सोमवार, 10 मार्च 2014

ज़िंदा सपनों, उम्मीद और संघर्ष का लेखा जोखा

आजकल डेरा अहमदाबाद में अपनी बहन के यहाँ डाला हुआ है...अजीब सनक है मुझे....कुछ दिन बाहर न निकलूं तो लगता है ज़िन्दगी थम गयी है....सब कुछ नीरस, रुका हुआ, बेजान, उदास...यूँ तो अपने शहर से मुझे बेइंतहा मुहब्बत है और जो सुकून मुझे वहाँ मिलता है वो कहीं और नहीं मिलता फिर भी ऐसी स्थितियां हो जाती हैं जिन्हें  दुरुस्त करने का बस एक ही इलाज होता है...बैग पैक करो और निकल पड़ो....कुछ लोग अपने खानाबदोश जीवन से परेशान रहते हैं पर मेरे साथ उलट है...कुछ कुछ दिनों में बदलाव नहीं हुआ तो अजीब उदासी घेर लेती है....पर शायद ऐसा होना ज़रूरी भी है वरना प्राथमिकताओं की लम्बी लिस्ट के चक्कर में बाकी सबकुछ तो हो रहा है...घर, बाहर, ऑफिस की सारी जिम्मेदारियां....सांसें भी चल ही रही हैं...बस ज़िन्दगी जीना कहीं दूर पीछे छूट गया है....कम से कम इस बहाने अपनी कोफ़्त या सनक के चलते ही सही मैं ज़िन्दगी जीने और कुछ रिश्तों में प्यार का कलफ लगाने का जुगाड़ कर ही लेती हूँ...घुटन की इन स्थितियों में मेरे दोस्त और मेरी बहन मेरे लिए ऑक्सीजन का काम करते हैं.

मज़े की बात ये कि जिस आवासीय सोसाइटी में मेरी बहन का घर है वहां मेरा स्वागत ऐसे होता है जैसे वहां की  सारी महिलाएं मेरी बहनें हों....शुरू शुरू में तो इस आत्मीयता को समझने में भी वक़्त लग गया था...पर फिर समझ आया कि ये मेरी बहन के कर्मों का बोनस है जो मुझे मिलता है....मेरी बहन बचपन से ही बड़ी व्यवहारकुशल रही है....खटपट दोस्ती करने में और रिश्ते जोड़ने में उसका कोई सानी नहीं....दूसरों के सुख दुःख को उसने हमेशा ख़ुद में महसूस किया है....इसलिए वो जब भी जिस भी शहर गयी है उसने अपने आसपास एक परिवार सा माहौल बना लिया है....बस तो दीदी, भैया, आंटी, अंकल से भरा एक परिवार यहाँ भी बन चुका है....और उस परिवार में मुलाक़ात से पहले ही मेरा नाम भी दर्ज हो चुका था.

