रविवार, 25 नवंबर 2018

दिल के कोने में यादों समेत महफ़ूज़ 'कोने अंकल'

सारे ही काम तो हो रहे हैं, कुछ भी तो नहीं रुका...खाना पीना, सोना जागना, हँसी मज़ाक बल्कि घूमना फिरना भी...ये क्या है जो कल से बवंडर सा मेरे भीतर घूमे ही जा रहा है...इधर उधर की जाने किन किन बातों को अपनी ओर खींचता और तेज़ रफ़्तार का तूफ़ान लाता हुआ...बचपन की यादें बेहद धुंधली हैं ज़्यादातर याद ही नहीं...जो याद हैं उनमें भी अधिकतर दुस्वप्न सी हैं...पर मेरी उन तमाम यादों में एक शख्स़ की याद है जो बहुत बहुत प्यारी है, मेरे लिए बेहद ख़ास और मेरे बचपन की यादों का एकमात्र हिस्सा जो ख़ूबसूरत भी था और याद भी है...कोने अंकल !


उदयगंज के उस किराये के घर में बीच में एक बड़ा बरामदा था और चारों तरफ़ किरायेदार...कुल मिलाकर 4 परिवार...हमारे सामने की ओर दाहिने कोने में वो अंकल रहते थे...उनका परिवार ग़ाज़ीपुर में रहता था...वो सचिवालय में कार्यरत थे तो यहाँ अकेले रहते थे...एक छोटा कमरा और उसके आगे आंगन...कमरे में दाख़िल होते ही ठीक सामने अंकल के माता पिता की तस्वीर दीवार में टंगी दिखती...बायीं तरफ़ एक तख़्त जिसमें हल्की रंगीन धारियों वाली एकदम साफ़ सुथरी चादर बिछी रहती थी...कुछ ऐसे कि उनकी सिधाई आप स्केल से भी चेक कर लें...तख़्त के बगल में दीवार में बनी अलमारियाँ...तब लकड़ी की अलमारियाँ आमतौर पर चलन में नहीं थीं...उन अलमारियों में कुछ बांसुरियां रखी रहती थीं...अलग अलग साइज़ की...अंकल फ़ुर्सत में होते तो कभी कभी बजाया करते...नीचे की अलमारियों में किताबें...बायीं ओर की अलमारियों की तरह उस दीवार के दाहिने कोने में भी अलमारियाँ बनी थीं...लैय्या मूंगफली की नमकीन, सेंव, गुड़ से बनीं कुछ चीज़ें और ऐसा ही और सामान काँच की साफ़ सुथरी बोतलों में रखा रहता...अलमारी के बगल में टेलीविजन जिसमें लकड़ी के खिसककर बंद करने वाले शटर होते थे...टीवी के ऊपर एक साफ़ सुथरा कपड़ा बिछा होता, उसके ऊपर एक चपटा लम्बा टेपरिकॉर्डर, बगल में एल्युमीनियम का छोटा सा बक्सा जिसमें कैसेट रखे होते...इसके बगल में एक बड़ा सा बक्सा....उस छोटे से एक कमरे में कुल मिलाकर बेहद करीने से रखा बस ये ही सामान था...तख़्त और बक्से दोनों के बगल में खिड़कियाँ थीं...रसोई बाहर आंगन में थी...और बक्से के सामने वाली खिड़की में आंगन की तरफ़ से कूलर रखा था जिसपर गहरे हरे रंग का पेंट था...बर्तन धोने के लिये बाल्टी मग आंगन के दाहिनी ओर...ईमानदारी से कहूँ तो मुझे अपने घर की व्यवस्था और परिवार के लोगों के व्यवहार इतने अच्छे से याद नहीं है...और ये भी सच है कि आज तक मैंने कभी इतना सुव्यवस्थित घर किसी का भी नहीं देखा...बचपन में जिस माहौल में मैं थी उस हिसाब से इस घर में तमाम चीज़ें देखकर मन में कौतुहल होना या मेरा उत्साहित होना लाज़मी भी था.. 

मुझे नहीं पता क्यों मैं उनकी ऐसी लाडली थी...बाज़ार जाते तो साथ ले जाते...दफ़्तर से घर आते तो मैं उनके घर पहुँच जाती...वो कटोरी में मुझे लैय्या मूंगफली की नमकीन देते और उठाकर बक्से के ऊपर बैठा देते कि मैं कूलर की हवा भी खा लूं और खिड़की से उनसे बातें भी करती रहूँ......ख़ुद बाहर रसोई में अपने लिए रात के खाने की तैयारी करने लगते...आटा गूंदने के बाद पहले उसकी छोटी छोटी गोलियां बना लेते फिर एक एक करके रोटियाँ बेलते...एकदम गोल...जब जब मछली बनाते अपने घर से आवाज़ दे देते कि आज तुम्हारी दावत यहाँ है...काँटे वाली मछली कैसे खायें ये भी सिखाते...उनके हक़ से आने वाले इस न्योते पर मेरे शाकाहारी परिवार ने कभी कोई रोक टोक नहीं की...पूरे घर में बस उनके पास ही कैमरा था तो कभी कभी फ़ोटो भी खींचते...सारे किरायेदारों में आर्थिक रूप से वे सबसे बेहतर थे...आंटी ग़ाज़ीपुर में सरकारी इंटर कॉलेज में प्रिंसिपल थीं...उस घर में सबसे पहले स्कूटर उनके पास ही आया था..बादामी रंग का एलएमएल वेस्पा...रविवार का दिन ख़ास होता था फ़िल्म और तमाम धारावाहिकों की वजह से...उस दिन उनके कमरे की फर्श पर एक चटाई बिछती जिसमें घर के बाकी सारे बच्चे और कुछ बड़े बैठते...मैं तख़्त पर अंकल की गोद में बैठती...और इस बात का मुझे मन ही मन घमंड भी था....

उन्हें क्या कह कर बुलाना चाहिये ये मुझे क्या पता होता...मैं पैदा होते ही उसी घर में आई थी तो वही पली बढ़ी थी...ये सब बातें किसी ख़ास उम्र की नहीं, हों भी तो मुझे याद नहीं...पर उनका घर कोने में होने के चलते उनका नाम कोने अंकल रख दिया था और उसके बाद तो घर के बच्चे बड़े सब उसी तरह बुलाते...ऊपर माया बुआ के वो कोने वाले भाई साहब हो गए, माताजी के कोने वाले भैया और हमारे कोने अंकल...जाने कितने सालों तक तो मुझे पता भी नहीं था कि उनका असली नाम घनश्याम वर्मा है...मेरे लिए वो हमेशा ही कोने अंकल रहे...

