शुक्रवार, 24 मई 2019

क्योंकि ग़लती तुम्हारी थी !

मन कई बातों में उलझ सा जाता है... ऐसा कई बार होता है कि अपने विचार या राय को बदलने के लिये खुलापन होने के बाद भी मन कुछ मान नहीं पाता... कन्विंस होना एक बड़ा मसला है... कई बार उलझन कागज़ पर उतार देने से सुलझने लगती हैं पर कई बार तब भी ऐसा नहीं हो पाता... ज़िन्दगी की सबसे बड़ी लड़ाइयाँ ख़ुद से होती हैं... दिल - दिमाग़, सही - ग़लत, ख्वाहिशों - ज़रूरतों के बीच... इनमें दोनों तरफ़ से तर्क होते हैं जो ख़ुद के भीतर एक ऐसी जद्दोजहद पैदा करते हैं जो अक्सर उलझन से भर देती है... तो कुछ सुलझने समझने की उम्मीद में आज फिर लिखने बैठी हूँ.  

हम सबकी आमतौर पर अलग अलग विषयों पर कुछ न कुछ राय होती है... कुछ सही लगता है तो कुछ ग़लत और कहीं हम संशय में होते हैं... पर कई बार राय स्थितियों पर आधारित होती है... उदाहरण के लिए हम मानते हैं कि चोरी करना ग़लत है लेकिन हम लोग भ्रष्टाचार से जुड़ी चोरी, किसी के घर से नकदी ज़ेवरों की चोरी और किसी भूखे व्यक्ति द्वारा रोटी या खाने की चोरी या फिर एक बच्चे के किताब चुराने जैसी घटनाओं को एक ही खांचे में नहीं डालेंगे, हमारा नज़रिया फ़र्क होगा और उसका मतलब ये कतई नहीं होगा कि हम चोरी करने को सही ठहरा रहे हैं.

मेरे लिए स्थितियाँ बहुत मायने रखती हैं... मैं सामान्यीकरण से आमतौर पर बचती हूँ... हर जगह कोई एक थंब रूल जैसा कुछ हो, ज़रूरी नहीं... तो आज बात ऐसी जो मेरे लिए बहुत जटिल है... मुझे आमतौर पर अपने साथियों के बीच इस विषय पर असहमतियां मिली हैं पर मेरा मन कन्विंसनहीं हो पा रहा शायद इसलिए भी क्योंकि मैंने उन घटनाओं को निजी तौर पर अपने आस पास देखा है लेकिन जिसे मेरे साथी सिरे से ख़ारिज कर सकते हैं... मैं जजमेंटल होने की जल्दबाज़ी नहीं करना चाहती, समझना चाहती हूँ...

रिश्ते... इनसे जटिल भला क्या होगा... तो बात आज टूटते रिश्तों, धोखों और नतीजों की... आसानी के लिए कुछ काल्पनिक नाम रख लेते हैं... मीना और रमेश... दोनों प्रेम में हैं... सालों से प्रेम है, भरोसा है, आत्मीयता है... नज़दीकियाँ बढ़ती ही हैं, अंतरंगता होती है, दिल जुड़ा है दिमाग़ जुड़ा है तो देह को नज़दीक आने में झिझक नहीं होती, अच्छा ही लगता है... कुछ वक़्त बाद रमेश रिश्ता ख़त्म कर देता है... दिल टूटता है और उसके साथ और भी बहुत कुछ... मीना कानून को आवाज़ देती है और कहती है उसके साथ बलात्कार हुआ है... ऐसा क्या है कि एक वक़्त पर आपसी सहमति से बने संबंधों को अब बलात्कार कह दिया जाता है?

