गुरुवार, 25 सितंबर 2014

periodic शराफ़त वाले उन धार्मिक दिनों का उत्सव

चलिए भाई साब अंगड़ाइयां लेती हुई माता रानी जाग गयी है, बाज़ार सज गए हैं, मंदिरों में रौनक हो गयी है मतलब नवरात्रे शुरू हो गए हैं...अब देखिएगा आप कमाल...ये नौ दिन महिलाएं एकदम सुरक्षित...कोई ज़रा हाथ लगा के या नज़र उठा के तो देखे माता रानी के प्रकोप से नहीं बचेगा...इस बीच अब महिला हिंसा या उत्पीड़न जैसी कोई घटना देखने सुनने को नहीं मिलेगी (कहीं दर्ज हो रही होगी या मीडिया में आ रही होगी तो वो ग़लत होगी) वो जो या देवी सर्वभूतेषु जपते हुए पांडेयजी, दूबे जी, शर्मा जी और भी कई सारे लोग कलश स्थापना कर रहे हैं...अब न तो ये अपनी बीवी पर चिल्लायेंगे या हाथ उठाएंगे, न अपनी बेटी पर दुनिया भर की पाबंदियां लगायेंगे और दफ्तर में सहकर्मी की तरफ़ उस नज़र से तो कतई नहीं देखेंगे....ऐसे वैसे छूने या इस तरह की फ़रमाइश करने की बात तो भूल ही जाइये..माँ बहन वाली गालियों का तो नाम भी न लीजिये....इस बीच कोई औरत दहेज के लिए नहीं जलाई जाएगी, कोई बच्ची कोख में नहीं मारी जाएगी, कोई लड़की नहीं छेड़ी जाएगी और बलात्कार...आप भी क्या मज़ाक कर रहे हैं साहब...नवरात्र चल रहे हैं...

विचित्र स्थितियां हैं...ये जो periodic शराफ़त वाली पूजाएँ या दिन होते हैं वो मेरी समझ से परे हैं...वो चाहे नवरात्र हों, पितृ पक्ष या रमज़ान...मतलब आप हमें ये समझाइये कि इतने दिन ये न करो वो न करो...दुनिया भर के नियम और उसके बाद?? उसके बाद हर प्रकार के कुकर्म करने का लाइसेंस मिल जाता है क्या...इतने दिन दया करो, दान करो, पुरखों को याद करो, उपवास रखो, दिमाग में कोई विचलित करने वाला ख़याल न आने दो...और उसके बाद साल भर एकदम छुट्टा घूमो...जी हमें ये बताइए कि सोम, बुध, और शुक्र को शराब का सेवन और मांसाहार की अनुमति कैसे है जब मंगल, बृहस्पति और शनिवार को वो एकदम ग़लत और प्रतिबंधित है...मुझे याद है मेरी एक सहेली जो कि सिंधी थी वो बृहस्पतिवार को कपड़े नहीं धोती थी...शनिवार को तेल या लोहा नहीं लिया जाता...और रमज़ान में तो नियम कानून की एक लम्बी लिस्ट होती है...ठीक है रखिये आप उपवास पर हमें ये बताइए कि आपका धर्म या मान्यताएं आपको सिर्फ़ उतने ही दिन शरीफ़ रहने को क्यूँ कहता है...उतने ही दिन दान पुण्य करने को क्यूँ कहता है....और हाँ उन दिनों में भी ज़रा याद कर लें कि जब खाया जाता है तो कैसे खाया जाता है...नवरात्रि के दिनों में दिन भर व्यंजन ही बना करते हैं...कुट्टू के आटे की पूड़ी, सिंघाड़े के आटे के व्यंजन, साबूदाने की टिक्की...मखाने की खीर...आलू देशी घी का हलवा, फलाहार और भी न जाने क्या क्या और ऐसे ही नज़ारे होते हैं रोज़ा इफ्तार के भी...तसवीरें देखी हैं हमने...काहे का उपवास....इन सबके पीछे की सोच जो भी रही हो ऐसी तो कतई नहीं रही होगी...रोज़ा इफ़्तार की पार्टियाँ किसी शादी के आयोजन से कम नहीं लगती हैं कई जगह...मैं जानती हूँ सब जगह ऐसा नहीं है पर आप भी जानते हैं की ज़्यादातर जगह सोच और practices का क्या हाल है.

मैं भगवान् को नहीं मानती, किसी धर्म को नहीं मानती पर मुझे उन लोगों से कोई निजी दिक्क़त भी नहीं जो मानते हैं...ये उनका अधिकार है ठीक वैसे ही जैसे न मानना मेरा अधिकार...पर ये ज़रूर सोचती हूँ कि क्या चलता है इन लोगों के दिमाग में...क्या एक बार भी सवाल नहीं उठता कि हम जो मान रहे हैं या कर रहे हैं वो किसलिए...क्या अगरबत्ती जलाने, नारियल फोड़ने, हवन करने, सजदा करने से आप एक अच्छे इंसान बन जायेंगे? आपका भला हो जायेगा? उपरवाले की आपके और आपके परिवार के ऊपर कृपा हो जाएगी?? आपके वो सारे पाप या कुकर्म धुल जायेंगे या justify हो जायेंगे जो आपने पूरे होशो हवास में सोच समझ के किये होते हैं...ज़रा भी अजीब नहीं लगता? जैसा मैंने कहा धार्मिक लोगों से मुझे कोई निजी दिक्कत नहीं पर ये सोच कि धर्म में आपका विश्वास आपको एक अच्छा इंसान बनाता है ऐसा मुझे दिखता तो नहीं...बड़े बड़े धार्मिक व्यक्तियों को, हाथ में रंग बिरंगे पत्थरों की अंगूठी पहने हुए लोगों को मैंने निहायत ही गिरी हुई सोच रखते हुए और हरकतें करते हुए देखा है...बल्कि कई बार ये ठीक वैसा होता है जैसा ये कहना कि हर पढ़ा लिखा व्यक्ति ज्ञानी/ समझदार/ जागरूक/ तरक्कीपसंद हो ऐसा कतई ज़रूरी नहीं.

आपके भगवान् धर्म और भूगोल में भी बंटे हुए हैं और क्या तो आपसी समझ और राजनीति है इनकी...धार्मिक स्थल धर्म के साथ साथ जाति और लैंगिक असमानता का पालन करते चलते हैं...पुजारी आपको सवर्ण पुरुष ही मिलेंगे (अपवाद को कृपया अपवाद में ही गिनें), कई जगहों पर तथाकथित नीची जाति वालों का, महिलाओं का प्रवेश वर्जित होता है, प्रवेश कर गए तो विपदा आ जाएगी, ये छूत जैसा है...तब तो बड़े ही अजीब हैं ये ऊपरवाले ईश्वर...ये सर्वशक्तिमान हैं पर दुनिया में सबसे मज़े में वो लोग हैं जो ग़लत हैं, भ्रष्ट हैं, ज़ालिम है..काहे के शक्तिमान जी कुछ भी तो कण्ट्रोल ना कर पाते...एक युद्ध तो रुकवा न पाते...नफ़रत पर कोई नियंत्रण ही नहीं..आपके प्रभु कुछ ग़लत नहीं होने देंगे पर ये क्या ग़ाज़ा में तो इतने मासूम बच्चों और लोगों की जाने चली गयीं, दुनिया भर में लोग गरीबी, भुखमरी, ज़ुल्म और अन्याय के चलते मर रहे हैं, दुखी हैं....क्या इनकी शक्तियां यहाँ काम नहीं करतीं...या ये वाला विभाग गड़बड़ है कुछ?? क्या कहा आपने...सब इनकी मर्ज़ी से ही होता है?? हाँ ऐसा कुछ बचपन में मैंने भी महाभारत सीरियल में देखा था...लोग भी कहते हैं सब ऊपर वाले की मर्ज़ी से होता है...पर माफ़ कीजियेगा फिर तो वो ऊपरवाला बड़ा ही ज़ालिम है कि इस क़दर दुनिया में नफ़रत, ज़ुल्म, तकलीफें फैलाये हुए है...पिछले जन्म का फल??? अरे भाई साहब उसको कौन पिछला जन्म याद है...मेमोरी में कोई फ़्लैश बैक थोड़े ही न है पिछले जन्म का...इनके पास भी इतने लंबित मुक़दमे हो गए हैं क्या हिन्दुस्तानी न्यायपालिका की तरह कि उस जन्म का फैसला उसी जन्म में नहीं हो पाता...सारी मेहरबानियाँ ज़ालिमों पर ही होंगी तो ऊपरवाले की समझ और नीयत पर शक तो होगा ही न...उस पर से आप देखिये मजबूरियां भी हैं हम अपने धर्म और अपने देश वालों को ही बचायेंगे...अब ईरान में कुछ होगा तो भोलेनाथ और हनुमान तो जा न सकेंगे...यहाँ भी कोई वीसा व्यवस्था होगी शायद या कुछ आपसी सहमति बनी होगी...पर फिर भी एक दूसरे की मदद तो करनी ही चाहिए...अब वो बेचारा मक़सूद अगर शेर के बाड़े में गिर गया और अल्लाह मियां किसी और ज़रूरी काम में व्यस्त थे तो क्या माता रानी जिनका वाहन ही शेर है वो उसे बचा नहीं सकती थीं?? भाई इतनी तो आपसी सहमति होनी चाहिए..कुछ इंसानियत भी रखनी चाहिए या नहीं...

एक तो इतने अस्त्र शस्त्र से लदे फंदे देवी देवता जो किसी न किसी बेचारे जानवर को वाहन बनाये ज़ुल्म ढा रहे होते हैं, उनकी करुणा, ममता, दया वाली कल्पना संभव नहीं हो पाती मेरे लिए...अब गणपति को ही लीजिये..भगवान हैं वो भी इतने दिन उनका भी उत्सव चलता है...पहली बात तो ये कि बचपन में बेचारे माँ की बात मानने के चक्कर में अपना ही सिर नहीं बचा पाए, दूसरे ये कि भोले भाले कहे जाने वाले कैसे गुस्सैल और ज़ालिम वो भोले नाथ कि पूरे बात जाने बग़ैर एक बच्चे का सिर ही उड़ा दिया और उसके बाद देखिये शिकार बना तो कौन वो बेचारा हाथी...अब कहिये कि इसकी बदौलत तो लोग हाथी में भगवान देखने लगे हैं तो क्या भैया अब ये ही तरीका रह गया है...उसपे से बैठा दिया उनको उस बेचारे निरीह नन्हे से चूहे पे...इन सब उपरवाले लोगों के साथ इतना उलझा हिसाब किताब है कि पूछिए मत...क्या लगता है आपको वो माइक पे हल्ला मचाने वाले जागरण, रामचरित मानस ऊंची आवाज़ में होंगे तो सीधे उपरवाले तक पहुँच जायेंगे...ग़ज़ब है....ईमानदारी से कहूँ तो ये वो समय होता है जब दिल से ये मनाया करती हूँ कि बिजली चली जाए...ज़रा शांति रहे.

इस बात को समझें कि मेरा सवाल या आपत्ति जो भी कहिये वो उस आस्था पर नहीं पर उसके तरीकों पर है...ये जिस क़िस्म की सोच और उससे उपजा फैशन और बाज़ार है उससे है...और ये उस तरीके से भी है जिसने ईश्वर की छवि एक लालची दुकानदार जैसी बना दी है...कि तुम ये दो तो मैं ये करूँगा या तुम ये करो तो ये फल मिलेगा...ताज्जुब है कि वाकई आपको ऐसा लगता है कि ईश्वर के नाम पर पैसा खर्चा करने से वो आपकी नाजायज़ इच्छाएं पूरी करेगा या फिर आपके ऐसे काम justify हो जायेंगे...मेरी आपत्ति इससे भी है कि ऐसे आयोजन आपकी professional dealings, स्वार्थ, भृष्टाचार, चापलूसी या किसी को बरगलाने के लिए भी होते हैं. 

इस सोच और मानसिकता ने जाति, धर्म, लिंग, उम्र, जगह जैसी तमाम सीमाओं को तोड़ते हुए सबके ऊपर सामान रूप से अपना असर दिखाया है...एक बात तो तय है कि ये आमजन जिसकी खुद से सवाल करने या अपनी ही आस्था पर सवाल करने की न आदत है न हिम्मत इसके चलते कई सारे लोगों का खूब फायदा हो रहा है...इनकी बदौलत कई लोगों के घरों के चूल्हे जल रहे हैं तो कई लोग ऐश से जिंदगी बिता रहे हैं..मंदिरों और बाबाओं की संपत्ति का टर्न ओवर देखा है कभी?..ज़रा एक नज़र अपने अन्दर डालिए, सवाल करिए और खुद को ईमानदारी से जवाब दीजिये कि क्या आप असल में वो ही व्यक्ति हैं जो लोगों को दिखाते हैं, जो सोचते हैं या करते हैं...क्या वो वाकई सही है, एक अच्छे इंसान का गुण है? कुछ ऐसे बेहद सीधे सवाल...करके ज़रा देखिये तो सही...और हाँ साथ ही ज़रा एक नज़र आस पास भी दौड़ाइए और ज़रा देखिये आपकी इन मान्यताओं के चलते किनकी दुकाने चल रही हैं, किनको फायदा पहुँच रहा है, किस सोच को बल मिल रहा है और कैसे कामों को बढ़ावा मिल रहा है....जिस राह पे चलने की उम्मीद कर रही हूँ वो मुश्किल होती है...पर जब साथ हो तो मुश्किलें भी आसान होती है...आइये चला जाए...क्या सब उपरवाले के भरोसे छोड़े बैठे हैं...कुछ काम ख़ुद भी करिए

(ये लेख किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं हैं...फेसबुक स्टेटस लिखने की सोची थी पर जब कहने को और बातें निकलने लगीं तो यहाँ लिख दिया)           

बुधवार, 23 जुलाई 2014

यूँ लौटना बचपन के गलियारों में

बड़ी हसरत से इंसाँ बचपने को याद करता है
ये फल पक कर दोबारा चाहता है ख़ाम हो जाए (नुशूर वाहिदी)

