक वैसी...क्या करूँ हम ऐसी लकवाग्रस्त कौम हो चुके हैं कि जब तक निजी न हों तब तक सोच भी नहीं पाते...जो लोग घर परिवार आस पड़ोस और रिश्तेदारी को सबसे महफ़ूज़ मानते हैं उनके लिए भी ख़बर है...बलात्कार के कुल मामलों में से 94.6% मामलों में अपराधी कोई जानने वाला ही था...इनमें पिता, दादा, चाचा, मामा, भाई, पड़ोसी, सहकर्मी जैसे सभी तथाकथित विश्वसनीय लोग शामिल हैं....रिपोर्ट में तमाम और भी बातें हैं...60 वर्ष की महिलाएं भी सुरक्षित नहीं उनके साथ भी बलात्कार हुए हैं...मामले बढ़े हैं और सज़ा की दर 29.4 से कम होकर 25.5 हो गयी है..

दो दिन की बच्ची क्लीनिक के टॉयलेट में फ्लश कर दी जाती है, स्कूल जाती बच्चियां लौटती नहीं, बसों में दबोच ली जाती हैं, शरीर पर दर्जनों चोटों के निशान मिलते हैं...आपसी रंजिश में अगवा कर ली जाती हैं, बलात्कार होता है, बार बार होता है, मार दी जाती हैं.....छेड़खानी, अपहरण.. ये देश के हर कोने में घट रहा है....मैं शरीफ़, आप शरीफ़, आपके इर्द गिर्द के लोग शरीफ़...तो आख़िर ये सब करने वाले कहाँ से आ रहे हैं और इन्हें बचाने वाले भी? ज़रा ख़ुद को देखते चलें....किस तरह के चुटकुलों और बातों पर हंसी आती है हमें, मज़ा आता है...किसी के टोकने पर हम उसे सेन्स ऑफ़ ह्यूमर सुधारने की सलाह देते हैं... साथी के कान में वो बात कहकर दोनों ताली बजाकर ठहाका लगाते हैं...ग़ुस्से में कौन सी गालियाँ निकलती हैं मुंह से...बल्कि अब तो इनका इस कदर फैशन है कि ये ग़ुस्से तक सीमित नहीं आम बोलचाल की भाषा में भी है...क्या शामिल है से लेकर हमारे ग़ुस्से से जुड़ी बातों में      

अपने इर्द गिर्द देखिये...बच्चों, युवाओं, परिवार वालों में पनपते संभावित अपराधी, दंगाई, हत्यारे, बलात्कारी, चोर को पहचानिए...उसे संभालिये...इसी रिपोर्ट में आगे पढने पर पता चलता है कि देश में हुए कुल अपराधों में 35849 अपराध करने वाले 18 वर्ष से कम उम्र के हैं...इन अपराधों में चोरी से लेकर बलात्कार और हत्याएं सभी शामिल हैं...उदाहरण के लिए 892 मामले हत्याओं और 1903 मामले बलात्कार के हैं...इन 44171 अपराधियों में अनपढ़ पढ़े लिखे सभी शामिल हैं...96% से अधिक अपने माता पिता या अभिभावक के साथ रहते हैं...इन्ही परिवारों में शामिल हैं वे पिता, भाई, दोस्त जो अपराधी बनाते हैं...ठीक वैसे जैसे आसिफ़ा के मामले में बनाया...बदला लेने के लिए, सबक सिखाने के लिए...इसके साथ ही अपराधी बनाने और उन्हें बढ़ावा देने का काम करते हैं संस्थान व तंत्र...सरकार, पुलिस, न्यायप्रणाली जो जब तब किसी न किसी के पास गिरवी हो जाती है...असहिष्णुता की ज़रूरत कहाँ है और वो दिखती कहाँ है...कानून के संरक्षकों की ज़िम्मेदारी क्या है और वे करते क्या हैं...सरकारें आती हैं नारों का झुनझुना थमाती हैं...आरोप प्रत्यारोप की राजनीतिक फुटबॉल खेलती हैं और कुछ दिनों में हम लोग सब भूल जाते हैं...या और घटना के इंतज़ार में बैठ जाते हैं...अपराधों की ऐसी फ़ेहरिस्त और ख़स्ताहाल सज़ा की दरें तब हैं जब हर सरकार कानून व्यवस्था और महिला सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्ध है...बलात्कार की घटनाओं का विरोध करिए लेकिन उसके साथ उन सभी वजहों और तंत्रों का भी जहाँ से ये घटनाएं बल पा रही हैं...हमेशा सेफ़र साइड में रहने का मोह अब छोड़ दीजिये...एडजस्ट और अफ़सोस करने के सिवाय अब क्या ही बचा है हमारे पास `                           