इसी परिवार में एक दीदी हैं जो कि किसी गैर सरकारी संगठन से जुड़ी हुई हैं इसलिए उन्हें सब एनजीओ वाली दीदी के नाम से जानते हैं...दीदी ऐसी सख्त हैं कि सारे उनसे डरते हैं....उनका प्यार भी डांट के लहजे में तब्दील होकर निकलता है....इस चक्कर में छोटे बड़े सब दहशत में रहते हैं...यूँ लगता है जैसे उनको देखते ही सबकी जुबां हलक की जगह पेट में कहीं चली जाती है पर हाँ जितनी वो सख्त हैं बच्चों के साथ उतनी ही मस्त...बच्चे उनसे बड़े खुश...कोई बच्चों को कुछ कह दे तो मोर्चा खोल देती हैं...बच्चो की माएं उनसे ख़ासी दूरी बनाकर रखती हैं....क्यूंकि उनका और मेरा कार्यक्षेत्र मिलता जुलता है तो अक्सर बात हो जाती थी...वो शाम को घर पर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हैं और इस वक़्त यहाँ वार्षिक परीक्षाएं चल रही हैं सो उनसे मिलना जुलना कम ही हो पाया...एक दिन दो तीन मिनट को बात हुई और किसी बात पर महिला दिवस का ज़िक्र आया...उनकी प्रतिक्रिया निराशा, गुस्से और झुंझलाहट से भरी हुई थी...उनका कहना था कि क्या बदला इतने सालों में...स्थितियां बद से बद्तर होती जा रही हैं....हर गली नुक्कड़ में महिला दिवस मनाया जा रहा है....महिला दिवस के मायने बदल गए हैं और महिलाएं आगे बढ़ने की जगह पीछे हो गयी हैं...सोसाइटी की बाकी महिलाओं की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि देखो क्या बदलाव आया है इनमे...इनकी चर्चा के विषय आज भी वो कपडे लत्ते और गहने ही हैं... उनकी ये निराशा विकास से जुड़े हर पहलू पर थी...विकास के मुद्दे पर नरेन्द्र मोदी पर अपनी भड़ास निकल कर और उसे कोस कर वो चली गयीं....पूरी बातचीत के इस आखिरी हिस्से से मुझे बड़ी तसल्ली हुई थी...उनकी इन बातों से काफी हद तक तो मैं भी सहमत हूँ पर उनके जाते ही मैंने ख़ुद से सवाल किया कि क्या वाकई हम इस क़दर पिछड़ गए हैं?? क्या वाकई कोई बदलाव नहीं आया और क्या वाकई हम इस तरह हिम्मत हार सकते हैं??? इस वक़्त पीछे मुड़ कर संघर्ष के एक लम्बे इतिहास के साथ बहुत कुछ देखने समझने की ज़रूरत महसूस हुई कि आखिर कहाँ पहुंचे हैं हम और क्या वाक़ई पूरी तरह से भटक चुके हैं..तो सोचा क्यूँ न एक लेखा जोखा ही कर लिया जाए.

बात की शुरुआत स्व. राजेंद्र यादव जी के शब्दों में करूँ तो “स्त्री हमारा अंश और विस्तार है. वह हमारी ऐसी जन्मभूमि है जिसे हमने अपना उपनिवेश बना लिया है. हमारी सोच और संस्कृति के सारे सामंती और साम्राज्यवादी मूल्य उपनिवेशों के आधिपत्य और शोषण को जायज़ ठहराने की मानसिकता से पैदा होते है...दलित हमारे घरों और बस्तियों से बाहर होता है. स्त्री हमारे भीतर है, इसलिए उसका संघर्ष ज्यादा जटिल है. उनकी मुक्ति स्वयं हमारी मुक्ति है. यानी गुलाम बनाये रखने वाली मानसिक गुलामी से मुक्ति है.” (‘आदमी की निगाह में औरत’ से साभार)

