शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

ठसक बनारस की ....


इस शहर से ये मेरी पहली मुलाक़ात थी. बहुत समय से यहाँ आना चाहती थी पर अपनी तमाम महत्वाकांक्षाओं के जाल में फंसे हुए मेरे जैसे लोगों की प्राथमिकताओं में ‘ज़िन्दगी जीना’ शायद कहीं पीछे छूट गया है. शायद यही वजह थी कि यहाँ आना हुआ तो वो भी व्यावसायिक कारणों से. अवध की शामों को तो बचपन से देखती आ रही हूँ. ये अलग बात है की शामें मुझे कभी पसंद नहीं रहीं, वो मुझे एक अलग किस्म की उदासी से भर देती हैं. रातें मुझे सुकून तो सुबह मुझे ऊर्जा देती है . तो अब बारी थी बनारस की मशहूर सुनहरी सुबह देखने की. 
एक अलग क़िस्म का चुम्बकीय आकर्षण है इस शहर में. आप हर एक चीज़ की तरफ खिंचते हैं. एक बड़ी वजह ये भी है कि लखनऊ में जिस ज़िन्दगी और देसीपन को अब दम तोड़ते देख रही हूँ वो यहाँ की हर चीज़ में अब भी दिखाई देती है. मैं इस बात से इनकार भी नहीं करती कि यहाँ कुछ नहीं बदला होगा. शायद यहाँ के पुराने लोगों के लिए बनारस भी वैसे ही बदला होगा जैसे मेरे लिए लखनऊ और शायद रह रह के उनके दिल में भी इस बदलती तस्वीर की टीस ज़रूर उठती होगी.
पतली संकरी गलियाँ, कंचे खेलते, पतंगों के पेंच लड़ाते बच्चे, लखौडी ईंटों के मकान, दीवारों की दरारों से निकलते पीपल के पौधे, गोल टोपी और हिना से रंगी दाढ़ी वाले खां साहब की वो रंग बिरंगी पतंगों की दुकान जहाँ वो पहले तो बच्चों को बनावटी गुस्सा दिखा कर डपटते पर थोड़ी देर में उनकी मासूमियत के आगे मुस्कुराकर घुटने टेक देते, छतों पर सर्दियों की गुनगुनी धुप में बैठी महिलाओं की चुहलबाजी, छतों से ही अगल बगल के घरों में कटोरियों की अदला बदली..पीपल के पेड़ वाले चबूतरे पर बैठी बुजुर्गों की मंडली और उनकी गप्पें...मैं अपने बचपन के दिनों में वापस चली गयी थी. एक लम्बे अरसे बाद मैंने आदाब का जवाब राम राम से सुना. मैं यहाँ ये साफ़ कर दूँ कि मैं कतई ये नहीं कह रही कि मैं वाराणसी को धार्मिक सौहार्द के लिए प्रेरणा के तौर पर देख रही हूँ...पर टुकड़े टुकड़े में मिल रहे ये अनुभव मुझे कहीं मुझे पुराने लखनऊ की, अपने बचपन की याद दिला रहे थे और मुझे वहां लौटना अच्छा लग रहा था. अच्छा शायद इसलिए भी लग रहा था कि मैं उन दो समुदायों को साथ में इतने आराम से रहते हुए देख रही थी जिनको आज राजनीतिज्ञों ने एक दूसरे का दुश्मन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. लखनऊ से इतर यहाँ अल्पसंख्यक समुदाय कुछ हिस्सों तक सीमित नहीं थे. ये वही बनारस है जहाँ जब एक तरफ काशी विश्वनाथ के कपाट खुल रहे होते थे तो दूसरी ओर बिस्मिल्ला खां साहब की शहनाई शहरवालों को सुबह होने की खबर देती थी. ये वही काशी है जिसकी झलक मुझे ‘काशी का अस्सी’ में मिली थी.  मैं उस मशहूर गंगा जमुनी तस्वीर को देख रही थी. जानती हूँ कि ये इतनी संवेदनशील है कि कब बिगड़ जाए पता नहीं चलता पर अभी मैं इसके बारे में सोचना भी नहीं चाह रही थी.
