रविवार, 11 फ़रवरी 2018

तुम सबकी आभा है मुझमें...


मुझे याद भी नहीं कि कबसे सुनती आ रही हूँ कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है...ज़ालिम सास और बेचारी बहू की कहानियाँ या इसी का उल्टा भी...औरतों में एक दूसरे के प्रति द्वेष भाव होता है, जलन होती है, वे दूसरी औरत को ख़ुश, सुंदर या आगे बढ़ते हुए नहीं देख सकतीं...ये और न जाने क्या क्या...ये कहने वाले पुरुष भी रहे हैं और औरतें भी...पर जाने क्यों मेरे अनुभव ऐसे नहीं रहे...रही इन भावों की बात तो वो तो अलग अलग लोगों पर है इनमें पुरुष भी हो सकते हैं और महिला भी...कोई नासमझ ही होगा जो कहेगा कि पुरुषों में द्वेष या जलन नहीं...परिवारों में उठते कुछ भावों की तमाम वजहें हैं...किसी की दुनिया यदि किसी मर्द के इर्द गिर्द ही बुनी जायेगी तो इसके नतीजे कई तरह से देखने को मिलेंगे ही...ये किसी के औरत होने की वजह से नहीं   
पहले कभी सोचा नहीं पर अब सोचती हूँ तो लगता है मैं तो अपने इर्द गिर्द स्त्रियों से ही घिरी हूँ...जो सहजता, स्नेह, मदद साथ या डाँट मुझे उनसे मिली वो कहीं और नहीं...खुल कर तारीफ़ करना, सलाह देना और ग़लत होने पर टोक भी देना...मुझे नहीं समझ आता कि सालों साल सुनायी जाने वाली कहानियों की वो कौन सी महिलाएं होती हैं...मुझे तो इनका साथ एक बेहतर इन्सान और स्त्री बनाता है...कितनी सहज होती हूँ मैं इनके साथ जैसी पुरुष मित्रों के साथ कभी नहीं होती...उनमें कोई कमी हो ऐसा नहीं लेकिन फिर भी...इन सहेलियों के होने से जीवन सार्थक सा लगने लगता है..और यहाँ दोस्ती में किसी तरह के नियम व शर्तें हैं ही नहीं...फ़ेसबुक पर हुई दोस्ती में ऐसी आत्मीयता होना सोचा ही नहीं जा सकता...मैं और सुदीप्ति जो कभी मिले ही नहीं...अभी कुछ वक़्त पहले ही फ़ोन पर बात हुई वरना फ़ेसबुक ही कड़ी रहा हमारे बीच...उनसे ऐसी आत्मीयता है मानों सालों पुरानी सहेलियां हों...मैं अपनी महिला मित्रों के साथ जैसी उन्मुक्त हो जाती हूँ कहीं और नहीं हो पाती...यहाँ स्त्रीत्व का उत्सव है.   

आजकल जेब में पैसों की जगह वक़्त और दिमाग में शोर की जगह सुकून ने ले रखी है...तो इधर उधर देख, सुन, समझ और पहचान पाती हूँ...और तभी ये भी याद करती हूँ कि आसपास कितनी ही लड़कियां और महिलाएं हैं जो अपने अपने तरीके से अपने अपने समय में इस व्यवस्था को मुँह चिढ़ाती रही हैं...कई बार ख़ुद इस बात से बेख़बर कि उन्होंने कितनी मारक चोट दे दी....मैं उन सब को याद करने की कोशिश करती हूँ...मैम, जया आंटी, मानसी, तसनीम, सोना या अब जैसे उस दिन सुजाता (बदला हुआ नाम) मैम से ही मुलाक़ात हुई...85 वर्षीय महिला...ऊर्जा से भरी हुई...संयोग से मुझे उनके साथ थोड़ा अधिक वक़्त बिताने का मौका मिल गया, तो उनकी भी कहानी पता चली...यूँ भी कहानियां – प्रेम कहानियां सुनने में मेरा बड़ा मन लगता है...

तो....सुजाता जी ने अपनी दर्शनशास्त्र पढ़ाई कोलकाता के एक नामी कॉलेज से की...उसके बाद आगे की पढ़ाई और शोध के लिए वे लंदन चली गयींपीएचडी पूरी करने के बाद वतन लौटीं तो लखनऊ विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग में नौकरी मिल गयी....उनके लंदन प्रवास के दौरान जॉन (बदला हुआ नाम) से उनकी दोस्ती लौटने के महज़ छः महीने पहले ही हुई थी...हॉस्टल में आते जाते मुलाक़ात हो जाती...जॉन वहां ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहे थे....सुजाता जी के यहाँ आने के बाद पत्र व्यवहार होने लगा और फिर एक पत्र में जॉन ने अपने हिन्दुस्तान आने के बारे में लिखा और कहा कि ‘मुझे लगता है कि आपको मेरे साथ ही यहाँ आ जाना चाहिए’...कोई रूमानी बातें या डायलॉग नहीं...सब सांकेतिक लेकिन स्पष्ट...इससे पहले कभी सुजाता जी ने जॉन के लिए ऐसा महसूस नहीं किया था...और अब भी जो था वो शायद प्रेम नहीं लेकिन एक बेहद कोमल भाव ज़रूर था...“प्रेम तो मुझे शादी के बाद हुआ” उन्होंने खिलखिलाकर बताया...सुजाता से उम्र में 16 वर्ष छोटे जॉन भारत आये...परिवार तो कोलकाता में ही था जो इस विवाह की अनुमति शायद ही देता... साथियों के सहयोग से लखनऊ में ही शादी हुई...यंग वीमेन क्रिस्चियन एसोसिएशन के हॉस्टल में उन्होंने मुझे उत्साह से वो कमरा भी दिखाया जहाँ उनकी शादी हुई और वो भी जो वहां उनका निजी कमरा हुआ करता था...शादी के कुछ वक़्त बाद वे लंदन चली गयीं और दूसरी नौकरी शुरू की...जॉन ने पढ़ाई पूरी की और अकादमिक क्षेत्र में बेहद सफल रहे... “मैंने एक बड़ा रिस्क लिया पर वो तो जीवन में किसी भी तरह होना ही था” वे कहती हैं....मैं विस्मित थी क्यूंकि इन दिनों प्रेम, भावनाओं और ऐसे साथ को व्यवहार में न होकर सिर्फ़ बातों में देखकर मन खिन्न था...मुझे उनकी कहानी परिकथा सी लग रही थी जिसे मैं बड़े चाव से सुनती जा रही थी...70 का दशक, पढ़ाई में बेहद आगे बढ़ना, विदेश हो आना, ख़ुद से 16 वर्ष छोटे व्यक्ति से प्रेम करना और साथ चल देना, उसे उसकी उस वक़्त की ज़रूरतों और प्राथमिकताओं पर पूरा सहयोग दे देना और इस बेहद खूबसूरत साथ के साथ ज़िन्दगी बिताना...ये वैसा था जैसे प्रेम की कल्पना करती थी.      
    
