बुधवार, 4 जून 2014

मुद्दों का तमाशा बनाते ये लोग


बड़ी उलझन में हूँ...एक अजीब बेचैनी...अफ़सोस, मायूसी, गुस्से और झुंझलाहट से भरी...टेलीविजन और अखबार की दुनिया से दूर हूँ इस बीच और सच कहूँ तो दूर रहकर थोड़ा सुकून है...पर हाँ आदतें बहुत ज्यादा बदलने नहीं देतीं...इंटरनेट और सोशल मीडिया के ज़रिये ख़बरें पहुँच जा रही हैं...न्यूज़ चैनलों की वेबसाइट और सोशल मीडिया पर बदायूं बलात्कार काण्ड (और अब बरेली भी) को लेकर एकदम हाहाकार मचा हुआ है...ये सब देख, सुन और पढ़ कर ऐसा लग रहा है मानो चीज़ें उलझती जा रही हैं और कई लोगों में एक भटकाव आता जा रहा है...पहली बात तो ये कि बात बलात्कार तक सीमित नहीं...साथ में कई सारे पहलु जुड़े हैं....एक कोशिश करने जा रही हूँ उन अलग अलग सिरों को सुलझाकर साथ लाने की...किसी और के लिए ये कितना ज़रूरी है नहीं पता, पर फिलहाल खुद को संतुलित करने के लिए ये मेरे लिए तो बहुत ज़रूरी है.

मैं बताती चलूँ एक मध्यम वर्गीय परिवार से हूं और बीते लगभग 8 सालों से अलग अलग मानवाधिकार संगठनों से जुड़ी हुई हूँ तो तमाम सामाजिक मुद्दों को देखने और समझने का मौका मिलता रहा है..महिला मुद्दे मेरे सरोकारों में पहले आते हैं...इसकी कोई ख़ास वजह नहीं हैं मेरे पास...दिलचस्पी रही है इसीलिए पढ़ाई भी इसी क्षेत्र में की और उसके बाद अलग अलग तरीके से इन संगठनों के साथ काम करने का मौका मिलता गया...तो इन सब वजहों और अनुभवों से महिलाओं से जुड़े और अन्य मुद्दों पर भी थोड़ी समझ बनी है...जी नहीं मैं कोई बुद्धिजीवी नहीं हूँ...एक आम लड़की हूँ और अपनी समझ और जानकारी को मैं अभी भी बहुत सीमित ही मानती हूँ...

बहुत कम घटनाओं से रूबरू हो पाती हूँ पर जितनों से अब तक हुई हूँ वो भी लिखने लगूंगी तो जाने कितना वक़्त लगेगा..पर एक बानगी भर के लिए कुछ घटनाएं अंत में साझा की हुई हैं..कोशिश कीजिये ये समझने की कि किस समाज का हिस्सा हैं हम इस वक़्त....जितना हकीकत में होता है उसके आगे ये घटनाएं कुछ भी नहीं...किसी भी लड़की ने...जी हाँ मेरा मतलब है किसी भी लड़की ने कभी हिंसा का कोई रूप न देखा हो ऐसा संभव नहीं है...अगर वो ऐसा कहती है तो मैं दावे से कह रही हूँ वो झूठ कह रही है...वो चाहे भेदभाव हो, रिश्तेदारों के अनचाहे स्पर्श, देह भेदती बेचैन कर देने वाली नज़रें, यातायात के साधनों में शरीर तक पहुँच बनाने को फडफडाते हाथ, ससुराल की दुश्वारियां, धमकियाँ या तेज़ाब के हमले, धार्मिक स्थल और वहां के ठेकेदार....आप मुझे दिल पर हाथ रखकर एक जगह बता दीजिये जहाँ लड़की सुरक्षित है...बल्कि वो तो न्याय के ठेकेदारों के यहाँ पहुँच कर ही सबसे ज्यादा असुरक्षित हो जाती है