हमारा परिवार वहां से अपने घर आ गया...उसके बाद कुछ समय के लिए वे उस किराये के घर में हमारे वाले कमरों में चले गए थे...ऐसा नहीं था कि बचपन में मैं बड़ी बातूनी थी या वो बहुत गप्पें मारते थे...हम बात करते थे क्या बात करते थे, ये याद नहीं...पर मैं बेहद सहज होती थी, मुझे अच्छा लगता था ये याद है...बहुत साल पहले वो लिली दीदी (उनकी बेटी) के साथ आये थे मिलने...अब उतनी बात नहीं हुई...मेरे भीतर एक संकोच सा आया पर आदर और प्यार में कहीं कोई कमी नहीं थी...सब अपने अपने जीवन में व्यस्त होते गए...पर मेरे ज़ेहन में वे हमेशा रहे...रिटायर होकर वे ग़ाज़ीपुर चले गए थे और मेरे पास कोई संपर्क ही नहीं था...कितनी मशक्कत के बाद उन्हें फ़ेसबुक पर ढूँढा था...पापा से भी बात करवाई...मेरी तस्वीरों पर वो कुछ कमेंट कर आशीर्वाद देते रहते...सुना कुछ महीनों पहले लखनऊ आये थे और मिलना चाहते थे...साधन न होने की वजह से नहीं आ पाए...जाने क्यों फ़ोन नहीं किया या कोशिश की और संपर्क नहीं हुआ...

कल पापा पुराने मोहल्ले की तरफ़ गए थे...बताया गया कोने अंकल नहीं रहे...दो महीने पहले गुज़र गए...मेरे भीतर के एक रंग रौशनी रौनक भरे हिस्से में अचानक अँधेरे से भरा गहरा सन्नाटा खिंच गया...मेरे बचपन का सबसे प्यारा और एकलौता इतना ख़ूबसूरत हिस्सा मानो किसी ने छीन लिया हो...ज़िन्दगी के उस अजीबोग़रीब वक़्त में वो एक समय था जिसे ऑक्सीजन कहा जा सकता है....भीतर क्या कुछ हो रहा है कि किसी को बताना मुश्किल है, अजीब सी स्थिति है..अफ़सोस, दुःख, पीड़ा, शॉक पता नहीं...जाने कौन कौन सी स्मृतियाँ लौट लौट कर आ रही हैं...कहा न काम कोई नहीं रुका पर भीतर कुछ थम गया...समझाना भी मुश्किल है और किसी का समझना भी...वो मेरे लिए कितने ख़ास थे ये तो मैं कभी उन्हें भी नहीं बता पायी...जब हर किसी से मैं दूर भागती थी उस एक वक़्त उनके साथ मैं एकदम सहज सुरक्षित होती थी...अपने परिवार के सदस्यों की भी इतनी महीन यादें नहीं मेरे ज़ेहन में, पर उनकी हैं....मुझसे उनका जुड़ाव भला कैसे कम होगा...उनके गले लगकर शुक्रिया कहने की तमन्ना ही रह गयी...जिन्हें मैंने ‘कोने अंकल’ नाम दिया था उन्होंने एक दिन अपने यहाँ बर्तन धोते हुए मेरी माँ से कहा था.... “इसका नाम रखिये...रश्मि !”  

बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

मैं समझ सकती हूँ कि तुम नहीं बोल पायी... और यक़ीन मानो तुम नहीं बोल पायी तो ये कोई ग़लती नहीं थी...

मुझे शोर बहुत परेशान कर देता है....इतना कि मैं कोशिश करती हूँ इससे जितना दूर रह सकूँ रहूँ...कहीं  कहीं से ख़ुद को अलग कर देना पड़े तो भी गुरेज़ नहीं...सोशल मीडिया एक उदाहरण है...जब जब वहां का शोर असहनीय हो जाता है मुँह फेर लेती हूँ...कुछ दोस्त मज़ाक में चिढ़ाते हैं कि तुम्हें बुढ़ापा आ गया है...पर मैं अपने इस शेल में सुकून पाती हूँ...दिन, रात, फूल, पत्ती, चाँद, सितारे, सूरज, आसमान, मिट्टी, बच्चे, प्रेम, मुस्कुराहटें....मैं कई बार ख़ुद को इन तक ही सीमित रखना चाहती हूँ  

इन सब में ऐसा कतई नहीं कि शोर मेरा पीछा छोड़ देता है...किसी न किसी रास्ते वो दरवाज़ा खटखटाने ही लगता है...हमेशा न तो आँखें मूंदी जा सकती हैं न ही कान ढंके जा सकते हैं...और बाहर के शोर को जैसे तैसे रोक भी लिया जाए पर जो भीतर है उससे कैसे निपटा जाये..उसे न तो नज़रंदाज़ करते बनता है न भूलते...

इस वीकेंड #MeToo का कुछ ऐसा ही शोर रहा...बात लड़कियों के उन अनुभवों की थी जब अपने कार्य स्थल में उन्हें यौन हिंसा का सामना करना पड़ा...अभिनय, पत्रकारिता, फ़िल्म निर्माण, लेखन के क्षेत्र से जुड़ी लड़कियों ने जब अनुभव साझा करने शुरू किये तो एक के बाद एक छवियाँ टूटती गयीं...हमारे बीच रोज़गार की जगहें व वहां के माहौल में दिन के उजालों में भी अँधेरे ही पसरे मिले...मैं हमेशा ही कहती हूँ कि जितना हम रिपोर्टों में देखते हैं असलियत उससे कहीं ज़्यादा है क्योंकि अधिकाँश बातें दर्ज ही नहीं हैं...मेरे हिसाब से तो शायद ही कोई ऐसी लड़की होगी जिसे कभी यौनिक हिंसा का सामना न करना पड़ा हो...हम अपने समाज की पढ़ी लिखी काबिल लड़कियों को काम करने के लिए ये ही माहौल दे पा रहे हैं.. ध्यान रहे, घर कोई सुरक्षित नहीं और कार्यस्थल में भी हर महिला शामिल है इसका उसके पद, शैक्षणिक योग्यता या अनुभव से कोई लेना देना नहीं...ऐसी किसी भी बात से उसकी गरिमा कम या ज़्यादा नहीं हो जाती