अब संबंधों को आमतौर पर टूटते बिखरते देखती हूँ...मेरे पास सुजाता जी के सवाल का कोई सीधा जवाब ही नहीं था जब उन्होंने मुझसे मेरे प्रेम संबंधों के बारे में पूछा...कि क्या मुझे कभी प्रेम नहीं हुआ?

मैं गर ईमानदारी से ख़ुद की बात करूँ तो प्रेम की धारणा या ख़याल पर तो मुझे शिद्दत से यकीन है, मैं इसका पुरजोर समर्थन करती हूँ और मानती हूँ कि धर्म, जाति, उम्र, शक्ल सूरत, रंग जैसी समाज द्वारा बनायी गयी तमाम सीमाओं को तोड़कर प्रेम हो तो दुनिया की तमाम मुश्किलें आसान हो जाएँ...लेकिन ये मेरे विचार हैं...इनमें और मेरे व्यवहार में अंतर है...मेरे इर्द गिर्द का माहौल मुझे विश्वास करने की हिम्मत नहीं देता...उसकी एक बड़ी वजह ये भी हो सकती है कि विश्वास न करने से कम से कम छले जाने का डर तो नहीं...प्रेम के तमाम चेहरे जो मुख़ातिब हुए उनसे कम से कम विचार पर अपना यकीन बचा सकी, लगता है वही बहुत है...ये आदर्श स्थिति नहीं पर इसका अभी कोई हल भी नहीं...खैर आगे बढ़ते हैं..

मुझे अपनी रूपरेखा मैम से कभी डर नहीं लगा...नहीं ऐसा भी नहीं, जिन दिनों पढ़ रही थी तब थोड़ा लगता था वो भी शायद इसलिए कि सबने माहौल वैसा बना रखा था...बाद में तो वो मेरे लिए एक दोस्त सी होती गयीं...ये अलग बात है कि आज तक शायद ही कोई हो जिसने ये न कहा हो कि उसे मैम से बहुत डर नहीं लगता...मुझे इसकी वजह कभी समझ नहीं आई...उनकी इज़्ज़त, बड़े होने के नाते एहतराम अपनी जगह पर डर? ये तो वो कभी भी न चाहें...जब भी कभी किसी उलझन में फँस जाऊं तो जैसे अपनी सहेलियों से बात कहती हूँ वैसे ही उनसे पूछ लूं, उनसे कहूँ कि रास्ता दिखायें...और ये भी तय है कि ऐसे दोराहे पर जिधर चलने की सलाह वो दे दें उस पर विश्वास से बढ़ जाऊं...एक परम्परागत हिन्दू ब्राह्मण परिवार से आने वाली मैं, आज कुछ भी वैचारिक समझ बना सकी हूँ या उसे काम में बदल सकी हूँ तो सिर्फ़ उनकी वजह से...साझी दुनिया मेरा वैचारिक घर...उस दिन एक मित्र ने जब कहा कि अच्छा अपनी ‘सेकंड मदर’ के पास गयी हो तो लगा कि हाँ बात तो बिल्कुल सच ही है.

मुझे उनकी निजी ज़िन्दगी के बारे में ज़्यादा पता नहीं...हालाँकि ये ख्वाहिश हमेशा रही की उनकी यात्रा, उनके संघर्ष जानूँ...लेकिन साथ बैठने पर बातों बातों में जो भी पता चलता तो मैं हैरान हो जाती...मैनपुरी जैसे एक छोटे से ज़िले से लखनऊ होते हुए ऑक्सफ़ोर्ड हो आना...उस वक़्त की शायद सबसे कम उम्र की महिला विभागाध्यक्ष हो जाना..वाइस चांसलर हो जाना....बला का अनुशासन, जानकारी, ज्ञान, मज़बूती और इतनी ही सरलता सहजता...समय की पाबन्द ऐसी कि आप उनके आने जाने से आप घड़ी मिला लें...मुद्दों के प्रति उनकी लगन कैसी मज़बूत रही होगी कि लोगों के भरसक विरोध, षड्यंत्रों के बावजूद वे टिकी रहीं...अकेले...कट्टरपंथी ताकतें जब एक होकर किसी के विरोध में आती हैं तो सामने वाले को तोड़ने का कोई मौका नहीं छोड़तीं...कितना मुश्किल है ये सब...पर वे न सिर्फ़ तब बल्कि अब भी उसी ईमानदारी और साफ़गोई से मुद्दों पर मुखर रहीं...इस उम्र में भी ऐसी सक्रियता...कैसा लगता है न कि कैसी ऊंची हस्ती हैं...हैं ही...पर सरलता ऐसी कि जब तब हम उनसे कैसा भी मज़ाक कर लें, छेड़ लें, पढ़ लें, समझ बना लें और जब मुश्किल हो तो अपनी बात भी साझा कर लें...सवाल पूछना ग़लत नहीं बल्कि एक ज़िन्दा दिमाग़ होने की निशानी है, ये कभी न जान पाती अगर उनके संपर्क में न आती..
          