बालकनी में बैठी हूँ....सामने पार्क में पेड़ पौधों के चटख हरे पत्ते देख रही हूँ जो तेज़ बारिश के बाद धुल कर और खिल आये हैं.....आसमान फिर काले बादलों से घिर गया है....ठंडी हवाएं छूकर निकल रही है...आँखें बंद करती हूँ तो एकदम चौंक जाती हूँ...जैसे एक फ़्लैश बैक सा कुछ हुआ....दोबारा बंद करती हूँ....हाँ ये तो कुछ जाना पहचाना सा है....वो सौंधी मिटटी की ख़ुशबू, चारों तरफ़ सब कुछ भीगा, नहाया और पत्तों और फूलों के रंग और भी खिल गए हैं....घरों में गाय, भैंस, बैल सब थोड़े भीगे भीगे एकदम सीधे खड़े हैं....रह रह कर गर्दन झटकते हैं तो घंटियाँ बज उठती हैं गले की.....वो एक छोटे बच्चों की टोली हल्ला मचाती दौड़ती, पानी में कभी छप छपाक करती तो कभी बचती बचाती दौड़ी जा रही है....वो दूर से एक बुज़ुर्ग महिला,  दुबली पतली छोटी सी, गढ़वाली शैली की गत्ती धोती बांधे आवाज़ देती हैं...और इस टोली से एक 7- 8 साल की बच्ची, गुलाबी फ्रॉक पहने चल पड़ती है उनकी  तरफ़....पीछे से साथी कुछ कहते हैं तो पलटती है और चंचल आँखों से कुछ इशारा करती है....अरे ये तो मैं हूँ....और वो सब मेरे बचपन के साथी...कैसे लग रहे हैं सब...कोई निकर बनियान पहले निकल पड़ा तो कोई सिर्फ़  पैंट में...और रिंकी को तो देखो इसकी फ्रॉक तो अभी आम की टहनी में फंस कर फट गयी थी और वो ऐसे ही आ गयी...सब भीगे भागे....पैर मटमैले पानी से सने....इशारा समझने की कोशिश करती हूँ...मैंने शायद ऐसा कुछ कहा कि अभी थोड़ी देर में आती हूँ....आगे बढ़ती हूँ उन महिला की तरफ़ जो अब थोडा साफ़ दिखने लगी हैं.....ये तो नानी हैं...अरे हाँ...गोशाला से अपनी गाय को बाहर लाती मेरी नानी..और उतनी बूढ़ी भी नहीं दिख रहीं....कैसे डपट रही हैं भीगने पर...और ज़रा देखो मुझे मैं हँसे जा रही हूँ...और कितनी मासूमियत से कह रही हूँ....बंटी, सुरेश, रज्जो, नित्तू, रिंकी और संजू भी तो थे साथ में...नानी मेरे कपड़ों और पैरों की तरफ़ इशारा करती हैं कि किस क़दर गन्दा कर दिया है मैंने इन्हें...तो मैं मौके का फ़ायदा उठाती हूँ और कहती हूँ....नहर चली जाऊं नहाने... पर नानी तो सुनती ही नहीं...मना कर दिया...मैं चिपक गयी उनसे....कि हाँ कहो तभी छोडूंगी...उनके कपड़े भी भिगा दिए...फिर से एक प्यार भरी डांट के साथ इजाज़त मिल जाती है नहर पर जाने की...और ज्यादा देर नहीं लगानी...मैं फिर दौड़ पड़ती हूँ सड़क की तरफ़जहाँ घर के कोने पर लगे जंगली जलेबी और बाड़ के लिए लगाई गयी काँटों वाली झाड़ के पीछे छुपे मेरे साथी मेरा इंतज़ार कर रहे हैं....मिलने पर एक बार फिर हल्ला और दौड़ पड़े छोटी नहर की तरफ़ नहाने...लो बंटी फिसल भी गया..फिर सबकी हंसी छूट पड़ती है..ये कितना गिरता रहता है...कोई बात नहीं अभी नहायेगा तो साफ़ हो जायेगा...और ये शुरू हुई नहर में बच्चों की छप छपाक...आँखें खोलती हूँ...मुस्कुरा रही हूँ पर आँखें डबडबाई हुई हैं....क्या कुछ है जो छूट गया...जिससे दूर निकल आये...रिश्तों कि गर्माहट से, खुशियों से, शरारतों से, हंसी ठिठोलियों से और शामिल हो गए इस बनावटी दुनिया में 
           
वक़्त के साथ हसरतें बहुत तेज़ी से बढ़ती हैं....बहुत कुछ पाना होता है, हासिल करना होता है और उसके लिए सबसे पहले उसके लायक बनना होता है...फिर दुनिया की लगभग गला काट प्रतियोगिता में कूद कर ख़ुद को साबित करना होता है....दो ही तरीकों से लड़कियों के घरवाले उनके भविष्य की कल्पना करते हैं....या तो मतलब भर का पढ़ा लिखा कर शादी कर देना या फिर करियर बनने के बाद शादी....शादी नॉन नेगोशिएबल है....मेरे घर के लोग अपवाद नहीं है ये अलग बात है कि मैं ज़रुरत से ज़्यादा ज़िद्दी निकल गयी....इस मशीनी ज़िंदगी, बनावटी रिश्तों और माहौल में जब दम घुटने लगता है तो आज भी नानी की गोद याद आती है....हम किस क़दर स्वार्थी होते हैं...रिश्ते भी हमें तब याद आते हैं जब हमे ज़रुरत होती है...अपना दिल हल्का करने बचपन की उन गलियों में मैं पूरे 3 साल बाद जा रही थी....क्या कुछ बदला होगा इन 3 सालों में...और मेरी नानी...वो अब और भी बूढ़ी दिखने लगी होंगी...माँ बताती है पहले से भी दुबली हो गयी हैं

ट्रेन लेट थी....अच्छा ही हुआ...5 बजे के अँधेरे में मुझे इस स्टेशन पर डर लगता....धामपुर...जी..वही शुगर मिल्स वाला धामपुर...नहीं मेरा ननिहाल यहाँ नहीं...यहाँ से लगभग 38 किमी दूर है..यहाँ पहुँचने के दो रास्ते हैं.. या तो धामपुर या काशीपुर..काशीपुर का रास्ता लम्बा है और सही समय पर पहुँचाने वाली ट्रेनें सीमित हैं इन दोनों स्टेशनों पर..अब सीधी बस तो नहीं मिलेगी...बदल बदल कर जाना पड़ेगा...सुबह सुबह प्रेस की गाड़ियाँ जाती हैं पर अब देर हो गयी है..पापा ने बताया स्टेशन से रिक्शा कर लूँ नगीना तिराहे तक वहां से बस मिल जाएगी...बाहर आती हूँ, सर पर टोपी, कंधे पर गमछा और हिना की हुई दाढ़ी वाले एक मुसलमान बुज़ुर्ग ख़ुद ही दौड़े आते हैं कि गुड़िया कहाँ जाओगी...मैंने बताया नगीना तिराहा...मेरा सूटकेस रिक्शे पर रखने लगे...मुझे अच्छा नहीं लगा...मैं खुद रख सकती हूँ...वो बुज़ुर्ग थे...बोले अरे बिटिया तुम क्यूँ रखोगी...देखती हूँ सड़क गीली है...जगह जगह पानी भी भरा हुआ है...पता चला कि सुबह सुबह बारिश हुई हैं...उनके पूछने पर मैंने बताया लखनऊ से आ रही हूँ....वो बोले अच्छा नखलऊ...राजधानी...वो तो बड़ा शहर है...मैं मुस्कुरा भर दी...यहाँ की जुबान में बिजनौर की खड़ी बोली का असर है और लखनऊ को यहाँ नखलऊ ही कहा जाता है...उन्होंने पूछा कहाँ जाना है मुझे...कालागढ़?? अरे बिटिया बस थोड़ी सी देर पहले ही सीधी बस छूटी है अब तो अफ़ज़लगढ़ तक ही मिलेगी वहाँ से टेम्पो में जाना होगा...तिराहे पर पहुँचते ही उन्होंने मेरा सामान उतरा, मेहनताना लिया और रिक्शा किनारे लगा कर खड़े हो गए...मुझे बताया कि बस कहाँ से मिलेगी...मैंने उनका शुक्रिया अदा किया और आती जाती बसों में पता करने लगी की किसमें जा सकती हूँ...वो दोबारा मेरे पास आये...एक दुकान की तरफ़ इशारा कर मुझसे वहां बैठने को कहा और बोले मैं बता दूंगा कौन सी बस जाएगी वहाँ...मैं उन्हें परेशान नहीं करना चाहती थी और वैसे भी इतने सालों में अपने सारे काम ख़ुद करने की आदत भी हो गयी है...मैंने उनसे कहा कि वो परेशान न हों...बोले कैसी बात करती हो गुड़िया...तुम्हे सही बस में बैठा कर ही जायेंगे....मैं हैरान थी ये देखकर कि आज भी ऐसे लोग होते हैं...बस आई उन्होंने मेरा सामान उसमे रखा और परिवार के बुज़ुर्ग की तरह हिदायत दी कि ध्यान से जाऊं और मुस्कुराते हुए हाथ हिला कर विदा ली..        
ये एक सुखद एहसास था...सालों बाद ऐसा महसूस हुआ था...एक अजनबी साथ जो कुछ मिनटों में अपना सा हो गया...वैसा प्यार वैसी ही फ़िक्र...हम कितनी फ़र्क दुनिया में जीते हैं...वहां तो अपने भी अजनबी हो जाते हैं...खैर..ये हिमांचल रोडवेज़ की बस है जिसमे मैं सवार हूँ...भीगे मौसम में बाहर का नज़ारा लेते हुए चल रही हूँ....खेत ज़्यादातर ख़ाली पड़े हैं...गेहूं कट चुके हैं...बस चरी लगी हुई है...अब जुलाई में धान लगेंगे....कोटद्वार से आने वाली खो नदी पर बना है ये शेरकोट का पुल....पिछले साल के मानसून में पानी भर गया था तो ये रास्ता बंद कर दिया गया था....नानी के गाँव से भी कई लोग घर ख़ाली करके कालागढ़ चले गए थे...रोडवेज़ की बस आधे घंटे में ही अफ़ज़लगढ़ पहुंचा देती है..प्राइवेट बसें देर लगाती हैं.... अफ़ज़लगढ़...ये यहाँ का बड़ा बाज़ार है...उधर के गांवों में अगर कोई सामान कालागढ़ में नहीं है तो यहीं मिलेगा और अगर यहाँ भी नहीं है तो धामपुर या काशीपुर ही जाना पड़ेगा....सुबह का वक़्त है दुकानें खुल ही रही हैं...पर फलों के ठेले और चाय के होटल खुल गए हैं...ये बसों के रास्ते में पड़ता है न इसलिए.....मैं नानी नाना के लिए कुछ फल लेती हूँ और फल वाला ही मुझे बताता है कि पेट्रोल पंप के आगे टेम्पो मिलेगा....मैं उधर ही बढ़ चलती हूँ...सुबह सुबह स्कूल के बच्चे चहकते हुए रिक्शों और बसों में जाते दिखते हैं...कुछ मदरसे की तरफ़भी जा रहे हैं...ये मुझे सुभान नाना ने बताया जो अभी अभी दिखे मुझे....वो फल बेचते हैं...कितने बुज़ुर्ग हो गए हैं अब और कमज़ोर भी...सालों बाद यूँ देखकर कितना अच्छा लगा...बचपन से ही देख रही हूँ इन्हें...सर पर फलों का टोकरा लिए, आँखों में ऐनक चढ़ाए, कुरते और तहमत में सुभान नाना फल लाते थे...मेरी नानी में और इनमे बड़ी नोंक झोंक हुआ करती थी...नानी कहतीं तुम पैसे ज़्यादा लेते हो तो वो बोलते पंडितानी तू पैसे ही मत दे बच्चे साल में एक दो बार ही तो आते हैं...एक और भी तो थे उमर नाना...वो बड़े शांत थे...वो भी बहुत प्यार करते थे पर वो अब नहीं रहे....हम दोनों को एक ही टेम्पो में जाना था...ये सजे धजे रंगीन बड़े वाले टेम्पो...जिन्हें हम लोग बचपन में गणेशजी कहते थे...आज भी यहाँ वही चलते हैं....खूब ठूंस ठूंस के लोग बैठाए जाते हैं..और चारों तरफ़ खड़े भी होते हैं और अगर कालागढ़, कादराबाद, विजयनगर या भिकावाले के साप्ताहिक बाज़ार का दिन हो तो सब्जी के बोरे और फलों के टोकरे भी लद जाते हैं...आज एक तरफ़ एक साहब की साइकिल बाँधी गयी है....ये सब यहाँ बहुत नार्मल है...रफ़्तार धीमी और आवाज़ तेज़ ये इस वाहन का स्टाइल है
कादराबाद का विद्यालय...मेरी माँ यहीं पढने आती थी...बस में...टिकट कुछ पैसों का हुआ करता था...अब तो इस इलाके में कई स्कूल खुल गए हैं...अंग्रेजी माध्यम वाले...ज़ाहिर है लोग वहीँ भेजना बेहतर समझते हैं...अपनी नानी और आस पास के गाँव के बारे में ये जानकारी साझा करती चलूँ...यहाँ 14 कॉलोनियां  हैं....कॉलोनियां क्या गाँव समझिये....भिकवाला, चूड़ीवाला, कादराबाद, जामनवाला वगैरह...आज़ादी के बाद सरकार ने...भूतपूर्व सैनिकों, आज़ाद हिन्द फ़ौज के स्वतंत्रता सेनानियों को 50 – 50 बीघा ज़मीन और मकान निःशुल्क दिए थे...गाँव में मकान थे और उससे लगे खेत....नहीं मेरे नाना इन दोनों में से कोई नहीं थे...उनके चाचा थे...और बाद में नाना ने यहाँ ज़मीन और मकान ले लिया था...वो तो ख़ालिस किसान रहे..