इस उथल पुथल में पिछले 2-3 दिन तबियत बड़ी भारी रही...मैंने कोई चर्चा नहीं सुनी...एक जगह 2 मिनट के वीडियो पर बहस इस बात पर थी कि इस प्रकार की हिंसा को अन्य प्रकार की महिला हिंसा या यौन हिंसा के साथ देखा जाए या नहीं, उन लड़कियों को सोशल मीडिया पर कहना चाहिये या नहीं, इतने सालों बाद बात करनी चाहिए या नहीं वगैरह वगैरह ....क्या बकवास है ! अब हम हिंसाओं को इस नज़रिए से देखेंगे....यकीन मानिए यौन हिंसा के अनुभव कह पाना आसान नहीं होता और मुश्किल ये कि इनकी यादें कभी पीछा नहीं छोड़तीं बल्कि ये पूरे व्यक्तित्व पर बीमार कर देने की हद तक असर डालती हैं  

आप किसी भी लड़की या बच्ची से बात करके देखिये हमारे समाज में हाल ये है कि हर लड़की की अपनी तमाम कहानियां निकल आएँगी...आज आप अपना चेहरा देखकर ही बेचैन हैं...कुछ मामलों में आप कह रहे हैं सॉरी हम समझ नहीं पाए, हमसे चूक हुई...जिस बात या घटना या अनुभव को आप एक सॉरी से बैलेंस करने की कोशिश करते हैं आपके ख़याल में ही  नहीं कि उसका असर क्या हुआ था...

मेरी याद्दाश्त बेहद बेहद कमज़ोर है...मेरे सभी साथी ये बात जानते हैं...बावजूद इसके मुझे अपनी ज़िन्दगी में अलग अलग उम्र व जगहों पर घटी वो सारी घटनाएं याद हैं...और जब वो याद आती हैं, मैं नहीं समझ पाती कि उस स्थिति को कैसे सम्भालूँ...जी हाँ मैं, 36 साल की पढ़ी लिखी कामकाजी लड़की....वीमेन्स स्टडीज पढ़ी हुई, 10-12 साल से NGO के ही क्षेत्र में काम करने वाली, बराबरी के मुद्दे पर पढ़ने लिखने बोलने वाली...जब भी कोई मुझसे ये कहता है कि मैं बहुत मज़बूत हूँ मुझे अपने आप में ये बात बेहद हास्यास्पद मालूम देने लगती है क्योंकि उन परछाइयों से ख़ुद को बाहर मैं अब तक नहीं निकाल सकी, बस संघर्ष कर रही हूँ...हाँ ये कोशिश ज़रूर रहती है कि और किसी के साथ ऐसी घटना न हो इसके लिए अगर कुछ कर सकूँ तो ज़रूर करूँ....

मेरी कमज़ोर याद्दाश्त के चलते मुझे ये याद नहीं कि उस वक़्त मेरी उम्र क्या थी, मैं छोटी थी क्योंकि पुराने लखनऊ के उस घर को जब मेरे परिवार ने छोड़ा तब मैं कक्षा 6 में थी....उससे पहले के समय में जबकि मुझे ये तक याद नहीं कि मैं स्कूल जाती थी या नहीं, जाती थी तो कहाँ, किस क्लास में...मुझे याद हैं आस पास के वो सब ‘भैया’ लोग जो कभी किसी घर की छत पर तो कभी मम्मी के घर पर न होने के वक़्त बारी बारी से अपनी इच्छाएं पूरी करते थे..वो तय करते थे कौन किसके साथ जाएगा...काम पूरा होने पर पुचकार के कान में कहते ‘किसी से कुछ कहना नहीं’...मुझे और कुछ भी नहीं याद पर इतना बहुत बहुत अच्छी तरह आज भी याद है कि बहुत दर्द होता था... ये इस तरह याद है मानो कल की बात हो...ये हमारे अड़ोस पड़ोस के सभ्य संस्कारी घरों और पारिवारिक मित्रों के घरों के वो भैया लोग थे जिनके भरोसे हमारे अभिभावक हमें बेझिझक छोड़ जाते थे...भरोसा था कि इनके साथ हम सुरक्षित हैं...

मेरा परिवार ऐसा था जहाँ अनुशासन का मतलब डर और दहशत था...मैं बचपन के उन अनुभवों के चलते बेहद दब्बू, डरपोक, अंतर्मुखी होती चली गयी...मेरा दिमाग़ मानो मकड़जाल की तरह उलझा हो, एक अजीब भावना या कुंठा से भरा...परिवार की चिंताएं स्कूल में अच्छे नंबर लाने से जुड़ी थीं क्योंकि ये तय हुआ था कि मुझे डॉक्टर बनाया जायेगा...ये बात कभी भी अपने परिवार में साझा नहीं कर सकी..मैं किससे कहती और क्या कहती...ये तो ‘गन्दी बात’ थी...मम्मी ने कहीं सुना तो वो कितना मारेंगी...ये वो स्थितियां थीं जब किसी का भी स्पर्श असहज करने लगे...पिता का भी और भाई का भी...समझ ही न आये कि रिश्तों के असलियत में क्या मायने हैं...क्योंकि वो सब भी तो भैया लोग ही थे...माँ अक्सर ननिहाल जाती थीं तो पापा स्कूल की छुट्टी के बाद हमें अपने दफ़्तर ही ले जाते...शिक्षा विभाग में छात्र कल्याण निधि देखते थे जहाँ से छात्र छात्राओं को छात्रवृत्ति मिलती थी....मुझे नहीं पता कि उस दिन पापा के ऑफिस में आया वो युवक बार बार मेरी ट्यूनिक के अन्दर क्यों हाथ डाल रहा था...मेरे पिता उसे शायद फॉर्म भरने की सही विधि या दस्तावेज़ लगाने की जानकारी दे रहे थे...जी हाँ मेरे पिता वहीं थे...और इस युवक का हाथ बार बार नीचे से मेरी ट्यूनिक के भीतर जाता हुआ ऊपर को बढ़ने लगता....ये ग़लत है...गन्दी बात...मैं डरती और उधर से हटकर दूसरी तरफ़ खड़ी हो जाती...वो फॉर्म को और ठीक से देखने के बहाने फिर मेरे बगल आ जाता....न मैं चिल्ला सकी, न मैं अपने पिता को बता सकी और न ही बाद में घर पर ही किसी से कह सकी...यक़ीन मानिए मुझे उस वक़्त की उम्र भी नहीं याद बस इतना याद है की प्राइमरी स्कूल जाती थी...इन लोगों की हिम्मत को समझने की कोशिश करते चलिए....अभी तक और बाद में भी किसी आपराधिक रिकॉर्ड वाले व्यक्ति ने ही ऐसा किया हो, ऐसा कभी नहीं रहा    