अर्थात ये तो स्पष्ट है कि मौजूदा परिवेश में स्त्री एक संघर्ष और जटिलता का जीवन लेकर ही पैदा होती है....हालांकि बराबरी के उस समाज के लिए कोशिशें बदस्तूर जारी हैं. अपने जीवन के ही फ्लैशबैक में जाऊं को बहुत सारी यादें हैं...ईमानदारी से कहूँ तो अपने बचपन की बहुत खुशहाल तस्वीर नहीं हैं मेरे दिमाग में...एक दब्बू खामोश अंतर्मुखी और बेहद संवेदनशील बच्ची जिसने बचपन से ही अपने आस पड़ोस में हिंसा के अलग अलग रूप न सिर्फ देखे बल्कि महसूस भी किये...सच कहूँ तो परिवार से पहले शायद लोगों का ये व्यवहार ही था जिसने मुझे एहसास दिलाया कि मैं एक लड़की हूँ... मैं लड़कों से अलग हूँ और यौनिकता (ये शब्द तब पता नहीं था) जैसी कोई चीज़ होती है जिसके बारे में किसी से कुछ नहीं कहना चाहिए....मेरी स्मृतियों में आज भी बचपन के वो अनचाहे स्पर्श ताज़ा हैं जो कि ज़्यादातर नन्ही अबोध बच्चियों को कभी बहला फुसलाकर या कभी डरा धमका कर किये जाते हैं....ये सिलसिला जारी रहता अगर बड़े होने पर मैं मुखर न हुई होती और तथाकथित तौर पर बदतमीज़ या मुंहफट न हुई होती ..लखनऊ के जिस पुराने मुहल्ले में मैं रहती थी वहां कई परिवारों में पति द्वारा शराब पीकर रात को पत्नी की पिटाई करना आम बात थी....पति द्वारा सारी संपत्ति शराब में लुटाये जाने के बाद उन सहृदय बुज़ुर्ग महिला जिन्हें पूरा मुहल्ला मामीजी कहता था, का सिलाई करके एक एक दिन की रोटी जुगाड़ने की जद्दोजहद....बहुत कुछ है और शायद बचपन की इन सब बातों ने ज़रूरत से पहले बड़ा कर दिया...मैंने अपने जीवन का एक लम्बा हिस्सा गुपचुप रहके बिताया है...शायद बचपन की वो अप्रिय स्मृतियाँ थी जिनकी वजह से मैंने अपने चारों ओर एक दायरा बना लिया और लोगों से दूरी...दुनिया के अच्छे पुरुषों को मैं अपनी ऊँगली पर गिन सकती थी और उसमे सबसे पहले मेरे पापा आते थे....मार तो दूर की बात है पापा से डांट भी नहीं पड़ती थी....पर चर्चा करने का खुलापन उनके साथ भी नहीं था..भाई 10 साल बड़े थे तो उनके लिए तो मैं बच्ची थी..आज इस बात को सोचती हूँ कि कैसा माहौल मिलता था मेरे जैसी बच्चियों को बचपन में...हमारे घर में हमारा कोई दोस्त नहीं होता था..मेरा तो नहीं था/ थी...ऐसा दोस्त जिससे खुल कर किसी भी तरह की बात की जा सके...जीवन किताबों तक सीमित...इसके अलावा दिलचस्पी, शौक या कला जैसी भी कोई चीज़ होती है ये बड़े होकर पता चला...क्यूंकि पापा शांत थे तो सख्ती करने की ज़िम्मेदारी मां की थी...उन्होंने अपने जीवन में जिस किस्म की कठिनाइयों का अनुभव किया था उस वजह से एक अलग किस्म का गुस्सा और कड़वाहट थी उनके व्यवहार में ...पर ये बातें मैं अब समझती हूँ...तब उनकी सख्ती ने हमारे मन में सिर्फ डर भरने का काम किया था....पापा ने पढाई के लिए बहुत संघर्ष किया था इसलिए वो हम भाई बहनों को अच्छी शिक्षा देना चाहते थे...जाने क्यूँ उम्मीदों का बोझ मुझपर थोड़ा ज्यादा था तो मेरे खेल भी पढाई लिखाई से जुड़े ही होने लगे....जो भी हो पर ऐसे बचपन को खुशहाल और अच्छा बचपन कतई नहीं कहा जा सकता....मैं कभी नहीं चाहूंगी कि मेरे घर के बच्चों का बल्कि किसी भी बच्चे का बचपन ऐसा हो.