अब इस घटना पर तमाम राय बन सकती हैं... जैसे एक आम राय ये है कि अगर उसने आपसी सहमति से सम्बन्ध बनाये थे तो अब क्यों कह रही है? दूसरी ये कि लड़कियां इतनी जल्दी बिछ क्यों जाती हैं और जब करती ही हैं तो बाद में रोना क्यों? तीसरी ये कि उन्हें ऐसे कैसे समझ नहीं आता कि उनके साथ धोखा हो रहा है, वैसे तो दुनिया भर की अक्ल है... ऐसा नहीं हो सकता कि समझ में न आये, हमें तो समझ में आ जाता है... चौथी ये कि लड़कियों में जब ज़रा भी हिम्मत नहीं तो रिश्तों में जाती ही क्यों हैं और गयी हैं तो शारीरिक सम्बन्ध क्यों बनाती हैं और जब सब कर लिया तो हाहाकार क्यों? (मैंने मानवाधिकार पर काम करने वालों से भी ये सुना है कि जेन्डर में जो कहा जाता है हमें उसका उल्टा लगता है... तब मज़े ख़ुद भी करती हैं और बाद में ये रोना) ...पांचवीं राय ये भी हो सकती है कि ये स्थितियों पर निर्भर करता है कि क्या राय बनायी जाए, क्या सही है क्या ग़लत... इस तरह की तमाम राय बन सकती हैं और मैं इनके ही बीच उलझी हूँ... मेरी राय पांचवी रहती है लेकिन मुझे आमतौर पर उसमें असहमतियां मिली हैं... कभी चर्चा में वाद-विवाद सी स्थितियाँ होने की वजह से बात नहीं हो पाती तो कभी सामने बैठे व्यक्ति के हठ के चलते... उन स्थितियों में अपनी बात कहने की कोशिशें की हैं लेकिन कुछ फायदा हुआ नहीं... ऐसा भी हुआ कि ऐसी प्रतिक्रियाओं के चलते अब चर्चा करने की इच्छा ही ख़त्म हो गयी बस अपनी असहमति भर दर्ज करायी... पर ख़ुद का आकलन ज़रूरी है और इसलिए कुछ बातें विस्तार से कहनी ही चाहिए...

बहुत कुछ है... समाज, परिवार जैसी संस्थाएं, साथी, सरकार, कानून और हॉर्मोन... क्यों न ऊपर हुई घटना को अलग अलग स्थितियों में रखकर देखें -

पहली स्थिति ये कि मीना और रमेश छोटे शहर के सामान्य मध्यम या निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों से हैं... ऐसे परिवार के माहौल, व्यवहार, धारणाओं, नियम, परम्पराओं, लड़कियों और बल्कि लड़कों को भी मिलने वाली आज़ादी को ध्यान में रखें... खैर... दोनों साथ पढ़ते है, एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं प्रेम हो जाता है... मीना उस माहौल और समझ से है ही नहीं कि वो शादी के बिना रिश्ते की कल्पना करे... ये उसके, उसके परिवार और समाज के लिए उसके चरित्र का प्रश्न है... पर रमेश का कहना है कि वो मीना से शादी करेगा, मीना को प्रेम है और इस नाते रमेश पर भरोसा है... एक ऐसी स्थिति जब मानसिक तौर पर युवा अलग ही तरह सोचते हैं... अपनी इच्छा से प्रेम करना, साथी चुनना व उसके साथ आगे की ज़िन्दगी बिताना हमारे समाज में एक लड़की के लिए आज भी बहुत बड़ी बात है... जिस व्यक्ति से प्रेम है, शादी होनी है, जिसके साथ रहना है तो शारीरिक सम्बन्ध बनाने में झिझक क्यों हो... मीना ये सोचकर उस देह को आज़ाद करती है जो उसके लिए सबसे कीमती है, शायद उसकी जान से भी ज़्यादा... होगी ही लड़की की इज़्ज़त और चरित्र उसकी जान से नहीं, देह और योनि से जुड़े होते हैं... पर अब जब शादी करने का समय आया तो रमेश आनाकानी करने लगा... तुम मेरे घर के माहौल में एडजस्ट नहीं कर पाओगी... मेरे घर वाले नहीं मानेंगे... मैं उनके विरुद्ध नहीं जा सकता... अभी थोड़ा और समय दो... पहले बहनों की शादियाँ करनी हैं... आदि आदि... दोनों के बीच बातचीत, चर्चा, झगड़े, मान-मनौव्वल कुछ काम नहीं कर रहे... रमेश ने तय कर लिया कि रिश्ता अब नहीं चल सकता... मीना निःशब्द है वो क्या करे...