इस शहर के रंग जिंदगी से भरे थे बिल्कुल बच्चों की तरह. आप उनकी तरफ देखें और वो एहसास जो आपको ऊर्जा और ज़िन्दगी के साथ आँखों में चमक और होठों पे मुस्कराहट दे जायें. हमारा अगला पड़ाव था उन लोगों के मोहल्लों में जिनके हुनर ने इस शहर की पहचान में बड़ा इज़ाफा  किया था. बुनकर, जुलाहे, और उनके हर घर में चलता हथकरघे का संगीत. उस संगीत के साथ चलता उन चटख रंगीन सूती और रेशमी धागों का ताना बाना किसी को भी मंत्र मुग्ध कर दे. ऐसे ही एक घर में जब उन रंगीन चमकीले धागों को मैं बच्चों की तरह देख रही थी तो उस कारीगर ने मुस्कुराते हुए मुझसे पुछा कि मैं कहाँ से आई हूँ. मैंने कहा ‘लखनऊ’ तो उसकी मुस्कराहट और लम्बी हुई और बहुत गर्मजोशी से उसने मुझे उसका हथकरघा देखने के लिए बुलाया. वो बहुत चाव से मुझे बता रहा रहा था कि कैसे ये हथकरघा काम करता है, कैसे अलग अलग धागे इस्तेमाल होते हैं, ताना और बाना क्या होता है वगैरह वगैरह. वो जानता था कि न तो मैं कोई खरीददार हूँ, न कोई विदेशी और न ही कोई फोटोग्राफर या फ़िल्मकार, फिर भी वो मुझे बता रहा था, मुझे इसकी उम्मीद नहीं थी. मैं उसकी आत्मीयता व उसके उत्साह से प्रभावित थी. उसने मुझसे कुछ भी नहीं कहा लेकिन जब मैं उसके घर से निकली तो अपने साथ एक उदासी लेकर लौटी. पर क्यूँ? थोड़ी देर पहले तक ही तो मुझे उसके रंगीन धागों और हथकरघा के संगीत में ज़िन्दगी दिख रही थी और उसने भी तो मुझसे कुछ नहीं कहा. बस यूँ ही बात करते वक़्त मैंने सामने घर में रखी मशीन के बारे में पूछा तो उसने बताया कि  वो पावरलूम है, उसमें कम मेहनत लगती है और काम भी जल्दी होता है पर वो महंगी होती है. बेहतरीन और खूबसूरत कपडे बुनने वाला ये बुनकर एक निम्न स्तरीय जीवन जी रहा था. बुनकरों के पास से ये सामान ‘गद्दी वालों’ के पास जाता है जो उसे देश के बड़े बड़े शहरों में भेजते हैं, विदेशों में निर्यात करते हैं या बनारस की बड़ी दुकानों में बेचते हैं. ग़ैर बराबरी की ये खाई और इसकी गहराई किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विचलित कर दे. मैं हैरान हूँ कि हर ख़ूबसूरत  दिखने वाली चीज़ या स्थिति के पीछे की तस्वीर इतनी तकलीफ़ देने वाली क्यों होती है. हज़ारों लाखों में बिकने वाली साड़ियों को बनाने वालों को अगर उनके श्रम के मुताबिक़ मेहनताना मिलता तो उनकी स्थिति ऐसी तो न ही होती. पिछले साल जब बाराबंकी के बुनकरों की बस्ती में गयी थी तो उनकी स्थिति इससे भी बुरी थी पर उनका उद्योग फैशन से नहीं जुड़ा था पर यहाँ ऐसा नहीं है. उसके उस आदाब का जवाब मैं एक फीकी मुस्कान से ही दे पाई और भारी मन से उसके घर से निकल आई.
इन गली मुहल्लों में पूरा दिन कब निकल गया पता ही नहीं चला. मेरी साथी मेरी उदासी भांप गयी थी. सो मेरा मन बहलाने के लिए वो मुझे घाट के पास के बाज़ार में घुमाने ले गयी. तो भीड़ भाड़, चहल पहल, रौनक, रंगों और रौशनी से सराबोर ये दूसरी तस्वीर थी बनारस की. कभी कभी सोचती हूँ कि यहाँ की धार्मिक पहचान में कौन सा सुख या मज़ा मिलता है इन विदेशी सैलानियों को.