7 वीं कक्षा में बेहतर शिक्षा के उद्देश्य से मेरा दाख़िला अंग्रेजी माध्यम स्कूल में करा दिया गया...मुझे यहाँ पहुँचाने में मेरी बहन का सबसे बड़ा योगदान रहा...अंग्रेजी के बढ़ते चलन की वजह से बढ़ते भेदभाव और हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए अवसरों की कमी को उसने महसूस किया था...पर इस विद्यालय में आकर नंबर लाने का एक नया संघर्ष शुरू हुआ...भेदभाव के तमाम आयाम मुझे यहाँ आकर पता चले...पढने में तेज़ व कमज़ोर बच्चों के बीच भेदभाव, आर्थिक रूप से मज़बूत और कमज़ोर परिवारों के बच्चों के बीच भेदभाव, और भी कई यादें हैं ऐसी...पर ये भी सच हैं कि कुछ समय बाद आत्मविश्वास भी आया हालांकि उसके लिए भी 3 साल संघर्ष करना पड़ा....पर एक बार मुखर होने के बाद पीछे लौटने की नौबत नहीं आई...जब 11 वीं में थी तो बहन वीमेंस स्टडीज पढ़ रही थी....बहन में आये बदलाव को देखकर मैं उस विषय से इस कदर प्रभावित हुई कि तभी ठान लिया कि  मुझे भी आगे जाकर यही विषय पढना है....स्नातक तक कमोबेश जीवन यूँ ही था...हिम्मत आई विश्वास भी आया पर किसी अपने के बढ़ते ग़लत हौसलों पर प्रतिक्रिया देना अभी भी नहीं आया था...ऐसी बातें मुझे तब भी सन्न कर देती थी और उस व्यक्ति को कोसते हुए मैं फिर अपने बनाये दायरे के अन्दर दुबक जाती.

मेरे जीवन में असली बदलाव एमए के समय से आया...घर के विरोध के बावजूद मैंने वीमेंस स्टडीज विषय चुना...तब से आत्मविश्वास, बदलाव और सोच में जो तरक्की होनी शुरू हुई वो आज भी जारी है जिसके लिए मैं कई सारे लोगों की शुक्रगुजार हूँ जिसमे मेरी अध्यापिका, मार्गदर्शक और बेहतरीन दोस्त प्रो रूप रेखा वर्मा के साथ साथ मेरे दोस्त और मेरी बहन शामिल हैं. सबसे अच्छी आदत जो पड़ी वो थी सवाल करने और तर्क ढूंढने की....इस चक्कर में धर्म और पाठ पूजा के बोझ से भी ख़ुद को हल्का कर लिया क्यूंकि जिन भगवान को मानते आ रहे थे सवालों और तर्कों के इम्तिहान को वो पास न कर सके. 
                 
खैर, मेरे जीवन की ये झलक बहुत थोड़ी है पर इन कुछ बातों का ज़िक्र मैंने इसलिए किया ताकि शुरू में ख़ुद से किये सवाल का उत्तर के एक सिरे तक पहुँच सकूँ...कि क्या वाकई कुछ नहीं बदला है.    
आज के परिवारों में बच्चों को देखती हूँ तो पाती हूँ बच्चियां कहीं ज्यादा मुखर हैं...हाँ यौनिक हिंसा को आज भी हर घर में चर्चा का विषय नहीं बनाया गया है...बच्चों के साथ यौनिक हिंसा आज भी बड़े पैमाने पर होती है पर पहले के मुकाबले ज्यादा घरों में इस विषय को लेकर जागरूकता आई हैं..अभिभावक चौकन्ने हुए हैं...हालांकि इस बात से भी मेरा कोई इनकार नहीं कि ज़रुरत इससे कहीं ज्यादा होने की है.

शिक्षा के स्तर से लेकर अवसरों की उपलब्धता और अन्य कलाओं को प्राथमिकता देने का चलन भी बढ़ा है....फोटोग्राफी, अभिनय, कला, लेखन, विज्ञान, खेल जैसे और कई तकनीकी क्षेत्रों में लड़कियों की भागीदारी बढ़ी है...इन क्षेत्रों को भी करियर के विकल्प में देखा जाने लगा है जो कि अच्छी बात है...लड़कियों का घर से बाहर निकलना बढ़ा है...महिलाओं की राजनीति में रूचि व भागीदारी बढ़ी है... अभी अभी हिंदुस्तान टाइम्स की एक खबर पढ़ रही थी जिसमे कहा गया था कि उत्तर प्रदेश में 2009 में हुए आम चुनावों और 2012 में हुए विधान सभा चुनावों में महिला मतदाताओं की भागीदारी के प्रतिशत में लगभग 16% की वृद्धि हुई थी...2009 में महिलाओं की 44% भागीदारी दर्ज की गयी थी जो कि 2012 में बढ़कर 60 % हो गयी थी. तो ये बात तो साफ़ है कि बदलाव तो यकीनन आये हैं पर हाँ इतना काफी नहीं है... और ये भी सच है कि इन अच्छे बदलावों के साथ प्रतिकूल व स्थितियों को बिगाड़ने वाले बदलाव भी भारी मात्रा में आये हैं.