कभी जड़ सा हो जाना और आस पास देखते रहना....अक्सर ही होता है मेरे साथ...बालकनी में खड़ी मोहल्ले में आते जाते लोगों, फेरीवालों, धूप सेंकती, स्वेटर बुनती, बच्चों को डांटती महिलाओं को....या कभी दफ़्तर की खिड़की से स्थिर हो बाहर दुनिया की रफ़्तार देखना...बुध बाज़ार में उमड़ी भीड़...पूरी सड़क पर, तख़्त, बल्लियों के ढांचों पर जैकेट, स्वेटर, जूते, चप्पल, बर्तन, सजावट का सामान...ज़ोर जोर से उठती दुकानदारों की आवाज़ें खरीददारों की उमड़ती भीड़, मोल भाव की चिक चिक....गाड़ियों की चिल पों...या फिर रुकने के सिग्नल पर उन बसों, ऑटो, रिक्शों में बैठे लोगों के चेहरों के पीछे झांकना....एक हलचल, आवाज़, कहानी, बेचैनी, ग़ुस्सा, शिकायतें या कितनी ही दफ़ा एक अजीब सा शोरजाने क्या कुछ पहुँचता रहता है इन जाने अनजाने चेहरों के पार से मुझ तक...कभी कभी एक अजीब उदासी ही उधर से इधर आ जाती और कुछ देर उलझन दे जाती...मैं लौट पड़ती हूँ कहानियों की तरफ़.. 
       
जया आंटी से पहली बार मिलने का मौका दुर्भाग्यवश बहुत दुखद था....सुबह ही मलय का एसएमएस आया कि अंकल नहीं रहे...वे काफ़ी समय से बीमार चल रहे थे....मैं दोपहर तक मांसी के घर पहुंची...पुराने लखनऊ के इलाके में पुराने ज़माने के मकान का वो एक बड़ा सा कमरा...आंटी के पास बैठी...बातचीत होती रही...वे बिल्कुल सहज थीं, आराम से बातचीत कर रही थीं, हंस बोल रही थीं...मुझे ये देख बड़ी तसल्ली भी हुई और ईमानदारी से कहूं तो आश्चर्य भी...हमारे यहां के समाज और परिवारों में ये आम नहीं है...उनके यहाँ भी नहीं ही था...घर की बड़ी बूढ़ी औरतें इस बात पर नाखुश थीं कि आंटी दहाड़े मार मार कर रो क्यूँ नहीं रहीं...पर उन्होंने कहा “हम क्यों रोये बेटा...इतने समय से अस्पताल में जाने कितनी दफ़ा और कितना रो चुके...किसी को दिखाने के लिए नाटक क्या करना”...उनकी बात बिल्कुल सही थी भी...वे, मांसी, नानी और मैं इधर उधर की तमाम हल्की फुलकी बातें करते रहे...मेरे लिए ये एकदम नया अनुभव था...आंटी से उसके बाद कई बार मुलाकात हुई और उनकी तमाम सारी बातें मुझे प्रभावित करती रहीं...

उत्तर भारतीय या पूरे मुल्क में ही पत्नियों के जीवन में रंग और खुशियों का वजूद पति के होने या न होने पर ही निर्भर करता है....न होने पर अधिकाँश मामलों में सामाजिक यातनाएं अंतहीन हो चलती हैं...उनका ख़ुश होना, अच्छे समारोह या आयोजन में शामिल होना, हँसना बोलना, घूमना फिरना, रंगों से दोस्ती सब बेमेल की बातें हो जाती हैं...पर आंटी के साथ मैं इन सारे बेढब नियमों की व्यवस्था को ध्वस्त होते देखती थी...उनमें वो एक युवा लड़की सा उत्साह, ज़िन्दगी के हर पल से मुहब्बत, शौक –पढ़ना, घूमना, सहेलियों के साथ मिल बैठना, कला आदि आदि...वे बाकी लोगों की तरह ज़िन्दगी के प्रति नाशुक्री नहीं थीं....उत्साह, प्रेम, रचनात्मकता, उम्मीदों और तमाम संभावनाओं से भरीं...साहित्य और सम सामयिक घटनाओं, सामाजिक मुद्दों पर चर्चाएँ करतीं...उत्साह से अपने लड़कपन की बातें करतीं...साथ ठहाके लगाकर हंसतीं...उनके साथ होने पर किसी हमउम्र के साथ होने का आभास होता बल्कि कई बार ऐसा लगता कि हम और मांसी उनके मुकाबले दिमागी तौर पर थके, बुज़ुर्ग और नीरस हैं...ज़िन्दगी से ऐसी मुहब्बत और बेफ़िक्र हो हर पल को जी भर जीने का ऐसा चाव मैंने उनमें ही देखा...

जब तब मांसी उनके किस्से सुनाया करती और सुखद आश्चर्य से मैं सुना करती और भीतर तक ख़ुश हो जाया करती...जाने उन्हें ख़ुद भी पता है या नहीं कि जो कुछ भी वो इस तरह सहजता से करती जातीं हैं वो एक नज़ीर है...उसका असर बाकियों को न सिर्फ़ प्रभावित करता है बल्कि उनके लिए रास्ते बनाता है...उनका मस्त मौला, ज़िंदादिल, खुशमिज़ाज़ अंदाज़ लड़कियों को अपनी मर्ज़ी से सीखने की झलक देता...वो मर्ज़ी जिसको नज़रंदाज़ या त्याग देने को हमारी परवरिश का हिस्सा बनाया जाता...कुछ यूं कि मेरे इर्द गिर्द के लोगों, परिवार, मोहल्ले, संस्थाओं की मर्ज़ी को अपनी मर्ज़ी बनाना ही एक ‘अच्छी लड़की’ का लक्षण हो जाता..पर इससे इतर यहां हरदोई ज़िले में पली बढ़ी एक औरत हमें ये बता रही थी कि जो सबसे ऊपर है वो मेरी मर्ज़ी, मेरा नज़रिया  मेरा अंदाज़ और मेरा मिज़ाज़ है क्योंकि ये मेरी ज़िन्दगी है..

ऐसा भी होता है न कि दो मुख्तलिफ़ शख्स भी अपने अपने अंदाज़ में बढ़ एक ही दिशा में रहे होते हैं, उन्हें ये पता भी नहीं होता ...एक नए ढांचे को गढ़ने के लिए एक माहौल भी होता है, एक इच्छा और तमाम अन्य वजहें जो मिलकर एक शख्सियत को गढ़ रही होती हैं...ठीक भी है सबकी इच्छाओं की दुनिया अलग अलग हो सकती है.

