शुक्रवार, 30 मई 2014

पहाड़, जंगल, नदी, खेत, बाज़ार, बचपन की यादें और कोटद्वार

आहिस्ता आहिस्ता सूरज की तपिश को मद्धम करती, ठंडी हवा साथ लिए पहाड़ के जंगलों से संदली शाम उतर रही है मेरे आँगन में...हां सच है, शामें सख्त़ नापसंद हैं हमें....उफ़ कैसी उदासी से भरी होती हैं ये....हाँ अगर अपना साथ निभाने बारिश को साथ लायी हों तो अलग बात है....बारिशें और उनका भीगा अहसास मुझे इस क़दर पसंद है कि मेरे ज़हन से वो शाम की उदासी का बोझ हटा देता है.

आजकल कोटद्वार में हूँ...ये मेरा ददिहाल है...इसे गढ़वाल का द्वार कहा जाता है और मुख्य व्यावसायिक व व्यापारिक केंद्र भी...इसका पुराना नाम खोद्वार हुआ करता था...खो एक नदी है यहाँ...घने, हरे जंगलों की शिवालिक की पहाड़ियों से सटा ये उप क्षेत्र है जहाँ से तराई का इलाका शुरू होता है.....याद करती हूँ जब बचपन में यहाँ आती थी तो इस जगह का, यहाँ के लोगों का अपना एक अलग ख़ास अंदाज़ होता था...सरल, खिलंदड़, मनमौजी, खुशनुमा.....एकदम अपनी तरह का...कि आप यहाँ आयें और विस्मय से उससे प्रभावित हुए बिना और मुस्कुराये बिना न रह पाएं....और फिर प्रकृति का साथ हो तो बात ही क्या...इसमें बड़ी ताक़त होती है...इंसानों की भीड़ में भी आप अकेले हो सकते हैं पर प्रकृति हमेशा साथ निभाती है...वो कभी आपको अकेलेपन का अहसास नहीं होने देती...पहाड़ी पार से आसमान को लाल, नारंगी और सुनहरा करता उगता सूरज आपकी अलसाई उनींदी आँखों पर आहिस्ता से दस्तक देगा...हवा आपसे बातें करेगी, फूल- पत्ती- पेड़- पौधे आपकी बातों पर मुस्कुराएंगे...अल्हड़ नदियां आपके साथ खिलखिलायेंगी और बचपन की कोई शरारत याद दिला जाएँगी....साफ़ नीला आसमान या तो अपनी नीली छतरी से आँखों को ठंडक देता रहेगा या फिर मंडली जमाने तरह तरह के बादल दोस्तों को ले आएगा...और इस बीच अगर बारिश हो गयी तब तो पूछिए मत...बस फिर तो वो सिहरन...ठण्ड भगाने के लिए जलती आग का वो ताप, वो रंग....तो बस...फिर अकेले कहां रहे आप...मैंने ऐसा महसूस किया है कि इंसानों के बीच आप ख़ुद को भूलकर दूसरों में, इंसानों में प्यार तलाशते हैं पर प्रकृति का ऐसा साथ मिलता है तो आपको ख़ुद से अपने साथ से मुहब्बत हो जाती है...जैसे बरसों बाद ख़ुद से मुलाक़ात की हो...

तो बात कोटद्वार की हो रही थी...जो एक वक़्त अपनी ही क़िस्म का था पर बाज़ार से ये और यहाँ के लोग भी नहीं बच पाए...पर हां उन ख़ालिस शहरों से ये आज भी भिन्न है....यहां ब्रांड और फैशन तो पहुंच चुका है पर कहीं कुछ अभी भी बाक़ी है...कह सकते हैं एक शहरनुमा क़स्बा....एक ही बाज़ार है इस जगह के पास....एक अज़ीज़ दोस्त अन्नू की प्यार भरी धमकी पर आज एक सैर कोटद्वार के उस बाज़ार की ही कराने जा रही हूँ आप सबको.
 