लखनऊ में 2005 से साझी दुनिया नाम की संस्था से जुड़ी हुई हूं..अक्सर वहां जाती रहती हूँ...जिस तरह की समस्या लेकर वहां महिलाएं आती हैं, वो सुनकर कई बार रातों की नींद उड़ जाती है, भूख ख़त्म हो जाती है, बेचैनी, उलझन, अफ़सोस, गुस्सा, मायूसी जाने क्या क्या भर जाता है मन में...मुद्दे मानसिक, यौनिक, सामाजिक, घरेलू, शारीरिक और कार्यस्थल में होने वाली हिंसा किसी के भी हो सकते हैं...पर सबसे बड़ी बात ये कि हर हिंसा हर समस्या औरत की पूरी पहचान को शरीर या यौनिकता पर समेट देती है

इस वक़्त जिस तरह से बदायूं या बरेली बलात्कार काण्ड पर प्रतिक्रियाएं आ रही हैं कुछ बातें समझनी और कहनी बड़ी ज़रूरी हो गयी हैं:

1. लडकियां हर रोज़ हिंसा का किसी न किसी रूप में सामना करती हैं...वो कौन से पैमाने हैं जो ये तय करते हैं कि कौन सा रूप ज्यादा क्रूर या वीभत्स है...भ्रूण हत्या, बाल यौन शोषण, दहेज़ हत्या, जीवन भर चलता भेदभाव, शिक्षा या रोज़गार से वंचित रखना, जबरन शादी करवा देना, अपनी पसंद की शादी करने पर मौत के घाट उतार देना, शारीरिक हिंसा, तेज़ाब के हमले या बलात्कार आदि

2. क्या हमें ये सोचने की ज़रुरत नहीं कि किस तरह के समाज में हमारी नन्ही बच्चियां अपनी आँखें खोल रही हैं और जी रही हैं...यहाँ उनके पास उनके हक नहीं, मौके नहीं, घरेलू कामकाज की कोई गिनती नहीं, भेदभाव है, पढ़े लिखे घरों में आज भी मासिक धर्म जैसी वजहों से उसे अपवित्र मान लिया जाता है...किसी भी तरह की घटना होने पर सबसे पहले लड़की का बाहर निकलना बंद हो जाता है...उसे चुप रहना, बर्दाश्त करना, हमेशा एडजस्ट करना, त्याग करना, हर वक़्त खुद को ढके रहना सिखाया जाता है....यौनिकता की बातें आज भी फुसफुसाकर की जाती हैं...यहाँ तक कि दुकानदार अगर पुरुष है तो लड़की सैनिटरी पैड या अंतः वस्त्र मांगने तक में हिचकिचाती है...किसी पुरुष के सामने मासिक धर्म की बात कर देना आज भी पाप सरीखा होता है

एक और बात...अक्सर देखती हूँ लड़कों या पुरुषों को अपनी महिला सहकर्मियों का मज़ाक उड़ाते...कई लोगों से झगडे कर चुकी हूँ...उन्हें लगता है हर महीने ये लड़कियां मासिक धर्म का बहाना बना कर काम से बचती हैं....बेहद घटिया बात करने वाले ये लोग पढ़े लिखे और तथाकथित समझदार होते हैं....तुम लोगों को इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि हर महीने लड़कियां किस दर्द, तकलीफ, परेशानी और उलझन से गुज़रती हैं....जितना होता है उसका 1/ 10 हिस्सा भी अगर समझ सकोगे तो ज़िन्दगी में ये बात दोबारा नहीं कहोगे...और हाँ अब ये कहके अपनी बीमार सोच का नया नमूना मत पेश करो कि फिर कहा किसने है काम करने को