अगर घर पर रिश्ते के बारे में नहीं पता है तो ये ख़ुद में चलता एक तूफ़ान है... किससे कहे, क्या कहे उसके साथ धोखा हुआ है, उसका भरोसा जीतकर, ख़ुद का मन बहला कर छोड़ दिया गया, अवसाद, दुःख, हताशा, गुस्सा, सबक सिखाने की भावना से लेकर आत्महत्या का ख़याल आना कुछ भी हो सकता है... अगर घर पर रिश्ते के बारे में पहले से पता था तो अब कैसे बताये कि लड़का शादी करने से इनकार कर रहा है... घरवालों ने तो पहले ही मना किया था... जाने क्या कुछ कहेंगे करेंगे? अब जल्दबाज़ी में जाने किस आदमी से उसकी शादी करा देंगे और उसे कुछ भी कहने का हक़ नहीं रहेगा... उसके दुःख से किसी को मतलब नहीं रहेगा क्योंकि वे तो शादी से पहले प्रेम को ग़लत मानते हैं... पर वह इस छल को घुटकर नहीं सहना चाहती, ये टीस ज़िन्दगी भर तक दिल दुखाने वाली है... उसे धोखा दिया गया और एक कानून इन स्थितियों में उसकी मदद कर सकता है... वो रमेश को सबक सिखाना चाहती है और कानून की मदद लेती है.  

अब भी कई राय बन सकती हैं... जैसे परिवार, समाज और चरित्र की इतनी चिन्ता थी तो प्रेम किया ही क्यों, कर ही लिया था तो सम्बन्ध क्यों बनाये, इतना विश्वास कैसे कर लिया, कोई एक बार बेवकूफ़ बना सकता है, दो बार, पर सालों तक ऐसा नहीं हो सकता... अगर सबकुछ भूलकर किया ही तो अब उसे बलात्कार न कहो... जब बेवकूफ़ी की है तो फिर झेलो भी... हम ये राय बनाते हैं... कहते हैं... पर जाने क्यों ये एक अजीब जल्दबाज़ी लगती है मुझे...

क्या हम ये कहना चाहते हैं कि परिवार न चाहे तो प्रेम न करो, करो तो विश्वास मत करो और इतना तो कतई मत करो कि अन्तरंग सम्बन्ध बनाओ... ये सब ग़लत है... अगर ऐसा किया है तो तुम ज़िम्मेदार हो... तुम्हें शिकायत का हक़ नहीं... हॉर्मोन से कहो कि जब तक शादी हो नहीं जाती वे शांत रहें और अगर न रहें तो उन्हें नियंत्रण में रखो... हम ये भूल जाते हैं कि हम उस समाज का हिस्सा हैं जहाँ सेक्स सिर्फ़ पति के साथ करना ही सही होता है... पुरुष ये जानता है इसलिए वो शादी का वादा करता है... उसे पता है इसके बिना उसे लड़की का मन भले मिल जाये, देह न मिल सकेगी जबकि उसकी दिलचस्पी देह में ही है... पर हम एक साधारण सी दलील के साथ लड़के को आसानी से बरी कर देते हैं कि लड़के तो होते ही ऐसे हैं...      

हम जो अब भी घरों में पीरियड पर बात नहीं कर सकते, एक उम्र में हो रहे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक बदलावों और ज़रूरतों को क्या ही समझेंगे... हमारे पास इसके लिए भी आसान सी दलील है कि हम भी तो हैं, हमने तो नहीं किया कभी ऐसा, क्या हमारे भीतर हॉर्मोन नहीं, क्या हमारा मन नहीं हुआ होगा... और ऐसा कहते ही हम बड़ी शान से अपनी श्रेष्ठता का सर्टिफिकेट जारी कर देते हैं... 