मांसी एक अद्भुत शख्सियत की लड़की है....बेहद मज़बूत...और ये मज़बूत होना कठोर होना कतई नहीं...बेहद समझदार, ज़िम्मेदार, जानकार, संजीदा, समर्पित पर उतनी ही खिलंदड़, ख़ुशमिजाज़, ज़िंदादिल और भावुक भी...अपनी कोई निजी बात पर बात करनी हो या काम से जुड़ी...वही समझदारी और व्यवहार एक अजब नेतृत्वक्षमता से भरा...बल्कि व्यवहार में ऐसा संतुलन जो कई बार हैरान कर दे...कभी अपने चुटकुलों से महफ़िल को ठहाकों से भर दे तो कभी काम से जुड़ी बातों पर राय रखे तो बिना मुत्तासिर हुए न रहा जाये...बला की मेहनती, निर्भीक और रौनक से भरी...कभी किसी चटख खिले फूल सी तो कभी पत्थरों से लड़कर पूरे शोर से आगे बढ़ती पहाड़ी नदी सी... ऐसी कामकाजी लड़कियों को देखकर एक अजीब तसल्ली और सुकून होता है कि तस्वीर बदल भी रही है...उम्मीद बंधती है...ये कामयाबियां जब संघर्ष के रास्ते पहुंची हों तो वो और भी कीमती हो जाती हैं...ख़ासतौर पर जब कामयाबी के रास्ते पर बढ़ते हुए इंसान ज़मीन का साथ न छोड़े...ऐसे में इंसानी गुण बने रहते हैं...उनका हल्ला न होकर उनका बने रहना ही तो ज़रूरी भी है...
      
अपनी निजी या बाहरी ज़िन्दगी में भी अक्सर बोझल सा महसूस करने लगती हूँ... प्रेम, सम्मान, स्पेस या अन्य मानवीय भावनात्मक गुणों को इर्द गिर्द नदारद पाती हूँ...रिश्तों को टूटते बिखरते देखती हूँ...धोखा, झूठ, चालाकियां, दोगलापन इस क़दर हावी होता है कि एक अजीब झुंझलाहट, एक कोफ़्त मन में भर जाती है...हर तरफ़ से मन उचटने लगता है...नकारात्मकता जब आती है तो पूरे ज़ोर से आती है...वो ज़िन्दगी की किताब का हर एक पन्ना खोल देती है और आपका ध्यान ख़ासतौर से हर उस जगह खींचती है जो तकलीफ़देह थे...अगर ये लगे कि हालात तब से अब तक लगभग जस के तस बने हैं तो धक्का महसूस होता है...समझ नहीं आता कि हम बढ़ रहे हैं या पिछड़ रहे हैं...बढ़ रहे हैं तो किस तरफ़...उलझनें दुश्वारियां जो ज़िन्दगी में ख़ुद नहीं आतीं बल्कि लोग लाते हैं....हर चेहरे की कहानियां जानने की शौक़ीन मैं, कई दफ़ा उन संघर्षों को जान जानकर परेशान भी हो उठती हूँ कि ख़त्म होना तो दूर की बात है ये सब कभी कम भी होगा या नहीं...ऐसे में ख़ुद को समेट लेने के अलावा कुछ और विकल्प नहीं रहते...हाँ ये सही तरीका नहीं लें फिर भी उस वक़्त तो दिल दिमाग़ को ज़रा सुकून मिलता ही है...अपने एक घरौंदे में सिमट कर बाहरी दुनिया से वास्ता ही तोड़ लें कुछ दिनों....इन स्थितियों में आस पास ऐसे लोग होना तपती ज़मीन पर ठंडी फुहार सा होता है...मेरे इर्द गिर्द हर उम्र वर्ग की ऐसी महिलाएं हैं ये बड़ी तसल्ली की बात है जो मुझे हौसला और उम्मीद देती रहती है...यहाँ ये अंदाज़ा न लगाया जाए कि पुरुषों के संघर्षों को नज़रंदाज़ किया जा रहा है लेकिन कई बार जो ऊर्जा इन महिलाओं से मिल रही होती है वो अलग है...इनके बारे में बताया जाना इसलिए भी ज़रूरी है कि अव्वल तो ख़ुद में हिम्मत बनी रहे और दूसरों तक भी ये बात पहुंचे कि मेरे बगल बैठी आम सी दिखने वाली बच्ची/ महिला/ बुज़ुर्ग कितनी असाधारण हैं...और उतने ही ख़ास हम सब हैं बस कोशिशें जारी रखें..

तसनीम को पिछले लगभग 9-10 सालों से देख रही हूँ...मेकओवर या ग्रूमिंग का बेहतरीन उदाहरण है ये लड़की....एक मध्यमवर्गीय पारंपरिक मुस्लिम परिवार से आने वाली साधारण ग्रेजुएट लड़की...मुद्दों से अनभिज्ञ लेकिन चीज़ों को समझने, ख़ुद को और अपने आसपास के माहौल को बदलने की उसकी कोशिशों ने तस्वीर ही बदल दी...परिवार से और उससे भी ज़्यादा ख़ुद से होने वाले टकराव सबसे मुश्किल होते हैं....20-22 साल एक तरह की परवरिश पाने के बाद उन तमाम मान्यताओं, रीति रिवाजों, आदतों, चलन, व्यवहार को बदलना बेहद मुश्किल होता है क्यूंकि आपको पीछे खींचने का काम सिर्फ़ परिवार, रिश्तेदार या समाज नहीं कर रहे होते बल्कि ख़ुद आपके भीतर बैठे हुए यकीन और आस्था भी कर रहे होते हैं...इस उम्र तक वो हमारी शख्सियत का हिस्सा हो चुके होते हैं...मैं ख़ुद इन टकरावों के बीच कितनी ही बार उलझी रहती हूँ....तो इस लड़की ने उस उम्र में समाज के प्रतिकूल माहौल में न सिर्फ़ ख़ुद को बदला बल्कि अपने परिवार में भी तमाम तब्दीलियाँ लायी...बिना किसी ग्लानि के बने बनाए नियम, स्टीरियोटाइप तोड़ना हो, मन का करना, पहनना - ओढ़ना, घूमना फिरना या फिर प्रेम करना और साल दर साल उस रिश्ते के साथ बढ़ते जाना...न सिर्फ़ ख़ुद आगे बढ़ना बल्कि घरवालों का हाथ थाम उन्हें भी वैचारिक स्तर पर आगे बढ़ाना...साथी का सहयोग और ईमानदारी बेहद ज़रूरी होती है, जो उसे लगातार मिली....अभी पिछले दिनों उसकी शादी देखना एक अलग किस्म की ख़ुशी महसूस करना था...कि आज जो लड़की सामने है वो कितनी मज़बूत, सुलझी और तरक्कीपसंद है...ख़ुद से मिलने वालों पर एक सकारात्मक असर ही डालेगी... और इन तमाम सारी बातों में हक़ीक़त में जो एक बात होती है वो ये कि लड़की के कामकाजी होने, बाहर की दुनिया देखने से घर और समाज के रवैये में बड़ा अंतर आता है...जिसकी एक वजह ये भी है कि नौकरीपेशा या कमाऊ लड़कियां एक अलग किस्म के आत्मविश्वास से भरने लगती हैं..