3. बलात्कार, हिंसा (शारीरिक, मानसिक और यौनिक) का एक रूप है...ये मानसिक विकृति दिखाता है...पर ज़रा ये स्पष्ट कीजिये कि इससे लड़की की इज्ज़त कैसे चली जाती है...-ये काम तो एक प्रकार के शक्तिप्रदर्शन का एक तरीका होता है...अपने से कमज़ोर पर...तथाकथित सामाजिक पैमानों के हिसाब से खुद से नीचे आने वालों पर...महिलाएं तो यूँ ही कमतर मानी जाती हैं...इसके अलावा घर की इज्ज़त का टोकरा सर पर लेकर जिंदगी भर उनको ही चलना होता है...इसके अलावा जाति, धर्म, वर्ग के आधार पर शक्ति दिखाने का भी ये एक तरीका बन जाता है...और इससे बड़ी सजा या सबक किसी लड़की या उसके परिवार के लिए कुछ और हो नहीं सकता...समाज की सोच और रवैया पीड़िता और उसके परिवार को शर्मसार कर देता है..इस स्थिति के लिए हम और आप ज़िम्मेदार होते हैं और अनजाने में बलात्कारी का ही मनोबल बढाते हैं......उस जगह के बाकी लोग डर कर दुबक जाते हैं और बलात्कारी शान से छाती चौड़ी करके छुट्टा घूमते हैं...बलात्कार के बाद हत्या करके पेड़ पर टांग देने वाली घटनाएं ताक़त और सत्ता की हेकड़ी ही दिखाती हैं..किसी इंसान का जानवर की तरह शिकार करने के बाद शरीर को नुमाइश के लिए लोगों के सामने सजा देना कि ये हाल हम किसी का भी कर सकते हैं...साथ ही ये ख़याल उस सोच से उपजता है जो महिलाओं को सिर्फ और सिर्फ एक वस्तु के रूप में देखती है जिसका दुनिया में आने का उद्देश्य पुरुष की कामेच्छओं को पूरा करना है...पर अपने दिमाग की सारी खिड़कियाँ खोलकर ये बात समझ लें कि दुनिया का कोई भी व्यक्ति, जी हाँ कोई भी व्यक्ति किसी लड़की की ‘इज्ज़त’ नहीं लूट सकता....जिसको आप इज्ज़त कहते हैं वो आपकी मर्दवादी, पितृसत्तात्मक, दीमक लगी सोच के एक पहलू से ज्यादा कुछ नहीं होता है...   

कई अखबारों और ख़बरिया चैनलों में लड़की की इज्ज़त/ आबरू/ अस्मत लुटने की हेडलाइन को सनसनीखेज़ तरीके से पेश करके एक मसालेदार खबर तैयार कर दी जाती है...मतलब ये कि लड़की की इज्ज़त और अस्मिता सिर्फ और सिर्फ उसकी यौनिकता तक सीमित है...जिसपर कोई बिगड़ा मनचला कभी भी हमला कर सकता है और इसके साथ ही लड़की का वजूद ख़त्म हो जायेगा...ये पत्रकारिता के हाल हैं...

4. एक बार ज़रा आंकड़े भी उठाकर देखें, चाहे जातिगत हो या कोई और, बलात्कार सिर्फ़ दिल्ली, बदायूं या बरेली में नहीं हो रहे, हर दिन जाने देश के कोने कोने में जाने कितनी लडकियां, बच्चियां या महिलाएं इस हिंसा का शिकार हो रही हैं...सवर्णों का निचली जाति के साथ, राह चलते मौज मस्ती के लिए अय्याश लड़कों का लड़की उठा कर ले जाना, घर के अन्दर, बाहर, दंगों के दौरान, आपसी रंजिश, अपनी ताक़त/ प्रभुत्ता दिखाने, विरोधी को सबक सिखाने के लिए, माफियाओं द्वारा अपनी कामेच्छाएं पूरी करने के लिए,  पुलिस या सैन्य बालों द्वारा किये जाने वाले, ये सभी बलात्कार क्रूरता की हर बार एक वीभत्स तस्वीर दिखाते हैं...पर हम तब क्यूँ मौन रह जाते हैं...या खोज खोज के उन पीड़ितों तक तब क्यूँ नहीं पहुँचते?? क्या हम खुद सुविधाएं नहीं ढूंढ रहे...जो मुद्दा मीडिया में छाया हुआ है वहीँ पहुँच के अपना योगदान दिखा दें...बहती गंगा में हाथ धो लें...मेहनत भी कम पड़ेगी और गिनती में भी आ जायेंगे कि हमने फलां केस में बड़ी भूमिका निभाई थी 
  