दूसरी स्थिति भी देखें... मीना और रमेश चार साल से प्रेम संबंधों में हैं... वे दोनों हैं तो सामान्य-मध्यम या निम्नवर्गीय परिवारों से लेकिन अपनी पढ़ाई के दौरान उनकी चेतनाएं अलग तरह से विकसित हुई हैं जिन्होंने उन्हें समझ और आत्मविश्वास दिया है... शादी का वादा था... वे नज़दीक आते हैं, शारीरिक सम्बन्ध भी बनते हैं लेकिन समय के साथ साथ रिश्ते में दिक्क़तें होने लगती हैं, दोनों में टकराव होते हैं, बहस होती हैं, प्रेम का वो सम्मान वाला स्वरूप बचा ही नहीं रहता और स्थितियाँ कुढ़न भरी होने लगती हैं... रमेश पहल करता है और रिश्ते को ख़त्म करने की बात करता है... जब प्रेम ही नहीं रहा तो इस सम्बन्ध का क्या मतलब... इसे ख़त्म करना ही दोनों के लिए बेहतर है... अपनी काफ़ी हद तक बदली चेतना के बावजूद मीना की जड़ें पारंपरिक रूढ़िवादिता से उखड़ी नहीं हैं... वह ज़िद में है कि सबक सिखाएगी और कानून की मदद लेगी...

इसमें भी राय बन सकती है कि अगर पहली वाली स्थिति में लड़की सही है तो इसमें भी बात तो वही है... दरअसल बात पूरी तरह वो नहीं है... इस स्थिति में यदि दोनों की समझ व भावनाएं पहले जैसी चल रही होतीं तो रिश्ता नहीं टूटता... ये दोनों के लिए दुखद था... रमेश का इरादा नहीं था... उसने साथ रहने की ही उम्मीद रखी थी... रिश्ते में साफ़गोई थी, कुछ छुपी साज़िश नहीं थी... इसलिये इसे धोखा कहना शायद सही नहीं... हाँ इतना ज़रूर है कि लड़की के लिए उसके परिवार में समय ठीक उसी तरह कठिन हो सकता है जैसा पहली स्थिति में हुआ.

इन स्थितियों में भी मीना क्यों रमेश पर आरोप लगा रही है या गुस्से से भरी है? दरअसल उसके पीछे वो ख़ुद ज़िम्मेदार नहीं... उसकी जड़ें जहाँ फंसी हैं और उसके जीवन में अब जिस तरह की दिक्क़तें आने वाली हैं, उन्होंने उसे गुस्से से भर दिया है... प्रेम उसमें भी नहीं बचा लेकिन अपनी भावनाओं और स्वाभिमान को वो इसलिए भी किनारे कर रही है क्योंकि आगे की राह सिर्फ़ उसके लिए मुश्किल होगी, रमेश के लिए नहीं... प्रेम हो या सेक्स वो लड़की के लिए नहीं... लड़के से कोई सवाल नहीं होता पर लड़की के जीवन में ये बात इतनी ज्यादा की जाती है कि वो चाहते हुए भी पूरी तरह इन उलझनों से आज़ाद नहीं हो पाती... ये सब कहते हुए मैं फिर दोहराऊंगी कि इस स्थिति में धोखा कहना या बलात्कार का आरोप लगाना सही नहीं... मैं बस उसकी प्रतिकिया और स्थिति समझने की कोशिश कर रही हूँ. 

और धोखे का क्या है वो बहरूपिया होता ही है... आप प्रेम में ऐसी समझदारी की कल्पना जाने कैसे कर पाते हैं जहाँ बात शुरू ही एक भरोसे से होती है... अब ये ही स्थितियाँ देखिये कि मीना और रमेश अलग अलग शहरों में अलग अलग नौकरियों में हैं... तकनीक ने दूरियों को कम किया है... सालों साल प्रेम रहता है क्योंकि भरोसा रहता है और सालों बाद अचानक शादी की बात पर लगातार रमेश की आनाकानी देखते हुए जब मीना का माथा ठनकता है और खोजबीन करायी जाती है तो पता चलता है कि सालों का छल था... रमेश का बसा बसाया परिवार है... मीना के साथ बस मन बहलाने का काम हो रहा था... इसी तरह ऐसा भी हो सकता है कि टीनेज की उम्र से ही परवान चढ़ने वाला प्रेम सालों साल बना रहता है... मीना की दुनिया रमेश के इर्द गिर्द सिमट जाती है... शौक, संगी साथी, काम, प्राथमिकताएं सब कुछ... रमेश के माता पिता शादी के ख़िलाफ़ थे... वजह कोई नहीं थी सिवाय इसके कि वे बेटे को अपनी मर्ज़ी से शादी नहीं करने देना चाहते... एक शाम अचानक मीना को पता चलता है कि रमेश ने शादी कर ली... दोनों ही मामलों में शादी का वादा था, कोई टाइम पास या ट्रायल मोड नहीं था... सालों शादी की बात कायम रही... शादी जो अब बस नाम के लिए करनी थी क्योंकि साथी के तौर पर वे सालों से साथ थे ही... ऐसा होता है ये मनगढ़ंत नहीं, ख़ासी पढ़ी लिखी लड़कियों के साथ भी होता है...