लेकिन ‘हम क्या हो गए हैं और क्या होते जा रहे हैं?’ ये सवाल अब सिर्फ़ उन तक सीमित नहीं जो अपराधी हैं, नफ़रत की राजनीति करते हैं...ये सवाल अब उन सबके लिए, हमारे लिए भी है जो इनके ख़िलाफ़ हैं...क्यूंकि अब ये इवेंट मैनेजमेंट की तरह घट रहा है...मैं इस समाज का हिस्सा होने के नाते घिरी हूँ...तमाम लोगों से, शक्लों से, दिमाग़ों और व्यवहारों से, अपराधियों और पीड़ितों से, नेता और जनता से, मीडिया वालों और इंसाफ़ के झंडाबरदारों से भी...मैं देखती हूँ फूटते ग़ुस्से को, युवाओं में उबाल और भाषणों में बेक़ाबू होती ज़ुबान को...सड़क पर उतरते लोगों को और उनमें अधिकतर के प्रति अपना प्रचार पाने की भूख को...नारों और आसिफ़ा की तस्वीरों का पोस्टर हाथ में लिए मुस्कुराकर तस्वीरे खिंचवाते लोग जाने कैसी ज़हनियत वाले हैं...उन्ही मुद्दों पर किसी के विरोध का बहिष्कार करने वाले जाने कितने समर्पित हैं...मैं उन तमाम लोगों से घिरी हूँ जो मानवाधिकार की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले हैं...लेकिन उनके निजी मतभेदों या आपसी प्रतिस्पर्धा ने उनके भीतर द्वेष, असुरक्षा, ईर्ष्या को कूट कूटकर भर दिया है...कैसे मानूं कि इन के आगे मुद्दों के कोई मायने भी हैं...ये दूसरों की कोशिशों को निष्क्रिय कर देने की हद तक जाते हैं...यहाँ एक अलग नफ़रत जगह बना रही है...कोशिशें हैं छपने की, दिखने की, निजी हित साधने की...इस बहाने अगर कुछ हो गया तो अच्छा ही है लपक कर उसका श्रेय ले ही लिया जाएगा...दिखावटी विचार और वास्तविक व्यवहार के फ़र्क, हर किसी को नीचा दिखाने की आदतें...सर्वहारा को समर्पित समूहों में भी कूट कूटकर भरा स्वार्थ व बड़प्पन किस तरह बदलाव लाएगा, ये आन्दोलन कितने सार्थक होंगे, मैं नहीं देख पाती...एक्टिविस्ट दिखना भी एक तरह का फैशन हो चला है और हर किसी की नज़र में वो असली व दूसरा नकली एक्टिविस्ट है...दूसरे का मजाक उड़ाना आम बात है क्योंकि सही सिर्फ़ वो है जो आप कर रहे हैं बाकी सब बेकार...मैं जानती हूँ कि सब ऐसे नहीं...कुछ चुनिन्दा लोगों की वजह से ही अब भी सांस ली जा पा रही है...लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत बहुत कम है...मैं हताश हूँ, निराश हूँ अवसाद में हूँ....क्योंकि बदलाव के रास्तों को ब्लॉक करने का काम हमारे ये व्यवहार भी कर रहे हैं...सँभालने की बड़ी ज़रूरत क्या इधर नहीं...इस दौर में धराशायी होती इंसानियत और समाज का हिस्सा हम सब हैं.