5. बदायूं में इस वक़्त एक किस्म का मेला लगा हुआ है...ये छोटी सी जगह इस वक़्त अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संज्ञान में आ गयी है....जिसकी शुरुआत मीडिया ने की...फिल्म ‘पीपली लाइव’ की याद हो आई...ओ बी वैन और पत्रकारों की भीड़ इस क़दर लगी है कि लड़कियां शौच के लिए तक नहीं जा पा रहीं...अब रातोंरात तो हर घर में शौचालय बनने से रहे...नेता और यहाँ तक कि कई एनजीओ वाले मौके का फायदा उठाने के लिए पहुंचे हुए हैं....ये बातें हर एक व्यक्ति पर लागू नहीं होती पर अधिकतर के यही हाल हैं...बाकी वक़्त कहाँ रहते हैं ये सब...हर कोई पीड़िता के परिवार को इन्साफ दिलाने का श्रेय लेना चाहता है...नेता, मीडिया, एनजीओ....इस क़दर तमाशा बना दिया है कि हकीकत में काम करने वालों पर भी सवाल उठने लगे हैं....ऐसा क्यूँ लगने लगा है कि बलात्कार की घटनाएं मीडिया, राजनीतिक पार्टियों और नेताओं तथा कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए ऑक्सीजन सरीखी हो गयी है.

अंतर्राष्ट्रीय मीडिया से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक सब भर्त्सना करने उतर आये हैं...अच्छी बात है ये पर बाकी हिंसा या अलग अलग वक़्त पर हुए बलात्कार/ दंगों के वक़्त हुई सामूहिक दुष्कर्म की घटनाओं पर आपकी ज्ञानेन्द्रियाँ सुन्न हो गयीं थी क्या? या आप उस वक़्त जुबान खोलकर बड़ा खतरा मोल नहीं लेना चाहते?...और क्या आपको वाकई इस घटना का राजनीतिकरण समझ नहीं आ रहा या आप समझना नहीं चाहते?

6. एक और बात सज़ा से जुड़ी...बड़ी बहस छिड़ी हुई है...कि बलात्कारियों को फांसी दो...अब सवाल ये कि फांसी किस तरह का विकल्प है...और इससे बलात्कार की घटनाओं में किस प्रकार कमी आ जाएगी?

पहले तो फांसी की सज़ा का प्रावधान बनते ही बलात्कार के फ़ौरन बाद बलात्कारी लड़की को मौत के घाट उतार देंगे...अब जुटाते रहिये आप सबूत...जो सिस्टम इस वक़्त सालों साल कार्यवाही नहीं कर रहा, रिपोर्ट दर्ज करने में आना कानी कर रहा है...फैसला सुनाने में देरी कर रहा है...आपको लगता है सुबूत न होने पर वो काम करेगा?

दूसरे, फांसी की सज़ा, मतलब किसी का जीने का हक छीनने को किसी भी तरह से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता....अनतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस वक़्त इस सज़ा को ख़त्म करने की पैरोकारी की जा रही है और हम उससे उलट फांसी की मांग कर रहे हैं..

इसी से जुडी मेरी तीसरी बात, फांसी मतलब किसी का जीवन ख़त्म कर देना, बलात्कार मतलब शारीरिक, मानसिक और यौनिक हिंसा का क्रूर रूप...पर इन दोनों को आप बराबर कैसे कर सकते हैं...इसका तो सीधा मतलब ये हुआ कि बलात्कार लड़की और उसके परिवार के लिए म्रत्यु के बराबर है...क्यूँ भई? क्या लड़की की अस्मिता और जीवन यहीं तक सीमित है...क्या ऐसा करके हम लड़की को आत्महत्या के लिए नहीं उकसा रहे? क्या हम उसे ये सन्देश नहीं दे रहे कि अब तुम्हारे जीवन में कुछ नहीं बचा...याद रखिये कि वो जिंदा है और जिंदा व्यक्ति को हर हाल में हौसला देना चाहिए ताकि वो अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करे..ये मुश्किल ज़रूर है पर मत भूलिए कि उसके जिंदा होने का मतलब उम्मीदों का जिंदा होना है...जो हुआ उसमे उसकी कोई गलती नहीं थी इसलिए उसको शर्मिंदा होने की कोई ज़रुरत नहीं...और यकीन मानिए लड़कियों का हौसला टूटने की वजह हम, आप और ये समाज और उसके प्रति हमारा व्यवहार होता है...ये घूम फिर के उसी पितृसत्तात्मक मानसिकता को मज़बूत करना है जहाँ इज्ज़त और वजूद उसकी यौनिकता तक सीमित है 
   