वैसे हैरान करने का काम 20-25 साल की लड़की ही करे ऐसा नहीं...इस काम में तो मेरी सोना भी कम नहीं...सोना, 15 साल की मेरी भांजी...इस उम्र में ज़िम्मेदारी का ऐसा अहसास और लगन होना बमुश्किल देखने को मिलता है...चंचलता से भरी ये नाज़ुक उम्र आमतौर पर किशोरियों को भटकाने लगती है....तरह तरह के सवाल, जिज्ञासाएं और इच्छाएं जिन्हें संभालने और सही रास्ते पर लेकर चलने की हमारे समाज में कोई ख़ास व्यवस्था नहीं...माता पिता और बच्चों के बीच के संवादों में ऐसे ज़िक्र और चर्चाएँ उतनी नहीं (हालांकि अपने समय को देखती हूँ तो लगता है हमारे समय में तो संवाद शून्य ही था, आज कम से कम बच्चे मुखर हैं)...ऐसे में इस बच्ची की अपने काम, पढ़ाई और जानकारी इकठ्ठा करने के शौक के प्रति लगन, छोटे भाई को साथ लेकर चलने और मां की सहेली बने रहने का ज़िम्मेदारी भरा अहसास हैरान करेगा ही...आठवीं में प्रतियोगिता में जब बच्चे अपनी किसी किताब से हल्की फुलकी कविता पढ़ रहे थे तब सोना टैगोर की ‘Where the mind is without fear’ सुनाकर आई...उसकी अध्यापिका ने हैरानी से पूछा कि क्या वो इस कविता का अर्थ समझती है तो सोना उन्हें अर्थ भी समझा आई...कविता लिखने चली तो उसके ज़ेहन में एक भूखे ज़रूरतमंद बच्चे का ख़याल था और अपनी कविता में ज़रुरतमंदों के लिए लोगों से अपील...रास्ते में एक बुज़ुर्ग भिखारी को 10 की जगह 20 रूपए देते हुए बोली कि बाबा इससे खाना ही खाना अच्छा.. कुछ पीने मत बैठ जाना...अपने यहाँ के भाषण प्रतियोगिता के लिए ‘देश में लैंगिक असामनता’ विषय को चुना व बहुत अच्छे से पेश किया... इस संवेदनशीलता के साथ ही वो मजबूती और आत्मविश्वास भी कि अपनी मदद और अपने मामले सबसे पहले ख़ुद ही सुलझा ले... ऐसी सोना जब ये कह देती है कि मौसी मैं आप सी हूँ या मुझे आप सा बनना है तो बड़ा दबाव महसूस होता है...इस उम्र में मैं एकदम उलट व्यवहार की थी...बल्कि आज भी उस सी मज़बूत नहीं... उसका ऐसा होना कितनी तसल्ली देता है कि हमारे इर्द गिर्द अगली पीढ़ी की सब नहीं भी तो कई बच्चियां जानकारी, संवेदनशीलता, ज़िम्मेदारी, और आत्मविश्वास से भरी हुई भी हैं...जिन्हें मेहनत करने, धूप में तपने से कोई गुरेज़ नहीं....इनको देखकर लगता है इतना घबराने की भी ज़रूरत नहीं...

जानती हूँ चीज़ें बेहद नकारात्मक हैं....हर पल तोड़कर रख देने को भरमार में इंतज़ाम है...हर पल एक नया संघर्ष है...विश्वास के अपने मसले हैं...लेकिन उन सब बंजर ज़मीन सी मुश्किलों पर ये सभी लड़कियां और महिलाएं मुहब्बत और बदलाव के खिलते फूल हैं...सदियों से होने वाले संघर्ष ज़ाया नहीं जा रहे, हाँ कुछ अलग सी चुनौतियाँ आने लगी है...पर इन्हें देख हिम्मत बंधती है कि उनसे भी निपट ही लिया जाएगा...और फिर एकल अभिभावक होने के मसले हों या रिश्तों और बाहर की दुनिया में आती मुश्किलें, इन पक्षों पर भी बेफ़िक्र होकर आगे बढ़ ही लिया जाएगा...जानती हूँ सही और ईमानदार पुरुष और अन्य साथियों बिना ये संभव नहीं...पर ये कुछ ज्यादा ही निजी सा था, जो याद आ रहा था वो ख़ुशगवार नहीं और मनः स्थिति भी फ़र्क तो आज उस पक्ष पर बात करने का दिल नहीं....आज बस अपनी सहेलियों को याद कर ख़ुश होने का मन था...    


(शीर्षक: नागार्जुन जी की एक कविता से प्रेरित)

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

माँ आदरणीय पर कौन सी माँ ?

उस रोज़ सुबह 7 बजे आँख अन्नू के फ़ोन से खुली.... “बेन ये बताओ घी कैसे बनता है?” मेरा उनींदा दिमाग़ इस सवाल के लिए तैयार नहीं था...मैंने अलसाते हुए पूछा “मिक्सर है?”...उधर से पूरे आत्मविश्वास से आवाज़ आई “नहीं”..“मथनी है?”....नहीं...चम्मच है उससे काम चलेगा?”...मेरे जवाब का इंतज़ार किये बिना उसने सहायिका को आवाज़ देकर कहा “दीदी चम्मच से ही कर दीजिये, हो जाएगा”....इसके बाद भी मुझे कुछ बोलने का मौका दिए बिना उसने अपनी बात जारी रखते हुए उदास लहजे में जो अगली बात कही वो और भी अधिक अप्रत्याशित थी..नींद से भरे अलसाए दिल, दिमाग़ और शरीर के लिए ज़्यादा ही भारी...“बेन मेरा सपना पूरा नहीं होगा क्या? मेरे ढेर सारे बच्चे कैसे होंगे? साला...शादी नहीं होगी तो क्या हम मां नहीं बनेंगे...हम कह रहे हैं सादिया से चलो 3-4 सहेलियां मिलकर सिंगल मदर बनते हैं...बच्चे पैदा करेंगे...तुम सब ख़बरों में आ जाओगी...कोई कुछ कहेगा या विरोध होगा तो वो भी ख़बर और एक बड़ा सवाल....और हमें तो साला किसकी इतनी हिम्मत कि कोई कुछ कहे...बताओ क्या कहती हो सही आईडिया है न?”...मेरी नींद उड़ाने का भला इससे ज़ालिम तरीका क्या हो सकता था....चाय की तलब हो गयी पर अभी बातें पूरी नहीं हुई थीं...पुराने संबंधों पर बातें और उन लड़कों को गरियाने से दिन की शुरुआत हो गयी....