पर राय बनते देर नहीं लगती... अब ये तो बेवकूफ़ी ही है... ऐसा नहीं हो सकता कि सालों साल आपको पता ही न चले... जिन लड़कियों के इतनी भी अक्ल नहीं वो फिर डिज़र्व भी ये ही करती हैं... हम नहीं चाहते कि शादी से पहले सेक्स करने वाली लड़कियां बाद में धोखे की शिकायत करें... पर ऐसा होता है कि कई बार पता नहीं चलता, ख़ासतौर से प्रेम में होने पर... वहां भरोसा एक अलग ही स्तर का होता है... लड़कियों की परवरिश साथियों पर शक करने वाली नहीं होती... जिस साथी के साथ वो वैवाहिक सम्बन्ध में जाने का निश्चय कर चुकी होतीं हैं वहां तो बिल्कुल भी नहीं... लड़कियों को समर्पण वाला प्रेम सिखाया जाता है... इसमें वो इस तरह की समझदारी कैसे दिखाएंगी... और इस तरह के धोखे में हमने बहुत समझदार लड़कियों को फँसते देखा है... उन्हें किस बात का दोष दूँ, ईमानदारी के साथ टूटकर मुहब्बत करने का?              

इस तरह तमाम तमाम स्थितियाँ बन सकती हैं जैसे एक ये ही कि रमेश और मीना साथ पढ़े, आकर्षित हुए, शारीरिक सम्बन्ध बने पर शादी की बात कहीं नहीं थी... दोनों के बीच ये समझ भी थी... सम्बन्ध आकर्षण से उपजा था प्रेम से नहीं... वे मित्र थे, एक दूसरे के शुभचिंतक थे... पर समय के साथ साथ दोनों में से किसी एक को प्रेम हो जाता है... मान लीजिये मीना को ही हो गया... रमेश को नहीं हुआ... मीना अपनी भावनाएं साझा करती है, प्रोपोज़ करती है पर रमेश मना कर देता है... अपनी जगह न मीना ग़लत न रमेश... मीना ये इनकार नहीं ले पाती और रमेश को हासिल करने की उसकी चाह में वो बलात्कार की बात कहती है... (ये ध्यान रखें कि अनुपात में इस तरह के मामले सबसे कम होते हैं... लेकिन स्थितियाँ क्योंकि कई तरह की बन सकती हैं इसलिए यहाँ दर्ज किया जा रहा है.)

मीना को प्रेम हुआ इसमें क्या ग़लत? प्रेम दिमाग़ से कम ही होता है बल्कि जब प्रेम होता है तब वो तर्कों पर नहीं भावनाओं पर होता है... कैलकुलेट नहीं हो पाता... आपकी समझ जिसके लिए इनकार करे कई बार मन सब जानते हुए भी मजबूर हो जाता है... जो काबू कर लेते हैं वो ठीक पर जिनकी दिल के आगे नहीं चलती वो कुछ नहीं कर पाते... हाँ शादी करने से पहले ज़रूर व्यक्ति थोड़ा सोचता समझता है, जोड़ घटाना करता है... और जो लोग प्रेम में पड़ते वक़्त भविष्य में उस व्यक्ति को जीवनसाथी के तौर पर देख रहे होते हैं वे भी जोड़ घटाना करने लगते हैं... कहीं कुछ ग़लत जैसा नहीं... पर ग़लत रमेश भी नहीं... वो जिस जगह पर रिश्ते की शुरुआत में था वहीं पर अब भी है, मीना की तरह उसमें ऐसी भावना नहीं आई पर ऐसी किसी भावना की बात हुई भी नहीं थी... आज़ादी थी कि जब जो रिश्ते से निकलना चाहे दूसरा उसे परेशान न करेगा फिर ये क्या? ज़ाहिर है एकतरफ़ा प्यार से उपजे इस बदले को सही नहीं कहा जा सकता. 