मसलन, अभी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की वर्ष 2012 की रिपोर्ट देख रही थी ...महिला के प्रति हुई हिंसा के आंकड़े तकलीफ और चिंता देने वाले हैं...यहाँ ये बात फिर जोर देकर कहूँगी कि ये वो आंकडें हैं जो सरकारी दस्तावेजों में दर्ज हुए हैं....अधिकांश घटनाओं में शिकायत दर्ज नहीं की जाती है इसकी वजहें कई हैं...ये कथित तौर पर घर की इज्ज़त से जुड़ा मसला होता है, ‘भले’ घर की औरतें थाने या कोर्ट कचेहरी नहीं पहुँचती (ये अलग बात है कि  इन भले घरों में औरतें मारी, पीटी, सताई और यहाँ तक की जला दी जाती हैं पर इससे घर की इज्ज़त पर कोई आंच नहीं आती) और साथ ही पुलिस का असंवेदनशील रवैया और कोर्ट कचेहरी की कमरतोड़ लम्बी और खर्चीली प्रक्रिया उनके हौसले पहले ही पस्त कर देती है...असंवेदनशीलता मानसिकता में इस कदर घुसी होती है कि रवैये, कार्य प्रक्रिया और नतीजे हर जगह ये साफ़ नज़र आती है....अगर इन घटनाओं का भी कोई आंकड़ा मिलता तो कुल आंकड़ों में जो उछाल आता वो इस तथाकथित सभ्य समाज की जो तस्वीर पेश करता उसकी कल्पना करना संभव नहीं...खैर बात करते है दर्ज शिकायतों के आंकड़ों की..
वर्ष 2012 में महिलाओं के प्रति हुई हिंसा के 2,44,270 मामले दर्ज किये गए..2011 की तुलना में ये आंकड़ा 6.4% की वृद्धि दिखाता है...2008 से इन आंकड़ों में 24.7 % की वृद्धि दर्ज हुई है...2008 में ये संख्या 1,95,856 थी. देश के 10 राज्यों में इन घटनाओं की संख्या 10,000 से ऊपर है...3 राज्यों में 5001 से 10000 के बीच है और बाकी राज्यों में इससे कम है......राष्ट्रीय स्तर पर अपराध की दर 41.74 है और असम में ये सबसे ज्यादा 89.5 आंकी गयी है...बलात्कार के 24,923, अपहरण के 38,262, दहेज़ हत्या के 8,233, पति व अन्य रिश्तेदारों द्वारा हिंसा के 1,06,527, महिलाओं के शीलभंग करने के उद्देश्य से किये गए हमलों के 45,351, महिलाओं की अस्मिता और शील (modesty) को अपमानित करने के 9,173 और विदेशों से की गयी लड़कियों की तस्करी/ आयात के 59 मामले दर्ज हुए हैं...ये सभी मामले भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आते हैं....इन अपराधों में 2011 की तुलना में 6.1% की वृद्धि हुई है...इसके अलावा मानव तस्करी के 2,563, महिलाओं की अभद्र अथवा आपत्तिजनक छवि बनाने/ दिखाने के 141 और दहेज निरोधक कानून के अंतर्गत 9,038 मामले दर्ज हुए हैं....विशेष और स्थानीय कानून के अंतर्गत आने वाले इन अपराधों में 23.5% की वृद्धि हुई है. एक आंकलन करने के लिए अगर कुछ अपराधों की सज़ा की दर पर नज़र डालें तो आंकड़े हताश करने वाले हैं. उदाहरण के तौर पर बलात्कार के मामलों में ये दर 24.2, अपहरण में  21.2 , दहेज हत्या में 32.3 और महिला का शीलभंग के उद्देश्य से की गयी हिंसा के मामलों में 24.0 दर्ज की गयी है.                         
                  