जामनवाला में जिस जगह उतरना होता था उसे वहां अड्डा बोला जाता था....वहां एक उजड़ा हुआ मकान हुआ करता था...उसी से पहचान कर उतर जाते थे पर आज टेम्पोवाले ने जहाँ उतारा वहां तो ऐसा कुछ नहीं...सड़क किनारे नयी नयी दुकाने खुली हुई हैं..एक बड़ी चक्की भी बन गयी हैं...अरे इन्हें तो मैं पहचानती हूँ ये बलजीत मामाजी के बेटे हैं...हाँ पापा भी दिख गए...मतलब सही जगह पहुंची हूँ...दूर तक फैले खेतों से लगे कालागढ़ के पहाड़ी जंगल दिखाई दे रहे हैं....एक सड़क अन्दर गाँव की ओर जाती है..इस गाँव का नाम जामनवाला क्यूँ पड़ा ये मुझे आज तक समझ नहीं आया....गाँव थोड़ा आगे से शुरू होता है अभी थोड़ी दूर तक खेत ही हैं...बायीं तरफ़ महिंद्र मामाजी का कोल्हू है...उनका बेटा उसकी देख रेख करता है....इस गाँव की ख़ुशबू आज भी वही है...कितना आज़ाद सा महसूस हो रहा है....मानो कहीं बेड़ियों में जकड़ी हुई थी और वह से जान छुड़ाकर आई हूँ....इस गाँव में गढ़वाली, सरदार, हरियाणा के जाट व हरिजन लगभग लगभग बराबर गिनती में रहते हैं...सब एक दुसरे की भाषा आराम से समझते और बोलते हैं....एक दूसरे के सुख दुःख में काम आने से लेकर रंजिशों में क़त्ल ए आम सब कुछ यहीं हो जाता है....जातिवाद का पूरा पालन किया जाता है पर आत्मीयता बनी रहती है....गाँव शुरू होता है..दाहिनी तरफ़ मंदिर और उसे बगल में प्राथमिक पाठशाला जिसके मैदान में अब लड़के शाम को वॉलीबाल खेलते हैं....पुरानी इमारत उजड़ चुकी है बगल में नए कमरे बनाये गए हैं..और वो पुराना विशाल बरगद का बूढा पेड़ आज भी घनी छाया दे रहा है....सड़क के बायीं तरफ़ तो बड़ी सारी दुकानें खुल गयी हैं...कितना बदल गया है...पर इस सड़क के हाल ख़राब हो गए हैं...आगे बढ़ने पर एक चौराहा आता है...एक रास्ता पुराना जामनवाला, एक सरदारों के मोहल्ले को और एक नया जामनवाला की ओर....यहाँ भी कुछ दुकाने हैं...बिष्ट मामाजी की और खान भैया की क्लिनिक....माँ पापा की ग़ैर मौजूदगी में खान भैया नानी नाना का पूरा ध्यान रखते हैं..उनकी ख़बर लेते रहना ज़रुरत पड़ने पर दवाइयां देते रहना बल्कि मेरे नाना तो कभी कभी उन्हें दांट भी देते हैं पर वो कभी बुरा नहीं मानते...बुज़ुर्ग एकदम बच्चे हो जाते हैं...एक बार एक नानी को ये भैया दवा देने पहुंचे तो उन्होंने ज़िद पकड़ ली कि पहले समोसा खिलाओ तब दवा खाऊँगी....ऐसा गाँव में ही हो सकता है...बेचारे खान भैया समोसा लाके दिया तब मानी वो नानी....हमें अब दाहिनी तरफ़ बढ़ना है....ये खड़ंजे नए बिछे हैं...अच्छा पिछले प्रधान ने सड़क बनवाई है ये वाली...बायें हाथ पर सतपाल मामा की दुकान....ये दुकान तो बचपन से देख रही हूँ...और बड़ी सारी चीज़ें खायी हैं यहाँ से लेकर...तब तो कुछ पैसों में ही मिल जाती थी...आज भी कुछ ख़ास महंगी नहीं...जीभ लाल कर देने वाली वो खट्टी मीठी टॉफी...लालजीभ कहते थे उसे...वो गोल लम्बे पापड़ जिन्हें उँगलियों में फंसा कर खाते थे...चूरन की गोलियां और भी न जाने क्या क्या....आगे बढ़ती हूँ...हमे बायें जाना है...सीधा वाला रास्ता कुएं की तरफ़ और वहां से चक्की मोहल्ले को मुड़ जाता है...एक ज़माने में वहां चक्की हुआ करती थी.

इस वक़्त ज़्यादातर लोग खेतों पर होते हैं...इसलिए मोहल्ले में ज़्यादा चहल पहल नहीं...मैं देखती चलती हूँ कि क्या कुछ बदला आर क्या कुछ पहले जैसा है...ये सड़क एक झटके से बचपन के दिनों में वापस ले जाती है...आंधी आती थी तो सब नित्तू के घर पर इकट्ठा हो जाते थे आम के पेड़ों के नीचे आम बीनने...लुका छुपी और डंडा चूस पसंदीदा खेल हुआ करते थे...छुपने की जगह खूब थी...पेड़ों के पीछे, ट्रैक्टर के पीछे या गौशाला जिसे छन्नी कहा जाता है...गर्मियों की भरी दुपहर को भी घर में चैन नहीं मिलता था...लड़के वो पुराने टायर को डंडी से मारकर दौड़ाते रहते थे...और हम लोग कुछ और खेल खेला करते थे...वो आइसक्रीम वाला आता था तो उसके पीछे पीछे उसको चिढ़ाते सारे बच्चे दौड़ लगा देते थे...थोड़े गेहूं या किसी और चीज़ के बदले मिल जाती थी आइसक्रीम जिसे कई लोग बर्फ़ भी कहते थे...बेचनेवाला भी आइसक्रीम बर्फ़ ही कहता था...एकदम अलग ही होता था उसका स्वाद...फिर शाम को सब लोग एक दूसरे से पूछते थे तुम्हारे यहाँ दोपहर के खाने में क्या बना कुछ बचा है क्या...सब लोग अपने अपने यहाँ से खाना लाकर इकठ्ठा करते और फिर पार्टी होती...कई बार कुछ बनाने की कोशिश भी की जाती थी घरवालों के सहयोग से...

स्मृतियों से लौटती हूँ सामने पड़ोस की नानी मिल गयीं सर पर हाथ फेर कर उन्होंने हरियाणवी में कुछ कहा...बस इतना समझ आया कि आशीर्वाद दे रही थीं....घर पहुँचती हूँ...वो बड़ा आँगन...नानी की गाय जो मारने को आज भी वैसे ही आती है...और वो नीम के पेड़ के नीचे कुर्सी डाले नानाजी बैठे हैं...नानी रसोई से निकल रही हैं...कितनी बूढ़ी और दुबली हो गयी हैं मेरी नानी...झुर्रियां और उभर आई हैं...बाल और भी सफ़ेद हो गए हैं...देह कैसी ढीली हुई जाती है...हम दोनों लिपट जाते हैं एक दूसरे से और जाने क्यूँ रो पड़ते हैं और फिर थोड़ी देर बाद हंस भी पड़ते हैं..मेरी नानी की वो जानी पहचानी ख़ुशबू जो हमेशा ज़हन में ताज़ा रहती है....नानाजी के पास जाती हूँ और देखिये ज़रा उन्होंने एक बार में पहचाना ही नहीं...जब अपने चिर परिचित अंदाज़ में मैंने डांटा तब बोले अच्छा आ गयी ये अब कुछ दिन हल्ला होता रहेगा घर पर

मैं चारों तरफ़ नज़र दौड़ाती हूँ...आधे आँगन के फ़र्श पर सीमेंट लगा दिया गया है...मिट्टी के आँगन की लिपाई अब नानी नहीं कर पाती थी...और बरसात में फिसलन भी हो जाती थी...घर के काम काज से फ़ारिग होकर मैं और नानी पेड़ के नीचे खाट डाल कर बैठ जाते हैं...हमारे और पड़ोसियों के घर के बीच में बरगद का एक बड़ा पेड़ हुआ करता था...नानी ने तो लगभग पूरा ही कटवा दिया....गर्मियों की दोपहर में खूब सारे लोगों का जमावड़ा लग जाता था यहाँ....और ये आँगन का दूसरा नीम और जामुन और वो गौशाला के पीछे वाला जामुन...ये किनारे वाला डेकन और बायीं तरफ़ क्यारियों के पास वाला जामुन....इतने सारे पेड़ क्यूँ कटवा दिए नानी??? मुझे लग रहा था मेरे दिल दिमाग़ की बचपन वाली किताब से किसी ने कुछ पन्ने फाड़ दिए हों...मैं दुखी थी...इन पेड़ों की छाँव, फल, झूले मुझे सब याद आ रहे थे.... “बड़े पत्ते गिरते थे बेटा मुझसे अब इतनी सफ़ाई नहीं हो पाती थी...आंधी में लगता था किसी तार पर न गिर जाएँ....बस इसीलिए कटवा दिए”...बुढ़ापा किस क़दर लाचार कर देता है इंसान को...अपने ही हाथों बसी उन चीज़ों से दूरी बनानी पड़ जाती है जो अभी तक ज़िंदगी का हिस्सा हुआ करते थे….मेरे नाना नानी को इस जगह पर रहते हुए शायद 60 वर्षों से ज्यादा हो चुके हैं...ये वजह है कि हम सबकी लाख मिन्नतों के बावजूद भी वो इस जगह हो छोड़ने को तैयार नहीं....अब हम लोग भी ज़िद नहीं करते...उनका इस जगह की हर एक एक शय से जिस तरह का जुड़ाव है वो हम सबके साथ कभी नहीं हो पायेगा...और इन सबसे उनको दूर करना उन्हें ज़िंदगी से दूर करना सरीखा होगा..

मेरी नानी की उम्र 80 वर्ष से ज्यादा है...13 वर्ष की कच्ची उम्र में उनकी शादी हो गयी थी...शादी में गोदान होता है...उसमें गाय या बछिया का दान किया जाता है...मेरी नानी को गोदान में जो गाय मिली थी उसकी पीढ़ी अभी तक चल रही है....ये जो गाय इस वक़्त है न इनके पास...हाँ ये ही जो सबको मारने को आती है...ये उसी पीढ़ी की  है...मेरी नानी की ज़िंदगी इस गाय के इर्द गिर्द ही घूमती है...ठीक वैसे जैसे कि मां की अपने बच्चे के इर्द गिर्द...आँगन में 8 खूंटे लगे हैं...जैसे जैसे धूप अपनी जगह बदलती है वैसे वैसे गाय के खूंटे बदलते हैं...सारे नाज़ नखरे उठाये जाते हैं...ये गाय सिर्फ हैंडपंप का पानी पीती है वो भी किसी का जूठा नहीं होना चाहिए इसकी अपनी बछिया का भी नहीं...दाल चावल सब्जी रोटी इनके लिए सब कुछ बनता है...साल भर के लिए गुड़ अलग से बनवाया जाता है...इसकी ये सेहत यूँ ही नहीं है...पर अब ये बूढ़ी हो गयी है....दूध भी नहीं देती...पर इसकी सेवा बिलकुल पहले जैसे ही की जाती है...हाँ अब नानी थक जाती हैं पर किसी को दे भी तो नहीं पाती और ये भी तो नहीं रहती कहीं...पिछले साल गाँव में ही किसी को मुफ़्त में दे दी थी....दो दिन तक न गाय ने कुछ खाया पिया न मेरी नानी ने...दोनों का रो रोकर बुरा हाल हो गया था....तीसरे दिन पड़ोसी गए और उसे घर वापस ले आये...यूँ लगा मानों दो बिछड़ी आत्माएं मिली हों...साथ जीने मरने की कसमे खायी गयीं और अपना उपवास तोड़ा गया

शाम को गुरूद्वारे में गुरबानी शुरू होती है...हमेशा से देखती आई हूँ उतने वक़्त पेड़ पौधे एकदम सावधान की अवस्था में लगते हैं मुझे...मुझे नानी के यहाँ कि रातें बेहद खूबसूरत लगती हैं....आसमान एकदम स्याह और साफ़ होता है और इतने सारे तारे टिमटिमाया करते हैं...इनको देखना और बस देखते ही जाना बचपन से मेरा पसंदीदा काम हुआ करता है...और हाँ साथ ही उन टिमटिमाते जुगनुओं को देखना...बचपन में इन्हें पकड़ कर दोनों हथेलियों के बीच छुपा लेना फिर धीरे से खोलकर देखने में कितना मज़ा आता था....मेंढक यहाँ बहुतायत में होते हैं...पूरे आँगन में फुदका करेंगे...ध्यान न दिया तो कहिये कमरे में आ जाएँ....तो सन्नाटे को भंग करती मेंढक झींगुरों के शोर और तारों और जुगनुओं से जगमगाती होती हैं यहाँ की रात...घने अँधेरे में ये ज़िन्दा उम्मीद सरीखे होते हैं....बचपन में नानी से चिपक कर सोती थी उनकी चारपाई पर...वो निवाड़ वाली चारपाई...बगल वाले भैया बीन जाया करते थे नानी के लिए...नानी से कहानी सुनती, गाने सुनती, उनके बचपन के किस्से सुनती....और जगमगाते तारों को निहारती जाने कब सो जाती...बड़ी मुश्किल से अटे आज इस चारपाई में दोनों...नानी वैसी ही हैं बल्कि दुबली ही हुई हैं...पर मैं...सारी जगह ही घेर ली...

जाड़ा, गर्मी या बरसात कुछ भी हो गुरबानी सुबह ठीक 4 बजे शुरू हो जाती है और ठीक उसी वक़्त मेरी नानी बिस्तर छोड़ देती हैं....झाड़ू लगाती हैं, कूड़ा जलाती है, गोबर उठती हैं, गाय को चारा और पानी देती हैं और फिर चाय बनती हैं....नानाजी बीमार रहते हैं इसलिए अब वो कुछ नहीं कर पाते...उनकी सेवा भी नानी को ही करनी होती है...जिसमे दोनों बुजुर्गों के झगडे भी खूब होते हैं...पहले इतना सब करने के बाद नानी नाश्ता जिसमे अमूमन रोटी सब्जी बनती थी, बनाकर, हंडिया में दाल चूल्हे पर रखकर खेत चली जाती थी....वहां से चारा लेकर जब तक लौटतीं तब तक धीमी आंच पर दाल चूल्हे पर पकती रहती....क्या स्वाद था वो उफ़...और फिर घर के बने घी के साथ फूल की थाली में मुझे खाना परोसा जाता...ये मेरी पसंदीदा थाली थी क्यूंकि इसका रंग सबसे अलग था...नानी उस बड़ी मथनी से छांछ मथकर मक्खन निकालती थी...उसे छंछ छोलना कहते थे...मैंने भी ये काम करने की कोशिश में बड़ी हांडियां फोड़ी हैं

नीम के नीचे बैठी यहाँ की सुबह देख रही हूँ....सुबह 6 बजे तक सब खेतों को जा चुके होते हैं...लोग अपनी गाय भैंसों को (जिन्हें यहाँ डंगर कहते हैं) नहर पर पानी पिलाने ले जा रहे हैं...हाँ वही छोटी नहर जिसमें कभी हम बच्चे नहाया करते थे...अब तो उसके किनारे बनी सीढ़ियाँ टूट गयीं हैं...अब बच्चे नहीं जाते वहाँ....मेरे नानी नाना गाँव के सारे गढ़वालियों के अघोषित रूप से बोडी बाडा हैं..गढ़वाली में इसका मतलब ताई ताऊ होता है....सड़क हमारे घर के ही सामने से है तो गुजरने वाले सभी गढ़वाली बच्चे और बड़े बोडी बाडा और बाकी लोग दादी दादा या चाची चाचा राम राम करते हुए जाते हैं....वो दूधिया मामाजी अब भी आते हैं गाँव में....सबके यहाँ से दूध ले जाते हैं कालागढ़ की डेरी में...उनके बेटे अलग हो गए हैं इसलिए उन्हें अब भी काम करना पड़ता है...वो ब्रेड, बन और बिस्कुट वाला...भोपू लगा होता है उसकी साईकिल में और शायद हफ्ते में दो ही दिन आता है....वो जो सतपाल मामाजी की दुकान है न वहां डबलरोटी मिलती है...बन को सुखाकर बनती है शायद...मुझे उसका स्वाद बड़ा अच्छा लगता था...आज भी आती हूँ तो बचपन के वो स्वाद दुबारा चखना नहीं भूलती...वो उन गलियों में वापस जो ले जाते हैं  
आज सोचती हूँ शाम को खेत हो आऊँ और वो जो बगल के खेत में दरगाह है वहां भी तो जाना है....मां ने कहा था अपने खेत वाले पेड़ पर भी हो आऊँ...एक डौली का पेड़ है हमारे खेत में..कोई जंगली पेड़ होता है ये....उसकी कहानी ये है कि बहुत पहले यहाँ पीर बाबा का स्थान था...पेड़ के नीचे कच्चा सा कुछ बना हुआ था, आस पास के गाँव वाले आते थे...एक बार बाबा गाँव में किसी के सपने में आये और कहा कि उनके लिए एक स्थान बनवाया जाए...तो फिर बगल वाले खेत में दरगाह बन गयी...ये भी कहा गया कि पुरानी जगह वैसी ही रहेगी और यहाँ आनेवालों को पहले पुरानी जगह ही जाना होगा...माँ बताती हैं एक बार पेड़ की टहनियां बहुत झूल रही थीं तो उनके दिल में आया कि क्या पेड़ कटवा देना चाहिए..नयी जगह तो बन ही गयी है....तो उस रात गाँव में किसी और व्यक्ति के सपने में आकर बाबा ने कहा कि पेड़ कभी न काटना चाहो तो नीचे से झाड़ साफ़ कर लो....ये सब मान्यताएं हैं यहाँ की...पर बड़ी ही मज़बूत हैं...लोग आज भी मानते हैं की दिल में कोई सवाल हो तो बाबा से कहने पर किसी न किसी तरह जवाब ज़रूर मिलता है....जब भी हम आते हैं हमे यहाँ आना ही होता है...बल्कि कोई मन्नत जब मांगी जाती है तो बाकि देवी देवताओं के नाम के साथ साथ लिस्ट में इनका नाम भी होता है...इन्हें खुद ही सब पीर बाबा कहने लगे....नानी की सख्त हिदायत है जल्दी वापस आने की...भूत प्रेतों पर ज़बरदस्त विश्वास यहाँ लोगों को खूब डरा कर रखता है 