ये कुछ ही स्थितियाँ है... ये ऐसा उलझा विषय है जिसमें जाने कितने पक्ष हो जाते हैं, क्या स्थितियाँ बन जाती हैं... हम बहुत आसानी से जजमेंटल हो जाते हैं... बिना ये सोचे कि हमारे जीवन में प्रेम, शादी, साथी, सेक्स और समाज के मायने लड़की और लड़के के लिए एक नहीं होते... वो बेहद फ़र्क हैं... अगर इस तरह देखेंगे तो हम मीटू अभियान पर सवाल उठाने वालों से ज़्यादा दूरी पर नहीं हैं...

हमारे समाज में लड़की की दो जगहें हैं... शादी से पहले मायका और उसके बाद ससुराल... इसके बीच कहीं कुछ नहीं... वो प्रेम में पड़ती है पर ध्यान में एक अच्छा साथी, और एक सुंदर जीवन तक पहुँचने का सुखद रास्ता होता है... यानी उसके ध्यान में भविष्य की वो सामाजिक सुरक्षा है ही... क्या हमारे यहाँ सेक्स इतनी सहज बात है कि उसे आत्मग्लानि न हो? अगर ऐसा होता तो ये मसला इतना बड़ा होता ही नहीं... पर क्या इसका मतलब ये है कि सेक्स करना ग़लत है? हम कहते हैं कि सेक्स करना ग़लत नहीं, प्राकृतिक है, शोध बताते हैं कि इसके वैज्ञानिक आधार हैं, हमारी माइथोलॉजी से लेकर गुफाएं, चित्र, फ़िल्में सब इससे भरी हैं... बाकी छोड़ें इन्टरनेट पर पोर्न देखने वालों की संख्या ही देख लें... सब कुछ है पर ये लड़की के लिए नहीं... ये बात हमें बचपन से लेकर ज़िन्दगी भर बार बार तरह तरह से बताई जाती है... जो लड़कियां सेक्जुअली एक्टिव हैं भी वो अपनी ख़ास से ख़ास दोस्तों के सामने भी स्वीकार नहीं करतीं क्योंकि इसे जाने कब प्राकृतिक न समझकर चरित्र का सवाल बना दिया जाए... और अगर किया तो फिर बाद में कभी शिकायत नहीं कर सकते... ‘मज़े लेना’, ‘घाट घाट का पानी पीना’, ‘खाई अघाई’, ‘बड़ी आग लगी होनाजैसी जाने कितनी बातें मैंने ऐसी लड़कियों के लिए उन लोगों के मुंह से सुनी हैं जिनसे ज़रा भी अपेक्षित नहीं था... ये हौव्वा बनता क्यों है क्योंकि सेक्स को हमने, हमारे परिवार और समाज ने हौव्वा बनाया है, मगर सिर्फ़ लड़की के लिये... प्रेम पर कहानियां हैं, कवितायें हैं, किताबें, सालों साल चलने वाले धारावाहिक हैं... राधा कृष्ण, हीर रांझा, सबकी मिसालें हैं, वाल्मीकि रामायण में शिव पार्वती की यौन क्रिया का वर्णन तक है... पर प्रेम करना ग़लत है... रोमांस को देख पढ़ भले लो पर अन्तरंग होना सही नहीं... छले जाने पर अपनी पीड़ा को कहना तो और भी ग़लत... प्रेम किया तो उसमें मिले छल को ख़ामोशी से अपने भीतर ज़ब्त कर ज़िन्दगी भर टीस को झेलना... ये तुम्हारी सज़ा है क्योंकि ग़लती तुम्हारी थी... तुम लड़की हो और ये बात भूलकर तुमने अपनी पसंद की ज़िन्दगी जीने की कोशिश की.    