ज़ाहिर है तस्वीर बेहद विचलित कर देने वाली है...और ये तस्वीर किसी एक वर्ग, धर्म, जाति, आयु, पेशे या क्षेत्र तक सीमित नहीं...औरत या लड़की का अपने हक के लिए आवाज़ उठाना हमारे समाज में परवरिश का हिस्सा ही नहीं होता है...इस दुनिया में आने से पहले से लेकर जाने तक एक लड़की भेदभाव और हिंसा को अनगिनत रूपों में झेलती है...स्थिति अब सिर्फ चिंताजनक न होकर भयावह हो चुकी है और ये दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को शर्मसार कर देने वाली बात है....ज़िम्मेदारी सरकार, पुलिस, न्यायपालिका, मीडिया से लेकर आमजन तक की है...जागरूकता एक बड़ा विकल्प होता है लेकिन अब सिर्फ इतना काफी नहीं...कड़े कानून और उनका क्रियान्वयन अब सबसे बड़ी ज़रुरत बन चुका है....कानून व्यवस्था और न्यायप्रणाली को संवेदनशीलता का परिचय देते हुए इन शिकायतों का जल्द निपटारा करने की ज़रूरत है..बल्कि अब तो ज़रूरत एक ऐसी व्यवस्था की भी हो गयी है जो इनकी निरंतर निगरानी करे...स्थितियां अब वो नहीं रहीं जब हम ये कह सकें कि ख़ुद को बदलने से ही सुधार आएगा...जागरूकता का यह स्तर आवश्यक है पर अब उससे कहीं ज्यादा आवश्यक है कड़े कानून होना और उनका क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाना...पीड़िताओं का भरोसा न्यायप्रणाली से उठने लगे और शिकायतकर्ता के दिल में पुलिस की दहशत बैठी हो, ये स्थितियां सरकार और कानून व्यवस्था को भद्दा मजाक साबित करती हैं लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि स्थितियां ऐसी ही हैं बल्कि लगातार और भी बुरी होती जा रही हैं.    
  
वैश्विक स्तर पर देखें तो यूएन वुमन के शोध के अनुसार अनुसार, विश्व भर में 66% कार्य महिलाओं द्वारा किया जाता है, 50% खाद्य सामग्री का उत्पादन महिलाओं द्वारा किया जाता है लेकिन इस कार्य के बदले महिलाओं की आय का हिस्सा सिर्फ 10% होता है और दुनिया भर में महिलाओं को सिर्फ 1% संपत्ति पर ही स्वामित्व प्राप्त है...एक बड़ी खाई सदियों से बनी है जो गहरी और चौड़ी होती जा रही है...वो काम के घंटों की हो, समान कार्य के लिए असमान वेतन की हो, कार्यक्षेत्र में होने वाले भेदभाव की हो या संपत्ति पर अधिकार की हो.