खेत तक पहुँचने के दो रास्ते हैं...एक वो जो अड्डे से होकर जाता है पक्की रोड के रास्ते...और दूसरा गाँव के ही साथ साथ बने कच्चे रस्ते से....मैं कच्चे रास्ते पर निकल पड़ी...सोचा लौटते में पक्की रोड होकर आ जाउंगी...नहर के किनारे तो पूरे ही टूट गए हैं....और अब तो लोगो ने खेतों में भी मकान भी बना लिए हैं...पहले गाँव एक तरफ़ था उसके बाद खेत शुरू होते थे...परिवार बढ़ रहे हैं तो शायद जगह की तंगी होती होगी...ये छोटी नहर बड़ी नहर से निकली है....बड़ी नहर रामगंगा नदी से निकाली गयी है....बीच में से उसका एक छोटा रास्ता बनाकर और गेट लगाकर बायीं तरफ़ मोड़ दिया गया है.....ताकि उस तरफ़ के सारे खेतों तक पानी पहुँच सके...और बाकि ज़रूरतों के लिए भी पानी उपलब्ध हो....इस बड़ी नहर के ऊपर एक संकरी सी पुलिया है....याद करती हूँ...बचपन में तो यूँ ही दौड़ जाते थे उसपर..चाहे जितनी गर्मी हो नहर का पानी एकदम ठंडा रहता था....5 -7 मिनट अगर लगातार रह लिए तो बाहर आकर कांपने लगते थे...ये हम शहर के बच्चों के हाल थे वहां वाले तो मज़े में नहाते थे...बल्कि पुलिया के ऊपर से छलांग लगायी जाती थी नहर में...उस जगह पर पानी की गहराई ज़्यादा थी तो ये ही शर्त लगती थी कि कौन वहाँ कूद पायेगा...छोटे बच्चों के लिए छोटी नहर थी और बड़ों के लिए बड़ी...जब और थोडा और बड़े हो जाएँ तो पुरुष तो जाएँ बड़ी नहर में पर महिलाएं घर पर सिमट जाएँ...छुटपन में ये बड़ी नहर हमारे लिए नदी सरीखी थी....बड़ी मुश्किल से आज डरते डरते पार किया इस पुलिया को...जब इस पार पहुँच गई तब जान में जान आई...मेरे इस डर को देख कर बच्चे भी हंस रहे थे मुझपर... 
              
अब मेरे बाएं और दाहिने, दोनों तरफ़ दूर दूर तक फैले खेत थे...मैं उस थोड़े चौड़े पर कच्चे रास्ते पर थी जिसमे बायीं तरफ़ एक छोटी कच्ची नहर बनायीं गयी थी खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए....इस नहर से छोटी छोटी नालियां बना कर खेतों को पानी मोड़ लिया जाता था...ये आपसे सहमती होती थी कि ऐसा बारी बारी से हो ताकि सबको पानी मिल सके......ये बोरिंग वाला खेत नारायण सिंह नानाजी का है...वो अब नहीं रहे...बचपन में नानी के साथ खेत पर आते थे और लौटते वक़्त इस बोरिंग में नहा कर जाते थे...उफ़ क्या तेज़ बहाव होता था..

ये दाहिनी तरह रणवीर मामाजी के खेत है इसको पार करके हमारे....आज कटहल तोड़ा जा रहा है पेड़ से...हाल चाल लेने के बाद एक बड़ा कटहल मुझे भी पकड़ा दिया गया मैंने मना किया तो डांट भी पड़ गयी...बताया गया आ गयी हो तो लेती जाओ वरना हम घर पहुंचाने आते...ये गाँव में एक आम बात है...सब्जी हो या फल या कोई और नयी चीज़...लोग एक दूसरे के घर ज़रूर पहुंचाते हैं...मैं उनका शुक्रिया अदा कर खेत की ओर बढ़ चली...ये खेतों के बीचों बीच ढौं का पेड़ हुआ करता था और उससे चिपका यू के लिप्टिस का..जिसे लोग लिपस्टिक कहते हैं...कहाँ गए दोनों पेड़?? ढौं एक फल होता है सेब जितना बड़ा और भीतर से कटहल जैसा...पकने पर बड़ा ही मीठा और उसका पेड़ तो बहुत ही मज़बूत होता है...क्यूँ कटवा दिया गया...कोई वजह ही रही होगी...लेकिन मेरे बचपन की इन यादों का एक एक कर ग़ायब होना मुझे दुख दे रहा था...जहाँ कभी ये पेड़ हुआ करते थे मैं कुछ देर वहां बनी मेंढ़ पर बैठी रही...बचपन के दिन याद करती रही...नानी की तरह मुझे भी सिर पर कपड़ा जिसे गढ़वाली में मुंडेड़ा कहते हैं बाँध कर दंरात से घास काटना होता था...धान लगने के मौसम में वो घुटने तक के पानी में घुस कर धान लगाने होते थे...मुझे बहलाने के लिए आसान काम बताया जाता कि दूसरी क्यारी से पौध के गड्डियां लेकर आओ पर मैं कहाँ सुनने वाली...एक बार तो गुस्से में जो धान लगे थे वो ही निकालने शुरू कर दिए थे....गोविन्द मामाजी जो हमारे बटाईदार हैं वो बुला लेते फिर क्यारी में....कितनी बार उन पानी भरी क्यारियों में गिर जाती...मिट्ठी में पैर फंस जाते और मैं छपाक वहीँ...फिर कोई न कोई उठाने आता कि पंडित जी कि नातिन गिर गयी...और इतने सबके बाद पूरी शान से घास का एक गट्ठा नानी और मां की तरह मुझे भी अपने सिर पर ले जाना होता था...और वो देखने में छोटा नहीं लगना चाहिए...और दंरात मेरे गट्ठे पर ही लगनी चाहिए...ताकि मुझे बड़ेपन का एहसास हो...सब हँसते थे और मुझे बहलाने के लिए आँखे बड़ी बड़ी करके कहते कि अरे बाप रे इतना बड़ा गट्ठा लेकर कैसे जाओगी...बस मैं तो मारे ख़ुशी के फूली न समाती...हम शहर के बच्चों को ये सब बहुत रिझाता था पर वहां सब जानते थे कि हमारे बस का क्या है और क्या नहीं....अब ये सब याद कर कर के हंस रही हूँ और अफ़सोस भी कर रही हूँ कि काश कोई रिमोट होता जो बटन दबाते ही उस वक़्त को वापस ले आता...बचपन में हम बड़े होना चाहते हैं और आज जब बड़े हो गए हैं तो महसूस होता है ज़िंदगी में क्या कुछ दूर हो गया..सादगी, भोलापन, निश्छलता, साफ़गोई, नादानियाँ, खुशियाँ और छोटी छोटी उम्मीदें और भी न जाने क्या क्या...बचपन के साथी भी तो बिछड़ गए...लड़कियों की शादी हो गयी और लड़के भी नौकरी के लिए गाँव से बाहर पलायन कर गए 

बगल के खेत पर बढ़ चली हूँ दरगाह की तरफ....सरदारों के एक बड़े सभ्रांत परिवार के खेत में बनी है ये...यहाँ की भी अजीब मान्यता है...कि अगर ईंटों से भरी कोई गाड़ी यहाँ 5 ईंट गिराए बिना आगे बढ़ जाती है तो या तो ख़राब हो जाती है या कुछ न कुछ बाधा आ जाती है...उन ईंटों को इकठ्ठा कर यहाँ भवन निर्माण करा दिया जाता है...मानने को नहीं कहा बस मान्यता बताई यहाँ की.....अजीब है पर है..साल में एक बार यहाँ भंडारा भी होता है ..यहाँ से होकर घर लौटती हूँ पक्की रोड के रास्ते हल्का अँधेरा हो चुका है....पेट्रोल पम्प के आगे वाले खेत में एक कोल्हू लगा है...मैं उत्सुकतावश चल पड़ती हूँ...ये तो बंत मामाजी का कोल्हू है...वो हमारे दूसरे खेत के बटाईदार हैं...फटाफट कनस्तर झाड़कर उल्टा करके मेरे बैठने के लिए स्टूल तैयार हो जाता है...और एक पत्ते में गरम गरम गुड़ भी आ जाता है...ये मामूली वाला गुड़ नहीं था...यहाँ गन्ना बहुतायत में होता है...परिवार अपने लिए थोड़ा गुड़ ख़ास किस्म से मेवे डलवा कर बनवाते हैं...ये वही था...मज़ा आ गया...थोडा गुड़ घर के लिए भी बाँध दिया गया.....लौटते में रास्ते में एक नानी के हाल चाल लेने लगती हूँ...वो आज पहाड़ के अपने पुश्तैनी गाँव से लौटी हैं...वहां से मंडुए का आटा जिसे यहाँ चून कहते हैं, और झुंगरियाल के साथ गैथ की दाल पकड़ा देती हैं..बताती हैं कि नाती को बस भेज ही रही थी कि बोडी के यहाँ दे आ....पर जो चीज़ मेरे पसंद की थी वो थी अरसा...अरसा एक मिठाई होती है जो चावल को कूट कर गुड़ के साथ पका कर बनायी जाती है...ये ख़ास मौकों जैसे शादी या बड़ी पूजा या फिर बेटी को ससुराल विदा करते वक़्त ही बनती है...कहते हैं यूँ ही अगर खाने के लिए बनाना चाहें तो ये बनती भी नहीं....मान्यताओं से भरा जीवन है...उसमें एक ये भी सही...पर मेरा काम तो बन गया...इतना सारा सामान लेकर घर वापस आई और देर से आने पर नानी से फिर डांट खायी...बचपन की तरह फिर हंसती रही और नानी से लिपट गयी...बेचारी नानी किसी तरह मुझे डांट कर ख़ुद को अलग कर पायीं..

मेरे पास ददिहाल की ज़्यादा यादें नहीं क्यूंकि वहां मैंने ज़्यादा वक़्त ही नहीं बिताया...दादाजी मेरे पैदा होने से पहले ही गुज़र गए थे और दादी की मृत्यु भी तब हो गयी थी जब मैं बहुत छोटी थी...फिर ददिहाल में एक बड़ा परिवार था और ननिहाल में तो सिर्फ हम लोगों का राज था...तो हम लोग सिरचढ़े भी थे... मेरा भाई नानाजी का सबसे लाड़ प्यार का था और आज भी है...मैं उनसे लड़ती रहती हूँ तो उन्हें लगता है मैं कम ही आया जाया करूँ...बहन एकदम सीधी है...तो वो सबकी लाडली है....मेरा मन यहाँ की यादों से भरा पड़ा है...निकालने बैठूं तो जाने कितना कुछ कह दूँ....कैसे इतने दिन गुज़र गए नानी के साथ हंसी मज़ाक करते, उनकी बातें, किस्से कहानियाँ सुनते, मेरी नानी मनमौजी हैं मतलब वो हर बात यूँ ही नहीं मान लेती मसलन भगवान को मानती हैं पर मंगल, बृहस्पति या शनिवार को मांस न खाना उनकी समझ में नहीं आता....सबको डपट देती हैं पर भीतर से उतनी ही कोमल हैं....ज़रा भी पढ़ी लिखी नहीं लेकिन खेती बाड़ी का पूरा हिसाब किताब ख़ुद देखती हैं और ज़रा भी किसी ने इधर उधर करने की कोशिश की तब तो उसकी खैर नहीं...सेवा के नाम पर भला मैंने क्या किया...बालों में तेल देकर चोटी बना दी, खाना बना दिया, 2 – 4 बाल्टी पानी ले आई या बर्तन मांज दिए...बस उसी में निहाल हुई जाती हैं...बुज़ुर्गों की उमीदें और अपेक्षाएं कितनी छोटी छोटी होती हैं और हम उन्हें भी पूरा नहीं कर पाते...अब लगता है कि ऐसा नहीं था कि इन 3 सालों में मैं यहाँ आ नहीं सकती थी पर जाने क्यूँ मैंने यहाँ आने को अपनी प्राथमिकता में नहीं रखा...लगा मां पापा हैं तो वहाँ...अब अफ़सोस होता है और अपराधबोध भी कि उस वक़्त में जो ख़ुशी दी जा सकती थी वो नहीं दी गयी....मेरा अब यहाँ से जाने का जी नहीं करता...यहाँ किसी भी चीज़ में कोई बनावट नहीं...कोई दिखावा नहीं...कोई चालाकी नहीं...बस यहीं यूँ नानी से गप्पें लड़ाऊं, हंसूं, मुझे ये महसूस हुआ कि मेरी नानी हँसना चाहती हैं खुलकर छोटी छोटी बातों पर पर ज़्यादातर वक़्त उनके पास साथ ही नहीं होता...उनकी जो साथी थी भी वो बच्चों के साथ कोई देहरादून तो कोई काशीपुर चली गयीं..जो हैं वो ज़्यादा चलने फिरने में असमर्थ हैं....अगर बाक़ी नानी लोग गाँव में होती हैं तो रोज़ शाम नानियों की टोली आ ही जाती है...मुझे याद है एक बार जब मैं नानी से गांव छोड़ लखनऊ चलने की ज़िद कर रही थी तो दूसरी नानी, नित्तू की दादी ने डपटकर कहा था...अब हम लोग कहीं नहीं जायेंगे...यहीं रहेंगे, यहीं मरेंगे...हमारा दगड़ा (साथ) है...

नानी को देखती हूँ तो सोचती हूँ 13 साल की छोटी उम्र में जो बच्ची ब्याह के आई थी उसके सपने रहे तो होंगे ही...क्या थे, क्या कुछ पूरे भी हुए या सब टूट गए...कभी किसी ने जानने की कोशिश ही नहीं की....एक लम्बी ज़िंदगी अलग अलग तरह के संघर्ष में बिताने के बाद हंसने की ख्वाहिश रखना तो एक बहुत छोटी सी इच्छा है...