स्टेशन पर उतरते ही आपको अहसास हो जायेगा कि मैदानी इलाक़े से कहीं दूर आ गए हैं....सीढ़ियाँ चढ़ कर बाहर पहुँचिये तो यहाँ का रौनक भरा एकमात्र बाज़ार बाहें पसार देगा आपके लिए....बायां रास्ता बस स्टेशन की तरफ तो दायाँ झंडा चौक की तरफ़...बस स्टेशन की तरफ जाने वाला रास्ता बसों, यात्रियों, दुकानों और वहां आने वालों की भीड़ के चलते ख़ासा तंग हो जाता है....कंधे पर रस्सी डाले नेपाली पुरुष जिन्हें यहाँ की भाषा में डूट्याल कहा जाता है, इधर उधर दौड़ते दिख जायेंगे....ये लोग पहाड़ की ओर जानेवाली बसों तक भारी सामान पहुँचाने का काम करते हैं. ये रास्ता चाय और जलपान की छोटी दुकानों, फलों के ठेलों, सालों पुरानी भंडारी स्वीट्स की दुकान और किराने की कुछ और दुकानों से सजा रहता है....और यहाँ आपको पौड़ी गढ़वाल के अलग अलग इलाकों को जाने वाली बसों और टैक्सियों के ड्राईवर या कन्डक्टर आवाज़ दे देकर बुलाते मिल जायेंगे....माथे पर हल्दी चावल का टीका सजाये कोई रिश्तेदारों के यहाँ, कोई शादी में, कोई ख़रीददारी करके, कोई फौजी छुट्टियों पर, कोई लड़की गाँव में अपने मायके तो कोई मंदिर या पूजा के लिए सफ़र कर रहा होता है..हल्दी चावल का टीका जिसे यहाँ फिटाई कहा जाता है विदाई के समय का शगुन होता है....संकरे घुमाउदार पहाड़ी रास्तों पर बच्चों, बुजुर्गों, महिलाओं और पुरुषों से भरी ये बसें अपने आप में पूरे गढ़वाल की रौनक समेटे चलती हैं...और हाँ सजी धजी नयी नवेली दुल्हन को किसी मंदिर की यात्रा पर ले जाती गाड़ियाँ भी दिखेंगी....पहाड़ का असली मज़ा मतलब वहां की भाषा, मिज़ाज़ और लोगों से असल मुलाक़ात इन बसों या टैक्सियों में सफ़र करके ही हो पायेगी, एसी गाड़ियों में नहीं...ख़ूबसूरत नज़ारों, गढ़वाली गानों और लतीफ़ों के बीच सफ़र मज़े में कट जायेगा...हाँ चक्कर आने की बीमारी न हो बस..

अब ज़रा कोटद्वार स्टेशन वापस आते हैं और दाहिने रास्ते पर बढ़ चलते हैं...अब सड़क के दोनों ओर ज़रूरत के सामान की दुकानें मिलेंगी...बर्तन, जूते चप्पल, बिजली के उपकरण, मनोरंजन के लिए गढ़वाली गीतों के सीडी, कपड़े, किराने की दुकानें...दाहिनी तरफ साईं बाबा का मंदिर और बायीं तरफ एक सीध से कई दुकानें शादी के समारोहों के सामान की...वो नोटों की अलग अलग डिज़ाइन की मालाएं, सेहरे, सजावट, पूजा और शादी की और ज़रूरत का सामान, फूलों की दुकानें...सारी ख़रीददारी उतनी ही दूरी में फटाफट निपट जाये...और ये रहा सामने झंडा चौक....एक बहुत पुराना बड़ा चौराहा जिसमे बीच में एक झंडा लगा है...कहते हैं ये उस वक़्त से है जब से ये जगह बसी है...बस आपकी छोटी बड़ी हर ज़रूरत का सामान यहीं मिलेगा और यहाँ नहीं मिला तो वो इस जगह और कहीं नहीं मिलेगा...फिर तो आप हरिद्वार देहरादून ही जाइये...इस जगह से एक रास्ता गढ़वाल की तरफ, एक नजीबाबाद, और बाकी दो छोटे रास्ते यहाँ के स्थानीय इलाकों की तरफ जाते हैं...ये सभी रास्ते आगे जाकर छोटे छोटे रास्तों में बंट जाते हैं... और वो एक पतली गली जो बायीं तरफ गयी है न वो आगे जाकर दो और गलियों में बंट जाती है...उसमें से एक बस अड्डे पर मिलती है...एक गली में कपड़ों, सौंदर्य प्रसाधनों, जूते चप्पलों की दुकानें तो दूसरी तरफ किराने की दुकानें और फल और सब्जी मंडी...बड़ा मजेदार लग रहा था वो नींबू बेचने वाला लड़का...”खट्टे रसगुल्ले ले जाओ...ख़ूब पियो ख़ूब जियो”....एक खीरेवाला, खीरा जिसे यहाँ ककड़ी कहते हैं, आवाज़ दे रहा था कि ताज़े खीरे ले लो तो दूसरा उससे झगड़ रहा था कि तुम्हारे ताजें हैं तो क्या हमारे बासी है...और फिर दोनों की एक खिलखिलाती हंसी तैर गयी....अच्छी बात ये कि प्लास्टिक प्रतिबंधित है...या तो घर से थैला लेकर जाइये या उन कागज़ के लिफाफों में सामान लाइए.