चौथी बात ये कि लगे हाथ एक नज़र न्यायिक ढाँचे पर भी डालें...आजादी से अब तक कितनी फांसी की सजा हुई हैं...ज़ाहिर है किसी को मृत्यु दंड की सज़ा सुनाना आसान नहीं...कोशिश की जाती है कि विकल्प तलाशे जाएँ जो कि सही भी है....कहीं पढ़ा था कि 2012 तक लगभग 40000 बलात्कार के मुक़दमे विभिन्न न्यायपालिकाओं में लंबित पड़े हैं...अब इस हिसाब से तो इन सबको मृत्यु दंड सुना दिया जायेगा

7. इससे जुड़ी हुई है अगली बात कि समस्याएं किस तरह भीतर तक घुसी हैं....राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2012 की रिपोर्ट के हिसाब से ही सज़ा की दर मात्र 24% रही है....विभिन्न नेताओं, मंत्रियों, जन प्रतिनिधियों, लेखकों से लेकर आध्यात्मिक गुरुओं के विचार अलग अलग समय में हम तक पहुँच चुके हैं...ये नीति निर्धारकों के हाल हैं...माफ़ कीजिये पर न किसी को भाई कहने से बलात्कार रुकेंगे न ही शरीर ढकने से...और हाँ, न बलात्कारी 'बेचारे' होते हैं, न बलात्कार पीड़िता कोई जिंदा लाश और न ही बलात्कार धोखे से हो जाते हैं...अपनी जुबान और सोच पर ज़रा संयम रखें तो बेहतर होगा  
कहा जा रहा है खुले में शौच के लिए जाने से बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं...ये सही है कि ये एक कारण है...पर ये ही एकमात्र कारण है ऐसा नहीं है...क्यूंकि बलात्कार तो वहां भी होते हैं जहाँ हर घर में शौचालय होते हैं 

8. ये सच है कि इस वक़्त इन घटनाओं को राजनीतिक रणनीतियों के तहत तूल दिया जा रहा है...पर मुख्यमंत्री महोदय इन घटनाओं पर आपकी प्रतिक्रियाएं और बयान किसी भी संवेदनशील राजनेता की छवि नहीं पेश कर रहे हैं...पर खैर संवेदित तो आप, आपकी पार्टी और पार्टी हाईकमान कितने हैं ये भी हम सब जानते हैं

9. इन दिक्क़तों का कोई एक समाधान है ही नहीं...रूढ़िवादी मानसिकता, भृष्टाचार, लचर क़ानून और उससे भी लचर उसका क्रियान्वयन...जाति, वर्ण, धर्म, जेंडर ..हर स्तर पर ग़ैरबराबरी..सब कुछ ज़िम्मेदार है... ग़ैरबराबरी हर जगह गहरी पैठ बनाये हुए है...और दमनकारी व्यवहार आज भी बहुत आम है....उसके बाद घटनाओं को glamourise कर देने की प्रवृत्ति से भी बाज़ आने की ज़रुरत है...क्यूंकि इससे ज्यादा अमानवीय कुछ नहीं...पीडित परिवार को चैनलों पर यूँ दिखाया जाता है जैसे टीआरपी बढ़ाने के लिए कोई विज्ञापन चल रहा हो...मेहरबानी करके मुद्दों की गंभीरता समझिये और यूँ उनका तमाशा बनाकर अपनी रोटियां सेंकने से बाज़ आइये  

एक और बेहद ज़रूरी बात...बलात्कार की शिकार लड़की एक इंसान होती है...मेहरबानी करके बाहर निकालिए उस मानसिकता से जो ज़िन्दगी भर के लिए उसकी पहचान को इस एक घटना तक समेट देता है...हमेशा के लिए उसकी पहचान उसका 'बलात्कार पीड़िता' होना हो जाता है...और ऐसा करते मैंने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी देखा है जो सामने नहीं लेकिन किनारे जाकर दुसरे के कान में फुसफुसाकर ये बताते मिल जायेंगे कि ये जो लड़की है न ये फलां रेप विक्टिम है 
  
10. फ़िल्म, टेलीविजन, विज्ञापन, पत्रिकाओं, अखबारों और खबरिया चैनलों की भूमिका इस वक़्त शर्मसार कर देने वाली है...बेहद गैर जिम्मेदाराना है...पर उस पर चर्चा एक अलग लेख पर करुँगी...
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कुछ छोटे अनुभव जिनकी तकलीफ छोटी कतई नहीं हैं यहाँ साझा कर रही हूँ...अगर चाहें तो पढ़ सकते हैं...ये स्थितियों की एक बानगी भर हैं:

1. पिछले महीने अहमदाबाद में थी...अपनी दीदी के पास...उनके पड़ोस के घर में किसी पूजा का आयोजन था...पूजा से ठीक एक दिन पहले घर की बच्ची जिसकी उम्र लगभग 12-13 साल थी, के मासिक धर्म शुरू हो गए...वो अचानक अपवित्र हो गयी, किसी आयोजन में भाग नहीं ले सकी, उसे रसोई से ख़ासतौर पर दूर रखा गया क्यूंकि वहां भोग बनाया जा रहा था, पूजा के पास फटकने का तो सवाल ही नहीं...उदास आँखों से वो टुकुर टुकुर सबकुछ देखती रही...शाम को मेरे पास आई तो रुंधे गले से पूछ बैठी “मौसी मैंने तो कुछ भी नहीं किया फिर मैं क्यूँ नहीं जा सकती पूजा में? क्या मैं गंदी हो गयी हूँ?” मैं उसकी मायूस डबडबाई आँखें देख कर बेचैन हो उठी...उसकी मां को समझाने की कोशिश की पर मैं खुद भी जानती थी धर्म और आस्था को चुनौती देना उसके बस का नहीं था...यहाँ ये बताना ज़रूरी है कि वो महिला पीएचडी हैं और उनके पति एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत हैं..

2. इन दिनों कोटद्वार, उत्तराखंड में हूँ...यहाँ मेरा ददिहाल है...पिछले कुछ समय में ये जगह बहुत तेज़ी से बदली है..आधुनिक हो चली है...फैशन, तकनीक, सुविधायें सब कुछ पहुँच गया है यहाँ... बड़े सभ्रांत परिवार बसे हैं और पर आस्था के कुछ प्राचीन तरीके आज भी खूब प्रचिलित हैं बल्कि मुझे तो लगता है बढ़ते जा रहे हैं...

पुछेरे या नवरिया यहाँ उन लोगों को कहा जाता है जिन्हें मान्यतानुसार कुछ ख़ास दैविक शक्तियां मिली हुई होती हैं...आप इन लोगों के पास जायेंगे तो उनपर देवी या देवता प्रकट होकर आपको ये बता देंगे कि आपको क्या समस्या है, क्यूँ है, किसने की और इसका समाधान क्या है... उपचार की पूजा कुछ भी हो सकती है...भूत भागना, शमशान में पूजा देना, नज़र उतरवाना, कहीं स्नान करना, किसी जानवर की बलि देना, जंगल में पूजा के बाद मुर्गा छुड़वाना, परेशां व्यक्ति पर किसी देवी/ देवता/ भूत/ प्रेत का साया है तो उसको नचवाना इत्यादि...एक अलग किस्म की तिलस्मी दुनिया का बाज़ार खूब जोर शोर से चल रहा है...आप यकीन करें या न करें पर यहाँ आने वालों में अनपढ़ लोगों से लेकर वैज्ञानिक तक होते हैं, गरीब – अमीर, सवर्ण दलित, बच्चे बूढ़े सब...
     
यहाँ जानने में ही एक परिवार है...बेटा मेकैनिकल इंजीनियर है और बहू भी एक बड़ी कंपनी में कार्यरत थी, बच्चे होने के बाद नौकरी को विदा कहना पड़ा...दोनों पूना रहते हैं...आजकल आये हुए थे...पता चला 2 बेटियां हो गयी हैं, डॉक्टर ने कहा बहू में कोई कमी नहीं तो यहाँ नवर कराना है...कुछ बातें जो जुड़ी हैं – बेटे की चाहत, बेटी होने पर जांच सिर्फ बहू की ही जबकि हम जानते हैं बेटी या बेटा पैदा करने के लिए किसी भी प्रकार से लड़की ज़िम्मेदार नहीं होती क्यूंकि उसके पास तो सिर्फ X (एक्स) क्रोमोजोम ही होता है...मानसिक बोझ बहू पर और अब बेटा पैदा करवाने की ज़िम्मेदारी नवरिया की...ये एक सभ्रांत पढ़े लिखे परिवार की कहानी है...