आज जाना है...मैं देख रही हूँ नानी कल से ही चुप चुप हैं...दो दिन हमारा जाना स्थगित हो चुका है...इससे सबसे ज़्यादा मैं और नानी ही खुश हुए थे...मेरी नानी की ये आदत है कि एक दिन पहले से ही वो हम लोगों से कहने लगती थीं कि कल इस वक़्त तुम चले जाओगे...कल इस वक़्त ट्रेन में रहोगे...अब इस वक़्त फलां जगह पहुँच जाओगे.....और ठीक इसी तरह सोचते हुए उनका वो दिन बीतता था जिस दिन हम सफ़र करते थे....नानी कल से ही उदास हैं...कभी नीम के पेड़ तले अकेले बैठ जा रही हैं तो कभी गाय से बातें कर रही हैं....कल जब नानी के बाल बना रही थी तो लग रहा था जैसे दिल भरा जा रहा है....कितना कुछ काम कर जाऊं कि कुछ दिन इन्हें आराम मिल जाये...आज नानी अकेले में छुप छुपकर रो रही हैं...और मैं भी अपनी डबडबायी आँखें छुपाने की कोशिश करती फिर रही हूँ...बड़ी मज़बूत बनकर मुस्कुराते हुए उनके सामने जा रही हूँ...उनकी तो आवाज़ भी आज मद्धम है....जानती हूँ मेरी नानी अब कुछ दिन दूसरे कमरों में जायेंगी ही नहीं....हमारे जाने के बाद वहां का सन्नाटा उन्हें बेचैन कर देता है

प्लेट में हल्दी चावल की फिटाई आ गयी है....नानाजी ने कोई मन्त्र पढ़ कर टीका किया और वो नोट थमा दिया...उसकि क़ीमत दुनिया की सारी दौलत से ज़्यादा है....मैं और नानी फिर लिपट कर रो दिए...दोनों एक दूसरे को चुप भी कराते रहे...और इस बार हंस न सके....वो अड्डे तक नहीं आ पाएंगी पर जब तक मैं उस गली से निकल नहीं आई वो भीगी हुई बूढी आँखें मुझे देखती रहीं और हाथ हिला कर मुझे विदा करती रहीं....6:30 सुबह की बस अपने समय पर थी...हम कोटद्वार की तरफ़ निकल पड़े...बड़े भारी मन से मैं अपने बचपन की यादों से विदा ले रही थी...पर इस बार ये वादा ज़रूर किया था कि यहाँ आना अब फिर जल्दी ही होगा    

बुधवार, 4 जून 2014

मुद्दों का तमाशा बनाते ये लोग


बड़ी उलझन में हूँ...एक अजीब बेचैनी...अफ़सोस, मायूसी, गुस्से और झुंझलाहट से भरी...टेलीविजन और अखबार की दुनिया से दूर हूँ इस बीच और सच कहूँ तो दूर रहकर थोड़ा सुकून है...पर हाँ आदतें बहुत ज्यादा बदलने नहीं देतीं...इंटरनेट और सोशल मीडिया के ज़रिये ख़बरें पहुँच जा रही हैं...न्यूज़ चैनलों की वेबसाइट और सोशल मीडिया पर बदायूं बलात्कार काण्ड (और अब बरेली भी) को लेकर एकदम हाहाकार मचा हुआ है...ये सब देख, सुन और पढ़ कर ऐसा लग रहा है मानो चीज़ें उलझती जा रही हैं और कई लोगों में एक भटकाव आता जा रहा है...पहली बात तो ये कि बात बलात्कार तक सीमित नहीं...साथ में कई सारे पहलु जुड़े हैं....एक कोशिश करने जा रही हूँ उन अलग अलग सिरों को सुलझाकर साथ लाने की...किसी और के लिए ये कितना ज़रूरी है नहीं पता, पर फिलहाल खुद को संतुलित करने के लिए ये मेरे लिए तो बहुत ज़रूरी है.

मैं बताती चलूँ एक मध्यम वर्गीय परिवार से हूं और बीते लगभग 8 सालों से अलग अलग मानवाधिकार संगठनों से जुड़ी हुई हूँ तो तमाम सामाजिक मुद्दों को देखने और समझने का मौका मिलता रहा है..महिला मुद्दे मेरे सरोकारों में पहले आते हैं...इसकी कोई ख़ास वजह नहीं हैं मेरे पास...दिलचस्पी रही है इसीलिए पढ़ाई भी इसी क्षेत्र में की और उसके बाद अलग अलग तरीके से इन संगठनों के साथ काम करने का मौका मिलता गया...तो इन सब वजहों और अनुभवों से महिलाओं से जुड़े और अन्य मुद्दों पर भी थोड़ी समझ बनी है...जी नहीं मैं कोई बुद्धिजीवी नहीं हूँ...एक आम लड़की हूँ और अपनी समझ और जानकारी को मैं अभी भी बहुत सीमित ही मानती हूँ...

बहुत कम घटनाओं से रूबरू हो पाती हूँ पर जितनों से अब तक हुई हूँ वो भी लिखने लगूंगी तो जाने कितना वक़्त लगेगा..पर एक बानगी भर के लिए कुछ घटनाएं अंत में साझा की हुई हैं..कोशिश कीजिये ये समझने की कि किस समाज का हिस्सा हैं हम इस वक़्त....जितना हकीकत में होता है उसके आगे ये घटनाएं कुछ भी नहीं...किसी भी लड़की ने...जी हाँ मेरा मतलब है किसी भी लड़की ने कभी हिंसा का कोई रूप न देखा हो ऐसा संभव नहीं है...अगर वो ऐसा कहती है तो मैं दावे से कह रही हूँ वो झूठ कह रही है...वो चाहे भेदभाव हो, रिश्तेदारों के अनचाहे स्पर्श, देह भेदती बेचैन कर देने वाली नज़रें, यातायात के साधनों में शरीर तक पहुँच बनाने को फडफडाते हाथ, ससुराल की दुश्वारियां, धमकियाँ या तेज़ाब के हमले, धार्मिक स्थल और वहां के ठेकेदार....आप मुझे दिल पर हाथ रखकर एक जगह बता दीजिये जहाँ लड़की सुरक्षित है...बल्कि वो तो न्याय के ठेकेदारों के यहाँ पहुँच कर ही सबसे ज्यादा असुरक्षित हो जाती है

लखनऊ में 2005 से साझी दुनिया नाम की संस्था से जुड़ी हुई हूं..अक्सर वहां जाती रहती हूँ...जिस तरह की समस्या लेकर वहां महिलाएं आती हैं, वो सुनकर कई बार रातों की नींद उड़ जाती है, भूख ख़त्म हो जाती है, बेचैनी, उलझन, अफ़सोस, गुस्सा, मायूसी जाने क्या क्या भर जाता है मन में...मुद्दे मानसिक, यौनिक, सामाजिक, घरेलू, शारीरिक और कार्यस्थल में होने वाली हिंसा किसी के भी हो सकते हैं...पर सबसे बड़ी बात ये कि हर हिंसा हर समस्या औरत की पूरी पहचान को शरीर या यौनिकता पर समेट देती है

इस वक़्त जिस तरह से बदायूं या बरेली बलात्कार काण्ड पर प्रतिक्रियाएं आ रही हैं कुछ बातें समझनी और कहनी बड़ी ज़रूरी हो गयी हैं:

1. लडकियां हर रोज़ हिंसा का किसी न किसी रूप में सामना करती हैं...वो कौन से पैमाने हैं जो ये तय करते हैं कि कौन सा रूप ज्यादा क्रूर या वीभत्स है...भ्रूण हत्या, बाल यौन शोषण, दहेज़ हत्या, जीवन भर चलता भेदभाव, शिक्षा या रोज़गार से वंचित रखना, जबरन शादी करवा देना, अपनी पसंद की शादी करने पर मौत के घाट उतार देना, शारीरिक हिंसा, तेज़ाब के हमले या बलात्कार आदि

2. क्या हमें ये सोचने की ज़रुरत नहीं कि किस तरह के समाज में हमारी नन्ही बच्चियां अपनी आँखें खोल रही हैं और जी रही हैं...यहाँ उनके पास उनके हक नहीं, मौके नहीं, घरेलू कामकाज की कोई गिनती नहीं, भेदभाव है, पढ़े लिखे घरों में आज भी मासिक धर्म जैसी वजहों से उसे अपवित्र मान लिया जाता है...किसी भी तरह की घटना होने पर सबसे पहले लड़की का बाहर निकलना बंद हो जाता है...उसे चुप रहना, बर्दाश्त करना, हमेशा एडजस्ट करना, त्याग करना, हर वक़्त खुद को ढके रहना सिखाया जाता है....यौनिकता की बातें आज भी फुसफुसाकर की जाती हैं...यहाँ तक कि दुकानदार अगर पुरुष है तो लड़की सैनिटरी पैड या अंतः वस्त्र मांगने तक में हिचकिचाती है...किसी पुरुष के सामने मासिक धर्म की बात कर देना आज भी पाप सरीखा होता है

एक और बात...अक्सर देखती हूँ लड़कों या पुरुषों को अपनी महिला सहकर्मियों का मज़ाक उड़ाते...कई लोगों से झगडे कर चुकी हूँ...उन्हें लगता है हर महीने ये लड़कियां मासिक धर्म का बहाना बना कर काम से बचती हैं....बेहद घटिया बात करने वाले ये लोग पढ़े लिखे और तथाकथित समझदार होते हैं....तुम लोगों को इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि हर महीने लड़कियां किस दर्द, तकलीफ, परेशानी और उलझन से गुज़रती हैं....जितना होता है उसका 1/ 10 हिस्सा भी अगर समझ सकोगे तो ज़िन्दगी में ये बात दोबारा नहीं कहोगे...और हाँ अब ये कहके अपनी बीमार सोच का नया नमूना मत पेश करो कि फिर कहा किसने है काम करने को

3. बलात्कार, हिंसा (शारीरिक, मानसिक और यौनिक) का एक रूप है...ये मानसिक विकृति दिखाता है...पर ज़रा ये स्पष्ट कीजिये कि इससे लड़की की इज्ज़त कैसे चली जाती है...-ये काम तो एक प्रकार के शक्तिप्रदर्शन का एक तरीका होता है...अपने से कमज़ोर पर...तथाकथित सामाजिक पैमानों के हिसाब से खुद से नीचे आने वालों पर...महिलाएं तो यूँ ही कमतर मानी जाती हैं...इसके अलावा घर की इज्ज़त का टोकरा सर पर लेकर जिंदगी भर उनको ही चलना होता है...इसके अलावा जाति, धर्म, वर्ग के आधार पर शक्ति दिखाने का भी ये एक तरीका बन जाता है...और इससे बड़ी सजा या सबक किसी लड़की या उसके परिवार के लिए कुछ और हो नहीं सकता...समाज की सोच और रवैया पीड़िता और उसके परिवार को शर्मसार कर देता है..इस स्थिति के लिए हम और आप ज़िम्मेदार होते हैं और अनजाने में बलात्कारी का ही मनोबल बढाते हैं......उस जगह के बाकी लोग डर कर दुबक जाते हैं और बलात्कारी शान से छाती चौड़ी करके छुट्टा घूमते हैं...बलात्कार के बाद हत्या करके पेड़ पर टांग देने वाली घटनाएं ताक़त और सत्ता की हेकड़ी ही दिखाती हैं..किसी इंसान का जानवर की तरह शिकार करने के बाद शरीर को नुमाइश के लिए लोगों के सामने सजा देना कि ये हाल हम किसी का भी कर सकते हैं...साथ ही ये ख़याल उस सोच से उपजता है जो महिलाओं को सिर्फ और सिर्फ एक वस्तु के रूप में देखती है जिसका दुनिया में आने का उद्देश्य पुरुष की कामेच्छओं को पूरा करना है...पर अपने दिमाग की सारी खिड़कियाँ खोलकर ये बात समझ लें कि दुनिया का कोई भी व्यक्ति, जी हाँ कोई भी व्यक्ति किसी लड़की की ‘इज्ज़त’ नहीं लूट सकता....जिसको आप इज्ज़त कहते हैं वो आपकी मर्दवादी, पितृसत्तात्मक, दीमक लगी सोच के एक पहलू से ज्यादा कुछ नहीं होता है...   

कई अखबारों और ख़बरिया चैनलों में लड़की की इज्ज़त/ आबरू/ अस्मत लुटने की हेडलाइन को सनसनीखेज़ तरीके से पेश करके एक मसालेदार खबर तैयार कर दी जाती है...मतलब ये कि लड़की की इज्ज़त और अस्मिता सिर्फ और सिर्फ उसकी यौनिकता तक सीमित है...जिसपर कोई बिगड़ा मनचला कभी भी हमला कर सकता है और इसके साथ ही लड़की का वजूद ख़त्म हो जायेगा...ये पत्रकारिता के हाल हैं...

4. एक बार ज़रा आंकड़े भी उठाकर देखें, चाहे जातिगत हो या कोई और, बलात्कार सिर्फ़ दिल्ली, बदायूं या बरेली में नहीं हो रहे, हर दिन जाने देश के कोने कोने में जाने कितनी लडकियां, बच्चियां या महिलाएं इस हिंसा का शिकार हो रही हैं...सवर्णों का निचली जाति के साथ, राह चलते मौज मस्ती के लिए अय्याश लड़कों का लड़की उठा कर ले जाना, घर के अन्दर, बाहर, दंगों के दौरान, आपसी रंजिश, अपनी ताक़त/ प्रभुत्ता दिखाने, विरोधी को सबक सिखाने के लिए, माफियाओं द्वारा अपनी कामेच्छाएं पूरी करने के लिए,  पुलिस या सैन्य बालों द्वारा किये जाने वाले, ये सभी बलात्कार क्रूरता की हर बार एक वीभत्स तस्वीर दिखाते हैं...पर हम तब क्यूँ मौन रह जाते हैं...या खोज खोज के उन पीड़ितों तक तब क्यूँ नहीं पहुँचते?? क्या हम खुद सुविधाएं नहीं ढूंढ रहे...जो मुद्दा मीडिया में छाया हुआ है वहीँ पहुँच के अपना योगदान दिखा दें...बहती गंगा में हाथ धो लें...मेहनत भी कम पड़ेगी और गिनती में भी आ जायेंगे कि हमने फलां केस में बड़ी भूमिका निभाई थी 
  
5. बदायूं में इस वक़्त एक किस्म का मेला लगा हुआ है...ये छोटी सी जगह इस वक़्त अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संज्ञान में आ गयी है....जिसकी शुरुआत मीडिया ने की...फिल्म ‘पीपली लाइव’ की याद हो आई...ओ बी वैन और पत्रकारों की भीड़ इस क़दर लगी है कि लड़कियां शौच के लिए तक नहीं जा पा रहीं...अब रातोंरात तो हर घर में शौचालय बनने से रहे...नेता और यहाँ तक कि कई एनजीओ वाले मौके का फायदा उठाने के लिए पहुंचे हुए हैं....ये बातें हर एक व्यक्ति पर लागू नहीं होती पर अधिकतर के यही हाल हैं...बाकी वक़्त कहाँ रहते हैं ये सब...हर कोई पीड़िता के परिवार को इन्साफ दिलाने का श्रेय लेना चाहता है...नेता, मीडिया, एनजीओ....इस क़दर तमाशा बना दिया है कि हकीकत में काम करने वालों पर भी सवाल उठने लगे हैं....ऐसा क्यूँ लगने लगा है कि बलात्कार की घटनाएं मीडिया, राजनीतिक पार्टियों और नेताओं तथा कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए ऑक्सीजन सरीखी हो गयी है.