नए घर के अड़ोस पड़ोस के कुछ भैया लोग हों या ननिहाल के गांव के वो लोग या रिश्तेदार...उन्हें खेलती, पढ़ती, खाती, सोती, रोती लड़की या बच्ची बस एक ही तरह दिखती थी...वो उसके शरीर के अलग अलग हिस्सों तक पहुँचना चाहते थे...ये वो लोग थे जिन्हें सम्मान भी देना होता था...देना ही था क्योंकि घर पर ये ही सिखाया गया था ये भैया हैं, ये मामा हैं, ये अंकल हैं...दुनिया के आगे वे ख़ासे शरीफ़ सज्जन संस्कारी थे भी....बल्कि कई बार तो इनमें वो लोग भी थे जिनकी बाहर ज़ुबान तक नहीं खुलती थी...अक्लमंद से लेकर बेवकूफ़ कहे जाने वाले तक सब ही थे...असर और गंभीर होना था...इन सब के पीछे जो कुछ घट रहा था कहीं शायद मन उसके साथ एडजस्ट होने लगा था कि शायद ऐसा ही होता है...क्योंकि ये तो बचपन की मेरी उन सहेलियों के साथ भी हो रहा था और उनके भाई को सब पता भी था...तो शरीर ने प्रतिकार करना बंद कर दिया...ऐसी स्थितियों में ज़ुबान पाताल लोक चली जाती...इसके आगे अगली बात ये कि आत्मग्लानि से ख़ुद का ही मन भरने लगा कि सब मेरी गलती है....क्योंकि अगर मेरी ग़लती नहीं होती तो घर में मार पड़ने का डर भी न होता...इन स्थितियों ने कक्षा 7 तक आते आते लड़कों या पुरुषों के प्रति मेरे व्यवहार को बेहिसाब उलझा दिया था...ये सामान्य तो कतई नहीं था और उसे सामान्य करने वाला/ वाली मेरे इर्द गिर्द भी कोई नहीं था/ थी

‘यक़ीन’ बेहद ज़रूरी शै है...मुझे ये यक़ीन होना कि मुझे सुना जायेगा, मेरी बातों पर यक़ीन किया जाएगा...ये यक़ीन बहुत कुछ होने से रोक सकता था...पर यक़ीन की जगह डर था कि मेरी बात कौन मानेगा, कहूंगी तो जाने कैसी प्रतिक्रिया होगी, मार पड़ेगी...किसी भी पारंपरिक परिवार की तरह को-एड में पढ़ने के बावजूद लड़कों से दोस्ती की इजाज़त नहीं थी, लड़कियों से भी अधिक दोस्ती पसंद न की जाती...घर के अनुशासन वैसे ही थे, मैं बच्ची से किशोरी बनने की ओर थी लेकिन पढ़ाई में पिछड़ रही थी..उन बातों का ज़िक्र पहले कहीं और कर चुकी हूँ...नंबर लाने के दबाव यथावत थे...मैं रिश्तेदारी या अड़ोस पड़ोस के उन ‘सम्मानित’ लोगों द्वारा दिए जा रहे अनुभवों से जब मचल जाती तो अकेले में रोती, कई बार पूजा में रखी तस्वीरों के सामने बैठ कर...यहाँ उन सब का तो ज़िक्र ही नहीं है कि कब किसने फब्तियाँ कसीं, अश्लील इशारे किये...यहाँ जो हैं वो भी कुछ ही घटनाएं हैं

कक्षा 9 में मेरी तबियत बिगड़ी...झटके से लगने लगे.. लोगों को लगा मिर्गी के दौरे हैं, परिवार को लगा किसी को पता न चले...जब भी अति उत्साहित होती, नर्वस होती, डरती, जल्दबाज़ी में होती तो ऐसा होता...हाथ का सामान छूट जाता...मैं खड़ी होती तो गिर जाती, हाथ पैर ठन्डे हो जाते, ऐसा तब तक होता रहता जब तक सब छोड़ छाड़ कर रिलैक्स न हो जाती...वो क्या था ये कोई नहीं जान पाया क्योंकि किसी चिकित्सकीय रिपोर्ट में कभी कुछ नहीं निकला...शायद इसी वजह से माँ को लगता कि कुछ हवा बयार है और वे उसके इलाज चालू रखतीं...एक बार एक डॉक्टर ने इतना ज़रूर कहा कि इसका ब्लड प्रेशर अचानक से गिर जाता है....हाँ मुझे नींद की दवाइयां सभी डॉक्टरों ने खूब खिलायीं लगभग 13-14 साल...इतनी कि मैं उनकी आदी हो गयी और बाद में उनसे पीछा छुड़वाने के लिए अलग इलाज कराना पड़ा...शुरूआती समय में एक साल दवाइयों की ज़रुरत नहीं पड़ी थी... एक युवा डॉक्टर जो अपनी पढ़ाई कर रहे थे वो हफ़्ते में एक दिन बुलाकर मुझसे बात करते...यूँ ही इधर उधर की...और मैं साल भर ठीक रही...आज जानती हूँ कि इसे काउंसलिंग कहते हैं...उस कॉउंसलिंग की अहमियत अब समझती हूँ कि कोई एक शख़्स था जो प्यार से मुझसे मेरी रुचियाँ पूछता, क्या अच्छा लगता है क्या बुरा, क्या तकलीफ़ होती है, कब ज़्यादा होती है और जो मैं बताती उस पर यक़ीन करता...क्या पता मेरी इस बीमारी या तकलीफ़ के पीछे मेरे बचपन के बीते अनुभवों की भी कोई भूमिका रही हो  