उदाहरण के लिए भारत में ही देखें तो आज भी लोग संपत्ति पर अधिकार देने की जगह लड़कियों को शादी में दहेज  देते हैं...ऐसा करके वो एक कुरीति के साथ साथ कभी न ख़त्म होने वाले लालच और इसके नतीजे में मिलने वाली हिंसा को बढ़ावा देते हैं. ये सोच ही बेहद हास्यास्पद होती है कि अधिक दहेज दिए जाने पर ससुराल में बेटियों को खुश रखा जायेगा....आये दिन की घटनाओं से ये स्पष्ट है कि शादी नाम की संस्था के चरमराने की एक बड़ी वजह ये रवैया भी है...इसके अलावा ये चलन ग़लत उदाहरण पेश करते हुए आर्थिक रूप से अक्षम लोगों पर बोझ बढ़ाने का काम करता है और विवाह को रिश्तों की ऐसी दुकान बनाता है जहाँ बोली तो लड़कों की लगती है पर सारे इम्तिहान लड़की को देने पड़ते हैं.....साथ ही ऐसी संपत्ति से लड़की का कोई सशक्तिकरण नहीं होता...पर ख़ुद माता पिता का ये मानना होता है कि अचल संपत्ति (जिसका मूल्य अधिक होता है) पर बेटे का अधिकार होता है...कानूनी हक होने के बावजूद अगर बेटी संपत्ति पर अपने हिस्से की मांग कर ले तो उसे तीखे ताने देने से कोई पीछे नहीं हटता...इसके साथ एक बात और कहना ज़रूरी लगता है...बेहद क़ाबिल और अच्छी लड़कियों को भी आज के समय में एक असफल विवाह का दंश झेलना पड़ रहा है...ऐसे में सबसे पहले लड़की को और उसकी महत्वाकांक्षाओं को ही ज़िम्मेदार ठहराया जाता है...लड़की से ही त्याग की न सिर्फ उम्मीद लगायी जाती है बल्कि विवाह को सफल बनाने की सारी ज़िम्मेदारी उसके ऊपर ही डाल दी जाती है...ऐसा करने में लड़की के मां बाप और अन्य रिश्तेदार बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं...अत्यंत विषम परिस्थितियों मे यदि ससुराल से अलग होने की नौबत आये तो मां बाप और भाइयों की हवाइयां उड़ने लगती हैं जैसे एक बड़ा बोझ आ गया हो...उसे हौसला दिए जाने की जगह ‘एडजस्ट’ करने की सलाह दी जाती है..घर से डोली और ससुराल से अर्थी उठने की मानसिकता आज भी उतनी ही मज़बूत है...ऐसे में या तो महिला ऐसे जीवन को नियति मानकर बर्दाश्त करे, या फिर अगर हिम्मत रखती है और सक्षम है तो ससुराल और मायके दोनों से अलग रहकर नए सिरे से ज़िन्दगी की जद्दोजहद शुरू करे...अपनी जान देने का विकल्प भी कई महिलाएं अपनाती हैं...मैं किसी ऐसी महिला को नहीं जानती जो ऐसी स्थितियों में पूरे हक से अपने मायके जाकर संपत्ति पर अपने हक की मांग की हो.....मेरी ही एक सहेली 8 साल से अपने ससुराल में यूँ ‘एडजस्ट’ करने को विवश है....जब उसके पिता को मैंने समझाने की कोशिश की तो उन्होंने मुझसे कहा हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता, दो बच्चे हो गए हैं अब दोबारा शादी भी नहीं होगी....मेरी मौसेरी बहन का असफल प्रेम विवाह तलाक पर ख़त्म हुआ पर उसके माता पिता ने उसको इस मानसिक तकलीफ से निकालने की बजाय साल भर के भीतर उसकी दोबारा शादी करवाने को अपना उद्देश्य बनाया और ऐसा करवाकर ही दम लिया....ख़ुद मुझसे ही मिलने वाले हर दूसरे इंसान का पहला सवाल और चिंता मेरी शादी से जुड़ी होती है..मतलब ये कि लड़की के जीवन में विवाह एकमात्र और आखिरी उद्देश्य होता है......उसके सपने, पहचान, अस्मिता, काम, क़ाबिलियत और प्राथमिकताएं शादी तक ही सीमित होती हैं.... इसके बिना उसका जीवन निरर्थक है. 
                      