इस लड़की ने मुझे हमेशा विस्मित किया है...अपनी बातों, मलंग और मस्त रवैये और तमाम अन्य बातों से...हर बार कोई न कोई ऐसी बात जो चौंका देती....दुनिया को ठेंगे पर रख देना...और उसका ये तरीका मुझे अजीब ख़ुशी से भर देता....मैं जब से इसे जानती हूँ तब से ये बात जानती हूँ कि उसे ढेर सारे बच्चे पैदा करने थे....साल दर साल वक़्त बीतता गया, उसके साथ हम लोग बढ़ते गए लेकिन इतने वक़्त में एक ये बात कभी न बदली....ऐसा भी लगता कि उसे शादी भी शायद बस इसीलिए करनी है कि वो बच्चे पैदा कर सके...इस लेख का कुछ हिस्सा जब उसे पढ़ाया तो उसने फ़ौरन कहा कि “सुनो हम मज़ाक नहीं कर रहे हैं, सीरियस हैं....एक साल में अगर शादी नहीं हुई तो हम कुछ न कुछ जुगाड़ करके बच्चा तो पैदा कर ही लेंगे”....उसी रोज़ शाम अंकिता ने बातचीत के दौरान कहा “बहन हमें पति की ज़रुरत नहीं लगती पर बच्चे की लगती है अब जिसकी ज़रुरत होगी वो ही करना चाहिए न”...मैंने हंसते हुए कहा “हाँ बिल्कुल सही बात”... और ये कहते हुए मेरे ज़ेहन में सुबह की बातचीत ताज़ा होने लगी...मैंने उसका ज़िक्र भी किया तो ये आगे बताने लगी “पता मेरी एक सहेली ने कहा कि तुम अपनी जन्मपत्री पंडित को दिखाना...जब वो विवाह का योग बताये तब ही अपने लिए लड़का ढूंढना ज़रूर मिलेगा....हमने उससे कहा सुनो हमें पंडित ने पति योग तो नहीं संतान योग बताया है बताओ क्या करें....उसने कहा बेशर्म हो गयी हो बिल्कुल”....हम दोनों ही हंस पड़े... अन्नू की बात कानों में गूँज रही थी ... “शादी नहीं होगी तो क्या हम मां नहीं बनेंगे”...मैं इन ‘बिगड़ी’ लड़कियों को सुन कर ख़ुश हो रही थी....ढांचे पर पत्थर मार एक और दरार डालने वाली बात...शाबाश!!

वाकई अगर सोचें तो भला क्यों ये ज़रूरी हो...एक बच्चे की ख्वाहिश और ज़रूरत महसूस होना, लेकिन एक पुरुष साथी की ज़रूरत न महसूस होना, शादी के बंधन में बंधने की इच्छा न होना इतना अस्वाभाविक क्यों है....अन्तरंग संबंधों का शादी से पहले और बाद में होने से उसका जायज़ नाजायज़ या सही ग़लत होना....एकल अभिभावक बनना....मेरी ज़िन्दगी, मेरे शरीर, मेरे मन की ज़रूरतें भला बाकी बातों के दबाव में क्यों हों...ऐसे सवाल चोट तो करेंगे पर इन्हें सोचना तो ज़रूरी है ही...भला इन सबका ऐसा दबाव क्यों...हम अपनी चाहतें और ज़रूरतें देखते हुए रिश्ते क्यों चुन या बना नहीं सकते.  

मैं अगर अपनी ही बात करूँ तो मेरी जो सहजता महिला मित्रों के साथ है वो पुरुष मित्रों के साथ नहीं. बल्कि पुरुष मित्र गिनती के ही होंगे. अपनी ज़िन्दगी में मेरी प्राथमिकताएं फ़र्क हैं जैसे काम, परिवार, दोस्त, पढ़ना लिखना वगैरह...इन सबमें शादी के लिए वक़्त कहीं फ़िट नहीं होता. बल्कि मेरी तो शादी के लिए भी प्राथमिकताएं फ़र्क ही हैं. अपनी ज़िन्दगी से संतुष्ट हूँ और शादी की ज़रुरत महसूस ही नहीं होती. कुछ लोगों ने दबे स्वर और सभ्य भाषा में कहा कि जीवन की और भी ज़रूरतें होती हैं, साथ चाहिए होता है...उनके लिए मेरा जवाब ज़रा असभ्य हो जाता कि उन ज़रूरतों के लिए भला शादी करने की क्या ज़रुरत...मुझे कभी ऐसे भाव मिलते मानो मैं कैसी बेशर्म हूँ..इसी से चरित्र का अंदाज़ा भी लगा लिया जाता है...कभी हैरानी के भाव होते हैं तो कभी सहमति के भी. रही साथ की बात तो भई ‘फ़ैशन के इस दौर में गारंटी की इच्छा न करें’ की तर्ज पर मैं ‘साथ’ की गारंटी पर सवाल कर देती हूँ. तो बात हमेशा एक हल्के विवाद के बाद आई गयी हो जाती है. पर इन सबके बावजूद बच्चों से मुझे बेहद प्यार है. मैं माँ तो बनना चाहूंगी पर गोद लेकर, गर्भधारण करके नहीं. मुझे उस असहजता और दर्द से नहीं गुज़रना न ही मुझे ‘मेरा’ या ‘दूसरे’ का बच्चा जैसी ही कोई समस्या है. अभी इस ज़िम्मेदारी के लिए तैयार नहीं हूँ पर अगर कल को हो ही जाऊं तो भला क्यों शादी या पति की ज़रुरत हो. क्यों ये सोचना मुश्किल हो.