ये अजीब स्थितयाँ थीं कि पुरुषों के प्रति भय भी था और वहीं स्कूल में दोस्त भी बन रहे थे...कहीं आकर्षण भी था, उलझनें भी थीं, बस रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं था...सब कुछ किसी न किसी तरह साथ साथ चल रहा था...मैं बड़ी हो रही थी लेकिन न ज़ुबान खुल रही थी न स्थितियाँ बदल रही थीं, बस लोग बदल रहे थे...ये वो बातें थीं जो सहेलियों से भी साझा नहीं हो रही थी...मुझे नहीं याद कि क्या मुझे ऐसा लगता था कि ये तो सबके साथ होता है...इन सालों में एक बात और हुई...मुझमें दूसरों की संवेदना पाने की आदत बनने लगी...अपनी बीमारी की बातें करना, उसे पढ़ाई में पिछड़ने का बहाना बताना... शायद ये इसलिए था क्योंकि जो बात कहनी थी उसे कहने के तो कोई रास्ते थे नहीं, दुनिया मुझे ऐसी लड़की के तौर पर न देखे जो पढ़ने में या किसी भी काम में अच्छी नहीं है...मैं सबकी जैसी लगूं, स्वीकार्यता पाऊं, पसंद की जाऊं...इसके लिए ज़रूरी है कि मैं उन्हें बताऊँ कि मैं ऐसी क्यों हूँ पर सारी बातें तो बता नहीं सकती तो वो बताया जाये जो सबसे आसान है...

वो ऑटो, बस या ट्रेन में बैठे सहयात्री हों, क्लिनिक में बैठे डॉक्टर या मंदिर के पुजारी...मेरी आवाज़ बहुत बाद तक भी नहीं खुली...और उनके हाथ बहुत आसानी से मुझ तक पहुंचते रहे...मैं नहीं समझ पायी कि दिल्ली में उस क्लिनिक के बुज़ुर्ग डॉक्टर या नीमसार के उस मंदिर के पुजारी ने मेरे कपड़ों के भीतर हाथ क्यों डाला....तब तक मैं बीए में पहुँच चुकी थी...अब तक मेरे भीतर आत्मग्लानि के साथ साथ दुख और ख़ुद के प्रति ग़ुस्से ने जगह बना ली...वहीं मेरे परिवार को मैं बहुत 'तेज़' लगती थी...ये अजीब था क्योंकि मैं ये भी चाहने लगी थी कि मुझपर ध्यान दिया जाए और मैं ये भी चाहती थी कि सब दूर रहें, मुझे छुएँ न....मुझे हर पुरुष का स्पर्श एक सा लगता....पाठ पूजा वाला मेरा परिवार जिन गुरु जी के यहाँ मेरे जाने और उनके द्वारा मुझे लाड़ किये जाने पर ख़ुश होता... जिस दिन उन्होंने इस तरह की कोशिशें कीं मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी....किससे कहूँ...क्या कहूँ ये तो भगवान की तरह पूजे जाते हैं...इनके सामने तो मैं बड़ी हुई हूँ...मैं ख़ुद परेशान होने पर इनसे अपना मन हल्का करती थी...कैसे बताऊँ कि ये इस कदर गिरे हुए हैं, कौन यक़ीन करेगा...मैं एमए में थी और तब भी कुछ नहीं कह सकी...कुछ दिक्कतों से जूझते मेरे परिवार को लगता कि वे समाधान बता सकेंगे और मुझे बार बार वहां भेजा जाता...उनके लाड़ को देखते हुए मुझे अकेले ही भेज दिया जाता...ईमानदारी से कहूँ तो ज़िन्दगी में पहली बार किसी के लिए दिल से बद्दुआ निकली थी...कुछ सालों बाद रोते हुए फ़ोन पर भाई ने जब उनकी मौत की ख़बर दी तो मैं एक अजीब ख़ुशी और राहत से भर गयी थी...

आप कह सकते हैं कि क्यों नहीं कहा, बड़े होने पर कैसे चुप रह गयी, तुम्हारी ही ग़लती है...आप बेशक कह सकते हैं और मुमकिन है मैं समझा ही न सकूँ कि मेरे अन्दर की बच्ची एक डरपोक युवती किस तरह बन गयी...ये सच है कि आज मुखर हूँ पर ऐसा नहीं कि घटनाएँ बाद में हुई नहीं...एक घटना तो कुछ साल पहले ही हुई जिसको जब मैंने अपनी दोस्तों को बताया तो उन में से एक ने मुझे जमकर फटकार लगाई और कहा तुम्हारी ही ग़लती है तुमने उसी वक़्त प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी...मैं क्यों जड़ हो गयी थी इस बात का जवाब मेरे पास नहीं था...

इन सबका कोई एक नुकसान या कुछ एक समयावधि का नुकसान नहीं होता...मैं आज भी देर रात जागती हूँ...एक स्वस्थ नींद बमुश्किल आती है...जागना मेरे लिए थकन भरा हो सकता है लेकिन सोना एक अजीब असहजता भरा...मेरे आस पास कोई एक घटना भी पता चलने पर मेरी ज़िन्दगी के अनुभवों का फ्लैशबैक मुझे कितनी देर कितने दिनों तक परेशान रखता है...