हम क्यों नहीं सोचते कि लड़कियों के साथ ही समस्या क्यों होती है... ऐसा इसलिये कि लड़कों पर वर्जिनिटी बचाने का कोई दबाव नहीं, वे जब जिस उम्र में चाहें सेक्स कर सकते हैं, उनके चरित्र के साथ समाज का वो रवैया नहीं होगा जैसा एक लड़की के साथ होता है, लड़कों के लिए ये उनकी मर्दानगी है जिसे दिखाना साबित करना उनकी शान ही होगी जबकि लड़की के लिए उसे बचाना लड़की का धर्म... इस वर्जिनिटी को सिर्फ़ अपने पति के ज़रिये ही खोना होता है चाहे इच्छा हो या न हो, पसंद का साथी और प्रेम हो या न हो या... पर कई बार जिसको भविष्य का साथी सोचा था उसने ही छल कर दिया तो? लड़की की ऐसी प्रतिक्रियाएं कई बार हमारे समाज के बनाये माहौल का ही नतीजा होती हैं... क्या पता कि ऐसा माहौल न हो तो झूठे वादे भी कम हो जाएँ.

ये अंतहीन विषय है पर मुझे ये कहने में कोई झिझक नहीं कि हमारा समाज लड़की के लिए अनुकूल कतई नहीं और अभी उनके लिए काम करने वालों को भी एक लम्बा रास्ता तय करना है लड़कियों को समझने के लिए... हमें दहेज़, घरेलू हिंसा, पढ़ाई-लिखाई-जेन्डर व्यवहार-परवरिश-पितृसत्ता-भेदभाव के अन्य मामलों, बलात्कार की घटनाओं, जातीय हिंसाओं में तो उससे सहानुभूति है लेकिन इस एक मामले में हमारे नियम तय हैं - किया क्यों, किया तो शिकायत क्यों? मुझे बस ये पता है कि टूटे रिश्ते जीवन का अन्त नहीं होने चाहिए पर अपनी राय बनाते समय हमें भी बुलेट ट्रेन की जगह ज़रा पैसेंजर पर सवार होना चाहिए... खिड़की से बाहर नज़दीक के दृश्य तभी साफ़ दिखेंगे.     

7 टिप्‍पणियां:

  1. रिश्ते दुनिया की सबसे लालची शै हैं। बहुत खुदगर्ज़। तब तक चलते है जब तक आप अपने कर्त्तव्य निभाएं और जिस दिन आपने अपना अधिकार माँगा उस दिन चरमरा जाते है।
    मज़े की बात ये है कि हर इंसान का यही तजुर्बा है। फिर ये समीकरण गड़बड़ कहाँ होता पता ही नही चल पाता।
    बहरहाल , दिल खोल कर दिल से लिख दिया है।
    शानदार।
    तुम्हारी चिट्ठी उधार है। ये उधारी चुकाएंगे वादा है पर कब , नही कह सकते।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही अच्छा लिखा है, बहुत सी बातें जो कि मेरे भी दिल और दिमाग में है जिनके लिए मेरे पास ठीक से शब्द नहीं थे लेकिन अब सब स्पष्ट दिख रहा है | मैं तुम्हारे जैसा अच्छा नहीं लिख पाती न. 😊

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत बढ़िया।स्थितियाँ बहुत मायने रखती हैं।मेरी भी राय में इनकी बड़ी भूमिका रहती है। तुमने बहुत बंधा हुआ लिखा है।जिससे चीज़ों को समझने में आसानी हो रही।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत अच्छा लिखा है। तुमने हर परिस्थितयो को बारीकी से समझा है। लेकिन अगर इसमें लड़के का भी पक्ष दिया होता तो और अच्छा था। ये बात सही है कि लड़कियों पर इस तरह के सम्बन्धों का टैबू ज़्यादा होता है।

    जवाब देंहटाएं
  5. नमस्ते। क्या आपका ईमेल kala.rashmi@gmail.com बदल गया है। उत्तर प्राप्त नहीं हुआ।

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत अच्छा लिखा है , आपने लगभग ऐंगल से इस बात को देखने का प्रयास किया जो बहुत दिलचस्प है, साथ ही आपके लेख की अंतिम पंक्तियाँ की हमे भी अपनी राय बनाते समय बुलेट ट्रेन की जगह पेसेन्जर पर सवार होना चाहिए, काफी हद तक सही लगी ,

    जवाब देंहटाएं