ये स्थानीय बाज़ार इस शहर के आईने की तरह लग रहा था. भाषा, बोली, पहनावा, रंग, यहाँ तक कि उस सर्द हवा में भी एक ठसक महसूस की जा सकती थी. रात में रौशनी से नहाया घाट के किनारे का बाज़ार, सड़क पर चहलकदमी करते विदेशी, उनको अपनी दुकानों की तरफ रिझाते दुकानदार, खाने पीने, पहनने ओढने से लेकर, फैशन और ज़रूरत का हर सामान आकर्षक कलेवर में सजा दिख रहा था. पूजा के लिए फूल, धूप और अगरबत्तियों से महकती दुकानें, झिलमिल सितारों वाली फ्रॉक पहनी उस नन्ही बच्ची की उँगलियाँ थामे उससे गंगा आरती दिखाने के लिए ले जाती उसकी माँ, गंगा पर उतरता गंगा आरती का प्रतिबिम्ब, किसी को बाँधने के लिए क्या इतना काफी नहीं? कुछ घुलती सी जाती है ये जगह आपके अन्दर साँसों के साथ.  
3 दिन यहाँ बिताने के बाद जब वापस लखनऊ लौट रही थी तो कुछ अधूरापन सा लगा....जैसे यहाँ वापस आना बहुत ज़रूरी है....मैं यहाँ से जितना कुछ ले जा सकती हूँ वो अभी अपने अन्दर समेट ही नहीं पाई थी....वो रंगों की ख़ुशबू, वो चमकीली मुस्कुराहटें, सिन्दूरी सुबहों, रौनक भरी शामों और रूहानी रातों का वो भीना एहसास....बहुत कुछ समेटना है.....जल्द ही लौटूंगी बनारस तुम्हें अपने साथ और ज्यादा ले जाने...                      
          
                                        

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

विवाह में ‘न’ के मायने


कल बड़े दिनों बाद थोड़ा फुर्सत में अपनी भाभी के साथ बैठी थी. उनकी तबियत ठीक नहीं थी तो मैंने भी ऑफिस से छुट्टी ले ली थी. शाम का वक़्त रहा होगा, एक महिला उनके हाल चाल लेने आयीं. शाम की चाय के साथ तीन महिलाओं की गप्पों का सिलसिला चल निकला. शुरू में हंसी मजाक के साथ शुरू हुई बातें धीरे धीरे संजीदा मुद्दों की तरफ बढती गयीं. उस महिला की बातें और व्यव्हार शुरू में थोड़ा अटपटा लगा पर धीरे धीरे हम सभी सहज हो गए. चलिए बातों की आसानी के लिए उनका नाम रख लेते हैं प्रतिभा. प्रतिभा के जीवन के अनुभव उसके चेहरों की लकीरों में नज़र आ रहे थे. हमारे समाज में ये एक आम बात है, एक औरत की सही उम्र चेहरे से कम ही पता चल पाती है. चेहरा उसकी ज़िन्दगी के अनुभवों का आईना दिखा देता है. अगर अनुभव सुखद थे (जो कि आमतौर पर कम ही होते हैं) तो आप सही उम्र देखेंगे वरना उसकी तकलीफों को पूछे या सुने बिना ही उन खाली उदास आँखों, फीकी मुस्कुराहटों, पेशानी पर पड़े बल और चेहरे पर उम्र से पहले ही उभर आई लकीरों में आप उसके अनुभव साफ़ देख सकेंगे. ये देख पाना भी एक हुनर है पर यकीन मानिये अगर आपके अन्दर कहीं भी एक इंसान जिंदा है तो आपको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी.
खैर हम वापस आते हैं प्रतिभा पर. मेरी भाभी ने जब उनका परिचय मुझसे कराया तो बताया कि प्रतिभा को पढ़ने लिखने का बहुत शौक है और वो कवितायेँ बहुत अच्छी लिखती हैं. उनकी शादी कम उम्र में ही हो गयी थी लेकिन उसके बाद उन्होंने अपनी पढाई जारी रखी. बच्चों को भी खूब पढ़ाया, बेटी प्रेम विवाह करना चाहती थी तो उसका पूरा साथ दिया. मैं सुखद आश्चर्य से सुन रही थी और प्रतिभा के चेहरे में वो तलाश कर रही थी जो मुझे सुनने को नहीं मिल रहा था. मेरी दिलचस्पी  वो कहानी जानने में बढ़ती जा रही थी जो उसके ‘आज’ के पीछे थी. यूँ तो हर व्यक्ति विशेष की कोई न कोई कहानी ज़रूर होती है पर आप कह सकते हैं कि महिला मुद्दे मेरे सरोकारों में पहले आते हैं तो मेरा रुझान उनमें ज्यादा है. मैंने हमेशा पाया कि हर लड़की और औरत अपने साथ संघर्ष की  एक अलग ही कहानी लेकर आती है. प्रतिभा की भी एक कहानी थी. अनगिनत पर्तों में लिपटी कहानी जब धीरे धीरे खुलने लगी तो कई बार ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं जड़ हो चुकी हूँ और हौसले की किस मिट्टी से बनी है ये औरत.