मैं एक सामान्य व्यक्ति के तौर पर नहीं पल बढ़ सकी...मेरे व्यवहार सामान्य नहीं बन सके...किसे ज़िम्मेदारी दूं...परिवार, समाज, रिश्तेदार, या ख़ुद को...मेरे व्यक्तित्व पर आज भी मेरे कल का असर है...मैं किसी पर भी भरोसा नहीं कर पाती...किसी भी पुरुष पर नहीं...हर पल ख़ुद को ये बताने के बावजूद कि ‘नहीं सब एक से नहीं होते’...मुझे किसी के स्पर्श के ख़याल से भी असहजता होने लगती है क्योंकि ‘प्रेम’ की कल्पना मेरे जीवन में जिस उम्र से आई और जिस तरह आई और बाद तक आती रही उनमें बहुत अधिक अंतर रहा हो ऐसा नहीं था, सब मेरे शरीर के इर्द गिर्द था...एक ऐसा भी समय आया था जब अपने ही शरीर से नफ़रत सी होने लगी थी...मुझे किसी व्यक्ति पर यक़ीन नहीं आता जब वो मुझे ये बताता है कि उसे मुझसे प्रेम है...मैं न सिर्फ़ व्यक्तियों बल्कि प्रेम की पुरज़ोर समर्थक होने के बावजूद भी प्रेम पर विश्वास नहीं कर पाती हूँ...और संबंधों में रहने पर शायद मेरे व्यवहार सामान्य होते भी नहीं...शायद कभी नहीं रहे...एक शोर है जो पीछा नहीं छोड़ता...सामने वाले को लगता है कि मैं उसे नहीं समझ रही...मैं बताने की कोशिश करती हूँ पर फिर लगता है कि कोई बात नहीं जाने दो इससे ज्यादा क्या समझूं क्या समझाऊं

कार्यस्थल पर आमतौर पर मैं खडूस हो उठती हूँ...मुझे ये बहुत आसान लगता है...दोस्ती करने की छूट देने पर कोई मौके तलाशे से बेहतर है वो मुझे खडूस समझे, पीठ पीछे बुराई करे पर सामने अपनी हद में रहे...ये एक कारण है कि मेरे दोस्तों की संख्या बहुत बहुत सीमित है...हाँ ये अलग बात है कि इक्का दुक्का दोस्ती पर प्रोत्साहन मिला हो ऐसा नहीं...ये बेहद मुश्किल है और स्वस्थ भी नहीं कि आप आज के समय में कार्यस्थल पर अलग अलग खांचों में रहें

ये सच है कि मैं विवाह, गर्भधारण या प्रसव की प्रक्रिया में नहीं जाना चाहती लेकिन ये भी सच है कि मैं एक बच्चा गोद लेना चाहती हूँ...पर मैं इस ख़याल भर से सिहर उठती हूँ कि मैं हर पल उसकी सुरक्षा किस तरह कर पाऊँगी...कैसे हर वक़्त निगरानी करूंगी कि यदि वो बच्ची हो तो ऐसे किसी अनुभव से न गुज़रे जिनसे मैं गुजरी...और यदि वो बेटा हो तो घर के बाहर उस पर समाज का ये चेहरा अपना असर न छोड़ दे...हर वक़्त कैसे साथ रह सकूँगी कि कहीं ये बच्चे शोषित या शोषक न बन जाएं...बचपन में तो लड़के भी यौन शोषण के ख़ासे शिकार होते हैं...और ये सब करते हुए मैं कहीं हर बात में दखलंदाज़ी करने वाली माँ न बन जाऊं...जो अपने जीवन में किसी पुरुष पर यक़ीन नहीं कर सकती वो क्यों कर अपनी बेटी या बेटे को लेकर ओवर प्रोटेक्टिव नहीं होगी...कैसी बुरी अभिभावक बनूंगी मैं...सोना (मेरी भांजी) को लेकर ऐसे भय से हमेशा घिरी रहती...ये देखकर सुकून होता है कि वो अपनी हर छोटी बड़ी बात साझा करती है, डरती नहीं और आज उसमें और दीदी में या उसमें और मुझमें वैसे सम्बन्ध नहीं जैसे मेरे अपने अभिभावकों से रहे...मेरी इर्द गिर्द की दुनिया, संस्थानों व एक समाज के तौर पर ये आपकी विफलता है

मेरे स्वास्थय के अलग मसले हैं....जिसमें एक बड़ा हिस्सा मानसिक स्वास्थय से जुड़ता है...किसे क्या कहूँ ...मेरे सुंदर से दिखने वाले परिवार में बड़े होने पर मैं सबके नज़दीक थी पर सब मुझसे दूर थे...ये दूरियां कभी कम नहीं हुईं बस उनसे लड़ना, उनका सामना करना, नज़रंदाज़ करना आता चला गया...

सहमति...ये एक बड़ी बात है वयस्क संबंधों में...और ये ही सही स्थिति पर अपने यहाँ इसके खेल भी कम नहीं...पहली बात तो ये कि आमतौर पर हमारे यहाँ संबंधों की जो छवियाँ गढ़ी जाती हैं उनमें लड़की समर्पण की मुद्रा में ही होती है...वो न इच्छा ज़ाहिर कर सकती है न ही साथी द्वारा इच्छा ज़ाहिर किये जाने पर इन्कार...उसे उस क्रिया में उस समय ठीक उसी तरह रूचि लेनी चाहिए जैसा उसका साथी ले रहा है...इन स्थितियों में उसे ये चुटकी बजाते समझ आ जाये कि ये प्रेम नहीं है, ऐसा होना भी मुश्किल है क्योंकि उस तक यूँ ही नहीं पहुंचा जाता पहले उसका भरोसा जीता जाता है...कहीं कोई चेकलिस्ट जैसा नहीं होता...कई जगहों पर स्थितियाँ भिन्न हैं ये भी सच है...पर हाँ सहमति से बने संबंधों के अच्छे या बुरे अनुभव और यौन हिंसा भिन्न बातें  हैं...और सही मायनों में सहमति से बने सम्बन्ध ही सही हैं...