अंतर्राष्ट्रीय मीडिया से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक सब भर्त्सना करने उतर आये हैं...अच्छी बात है ये पर बाकी हिंसा या अलग अलग वक़्त पर हुए बलात्कार/ दंगों के वक़्त हुई सामूहिक दुष्कर्म की घटनाओं पर आपकी ज्ञानेन्द्रियाँ सुन्न हो गयीं थी क्या? या आप उस वक़्त जुबान खोलकर बड़ा खतरा मोल नहीं लेना चाहते?...और क्या आपको वाकई इस घटना का राजनीतिकरण समझ नहीं आ रहा या आप समझना नहीं चाहते?

6. एक और बात सज़ा से जुड़ी...बड़ी बहस छिड़ी हुई है...कि बलात्कारियों को फांसी दो...अब सवाल ये कि फांसी किस तरह का विकल्प है...और इससे बलात्कार की घटनाओं में किस प्रकार कमी आ जाएगी?

पहले तो फांसी की सज़ा का प्रावधान बनते ही बलात्कार के फ़ौरन बाद बलात्कारी लड़की को मौत के घाट उतार देंगे...अब जुटाते रहिये आप सबूत...जो सिस्टम इस वक़्त सालों साल कार्यवाही नहीं कर रहा, रिपोर्ट दर्ज करने में आना कानी कर रहा है...फैसला सुनाने में देरी कर रहा है...आपको लगता है सुबूत न होने पर वो काम करेगा?

दूसरे, फांसी की सज़ा, मतलब किसी का जीने का हक छीनने को किसी भी तरह से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता....अनतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस वक़्त इस सज़ा को ख़त्म करने की पैरोकारी की जा रही है और हम उससे उलट फांसी की मांग कर रहे हैं..

इसी से जुडी मेरी तीसरी बात, फांसी मतलब किसी का जीवन ख़त्म कर देना, बलात्कार मतलब शारीरिक, मानसिक और यौनिक हिंसा का क्रूर रूप...पर इन दोनों को आप बराबर कैसे कर सकते हैं...इसका तो सीधा मतलब ये हुआ कि बलात्कार लड़की और उसके परिवार के लिए म्रत्यु के बराबर है...क्यूँ भई? क्या लड़की की अस्मिता और जीवन यहीं तक सीमित है...क्या ऐसा करके हम लड़की को आत्महत्या के लिए नहीं उकसा रहे? क्या हम उसे ये सन्देश नहीं दे रहे कि अब तुम्हारे जीवन में कुछ नहीं बचा...याद रखिये कि वो जिंदा है और जिंदा व्यक्ति को हर हाल में हौसला देना चाहिए ताकि वो अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करे..ये मुश्किल ज़रूर है पर मत भूलिए कि उसके जिंदा होने का मतलब उम्मीदों का जिंदा होना है...जो हुआ उसमे उसकी कोई गलती नहीं थी इसलिए उसको शर्मिंदा होने की कोई ज़रुरत नहीं...और यकीन मानिए लड़कियों का हौसला टूटने की वजह हम, आप और ये समाज और उसके प्रति हमारा व्यवहार होता है...ये घूम फिर के उसी पितृसत्तात्मक मानसिकता को मज़बूत करना है जहाँ इज्ज़त और वजूद उसकी यौनिकता तक सीमित है 
   
चौथी बात ये कि लगे हाथ एक नज़र न्यायिक ढाँचे पर भी डालें...आजादी से अब तक कितनी फांसी की सजा हुई हैं...ज़ाहिर है किसी को मृत्यु दंड की सज़ा सुनाना आसान नहीं...कोशिश की जाती है कि विकल्प तलाशे जाएँ जो कि सही भी है....कहीं पढ़ा था कि 2012 तक लगभग 40000 बलात्कार के मुक़दमे विभिन्न न्यायपालिकाओं में लंबित पड़े हैं...अब इस हिसाब से तो इन सबको मृत्यु दंड सुना दिया जायेगा

7. इससे जुड़ी हुई है अगली बात कि समस्याएं किस तरह भीतर तक घुसी हैं....राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2012 की रिपोर्ट के हिसाब से ही सज़ा की दर मात्र 24% रही है....विभिन्न नेताओं, मंत्रियों, जन प्रतिनिधियों, लेखकों से लेकर आध्यात्मिक गुरुओं के विचार अलग अलग समय में हम तक पहुँच चुके हैं...ये नीति निर्धारकों के हाल हैं...माफ़ कीजिये पर न किसी को भाई कहने से बलात्कार रुकेंगे न ही शरीर ढकने से...और हाँ, न बलात्कारी 'बेचारे' होते हैं, न बलात्कार पीड़िता कोई जिंदा लाश और न ही बलात्कार धोखे से हो जाते हैं...अपनी जुबान और सोच पर ज़रा संयम रखें तो बेहतर होगा  
कहा जा रहा है खुले में शौच के लिए जाने से बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं...ये सही है कि ये एक कारण है...पर ये ही एकमात्र कारण है ऐसा नहीं है...क्यूंकि बलात्कार तो वहां भी होते हैं जहाँ हर घर में शौचालय होते हैं 

8. ये सच है कि इस वक़्त इन घटनाओं को राजनीतिक रणनीतियों के तहत तूल दिया जा रहा है...पर मुख्यमंत्री महोदय इन घटनाओं पर आपकी प्रतिक्रियाएं और बयान किसी भी संवेदनशील राजनेता की छवि नहीं पेश कर रहे हैं...पर खैर संवेदित तो आप, आपकी पार्टी और पार्टी हाईकमान कितने हैं ये भी हम सब जानते हैं

9. इन दिक्क़तों का कोई एक समाधान है ही नहीं...रूढ़िवादी मानसिकता, भृष्टाचार, लचर क़ानून और उससे भी लचर उसका क्रियान्वयन...जाति, वर्ण, धर्म, जेंडर ..हर स्तर पर ग़ैरबराबरी..सब कुछ ज़िम्मेदार है... ग़ैरबराबरी हर जगह गहरी पैठ बनाये हुए है...और दमनकारी व्यवहार आज भी बहुत आम है....उसके बाद घटनाओं को glamourise कर देने की प्रवृत्ति से भी बाज़ आने की ज़रुरत है...क्यूंकि इससे ज्यादा अमानवीय कुछ नहीं...पीडित परिवार को चैनलों पर यूँ दिखाया जाता है जैसे टीआरपी बढ़ाने के लिए कोई विज्ञापन चल रहा हो...मेहरबानी करके मुद्दों की गंभीरता समझिये और यूँ उनका तमाशा बनाकर अपनी रोटियां सेंकने से बाज़ आइये  

एक और बेहद ज़रूरी बात...बलात्कार की शिकार लड़की एक इंसान होती है...मेहरबानी करके बाहर निकालिए उस मानसिकता से जो ज़िन्दगी भर के लिए उसकी पहचान को इस एक घटना तक समेट देता है...हमेशा के लिए उसकी पहचान उसका 'बलात्कार पीड़िता' होना हो जाता है...और ऐसा करते मैंने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी देखा है जो सामने नहीं लेकिन किनारे जाकर दुसरे के कान में फुसफुसाकर ये बताते मिल जायेंगे कि ये जो लड़की है न ये फलां रेप विक्टिम है 
  
10. फ़िल्म, टेलीविजन, विज्ञापन, पत्रिकाओं, अखबारों और खबरिया चैनलों की भूमिका इस वक़्त शर्मसार कर देने वाली है...बेहद गैर जिम्मेदाराना है...पर उस पर चर्चा एक अलग लेख पर करुँगी...
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कुछ छोटे अनुभव जिनकी तकलीफ छोटी कतई नहीं हैं यहाँ साझा कर रही हूँ...अगर चाहें तो पढ़ सकते हैं...ये स्थितियों की एक बानगी भर हैं:

1. पिछले महीने अहमदाबाद में थी...अपनी दीदी के पास...उनके पड़ोस के घर में किसी पूजा का आयोजन था...पूजा से ठीक एक दिन पहले घर की बच्ची जिसकी उम्र लगभग 12-13 साल थी, के मासिक धर्म शुरू हो गए...वो अचानक अपवित्र हो गयी, किसी आयोजन में भाग नहीं ले सकी, उसे रसोई से ख़ासतौर पर दूर रखा गया क्यूंकि वहां भोग बनाया जा रहा था, पूजा के पास फटकने का तो सवाल ही नहीं...उदास आँखों से वो टुकुर टुकुर सबकुछ देखती रही...शाम को मेरे पास आई तो रुंधे गले से पूछ बैठी “मौसी मैंने तो कुछ भी नहीं किया फिर मैं क्यूँ नहीं जा सकती पूजा में? क्या मैं गंदी हो गयी हूँ?” मैं उसकी मायूस डबडबाई आँखें देख कर बेचैन हो उठी...उसकी मां को समझाने की कोशिश की पर मैं खुद भी जानती थी धर्म और आस्था को चुनौती देना उसके बस का नहीं था...यहाँ ये बताना ज़रूरी है कि वो महिला पीएचडी हैं और उनके पति एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत हैं..

2. इन दिनों कोटद्वार, उत्तराखंड में हूँ...यहाँ मेरा ददिहाल है...पिछले कुछ समय में ये जगह बहुत तेज़ी से बदली है..आधुनिक हो चली है...फैशन, तकनीक, सुविधायें सब कुछ पहुँच गया है यहाँ... बड़े सभ्रांत परिवार बसे हैं और पर आस्था के कुछ प्राचीन तरीके आज भी खूब प्रचिलित हैं बल्कि मुझे तो लगता है बढ़ते जा रहे हैं...

पुछेरे या नवरिया यहाँ उन लोगों को कहा जाता है जिन्हें मान्यतानुसार कुछ ख़ास दैविक शक्तियां मिली हुई होती हैं...आप इन लोगों के पास जायेंगे तो उनपर देवी या देवता प्रकट होकर आपको ये बता देंगे कि आपको क्या समस्या है, क्यूँ है, किसने की और इसका समाधान क्या है... उपचार की पूजा कुछ भी हो सकती है...भूत भागना, शमशान में पूजा देना, नज़र उतरवाना, कहीं स्नान करना, किसी जानवर की बलि देना, जंगल में पूजा के बाद मुर्गा छुड़वाना, परेशां व्यक्ति पर किसी देवी/ देवता/ भूत/ प्रेत का साया है तो उसको नचवाना इत्यादि...एक अलग किस्म की तिलस्मी दुनिया का बाज़ार खूब जोर शोर से चल रहा है...आप यकीन करें या न करें पर यहाँ आने वालों में अनपढ़ लोगों से लेकर वैज्ञानिक तक होते हैं, गरीब – अमीर, सवर्ण दलित, बच्चे बूढ़े सब...
     
यहाँ जानने में ही एक परिवार है...बेटा मेकैनिकल इंजीनियर है और बहू भी एक बड़ी कंपनी में कार्यरत थी, बच्चे होने के बाद नौकरी को विदा कहना पड़ा...दोनों पूना रहते हैं...आजकल आये हुए थे...पता चला 2 बेटियां हो गयी हैं, डॉक्टर ने कहा बहू में कोई कमी नहीं तो यहाँ नवर कराना है...कुछ बातें जो जुड़ी हैं – बेटे की चाहत, बेटी होने पर जांच सिर्फ बहू की ही जबकि हम जानते हैं बेटी या बेटा पैदा करने के लिए किसी भी प्रकार से लड़की ज़िम्मेदार नहीं होती क्यूंकि उसके पास तो सिर्फ X (एक्स) क्रोमोजोम ही होता है...मानसिक बोझ बहू पर और अब बेटा पैदा करवाने की ज़िम्मेदारी नवरिया की...ये एक सभ्रांत पढ़े लिखे परिवार की कहानी है...

3. अपनी पिछली संस्था में काम के सिलसिले में रायबरेली गयी थी...12-13 साल की बच्ची अपने घर पर बर्तन धो रही थी...परिवार में 7-8 सदस्य थे तो उनके कितने बर्तन रहे होंगे ये सोचिये..खाना खाकर माता, पिता और एक भाई काम के लिए ईंट की भट्टी पर गए हुए थे...लड़की के अलावा उस वक़्त घर पर तीन और छोटे भाई बहन थे...एक तो कुछ महीनो का ही था...इन सबको संभालना, घर की साफ़ सफाई, खाना बनाना खिलाना, बर्तन धोना ये सारे काम उस बच्ची के थे...और पढ़ाई?? “हम जाते थे स्कूल, अच्छा लगता था सहेली बनाना, खेलना, नयी नयी चीज़ें सीखना पर अगर मैं स्कूल गयी तो घर का काम कौन करता इसलिए मां बापू ने स्कूल छुड़वा दिया”...उसकी आँखें पथरायी सी कहीं शून्य में देख रही थीं...इस बच्ची ने हालात से समझौता कर लिया था...

4. मेरे साथ पढ़ने वाली एक सहेली शादी के 7 साल बाद मुझसे मिली और इसलिए मिली क्यूंकि अब उसका जीना दूभर हो रहा था...शादी की पहली रात पति ने बता दिया कि शादी सामाजिक दिखावे के लिए की है, उसके सम्बन्ध किसी और महिला से हैं...शारीरिक सम्बन्ध बनाने में न नुकुर की तो अलग उत्पीडन, लड़की के माता पिता एडजस्ट करने की ही सलाह देते रहे...कहा बच्चे हो जायेंगे तो सब ठीक हो जायेगा...बिना किसी भावनात्मक जुड़ाव के दो बच्चे भी पैदा कर लिए गए...तानों से लेकर शरीरिक हिंसा तक सब कुछ होता रहा और माता पिता और भाई अभी तक एडजस्ट करने की ही सलाह दे रहे हैं...एक भाई भाभी पीसीएस अफ़सर हैं और दूसरे  एक बड़े प्रतिष्ठित विद्यालय में रसायन विज्ञान के वरिष्ठ अध्यापक

5. एक अन्य लड़की को प्रेमी ने शारीरिक संबंध बनाने के बाद बिना किसी वजह के छोड़ दिया और चुपके से कहीं और शादी कर ली..