तरक्कीपसंद परिवार होते हैं और ज़रूरी नहीं कि ऐसे परिवार सिर्फ शहरों में हों, पढ़े लिखों के हों, किसी वर्ग विशेष के हों इत्यादि. इतने सालों में इतना तो समझ चुकी हूँ कि इस तरह की सीमाएं खुद को भुलावा देने के लिए हम लोगों ने खुद ही बनायीं हुई हैं. प्रतिभा ने पहले ही साफ़ कर दिया कि वो इतनी खुशकिस्मत नहीं थी कि उसे ऐसा परिवार मिला हो. वो बस्ती जिले के एक पिछड़े इलाके और आर्थिक रूप से  मध्य स्तरीय परिवार से थी. परिवार से मतलब उसका मायका. आमतौर पर हमारे समाज में तो एक औरत की पहचान भी स्थायी कहाँ होती है. जिस घर से जुडती है बस उसी हिसाब से पहचान भी बदल जाती है. 15 साल की उम्र में प्रतिभा की शादी हो गयी. ज़ाहिर बात है वो शारीरिक रूप से बेहद कच्ची थी. ये उसके पढ़ने, लिखने और खेलने कूदने की उम्र थी. पर अचानक उसके हाथों से किताबें छीनकर उनमें रसोई के बर्तन दे दिए गए, कन्धों पर स्कूल के बस्ते की जगह रिश्तों की ज़िम्मेदारियों ने ले ली और आँखों और ज़हन में पल पल पलते सपने मुरझा गए. प्रतिभा के मासिक चक्र भी शुरू नहीं हुए थे. गाँव देहात में आमतौर पर शादी होने के बाद भी विदाई तब की जाती है जब लड़की के मासिक चक्र शुरू हो जायें. रुखी भाषा में कहूँ तो इसके बाद लड़की को ससुराल वालों के सुपुर्द ऐसे किया जाता है कि लगता है कहा जा रहा हो कि लो बच्चा पैदा करने की मशीन तैयार हो गयी है, हमारी ज़िम्मेदारी बस यहीं तक थी अब ये तुम्हारी हुई, जैसे मर्ज़ी इस्तेमाल करो. इस प्रक्रिया को ‘गौने’ का नाम दिया जाता है. प्रतिभा की कहानी इस ख्याल को और पुख्ता करती है. 17 साल की उम्र में प्रतिभा के मासिक चक्र शुरू हुए और उसे ससुराल रवाना कर दिया गया. ठीक एक साल बाद यानि 18 साल की उम्र में प्रतिभा एक बच्चे की माँ बन चुकी  थी.
थोड़ी देर पहले तक खिलखिलाती और चहकती आँखों में दर्द, तकलीफ, घृणा और गुस्से की उभरी हुई तस्वीर मुझे भीतर तक झकझोर गयी. उसके कोरों पर चमकती बूँदें मुझे साफ़ नज़र आ रही थीं. मैं समझ सकती थी जिस ज़िन्दगी को प्रतिभा ने जिया था, उसमें अब आंसू बहाने की गुंजाईश ख़त्म हो चुकी थी. उन छोटी बूंदों को साड़ी के कोने से पोंछते हुए उसने कहा “जिसे सब बलात्कार कहते हैं वो तो मेरे साथ हर रोज़ होता था, फर्क बस इतना था कि क्योंकि मेरी उस आदमी से शादी हुई थी इसलिए वो सबकी नज़र में जायज़ था. मैंने अपने जीवन के 10 साल इसी तरह बिताये हैं दीदी, मेरी उम्र ही क्या थी तब”, मैं स्तब्ध थी.