3. अपनी पिछली संस्था में काम के सिलसिले में रायबरेली गयी थी...12-13 साल की बच्ची अपने घर पर बर्तन धो रही थी...परिवार में 7-8 सदस्य थे तो उनके कितने बर्तन रहे होंगे ये सोचिये..खाना खाकर माता, पिता और एक भाई काम के लिए ईंट की भट्टी पर गए हुए थे...लड़की के अलावा उस वक़्त घर पर तीन और छोटे भाई बहन थे...एक तो कुछ महीनो का ही था...इन सबको संभालना, घर की साफ़ सफाई, खाना बनाना खिलाना, बर्तन धोना ये सारे काम उस बच्ची के थे...और पढ़ाई?? “हम जाते थे स्कूल, अच्छा लगता था सहेली बनाना, खेलना, नयी नयी चीज़ें सीखना पर अगर मैं स्कूल गयी तो घर का काम कौन करता इसलिए मां बापू ने स्कूल छुड़वा दिया”...उसकी आँखें पथरायी सी कहीं शून्य में देख रही थीं...इस बच्ची ने हालात से समझौता कर लिया था...

4. मेरे साथ पढ़ने वाली एक सहेली शादी के 7 साल बाद मुझसे मिली और इसलिए मिली क्यूंकि अब उसका जीना दूभर हो रहा था...शादी की पहली रात पति ने बता दिया कि शादी सामाजिक दिखावे के लिए की है, उसके सम्बन्ध किसी और महिला से हैं...शारीरिक सम्बन्ध बनाने में न नुकुर की तो अलग उत्पीडन, लड़की के माता पिता एडजस्ट करने की ही सलाह देते रहे...कहा बच्चे हो जायेंगे तो सब ठीक हो जायेगा...बिना किसी भावनात्मक जुड़ाव के दो बच्चे भी पैदा कर लिए गए...तानों से लेकर शरीरिक हिंसा तक सब कुछ होता रहा और माता पिता और भाई अभी तक एडजस्ट करने की ही सलाह दे रहे हैं...एक भाई भाभी पीसीएस अफ़सर हैं और दूसरे  एक बड़े प्रतिष्ठित विद्यालय में रसायन विज्ञान के वरिष्ठ अध्यापक

5. एक अन्य लड़की को प्रेमी ने शारीरिक संबंध बनाने के बाद बिना किसी वजह के छोड़ दिया और चुपके से कहीं और शादी कर ली..

6. मेरी ही एक सहेली जो मानवाधिकार संगठन में कार्यरत है और सार्वजनिक यातायात के साधनों का इस्तेमाल करती है हर रोज़ छेड़खानी के अलग अलग रूप देखती हैं..घर से दफ्तर आना और सकुशल वापस घर पहुंचना एक चुनौती बन जाता है...दो बार ऐसा हुआ जब वो पैदा जा रही थी तो बाइक सवार लड़के कभी उसको धक्का देकर तो कभी पीछे से सिर पर ज़ोरदार घूँसा मारकर ठहाके लगाते हुए तेज़ रफ़्तार से निकल गए

7. आज़मगढ़ के एक गांव में सवर्णों ने एक मानसिक रूप से विक्षिप्त लड़की का बलात्कार किया...लड़की रोती थी पर कुछ समझ नहीं थी तो कुछ बता नहीं पायी...गर्भवती होने पर जब उसका पेट बढ़ने लगा बातें तब खुलीं...

8. एक अन्य लड़की पर ज़बरदस्ती दबाव बनाया जा रहा था कि वो भ्रूण गिरवा दे...वजह...जनाब भ्रूण हत्या का मतलब कन्या भ्रूण हत्या ही होता है...और बेटियां तो होती ही अनचाही हैं...बोझ कौन मोल ले

9. एक सभ्रांत पढ़े लिखे परिवार में पिता अपनी ही दोनों बेटियों का शारीरिक शोषण करने के बाद घर छोड़कर कहीं अलग रहता है और परिवार को कोई खर्चा भी नहीं देता...एक बड़े बैंक अधिकारी की स्नातक बेटी एक समय में लोगों के घर झाड़ू पोंछा करने को मजबूर हो गयी थी