मैंने बचपन से लेकर आज तक कभी किसी को कोई सिग्नल नहीं दिया पर लम्बे समय तक मुंह भी बंद ही रखा...जानती हूँ कुछ लोगों को ये लड़कियों की ग़लतियाँ लगती हैं बल्कि कई बार करियर में आगे बढ़ने की सीढ़ियां भी...मैं ऐसे लोगों के प्रति कतई जवाबदेह नहीं...जवाबदेह तो ये सारी संस्थाएं व लोग हैं....मुझे कुछ अपनों का साथ न मिलता तो मेरी ज़िन्दगी जहन्नुम ही रहती...आज उससे कुछ बेहतर है....कुछ ही...मैं हर उस लड़की और औरत की बात समझ पाती हूँ और अब भी समझ पा रही हूँ जो अपनी तकलीफ़ें अपने अनुभव साझा करती हैं...मैं उनमें शामिल रही हूँ...मैंने अपनी ज़िन्दगी में हर जगह इन बातों को झेला है और मैं समझ सकती हूँ कि तुम नहीं बोल पायी...और यक़ीन मानो तुम नहीं बोल पायी तो ये कोई ग़लती नहीं थी...तुम आज कह रही हो ये भी कोई ग़लती नहीं बल्कि हिम्मत की बात है...हम में से कितनी ही लड़कियां ये सब पढ़ते सुनते वक़्त मन ही मन कहती हैं कि हाँ ऐसा मेरे साथ भी तो हुआ था...पर खुलकर आज भी नहीं कह पातीं...ज़िन्दगी में कभी कहीं घटी एक घटना पूरा व्यक्तित्व बदल देती है...अपने शोषण की ये बातें याद करना और साझा करना कोई अच्छा अनुभव नहीं होता...ये तकलीफ़ के उस दौर से दोबारा गुज़रने जैसा होता है...यहाँ बात आपकी संवेदना बटोरने, ख़ुद की तारीफ़ करवाने, टीआरपी बटोरने की नहीं है...ये सच बयान करने की बात है...इसलिए इनकी सुनिए...इसे ‘बहाना’, ‘फैशन’, ‘भेड़चाल’, 'बदला लेना', या ‘लोकप्रियता बटोरने के सस्ते हथकंडे’ मत समझिये...लड़कियों को यदि भरोसा रहे कि उनपर यक़ीन किया जायेगा तो स्थितियां इतनी न बिगड़ें…’ग़लत इस्तेमाल’ की बात करने से पहले उसका प्रतिशत देखिए और हर जगह हर नियम कानून में देखिए...कई जगहों पर कार्यवाही भी हुई हैं...इन जगहों को बधाई...कार्यस्थल को सुरक्षित व सहज बनाने जैसी ज़िम्मेदारी से बचा नहीं जा सकता

मेरे पास किसी भी पुरुष पर भरोसा करने की कोई वजह नहीं....सिवाय इस तर्क के कि सब एक से नहीं होते....ये अलग बात है कि ईमानदारी से कहूँ तो व्यवहारिक तौर पर ये तर्क कारगर नहीं होता...दिल्ली के कनॉट प्लेस में विदा लेते हुए जब उस मित्र ने मुझे गले लगाया था तो मैं लगातार मन ही मन ख़ुद से कह रही थी ‘कोई बात नहीं, कोई बात नहीं ये बुरे व्यक्ति नहीं हैं’...ये सामान्य कतई नहीं है...मुझे दुनिया के तमाम सुंदर अनुभवों से मेरे बीते अनुभवों ने दूर किया है...प्रेम की वकालत करने के बावजूद मेरा भरोसा प्रेम पर नहीं क्योंकि व्यक्तियों पर नहीं....मेरी सहजता मेरी महिला मित्रों या बमुश्किल एक या दो पुरुष मित्रों तक सीमित है...मेरे पास न वो माहौल था, न लोग और न ही हिम्मत कि मैं कह पाती...ये सब दोहराना कम तकलीफ़देह नहीं है और अब इस बात से कोई फ़र्क भी नहीं पड़ता कि आप यक़ीन करते हैं या नहीं...आज के समय में मैं उससे ऊपर उठ गयी हूँ...कम से कम झिझक तो नहीं होती...आत्मग्लानि, ख़ुद पर ग़ुस्से जैसे ख़याल नहीं आते कि आत्महत्या का जी कर उठे...कोई सर्टिफ़िकेट भी नहीं चाहिये...ये सब कहते हुए मैं ये भी जानती हूँ कि सामान्य व्यवहार और शोषण में कहाँ रेखा खिंची है...आज मैं बोलती हूँ और मेरे बोलने से बहुत लोगों को दिक़्क़तें हैं, अपनों को भी….मुझे चुप कराने के प्रयास भी हर तरह से किये जाते हैं...ये भी सच है कि मेरे जीवन पर नियंत्रण करने की कोशिशें भी की जाती हैं….पर मैं आज हर उस महिला के साथ हूँ जो बोलने की हिम्मत कर रही है...ये मेरी ज़िम्मेदारी भी है....आपके लिए शायद ये समझना मुश्किल हो कि ऐसे साथ से किस तरह हिम्मत मिलती है...हम इस शोर के साए में क्यों जियें....रिश्तों, दोस्तियों, सहकर्मियों, अध्यापकों या किसी भी अन्य संबंधों की आड़ में या अजनबी बनकर भी देखिये कि आप कर क्या रहे हैं....और गर आइना है तो भला क्यों न दिखाया जाये....बात ये है कि आप अपना ही चेहरा नहीं देख पा रहे         

        

                    

   

गुरुवार, 24 मई 2018

बाज़ारवाद से तय होती दैहिक स्वतंत्रता और नारीवाद


“अरे यार मैं न सिगरेट के बिना दारू पी नहीं पाती”, ये कहते हुए मुक्ता (बदला हुआ नाम) ने एक लम्बा कश खींचा और देर रात पब की जगमगाती शोर भरी रौशनी में उसे आज़ाद कर दिया....मुक्ता से कई सालों से जान पहचान है...वो एक छोटे ज़िले के परम्परागत परिवार से थी....जहाँ पहनने ओढ़ने के तरीके अब भी पुराने ही थे...मुक्ता पढ़ी लिखी थी और लखनऊ शहर में नौकरी कर रही थी...यहाँ भी उसके पहनावे में कोई बदलाव नहीं आया हालाँकि उसके दफ़्तर की सहेलियां इसपर उसे जब तब सलाह देतीं....वो संकुचित मानसिकता की नहीं थी लेकिन वो ऐसी समझ या जानकारी रखती हो कि तरक्कीपसंद कह दिया जाए तो ऐसा भी नहीं था...काम भर का सब ठीक था...