प्रतिभा से कभी कुछ पूछा नहीं गया, उसकी मर्ज़ी नहीं जानी गयी, उसे बस फैसला सुनाया गया. उसे मानना पड़ा क्योंकि उसे बचपन से सिखाया भी तो ये ही गया था. पहली बात तो वो कहती किससे? कहती तो बेशर्म कहलाती. लोगों के हिसाब से इसमें गलत ही क्या होता है, ये तो औरत की नियति होती है. ये बातें पढ़ने सुनने में आपको, हमें और कथित रूप से सभ्य लोगों को कितनी ही बुरी क्यों न लगें कड़वी सच्चाई ये ही है कि हमलोग अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि अलग अलग परिवेशों से आने वाली न जाने कितनी औरतें ऐसी ज़िन्दगी को अपनी नियति मानकर ख़ामोशी से जी जाती हैं. प्रतिभा ने अपने जीवन के 10 लम्बे साल इस शारीरिक, मानसिक, यौनिक और सामाजिक हिंसा को जीते हुए गुज़ारे थे. अब वो दो बच्चों की माँ थी. एक छोटी खरोंच भी अपना निशान छोड़ती है और यहाँ तो चोट का प्रहार शरीर से लेकर आत्मा तक था. जिस्म की खरोंच वक़्त के साथ ख़त्म हो जाती है लेकिन दिल और दिमाग की चोटें व्यवहार में असर छोड देती हैं. प्रतिभा में एक अलग किस्म की कड़वाहट आ गयी थी. उसे किसी का भी, कैसा भी स्पर्श परेशान कर देता था. बल्कि आज भी अगर वो किसी को भी अपनी तरफ बढ़ते हुए देखती है तो बेहद असहज हो जाती है. ये दूरी उसने स्त्री - पुरुष, हर किसी से बना ली है. यह बहुत हद तक समझा भी जा सकता है क्योंकि अपनी तकलीफ के उस दौर को उसने अकेले ही झेला है.
मगर जिस जज्बे की मिसाल प्रतिभा ने दी वो बहुत कम देखने को मिलता है. जब प्रतिभा थोड़ी समझने की स्थिति में आई तो उसने अपनी बिखरी ज़िन्दगी को समेटने का फैसला किया. अपने भीतर दौड़ रही कड़वाहट को उसने अपनी शक्ति बनाया. उसने अपनी पढाई दोबारा शुरू की. जिद की  और दसवीं, बारहवीं, बी. ए., एम्. ए. किया. खुद को किताबों की दुनिया में उतार लिया. हौसला आने लगा और वो घर वालों की नज़र में विद्रोही हो गयी. हमारे समाज में ‘न’ सुनना पति को नागवार गुज़रता है पर प्रतिभा ने ‘न’ बोलना सीखा. खुद से और बच्चों से जुड़े फैसलों में किसी की न सुनी. बेटी को खूब पढ़ाया, पी. एच. डी. करायी. बेटी ने अपनी पसंद से शादी करने की इच्छा जताई तो परिवार वालों के विर्रुद्ध जाकर बेटी की शादी उसकी पसंद के लड़के से करायी. प्रतिभा ने लिखने पढ़ने के शौक को अपना साथी बना लिया है.
प्रतिभा के संघर्ष की कहानी सुनकर मैं बहुत प्रभावित थी पर हाँ कुछ बातें हैं जो अन्दर तकलीफ देती हैं. प्रतिभा ने खुद को संभाला, बेटी, बेटे की अच्छी परवरिश की लेकिन कितनी गहरी हैं वो तकलीफें जिनकी टीस व्यक्तिगत तौर पर उसे आज भी बेचैन कर देती है और शायद हमेशा करती रहेंगी. किसी का प्यार, दुलार या संवेदना से भरा स्पर्श भी उसे परेशान कर देता है, वो दूरी जो उसने दुनिया से बना ली है, नहीं लगता कि कभी कम हो पायेगी. पर फिर ये भी लगा कि कितनी औरतें हैं जो इतनी हिम्मत जुटा पाती हैं जो प्रतिभा ने जुटाई. मैं कई ऐसी महिलाओं को जानती हूँ जिनके ऐसे अनुभव उनकी जीने की इच्छाशक्ति को ही ख़त्म कर देते हैं.