6. मेरी ही एक सहेली जो मानवाधिकार संगठन में कार्यरत है और सार्वजनिक यातायात के साधनों का इस्तेमाल करती है हर रोज़ छेड़खानी के अलग अलग रूप देखती हैं..घर से दफ्तर आना और सकुशल वापस घर पहुंचना एक चुनौती बन जाता है...दो बार ऐसा हुआ जब वो पैदा जा रही थी तो बाइक सवार लड़के कभी उसको धक्का देकर तो कभी पीछे से सिर पर ज़ोरदार घूँसा मारकर ठहाके लगाते हुए तेज़ रफ़्तार से निकल गए

7. आज़मगढ़ के एक गांव में सवर्णों ने एक मानसिक रूप से विक्षिप्त लड़की का बलात्कार किया...लड़की रोती थी पर कुछ समझ नहीं थी तो कुछ बता नहीं पायी...गर्भवती होने पर जब उसका पेट बढ़ने लगा बातें तब खुलीं...

8. एक अन्य लड़की पर ज़बरदस्ती दबाव बनाया जा रहा था कि वो भ्रूण गिरवा दे...वजह...जनाब भ्रूण हत्या का मतलब कन्या भ्रूण हत्या ही होता है...और बेटियां तो होती ही अनचाही हैं...बोझ कौन मोल ले

9. एक सभ्रांत पढ़े लिखे परिवार में पिता अपनी ही दोनों बेटियों का शारीरिक शोषण करने के बाद घर छोड़कर कहीं अलग रहता है और परिवार को कोई खर्चा भी नहीं देता...एक बड़े बैंक अधिकारी की स्नातक बेटी एक समय में लोगों के घर झाड़ू पोंछा करने को मजबूर हो गयी थी

शुक्रवार, 30 मई 2014

पहाड़, जंगल, नदी, खेत, बाज़ार, बचपन की यादें और कोटद्वार

आहिस्ता आहिस्ता सूरज की तपिश को मद्धम करती, ठंडी हवा साथ लिए पहाड़ के जंगलों से संदली शाम उतर रही है मेरे आँगन में...हां सच है, शामें सख्त़ नापसंद हैं हमें....उफ़ कैसी उदासी से भरी होती हैं ये....हाँ अगर अपना साथ निभाने बारिश को साथ लायी हों तो अलग बात है....बारिशें और उनका भीगा अहसास मुझे इस क़दर पसंद है कि मेरे ज़हन से वो शाम की उदासी का बोझ हटा देता है.

आजकल कोटद्वार में हूँ...ये मेरा ददिहाल है...इसे गढ़वाल का द्वार कहा जाता है और मुख्य व्यावसायिक व व्यापारिक केंद्र भी...इसका पुराना नाम खोद्वार हुआ करता था...खो एक नदी है यहाँ...घने, हरे जंगलों की शिवालिक की पहाड़ियों से सटा ये उप क्षेत्र है जहाँ से तराई का इलाका शुरू होता है.....याद करती हूँ जब बचपन में यहाँ आती थी तो इस जगह का, यहाँ के लोगों का अपना एक अलग ख़ास अंदाज़ होता था...सरल, खिलंदड़, मनमौजी, खुशनुमा.....एकदम अपनी तरह का...कि आप यहाँ आयें और विस्मय से उससे प्रभावित हुए बिना और मुस्कुराये बिना न रह पाएं....और फिर प्रकृति का साथ हो तो बात ही क्या...इसमें बड़ी ताक़त होती है...इंसानों की भीड़ में भी आप अकेले हो सकते हैं पर प्रकृति हमेशा साथ निभाती है...वो कभी आपको अकेलेपन का अहसास नहीं होने देती...पहाड़ी पार से आसमान को लाल, नारंगी और सुनहरा करता उगता सूरज आपकी अलसाई उनींदी आँखों पर आहिस्ता से दस्तक देगा...हवा आपसे बातें करेगी, फूल- पत्ती- पेड़- पौधे आपकी बातों पर मुस्कुराएंगे...अल्हड़ नदियां आपके साथ खिलखिलायेंगी और बचपन की कोई शरारत याद दिला जाएँगी....साफ़ नीला आसमान या तो अपनी नीली छतरी से आँखों को ठंडक देता रहेगा या फिर मंडली जमाने तरह तरह के बादल दोस्तों को ले आएगा...और इस बीच अगर बारिश हो गयी तब तो पूछिए मत...बस फिर तो वो सिहरन...ठण्ड भगाने के लिए जलती आग का वो ताप, वो रंग....तो बस...फिर अकेले कहां रहे आप...मैंने ऐसा महसूस किया है कि इंसानों के बीच आप ख़ुद को भूलकर दूसरों में, इंसानों में प्यार तलाशते हैं पर प्रकृति का ऐसा साथ मिलता है तो आपको ख़ुद से अपने साथ से मुहब्बत हो जाती है...जैसे बरसों बाद ख़ुद से मुलाक़ात की हो...

तो बात कोटद्वार की हो रही थी...जो एक वक़्त अपनी ही क़िस्म का था पर बाज़ार से ये और यहाँ के लोग भी नहीं बच पाए...पर हां उन ख़ालिस शहरों से ये आज भी भिन्न है....यहां ब्रांड और फैशन तो पहुंच चुका है पर कहीं कुछ अभी भी बाक़ी है...कह सकते हैं एक शहरनुमा क़स्बा....एक ही बाज़ार है इस जगह के पास....एक अज़ीज़ दोस्त अन्नू की प्यार भरी धमकी पर आज एक सैर कोटद्वार के उस बाज़ार की ही कराने जा रही हूँ आप सबको.
 
स्टेशन पर उतरते ही आपको अहसास हो जायेगा कि मैदानी इलाक़े से कहीं दूर आ गए हैं....सीढ़ियाँ चढ़ कर बाहर पहुँचिये तो यहाँ का रौनक भरा एकमात्र बाज़ार बाहें पसार देगा आपके लिए....बायां रास्ता बस स्टेशन की तरफ तो दायाँ झंडा चौक की तरफ़...बस स्टेशन की तरफ जाने वाला रास्ता बसों, यात्रियों, दुकानों और वहां आने वालों की भीड़ के चलते ख़ासा तंग हो जाता है....कंधे पर रस्सी डाले नेपाली पुरुष जिन्हें यहाँ की भाषा में डूट्याल कहा जाता है, इधर उधर दौड़ते दिख जायेंगे....ये लोग पहाड़ की ओर जानेवाली बसों तक भारी सामान पहुँचाने का काम करते हैं. ये रास्ता चाय और जलपान की छोटी दुकानों, फलों के ठेलों, सालों पुरानी भंडारी स्वीट्स की दुकान और किराने की कुछ और दुकानों से सजा रहता है....और यहाँ आपको पौड़ी गढ़वाल के अलग अलग इलाकों को जाने वाली बसों और टैक्सियों के ड्राईवर या कन्डक्टर आवाज़ दे देकर बुलाते मिल जायेंगे....माथे पर हल्दी चावल का टीका सजाये कोई रिश्तेदारों के यहाँ, कोई शादी में, कोई ख़रीददारी करके, कोई फौजी छुट्टियों पर, कोई लड़की गाँव में अपने मायके तो कोई मंदिर या पूजा के लिए सफ़र कर रहा होता है..हल्दी चावल का टीका जिसे यहाँ फिटाई कहा जाता है विदाई के समय का शगुन होता है....संकरे घुमाउदार पहाड़ी रास्तों पर बच्चों, बुजुर्गों, महिलाओं और पुरुषों से भरी ये बसें अपने आप में पूरे गढ़वाल की रौनक समेटे चलती हैं...और हाँ सजी धजी नयी नवेली दुल्हन को किसी मंदिर की यात्रा पर ले जाती गाड़ियाँ भी दिखेंगी....पहाड़ का असली मज़ा मतलब वहां की भाषा, मिज़ाज़ और लोगों से असल मुलाक़ात इन बसों या टैक्सियों में सफ़र करके ही हो पायेगी, एसी गाड़ियों में नहीं...ख़ूबसूरत नज़ारों, गढ़वाली गानों और लतीफ़ों के बीच सफ़र मज़े में कट जायेगा...हाँ चक्कर आने की बीमारी न हो बस..

अब ज़रा कोटद्वार स्टेशन वापस आते हैं और दाहिने रास्ते पर बढ़ चलते हैं...अब सड़क के दोनों ओर ज़रूरत के सामान की दुकानें मिलेंगी...बर्तन, जूते चप्पल, बिजली के उपकरण, मनोरंजन के लिए गढ़वाली गीतों के सीडी, कपड़े, किराने की दुकानें...दाहिनी तरफ साईं बाबा का मंदिर और बायीं तरफ एक सीध से कई दुकानें शादी के समारोहों के सामान की...वो नोटों की अलग अलग डिज़ाइन की मालाएं, सेहरे, सजावट, पूजा और शादी की और ज़रूरत का सामान, फूलों की दुकानें...सारी ख़रीददारी उतनी ही दूरी में फटाफट निपट जाये...और ये रहा सामने झंडा चौक....एक बहुत पुराना बड़ा चौराहा जिसमे बीच में एक झंडा लगा है...कहते हैं ये उस वक़्त से है जब से ये जगह बसी है...बस आपकी छोटी बड़ी हर ज़रूरत का सामान यहीं मिलेगा और यहाँ नहीं मिला तो वो इस जगह और कहीं नहीं मिलेगा...फिर तो आप हरिद्वार देहरादून ही जाइये...इस जगह से एक रास्ता गढ़वाल की तरफ, एक नजीबाबाद, और बाकी दो छोटे रास्ते यहाँ के स्थानीय इलाकों की तरफ जाते हैं...ये सभी रास्ते आगे जाकर छोटे छोटे रास्तों में बंट जाते हैं... और वो एक पतली गली जो बायीं तरफ गयी है न वो आगे जाकर दो और गलियों में बंट जाती है...उसमें से एक बस अड्डे पर मिलती है...एक गली में कपड़ों, सौंदर्य प्रसाधनों, जूते चप्पलों की दुकानें तो दूसरी तरफ किराने की दुकानें और फल और सब्जी मंडी...बड़ा मजेदार लग रहा था वो नींबू बेचने वाला लड़का...”खट्टे रसगुल्ले ले जाओ...ख़ूब पियो ख़ूब जियो”....एक खीरेवाला, खीरा जिसे यहाँ ककड़ी कहते हैं, आवाज़ दे रहा था कि ताज़े खीरे ले लो तो दूसरा उससे झगड़ रहा था कि तुम्हारे ताजें हैं तो क्या हमारे बासी है...और फिर दोनों की एक खिलखिलाती हंसी तैर गयी....अच्छी बात ये कि प्लास्टिक प्रतिबंधित है...या तो घर से थैला लेकर जाइये या उन कागज़ के लिफाफों में सामान लाइए.

गढ़वाल के रास्ते से आने वाले कुछ लोग टीका लगाये दिखेंगे....ये यहाँ के सिद्धबली मंदिर से लौट रहे हैं....इन्हें यहाँ का स्थानीय देवता कह सकते हैं...गढ़वाली तो वैसे भी देवी देवताओं के लिए अपने प्रेम के लिए प्रसिद्ध हैं ....खो नदी के बगल में पहाड़ी पर स्थित ये मंदिर यहाँ का बहुत पुराना मंदिर है...और मन्नत मानने वालों की लम्बी सूची है...जिनकी दुआएं पूरी होती हैं उनमे से कई लोग यहाँ भंडारा करवाते हैं...इस मंदिर की लोकप्रियता का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि शुरुआत में रविवार और मंगलवार को होने वाला भंडारा अब हर रोज़ होता है और अगले 6-7 सालों की बुकिंग इस वक़्त ही हो चुकी है...मतलब अगर आपकी कोई मनोकामना पूरी हुई है और आपको भंडारा करवाना है तो आपकी बारी 7 साल बाद आएगी...अब इन सब बातों को आप शौक से अपने तर्कों की कसौटी पर कस सकते हैं...आप इसे आस्था कहें या अन्धविश्वास ये आपकी समझ और सोच पर है.

यहाँ के लोगों के लिए ये मौसम बहुत गर्म है पर हम जैसों के लिए...जो जानलेवा गर्मी और देह भेदती लू को झेलने के आदि हैं, हमारे लिए तो ये कुछ भी नहीं...भरी दुपहरी मैं बहुत मज़े से तस्वीरें लेती और सब कुछ गौर से देखती और महसूस करती टहल रही थी..इस छोटी सी जगह में ज़्यादातर लोग एक दूसरे को जानते हैं...मसलन ऑटो चालक को मेरे परिवार के बारे में सब पता था...वो जानता था कि मैं बाहर से आई हूँ तो बताता चल रहा था कि घर से थैला लेकर आना था भुल्ली (भुल्ली यहाँ छोटी बहन को कहा जाता है) यहाँ तो प्लास्टिक की थैली नहीं मिलती...उसने मुझे ये भी बता दिया कि मेरे घर के किन किन सदस्यों को वो जानता है...एक अलग किस्म का जुड़ाव महसूस होता है जैसे हर कोई किसी न किसी तरह एक दुसरे से जुड़ा हो....मैं अपने सामान के अलग अलग लिफाफे समेट ही रही थी कि एक महिला भी अपनी नन्ही बच्ची के साथ बगल में आ बैठीं...उन नन्ही, चमकदार, कजरारी आँखों से मैंने इशारों में दो एक बातें की और वो देखिये वो निश्छल, चमकती, खिलखिलाती हंसी...बस हो गयी हम दोनों की जान पहचान भी और दोस्ती भी...अपनी मां की गोद से वो आ लपकी मेरी तरफ...थोड़ी देर यूँ ही इशारों की बातों, हंसी और मुस्कुराहटों का दौर चला...ऑटो चलते ही हवा से उस नन्ही परी की आँखें बोझल होने लगीं और वो वापस अपनी मां के पास पहुँच गयी...कैसे अजीब और करीबी होतें हैं कुछ रिश्ते...ख़ासतौर पर वो जो दुनिया की समझदारी से दूर रहकर बन जाते हैं...निश्छल, भोले, मासूम और ईमानदार...दुनिया की सारी फ़िक्र से दूर सोती हुई उस बेहद प्यारी बच्ची को देखते हुए मैं ये ही सोच रही थी जिसने गहरी नींद में भी अपनी नयी नवेली इस दोस्त की ऊँगली कसके थामी हुई थी.


उफ़, मेरी बातें तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेतीं...ये देखिये शाम को रुख़सत कर, पहाड़ियों से ठंडी हवा के झोंके और सितारों भरा आसमान लिए दिलक़श रात पहुँच चुकी है छत पर...जानते हैं न रातें मुझे कितनी पसंद हैं...अब ज़रा यहाँ ठंडी हवा में बैठकर दूर पहाड़ियों के गांवों की टिमटिमाती रौशनियां देख लूँ...इजाज़त दीजिये....अगली बार अपने ननिहाल लेकर चलूंगी.   

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

एक सैर ज़िन्दगी से भरे बाज़ारों की..