अब दूसरी स्थिति लें. मैं गर्भधारण करना चाहूँ तो? अन्नू की तरह. पर मुझे शादी की ज़रुरत न हो तो? मुझे एक बच्चे की ज़रुरत हो, मैं उसे पैदा करना, एक अभिभावक का प्यार देना चाहूँ लेकिन मुझे पति के रूप में किसी साथी की ज़रुरत न हो, मेरे लिए ये कोई ज़रूरी शर्त न हो कि बच्चे के जीवन में पिता हो ही, मेरी कोई इच्छा न हो कि मेरी बच्चे की ख्वाहिश के साथ जबरन मुझपर ससुराल से जुड़े तमाम सम्बन्ध और ज़िम्मेदारियाँ लाद दी जाएँ....मैं सक्षम व स्पष्ट हूँ, मेरी ज़रूरतें और प्राथमिकताएं फ़र्क हैं, तो क्यों सिर्फ़ शादी के ज़रिये रिश्तों की संवैधानिकता या असंवैधानिकता तय हो. तार्किक तौर पर सोचें, मैं एकल अभिभावक बनना चाहती हूँ, न मेरे साथ कोई धोखा हुआ, न ज़बरदस्ती बल्कि ये मेरा चुनाव है...उस बच्चे को एक अच्छा इंसान बनाने के लिए जो भी ज़रूरतें हैं, उनके लिए मैं सक्षम हूँ....तो शारीरिक सम्बन्ध का विवाह से पहले और बाद में बनाये जाने से ‘सही’ ‘ग़लत’ क्यों तय हो....मैं IVF तकनीक में न जाना चाहूँ, कोई हो जिससे शायद मुझे प्रेम हो, या कहिये सिर्फ़ आकर्षण हो तो क्यों ज़रूरी हो कि मेरी एक बच्चे की ज़रुरत के लिए हम बिना वजह शादी में बंधें...और अगर न बंधें तो क्यों वो ग़लत करार दिया जाए...अगर वो मेरा ही निर्णय है तो?

यहाँ तक तो बातें मेरी इच्छाओं व चुनाव की...अब अगर ये देखना शुरू करें कि मेरे इर्द गिर्द वो कौन सी संस्थाएं हैं जो सीधे तौर पर मुझे प्रभावित करेंगी...मेरे लिए स्थितियों को आसान या मुश्किल करेंगी...तो इस मामले में कानून बहुत उलझाने वाले हैं...अव्वल तो एकल अभिभावकों के लिए अलग से कोई कानून नहीं...इसके सामाजिक पहलू भी हैं...और कानूनी तौर से कई सारी बातें हैं जैसे गोद लेने या IVF तकनीक की जगह यदि बच्चा पैदा किया जाए तो उसमें बड़े पेंच हैं...मान लें अगर कोई महिला किसी पुरुष के साथ सम्बन्ध बनाकर गर्भ धारण करती है...सम्बन्ध बनाने से पहले ही ये बात स्पष्ट कर दी जाती है कि महिला को माँ बनना है, ये उसकी इच्छा, उसका चुनाव है, न शादी होनी है न ही पुरुष को किसी भी तरह की ज़िम्मेदारी निभानी होगी...इन सबके बावजूद यदि कल को जैविक पिता बच्चे पर दावा कर दे तो कानूनन उसके अधिकार हो सकते हैं..ये कोर्ट के निर्णय पर निर्भर करेगा...इसके अलावा उस बच्चे के भी न सिर्फ़ अपनी माँ बल्कि जैविक पिता की संपत्ति पर अधिकार होंगे...शादी होने या न होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा...अब ऐसे में भला कौन ही पुरुष साथी तैयार हो क्योंकि बहुत समय तक ये संभव नहीं कि संतान के आग्रह के बावजूद उससे पिता की पहचान छुपायी जाए या जीवन भर हर पल झूठ का सहारा लिया जाए...ख़ास तौर से संतान के वयस्क होने के बाद...ये सही भी नहीं लेकिन ऐसा होने के नतीजे उस पुरुष साथी के लिए मुश्किल पैदा कर सकते हैं....ऐसे में किसी भी पुरुष साथी का सहयोग देने से बचना स्वाभाविक है क्योंकि संतान की इच्छा तो पूरी तरह महिला की थी और सम्बन्ध सिर्फ़ इसी वजह से बनाए जा रहे थे..वो क्यों चाहेगा कि बाद में उसके जीवन में एक दोस्त को दिया गया सहयोग अचानक कोई समस्या बनकर आ जाए...ऐसे में ये ज़रूरी है कि एकल अभिभावकों व उनके बच्चों के लिए कानून में अलग समुचित व्यवस्था की जाए जिसमें सबके अधिकारों को सुनिश्चित किया जाए. 
  
इसके अलावा अब परिवार की ही भूमिका को अगर देखें....परिवार वो संस्था है जो अगर साथ आ जाये तो व्यक्ति की न सिर्फ़ सबसे बड़ी मुश्किल आसान हो जाए बल्कि उसे दुनिया से लड़ने का हौसला भी मिल जाए...लेकिन क्या ऐसा होता है? ऐसे परिवार बमुश्किल ढूंढे मिलें शायद जो इन स्थितियों में घर की बेटी का साथ दें...बल्कि जो होता है वो इसका उल्टा होता है...परिवार सबसे बड़ी रुकावट या विरोधी हो जाता है...ख़ासतौर से अगर बच्चा गोद, IVF या सरोगेसी की जगह किसी पुरुष साथी के साथ सम्बन्ध बनाकर पैदा किया जाए...ये एक बड़े कलंक की तरह देखा जाएगा जिसे कोई परिवार पसंद नहीं करेगा...बेटी का रात दिन जीना दुश्वार किया जा सकता है और बच्चे के लिए जो कड़वा व्यवहार होगा उसकी कोई सीमा नहीं...ऐसे में एक बात और आ जुड़ती है...बेटी के माँ बाप सालों साल कोशिश करते हैं कि उसकी शादी हो ही जाए...वो मान जाए और कर ले...ये कोशिश कहिये बेटी के 50- 55 साल के हो जाने तक भी चलती रहे...तो एक बात तो ये कि परिवार की नज़र में बेटी की शादी ज़रूरी होती है जिसके लिए परिवार के लोग कई कारण गिनाने लगते हैं....दूसरी बात ये कि एक ऐसी महिला की शादी होना उनकी नज़र में मुश्किल है जो एक माँ भी है...और अगर ये माँ बनने की प्रक्रिया बाक़ायदा सम्बन्ध बनाकर की गयी है तब तो शादी असंभव ही हुई...हमारे परिवारों में जहाँ बेटी ‘पराया धन’ है वहां उसके बच्चे कैसे अपनाए जा सकते हैं....किसी भी कारणवश यदि माँ को कुछ हो जाये तो बच्चे को अपनाने वाला कोई भी नहीं, उसका क्या जीवन हो...हमारे पास कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं. 
    