ज़ाहिर है हक और हुक़ूक़ की लड़ाई में महिलाएं दुनिया भर में पीछे हैं... कभी धर्म, कभी जाति, कभी कर्त्तव्य, कभी परंपरा तो कभी संस्कारों के नाम पर महिलाओं को पीछे धकेलने की कोशिशें लगातार जारी हैं....साथ ही बाज़ार ने खूबसूरत जाल बिछा कर अधिकाँश महिलाओं को अपनी गिरफ्त में लेकर उन्हें वस्तु में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है...अब उसका काम करना ज़रूरी है पर उसका गोरा दिखना भी उतना ही ज़रूरी है...वो डॉक्टर हो पर घर आकर फर्श पर पोंछा कैसे मारा जायेगा, बच्चे किस साबुन से हाथ धोयेंगे और बर्तन धोने के लिए कौन सा साबुन आएगा ये भी वो ही देखेगी....ये निर्णय लेने में भागीदारी नहीं है बल्कि बाज़ार के चालाक और कुटिल दिमाग ने उसे दोगुने कार्यबोझ के नीचे दबा दिया है..मीडिया ने इसे पूरी तरह से मज़बूत करने का काम किया है...अधिकाँश अखबार व न्यूज़ चैनल अब खबर का माध्यम न होकर बाज़ार के हाथों की कठपुतली बन चुके हैं और दुकानों में तब्दील हो चुके हैं....मीडिया की भूमिका पर विस्तार से बात फिर कभी होगी.

तो हमारा धर्म, मान्यताएं रिवाज़ तो तस्वीर को बेहतर बनाने से रहे...रुढियों, पिछड़ी मान्यताओं और हर उस व्यवस्था को खुली चुनौती देना बेहद ज़रूरी है जो किसी भी तरह पितृसत्ता या गैर बराबरी के सामाजिक ढाँचे को मज़बूत करती हो....तस्वीर अच्छी तो बिलकुल नहीं और बदलाव के जिस दौर में हम हैं उसमे भटकाव की ज़बरदस्त गुंजाईश और डर है....पर उम्मीद का साथ नहीं छोड़ा जा सकता यहाँ तक लाने में भी जाने कितने लोगों का सदियों का संघर्ष शामिल है..उनकी हिम्मत और जज्बों ने तस्वीर में बड़े बदलाव किये हैं जो आजादी, हक और सशक्तिकरण के किसी न किसी रूप में आज हमारे सामने हैं और सबसे बड़ी बात तो ये की इस विषय को मुद्दा बनाया है....इतिहास पर नज़र डालें तो कई मामलों में हम यकीनन एक बेहतर माहौल में हैं...हम यहाँ से वापस नहीं पलट सकते इसलिए हम संघर्ष और उम्मीद दोनों को साथ लेकर चलेंगे....ये सच है कि इस भटकाव की वजह से कई बार आन्दोलनकारियों का मजाक बना दिया जाता है पर ये उस संघर्ष का ही एक हिस्सा है और कहीं न कहीं ये पितृसत्ता और रुढ़िपंथियों की खिसियाहट को दिखाता है...ये संघर्ष बराबरी के समाज के लिए है...इसमें पुरुषों की भागीदारी उतनी ही ज़रूरी है जितनी महिलाओं की क्यूंकि इस ढाँचे ने कर्त्तव्य और परम्पराओं की बेड़ियों में उन्हें भी ठीक उसी तरह कसा है जैसा कि महिलाओं को...मज़बूत और सख्त बनाने के चक्कर में उनकी मानवीय भावनाएं छीन ली हैं. मैं नकारात्मक सोच के साथ आगे नहीं बढ़ सकती और ये समय स्थितियों के आगे घुटने टेकने का नहीं बल्कि उनसे और भी उत्साह और मजबूती के साथ लड़ने का और अपनी कोशिशों को निरंतर जारी रखने का है...हम संख्या में भले कम हैं पर हम अकेले नहीं और ये मुद्दा किसी अकेले का नहीं....तस्वीर हर पल बदल रही है....मेरा विश्वास है कि इस लड़ाई से ये और बेहतर होगी....ये तो नहीं कह सकती कि कब लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि वो सुबह कभी तो ज़रूर आएगी....ऐसी स्थिति में हौसलों को जिंदा रखने के लिए ही पाश बरसों पहले ये पंक्तियाँ कह गए थे:

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती  
गद्दारी, लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती

बैठे बिठाये पकडे जाना बुरा तो है
सहमी सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होती

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शान्ति से भर जाना
ना होना तड़प का
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनो का मर जाना