गढ़वाल के रास्ते से आने वाले कुछ लोग टीका लगाये दिखेंगे....ये यहाँ के सिद्धबली मंदिर से लौट रहे हैं....इन्हें यहाँ का स्थानीय देवता कह सकते हैं...गढ़वाली तो वैसे भी देवी देवताओं के लिए अपने प्रेम के लिए प्रसिद्ध हैं ....खो नदी के बगल में पहाड़ी पर स्थित ये मंदिर यहाँ का बहुत पुराना मंदिर है...और मन्नत मानने वालों की लम्बी सूची है...जिनकी दुआएं पूरी होती हैं उनमे से कई लोग यहाँ भंडारा करवाते हैं...इस मंदिर की लोकप्रियता का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि शुरुआत में रविवार और मंगलवार को होने वाला भंडारा अब हर रोज़ होता है और अगले 6-7 सालों की बुकिंग इस वक़्त ही हो चुकी है...मतलब अगर आपकी कोई मनोकामना पूरी हुई है और आपको भंडारा करवाना है तो आपकी बारी 7 साल बाद आएगी...अब इन सब बातों को आप शौक से अपने तर्कों की कसौटी पर कस सकते हैं...आप इसे आस्था कहें या अन्धविश्वास ये आपकी समझ और सोच पर है.

यहाँ के लोगों के लिए ये मौसम बहुत गर्म है पर हम जैसों के लिए...जो जानलेवा गर्मी और देह भेदती लू को झेलने के आदि हैं, हमारे लिए तो ये कुछ भी नहीं...भरी दुपहरी मैं बहुत मज़े से तस्वीरें लेती और सब कुछ गौर से देखती और महसूस करती टहल रही थी..इस छोटी सी जगह में ज़्यादातर लोग एक दूसरे को जानते हैं...मसलन ऑटो चालक को मेरे परिवार के बारे में सब पता था...वो जानता था कि मैं बाहर से आई हूँ तो बताता चल रहा था कि घर से थैला लेकर आना था भुल्ली (भुल्ली यहाँ छोटी बहन को कहा जाता है) यहाँ तो प्लास्टिक की थैली नहीं मिलती...उसने मुझे ये भी बता दिया कि मेरे घर के किन किन सदस्यों को वो जानता है...एक अलग किस्म का जुड़ाव महसूस होता है जैसे हर कोई किसी न किसी तरह एक दुसरे से जुड़ा हो....मैं अपने सामान के अलग अलग लिफाफे समेट ही रही थी कि एक महिला भी अपनी नन्ही बच्ची के साथ बगल में आ बैठीं...उन नन्ही, चमकदार, कजरारी आँखों से मैंने इशारों में दो एक बातें की और वो देखिये वो निश्छल, चमकती, खिलखिलाती हंसी...बस हो गयी हम दोनों की जान पहचान भी और दोस्ती भी...अपनी मां की गोद से वो आ लपकी मेरी तरफ...थोड़ी देर यूँ ही इशारों की बातों, हंसी और मुस्कुराहटों का दौर चला...ऑटो चलते ही हवा से उस नन्ही परी की आँखें बोझल होने लगीं और वो वापस अपनी मां के पास पहुँच गयी...कैसे अजीब और करीबी होतें हैं कुछ रिश्ते...ख़ासतौर पर वो जो दुनिया की समझदारी से दूर रहकर बन जाते हैं...निश्छल, भोले, मासूम और ईमानदार...दुनिया की सारी फ़िक्र से दूर सोती हुई उस बेहद प्यारी बच्ची को देखते हुए मैं ये ही सोच रही थी जिसने गहरी नींद में भी अपनी नयी नवेली इस दोस्त की ऊँगली कसके थामी हुई थी.


उफ़, मेरी बातें तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेतीं...ये देखिये शाम को रुख़सत कर, पहाड़ियों से ठंडी हवा के झोंके और सितारों भरा आसमान लिए दिलक़श रात पहुँच चुकी है छत पर...जानते हैं न रातें मुझे कितनी पसंद हैं...अब ज़रा यहाँ ठंडी हवा में बैठकर दूर पहाड़ियों के गांवों की टिमटिमाती रौशनियां देख लूँ...इजाज़त दीजिये....अगली बार अपने ननिहाल लेकर चलूंगी.