आज ज़रा सैर हो जाये अहमदाबाद के कुछ बाज़ारों की....क्या कहा?? मॉल? न बाबा, बाज़ार मतलब तो वो शोख चटख रंगों से सराबोर, ज़िन्दगी के शोर और रौनक से भरे हुए, उस जगह के ठेठ देसीपन को ख़ुद में समेटे हुए पुराने बाज़ार....हँसते खिलखिलाते, भीड़ भाड़ से भरे बाज़ार जहाँ छोटी छोटी दुकानें रास्तों पर क़ब्ज़ा जमा लें....मोल भाव करके दाम कम करना ग्राहक का हुनर हो जिसके आगे तमाम न नुकुर के बाद भी आख़िर में दुकानदार को घुटने टेकने पड़ें....इन बाज़ारों की ज़िन्दगी को महसूस करने मैं होली के आस पास गयी थी...जी हाँ उस वक़्त तो ख़रीददारी अपने शबाब पर थी....लिखने में देरी इसलिए क्यूंकि छुट्टियों के दिनों में बेपरवाह यूँ ही अलग थलग पड़े रहना इतना अच्छा लगता है कि वक़्त, मूड और नीयत एक साथ मिल बैठें और कोई काम समय से हो जाये ये  मुश्किल ही होता है.

अगर घूमने – फिरने, दोपहर की तेज़ धूप और रात के स्याह अँधेरे की परवाह किये बग़ैर किसी जगह के चप्पे चप्पे को खंगाल डालने को आवारागर्दी करना कहते हैं तो जी हाँ ये ये मेरा पसंदीदा काम है. इस शहर में मेरा ठिकाना मेरी बहन के यहाँ है जो किसी ‘आदर्श गृहिणी’ की तरह घर के काम काज और बच्चों की फ़िक्र में कुछ यूँ आधी हुई जाती है कि शौक और अपनी निजी इच्छाओं से जुड़ी बातें वो भूतकाल में ही करती है....मसलन ”मुझे भी डांस का बड़ा शौक था” या मुझे भी घूमने जाना बहुत अच्छा लगता था....वर्तमान में कुछ बचा नहीं और भविष्य पर प्रश्नचिन्ह है...उसके पास हर रोज़ काम की एक लम्बी लिस्ट होती है....अगर किसी को इंसानी मशीन देखनी हो तो वो यहाँ आये या किसी और गृहिणी के घर भी चला जाये...तो अब ये तय था कि ‘आवारागर्दी’ तो अकेले ही करनी पड़ेगी....पर इसे संयोग कहें या हमारी अच्छी किस्मत कि हमें यहाँ भी एक साथी मिल गयीं...रश्मि जोशी. उनसे मेरी मुलाक़ात साल भर पहले लखनऊ में हुई थी बस उसके बाद फेसबुक ने हम दोनों की दोस्ती को ज़िन्दा रखा और इस यात्रा के दौरान ये और घनिष्ठ और मज़बूत हो गयी.

वो भी मेरे जैसी घुमक्कड़ मिज़ाज़...कभी भी कहीं भी चल पड़ो...फोटोग्राफर हैं तो कैमरे में उनकी जान बसती है... घूमघाम का पहला अड्डा था तीन दरवाज़ा बाज़ार....ऑटोवाला जान चुका था कि मैं गुजराती नहीं हूँ...बाज़ार के पास जब उसने हम दोनों को छोड़ा तो रश्मि से गुजराती में कहता गया कि ये बेन हिन्दीभाषी प्रदेश से आई हैं आप तो यहीं के हो इन्हें अच्छे से घुमा देना. उस जगह से गुज़रती तंग संकरी गलियों ने आख़िरकार हमें बाज़ार तक पहुंचा दिया...तीन बड़े और क़ारीगरी से खूबसूरत बन पड़े दरवाज़ों ने एकाएक मुझे लखनऊ के रूमी दरवाज़े की याद दिला दी...बस उसके आगे था बिलकुल मेरी अपेक्षाओं जैसा सजीला बाज़ार.


तीन दरवाज़ा पर मेरी साथी रश्मि 

बाज़ार में सबसे पहले मेरा ध्यान खींचा उन छोटी पतली कलाइयों में रंग बिरंगी चमकीली चूड़ियाँ पहने, दोनों चोटियों पर रंगीन रिबन और उन बड़ी, निच्छल, चमकदार आँखों में मोटा काजल लगाये और अपने नन्हे हाथों से अपनी मां की उंगली थामे ठुमक ठुमक चलती उस बच्ची ने...बस उससे इशारों में बात करते हुए हम दोनों भी उस भीड़ भाड़ और संकरी गली में पीछे हो लिए.

चारों तरफ नज़र दौड़ाई तो....उफ़, क्या कुछ नहीं मिलता यहाँ....हर वो चीज़ जो आप सोच सकते हैं और बहुत कुछ ऐसा जो आप सोच  नहीं सकते....ये बाज़ार काफी कुछ लखनऊ के अमीनाबाद बाज़ार जैसा है....भीड़ में टकराते कन्धों के बीच आगे बढती हूँ तो आवाज़ आती है “सौ की चार सौ की चार”, पहुँच के देखा तो पुरुषों की कमीजें बिक रहीं थीं....ज़रा सोचिये आज के समय में ₹ 25 की एक कमीज़!!

नकली रंग बिरंगे फूल, कपडे, पर्स, सौंदर्य प्रसाधन, रसोई का सामान, तोरण, पूजा का सामान, खिलौने, फल, सजावटी सामान, घर की बल्कि घर क्या किसी की ज़िन्दगी से जुड़ी छोटी मोटी ज़रूरतों की हर चीज़ यहाँ उपलब्ध थी....एक अच्छी बात जो मुझे यहाँ देखने को मिली है वो ये कि व्यवसाय में यहाँ महिलाएं भी काफी आगे हैं....कैसी भी दुकानें हों सब्जी से लेकर पानी पूरी तक की, उन्हें सँभालते यहाँ महिलाएं बहुतायत में देखी जा सकती हैं....इसमें कोई दो राय नहीं कि यहाँ के लोग बहुत मेहनती और काम की इज्ज़त करने वाले होते हैं....ये यहाँ के लोगों का गुण है और इसके लिए किसी ‘सरकार’ कोई कोई श्रेय नहीं जाता है....यहाँ व्यक्ति मौके तलाशते हैं आमदनी के, वो इंतज़ार नहीं करते कि उन्हें उनकी डिग्रियों के आधार पर ही काम मिले और अच्छी बात ये है कि इस आमदनी को वे मेहनत से उपजाते हैं.    
    
इस बाज़ार में ही अहमदाबाद की जामा मस्जिद है...कुछ बेनक़ाब खिलखिलाती लड़कियों को मैंने अन्दर जाते देखा तो उत्सुकता हुई....आमतौर पर मस्जिदों में महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित होता है...मेरी साथी रश्मि मुझे वहीँ ले जा रही थी....तपती फर्श धूप से गर्म हो आग उगल रही थी...जूते हाथ में लेकर वज़ूखाने तक यूँ दौड़ लगाई जैसे किसी ने पीछे शेर छोड़ दिए हों....हाँफते हुए चारों ओर एक नज़र दौड़ाई....क्या भव्य और ख़ूबसूरत मस्जिद!! वज़ूखाने से मस्जिद की तरफ चेहरा करने पर एक विशाल खुले आँगन के सामने मस्जिद और बाकी तीनों ओर दीवार से सटी गलियारों जैसी जगह...मैं खुश थी ये देखकर कि कोई भी, महिला, पुरुष या बच्चे कहीं भी बैठकर प्रार्थना कर सकते हैं...वज़ूखाना भी एक ही....मतलब प्रार्थना करने के लिए लिंग पर आधारित बंटवारा इस मस्जिद में नहीं हुआ...ये जगह हर किसी के लिए खुली है...अगली दौड़ उस बड़े आँगन को पार करके मस्जिद तक पहुँचने के लिए लगानी थी...उस शांत भवन की ठंडी फर्श पर पैर रखकर जब सांस में सांस आई तो मस्जिद की क़ारीगरी पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकी....ये मस्जिद सुल्तान अहमद शाह के काल में 1423 में बनायीं गयी थी....260 खम्भों पर टिकी इस मस्जिद में 15 खूबसूरत गुम्बदें हैं....शुरूआती समय में मस्जिद में महिलाओं के लिए एक अलग झरोखा बनाया गया था जो अब इस्तेमाल नहीं होता...अब महिलाएं भी किसी भी जगह बैठकर प्रार्थना कर सकती हैं....मैं यहाँ की क़ारीगरी को आँखों के साथ साथ अपने कैमरे में क़ैद करती चल रही थी.


जामा मस्जिद के दरवाज़े, खंभों और गुम्बदों की एक झलक 

मस्जिद में आने जाने के तीन रस्ते हैं...आँगन से सटे उन गलियारों से होकर एक रास्ते की तरफ बढ़ी तो एक बुज़ुर्ग महिला गुस्से से उन गिलहरियों को डपट कर भगा रही थी जो झुण्ड में खंभों से उतर उनके सब्जी पूड़ी के दोनों से खाना चुगने आ रही थी...महिला भिखारिन थी, मैं उनकी तस्वीर लेने लगी तो एक लम्बी मुस्कुराहट  उनके झुर्रियों से भरे चेहरे पर तैर गयी....मैंने उन्हें उनकी तस्वीर दिखाई तो दुपट्टा मुँह पर रख वो जोर से खिलखिलाई...जब मैं चलने लगी तो पूरे हक से उन्होंने गुजराती में कुछ कहा, मुझे समझ नहीं आया तो दोबारा कुछ यूँ कहा “मनी (money) दो मनी, शाम की चाय पीनी है”...अब तो खिलखिलाए बग़ैर मैं भी न रह सकी...एक नौजवान उनकी चाय लेकर पहुँच चुका था और अब वो अपनी शाम की चाय सुड़कने में मशगूल हो चुकी थीं....इसी जगह से मेरी साथी ने मुझे पीछे का बाज़ार दिखाया....ये माणिक चौक था....फल और सब्जियों का बड़ा बाज़ार और रात में खाने पीने की दुकानें इसे रौशन करती हैं...रात 1- 2 बजे तक लोगों की भीड़ रहती है....अब तो रात का ये फ़ूड बाज़ार देखना ज़रूरी हो गया था.

शाम का वक़्त काटने हम लॉ गार्डन के बाज़ार गए....इस बाज़ार का समय है शाम 7 से रात के 12 – 1 बजे....और लड़कियों का ये पसंदीदा बाज़ार है....सड़क किनारे फुटपाथ बाज़ार की शक्ल में सजा ये बाज़ार आपको कच्छ की झलक देता है....लहंगा चोली, बालों से लेकर पैरों तक को सजाने के तमाम नकली जेवर, बैग, चादरें, तोरण, कठपुतलियां, कच्छ की क़ारीगरी के सजावटी सामान, जूतियाँ और न जाने क्या क्या...रंगों, सितारों और चमकीली क़ारीगरी से सजा ये बाज़ार बेहद आकर्षक है...पर अगर आप मोलभाव के कच्चे हैं तो ये जगह आपके लिए नहीं.  


अहमदाबाद में कच्छ की झलक दिखाता लॉ गार्डन बाज़ार 

रात के 10 – 10:30 का वक़्त होगा...पर इस बात का यक़ीन करने के लिए आप अपनी घड़ी को शक़ की निगाहों से देखेंगे क्यूंकि कोई ताज्जुब नहीं अगर आपको ये महसूस हो कि आपकी घड़ी आज धीमी चल रही है या बंद पड़ गयी है....कौन कहता है कि रात को जिंदगी की रफ़्तार धीमी पड़ जाती है या ज़िन्दगी थम जाती है...कम से कम आधी रात को भी रौशनी से नहाया और खाने के शौकीनों की भीड़ से भरा माणिक चौक का बाज़ार आपकी इस सोच को खुली चुनौती देता है....मेरे शहर के बाज़ार में रात को ये रौनक रमज़ान के दिनों में दिखती है....यूँ लग रहा था जैसे किसी मेले में आ गए हों....ठेलों में दुकानें और सड़क पर बिछी कुर्सी मेज़ें....अगर जगह मिले तो वहीँ बैठ कर खाइए वरना खड़े खड़े या फिर इंतज़ार करिए जगह खाली होने का....क्या कुछ नहीं मिलता यहाँ खाने को, दक्षिण भारतीय, उत्तर भारतीय, बम्बैय्या, चाईनीज़ सब कुछ...मगर इन सबके अलावा सैंडविच के जितने प्रकार मैंने यहाँ देखे अपनी सीमित जानकारी के आधार पर ही सही पर उतने कहीं न देखे और न सुने.....हम घुमक्कड़ों के साथ अब एक और साथी हो ली थी...रश्मि की प्यारी, होनहार और अल्हड़ बेटी मिष्ठी...20 – 22 साल की उम्र की इतनी बेपरवाह और दुनिया के बनावटी रंगों से बची लड़की सालों बाद मिली....बस तो तीन महिलाओं की तिकड़ी ने कब्ज़ा जमाया एक मेज़ पर और 2 – 3 तरह के सैंडविच और पाव भाजी का आर्डर हो गया.


आधी रात को जगमगाता माणिक चौक का बाज़ार 
अब लोगों की भीड़ होगी तो तरह तरह का सामान भी मिलेगा...गुब्बारे, खिलौने, फल, रंग, त्योहार से जुडी और तमाम चीज़ें, सौंदर्य प्रसाधन, गानों और फिल्मों के सीडी और भी बहुत कुछ....उत्सुकता में सीडी के ठेले के पास गयी तो कई मशहूर हिंदी फिल्मों जैसे राम लखन, शक्ति के नाम पर बनी गुजराती फ़िल्मों की सीडी भी दिखी...खा पी के जब लौटने लगे...तो इन दुकानों के सामान पर नज़र पड़ी...अजीब बात है यहाँ थोक में लहसुन और चीनी एक ही दुकान पर मिलती है...मेरी साथी जो कि लखनऊ से ही हैं, उन्होंने बताया कि कैसे जब वो शुरू में यहाँ आई थी तो उन्हें बड़ी दिक्क़त हुई थी क्यूंकि लहसुन सब्जी की दुकान में तो मिलता ही नहीं था....ज़िन्दगी से भरी इतनी जागती रात से ये मेरी पहली मुलाक़ात थी.

एलिस ब्रिज पर ठंडी हवा में थोड़ी देर टहलने के बाद तीनों अपने अपने घर लौट चुके थे और अब मैं आधी रात को अपने कमरे की खिड़की से उस बेहद खूबसूरती चाँद को देख रही थी....इसे देखना और देखते ही जाना कितना ठंडक भरा एहसास देता है न? मुझे रातें बेहद पसंद हैं....अँधेरी रात की खुश्बू और सुकून भरे अहसास को महसूस किया है कभी? मैं घंटों बल्कि घंटों क्या पूरी रात बालकनी में बैठ के गुज़ार सकती हूँ....आसमान में टिमटिमाते तारों....रात की सर्द हवा के साथ पेड़ों के पत्तों को झूमते देखते हुए...उस सरसराहट की आवाज़ को महसूस करते हुए....उस हवा से मुख़ातिब होते हुए....रात को इंसानी दुनिया थम जाती है इसलिए ये वो वक़्त होता है जब आप प्रकृति से सीधे मुलाक़ात कर सकते हैं.....हालाँकि आज जिस रात को मैं माणिक चौक पर देख के आ रही थी वो बिलकुल अलग थी....और भी कई जगह घूमी हूँ....जल्द वहां की भी सैर कराऊंगी...तब तक के लिए अलविदा!!