इसी तर्ज पर अब समाज की प्रतिक्रिया भी समझी जा सकती है...कि किस प्रकार का चरित्र हनन किया जायेगा...ये न सिर्फ़ माँ के लिए है बल्कि बच्चे के लिए भी उसका बचपन व युवावस्था तमाम मुश्किलों भरी होगी...वो ऐसे रिश्ते से दुनिया में आया होगा जिसे न सिर्फ़ समाज बल्कि क़ानून भी ‘नाजायज़’ कहता है...हर पल ख़ुद को ‘पाप की संतान’ सुनना एक अबोध मन पर क्या प्रभाव डालेगा ज़रा सोचें...माना कि माँ मज़बूत है दुनिया को ठेंगे पर रखने वाली लेकिन एक बाल मन तो कोमल होता है, भोला, निश्छल...इन सब बातों को समझ पाने से कहीं दूर....और परिवार व समाज कितना वीभत्स हो सकता है इसकी कई बार कल्पना करना भी मुश्किल है...ये दुश्वारियाँ मध्यमवर्गीय परिवारों और छोटे शहरों में अधिक हैं...ऐसे बच्चों की परवरिश बहुत ध्यान व समझ से करने की पूरी ज़िम्मेदारी माँ पर ही होगी क्योंकि उसे एक सकारात्मक या सहयोगी वातावरण मिलना फ़िलहाल तो दूर की बात है बल्कि आलोचनाओं और टीका टिप्पणियों का सामना आये दिन  न सिर्फ़ माँ बल्कि बच्चे को भी करना होगा...क्या हम एकल पिताओं को भी उसी तरह का व्यवहार देते हैं जैसे एकल माँ...पिता के केस में ख़ानदान आगे बढ़ने की बात लेकिन माँ के केस में बोझ...ज़रा सोच कर देखें...और ये भी देखें कि किस तरह पितृसत्ता औरत के दिल, दिमाग़, कपड़े, व्यवहार, सपनों से लेकर योनि तक कहीं उसका नियंत्रण नहीं रहने देती. 
  
ये उलझनें हैं जो कई बार इस समाज की सड़न का अहसास कराने लगती हैं. विवाह के रिश्ते में जबरन बनाए गए शारीरिक संबंधों, औरत की मर्ज़ी पूछे बग़ैर या उसके विरुद्ध जाकर या दबाव बनाकर बच्चों की कतारें लगा देना ग़लत नहीं होता...न परिवार और समाज में बल्कि काफ़ी हद तक क़ानून में भी....उसकी इज़्ज़त एक माँ के तौर पर ही होती है...मां से ऊपर तो इस देश में कुछ भी नहीं, सबसे ज्यादा श्रृद्धा इसी के प्रति, इसके नाम पर बलिदान से लेकर हत्याएं और मार काट हो जाए...तो फिर एक मां के प्रति श्रद्धा सिर्फ़ मां होने के कारण होनी चाहिए न...उसमे शादी शुदा होने या न होने की क्या भूमिका...सारा चरित्र निर्माण क्या सिर्फ़ यौन संबंधों के ही आधार पर होगा? क्या ये उसके चयन, उसकी आज़ादी, उसके निर्णयों को सीमित करने या जबरन कंट्रोल करने की कोशिश नहीं? या ये भी पितृसत्ता के लिए एक डर ही है कि जिस व्यवस्था में अभिभावक के तौर पर हमेशा पिता का नाम रहा हो, वंश उसके नाम से आगे बढ़ा हो अगर ये स्त्री के हिस्से चला गया तो क्या होगा? क्या होगा अगर स्त्री मां बनने के लिए भी ख़ुद अपनी मर्ज़ी से चुनाव करने लगे और विवाह संस्था को ख़ारिज कर आगे बढ़ जाए...प्रेम संबंधों पर कामसूत्र रच देने वाले, राधा कृष्ण के प्रेम को पूजने वाले, सरस्वती को देवी मानने वाले, प्रेम पर बनी फिल्मों को ब्लॉक बस्टर बनाने वाले असल व्यवहार में किस कदर दोगले और खोखले हैं...हमारे पास नफ़रत द्वेष और हिंसा के लिए तो भरपूर जगह है पर प्रेम के लिए नहीं...किसी को अगर ये लगता है कि गोद लेना सरल है तो वे भी ये जान लें कि एकल अभिभावक के लिए गोद लेने से जुड़ी प्रक्रिया व कानून भी आसान नहीं बल्कि खासे मुश्किल हैं  

कब होगा कि हम चयन और सहमति को सही अर्थों में समझेंगे...हम हिंसा पर ख़ामोश होना सिखाते हैं, विवाह के भीतर जबरन बनाए संबंधों को बलात्कार नहीं मानते, एक लड़की का बलात्कार हो जाने पर उसका मुंह ढँकवा देते हैं, ये लडकियां माँ सरस्वती की तरह नहीं पूजी जाती...या इन मां सरस्वती की मां कौन थीं...यहाँ परिवार के लोग खाप बन कर इज़्ज़त के नाम पर हत्याएं करते हैं, घर में ही बलात्कार हो जाते हैं...एक लड़की के पैदा होने से लेकर मरने तक हर क़दम उसके लिए एक नयी मुश्किल खड़ी कर देते हैंऐसे में चुनाव, मर्ज़ी वो भी ऐसी तो बड़ी बात हो गयी न...मैं  ये भी जानना ज़रूर चाहूंगी कि भारत माता विवाहित हैं या एकल अभिभावक हैं...या उनके अलावा भी पूजी जाने वाली तमाम माताओं का वैवाहिक स्टेटस क्या है...क्या सारी सहूलियत काल्पनिक पात्रों के लिए है...असल व्यवस्था में सिवाय बंदिशों के कुछ भी नहीं?   

(शीर्षक के लिए मनोज जी का आभार)