प्रतिभा की कहानी जब सुन रही थी तो ज़हन में और बातें भी चल रही थी. दिसंबर 2012 में हुई  दिल्ली के बहुचर्चित बलात्कार की घटना से जुडी बातें कौंध गयी. साथ ही 2004 की एक परिचर्चा की भी याद हो आई. परिचर्चा सुप्रीम कोर्ट की एक वरिष्ठ वकील के साथ हुई थी जिसमें मुझे ये पता चला था कि हमारे कानून में वैवाहिक जीवन में पति द्वारा हुए बलात्कार को बलात्कार माना ही नहीं जाता. 2012 में वर्मा कमेटी ने एक अच्छी पहल करते हुए देश भर से सुझाव मांगे. न जाने कितने लोगों और संस्थाओं ने ये सुझाव दिया कि वैवाहिक जीवन में हो रही इन घटनाओं को भी बलात्कार में शामिल किया जाये. ये वो घटनाएं हैं जिनका कोई आंकड़ा ही नहीं मिलता क्योंकि इसे क्रूरता की श्रेणी में रखा जाता है. पर समाज के हर हिस्से, हर संस्था मे घर कर चुकी पित्रसत्ता से ये  संवेदनशील कमेटी, सरकार, राजनीतिक दल, न्यायपालिका, कुछ भी तो अछूता नहीं. जो कानून बना उसमें इन घटनाओं को बलात्कार में शामिल नहीं किया गया. दलीलें भी दे दी गयीं इस निर्णय के पीछे कि परिवार और विवाह संस्था को बचाए रखने के लिए ऐसा करना ज़रूरी है. कितनी हास्यास्पद बात है कि वही घटना किसी कुंवारी लड़की या महिला के साथ होने पर उसे बलात्कार माना जायेगा, उसके लिए अलग कानून होंगे, अलग सजायें होंगी लेकिन वही घटना अगर पति करे, बार बार करे, हर रोज़ करे तो उसका कानून, सजा, सुनवाई, सब अलग. जो सवाल उठते हैं वो पुराने हैं लेकिन आज तक अनुत्तरित हैं इसलिए ज़रूरी हैं. क्या महज़ शादी हो जाने से किसी घटना की जघन्यता कम हो जाती है? क्या शादी का मतलब कोई लाइसेंस है जो पति को अपनी पत्नी की देह का शोषण करने के लिए मिलता है? अपनी पत्नी की मर्ज़ी के खिलाफ जाकर, ज़बरदस्ती उससे सम्बन्ध बनाने वाले पुरुष में और एक बलात्कारी में क्या अंतर है? क्या एक पत्नी की इच्छा या मर्ज़ी की कोई अहमियत नहीं? कहीं हम ये तो नहीं कहना चाहते कि चूँकि उसने ऐसा अपनी पत्नी के साथ किया इसलिए ये उतना ग़लत नहीं, बाहर किसी और लड़की के साथ करता तो गलत होता? क्या हम ये कहना चाह रहे हैं कि पत्नी इसी प्रकार के उपभोग की ही वस्तु है? क्या हम सोच भी पा रहे हैं कि तथाकथित रूप से महान विवाह संस्था को बचाने के लिए हम इस मुल्क की अनगिनत पीड़ित महिलाओं और लड़कियों को किस नरक में धकेल रहे हैं? काश हमारे देश की निर्णायक प्रणाली में शामिल होने वाली सभी संस्थाएं और समूह थोडा संवेदनशील होकर ये सोचती कि विवाह संस्था को बचाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ औरत की ही तो नहीं और वो कैसी संस्था जो किसी औरत के जीवन को दु:स्वप्न में बदल दे. ऐसी संस्था को तो सिरे से ख़ारिज करके बाहर निकलने में ही समझदारी है. ज़रूरत थी कि वो इस मुल्क की लड़कियों में हौसला भर सकते कि ऐसी स्थितियों में वो अकेली नहीं हैं और उनके पास कानून की ताकत है. हमारी सरकार को इस बात का ज़रा भी अंदाजा नहीं कि उनके इस निर्णय ने न जाने कितने शोषक पुरुषों के हौसलों को मज़बूत किया, कितनी औरतों, बराबरी के समाज के लिए कार्य कर रहे लोगों और संगठनों की उम्मीदों को तार तार किया और असंवेदनशीलता की क्या मिसाल पेश की.
मैं खुश हूँ कि प्रतिभा ने स्थितियों के आगे घुटने टेकने से मना कर दिया, कम ही महिलाएं ऐसी हिम्मत जुटा पाती हैं लेकिन हम सच से मुंह नहीं फेर सकते और सच ये है कि उन काले वर्षों की वजह से प्रतिभा खुश और सामान्य तो आज भी नहीं!!