कुछ सालों बाद उसे एक बेहतर कंपनी में एक बड़े शहर में नौकरी मिल गयी और वो चली गयी...इस शहर और इसके माहौल का सबसे बड़ा और पहला असर उसके बाहरी व्यक्तित्व पर पड़ा...मैं तस्वीरें देखती तो ये सोचकर बहुत ख़ुश होती कि ये इस तरह के कपड़े पहनना चाहती थी पर इसे तब माहौल नहीं मिला और अब ये अपनी मर्ज़ी से जी पा रही है इससे अच्छा भला क्या....बंद गले के सूट में रहने वाली लड़की अब अमूमन ऑफ शोल्डर शॉर्ट ड्रेसेज़ में ही दिखती...देश विदेश या पार्टी पब की तस्वीरें सोशल मीडिया में शाया होती रहतीं...मुद्दे उसकी बातों से पहले भी गायब थे और अब भी....हाँ अगर हम लोग उसपर बात करें तो उसका समर्थन ज़रूर रहता लेकिन उसकी अपनी तरफ़ से कुछ कहने की कोशिशें नहीं दिखतीं...पर देर रात पार्टी, डिस्को, शराब, सिगरेट, छोटे फैशनेबल कपड़े अब आदत का हिस्सा थे...उसकी बातों का खुलापन भी अमूमन इनके और सेक्स से जुड़ी बातों के इर्द गिर्द ही था....व्यवहार में अब वो ख़ासी तंगदिल, मतलबी और स्वार्थी हो चुकी थी...पर यदा कदा जब ज़रा मिले तो वो एक अजीब किस्म के दबाव में लगती...सुंदर दिखना, “हॉट, सेक्सी और डिज़ाइरेबल” लगना, देखने में कहीं से भी पिछड़ा न लगना बल्कि अति आधुनिक लगना, बातों में संकुचित न लगना, उसके ये सब चयन अपने लिए हों ऐसा नहीं था....उसने इसे एक दबाव के तहत अपनाया था ताकि वो इस बड़े शहर की भीड़ में शामिल हो सके, उस पर एक छोटे शहर या कसबे की लड़की होने का टैग न लगे और फिर इसे ही उसने अपना शौक और आदत बना लिया...आस पास के लोगों के इस दबाव को हम “पीयर ग्रुप प्रेशर” भी कहते हैं...अफ़सोस ये था कि विचारों, समझ और व्यवहार में वो तरक्की नहीं आ सकी थी                
  
अब इन दिनों फिर से एक अजीब उलझन सी है...शायद मैं ही नहीं समझ पा रही या जाने क्या बात है...कुछ दिन के लिए सोशल मीडिया पर वापसी हुई...वहां का शोर, नफ़रत, क्रान्ति और नारीवाद के अंदाज़...सब कुछ कुछ यूँ था कि दिल घबराने लगा और वापस सब बंद कर दिया... वहां की बातें और चर्चाएँ देख मुक्ता अक्सर याद आ जाती... पर एक मुश्किल ये भी है कि उलझन जब तक ज़ाहिर नहीं हो जाती तो चैन भी नहीं आता...इसलिए उसे अब यहाँ उतार रही हूँ...

अव्वल तो मेरा ये मानना है कि नारीवाद का कोई ख़ास प्रकार नहीं...कोई एक परिभाषा नहीं..ये जगह, समय, ज़रुरत के हिसाब से बदलता रहा है...उदाहरण के लिए शायद हिन्दुस्तान में ज्यादा बड़ी ज़रूरत दहेज या घरेलू हिंसा पर काम करने की हो और किसी और देश में फोकस तनख्वाह में गैरबराबरी हो. दूसरी बात और वो भी मेरी निजी राय है कि नारीवाद की बात सिर्फ़ और सिर्फ़ अनुभव आधारित नहीं होनी चाहिए...महिला आंदोलनों, नारीवादियों के संघर्षों और नारीवाद की तमाम परिभाषाओं और प्रकारों को पढ़ा जाना चाहिए, समझना चाहिए..अनुभव और एकेडेमिक (जिसका अर्थ सिर्फ़ कोर्स कर लेना भर नहीं) का साथ होना बहुत ज़रूरी है | तीसरी बात ये कि मेरी समझ से आज के समय में नारीवाद सिर्फ़ महिला अधिकारों या महिला पुरुष बराबरी की बात नहीं कर रहा...बल्कि नारीवादियों की एक बड़ी संख्या पहले से ही egalitarian समाज की बात करती रही है...तो आज भी बात सिर्फ़ महिला पुरुष की नहीं बल्कि एक बड़े अर्थ में बराबरी की है...लेकिन इस बराबरी को समझा जाना भी बहुत ज़रूरी है|

स्वघोषित नारीवादी या क्रांतिकारी होने का चलन है...यदि व्यापक अर्थों में इसके साथ ऐसे काम किये जा रहे हैं जिनका प्रभाव सकारात्मक है तो मुझे किसी के स्वघोषित होने में कोई दिक्क़त भी नहीं | लेकिन मसले कुछ और हैं और मुझे लगता है की बराबरी की परिभाषाओं में आगे बढ़ते हुए हम न सिर्फ़ भटक रहे हैं बल्कि ख़ुद को देह तक सीमित करते जा रहे हैं | कुछ उदाहरणों के ज़रिये देखते हैं:

सुन्दरता, रंग, डील डौल का दबाव और बाज़ार दोनों बहुत बड़ा है...इतना कि इससे पुरुष भी पूरी तरह आज़ाद नहीं...लेकिन commodification आम तौर पर महिलाओं का ही होता है..पुरुष खरीददार की भूमिका में है...ऐसे में हमारे बीच अभियान आते हैं जो इन दबावों पर सवाल उठाते हैं और इन्हें तोड़ने की कोशिश करते हैं...बड़े स्तर पर गोरा करने की मानसिकता के ख़िलाफ़ अभियान चलते हैं...ये न सिर्फ़ ज़रूरी हैं बल्कि प्रशंसनीय भी हैं...व्यक्तिगत अभियानों से लेकर संस्थानों तक में इनके बारे में लिखा जाता है कहा जाता है

महिला स्वास्थय, किशोरी स्वास्थय, माहवारी से जुड़ी जानकारियाँ साझा होती हैं कि किस तरह किशोरियों और महिलाओं का स्वास्थय सही जानकारी व संसाधनों के अभाव के कारण ताक पर रखा हुआ है...जानकारियों के सही स्रोत हैं नहीं और ग़लत जानकारियाँ नुक्सान ही पहुंचाती हैं साथ ही टैबू भी मज़बूत करती चलती हैं...इस तरह की तमाम बातों के चलते ये कोशिशें बहुत ज़रूरी हैं क्योंकि इनका असर सिर्फ़ शारीरिक स्वास्थय तक सीमित नहीं

यौनिक स्वास्थय पर चर्चाएँ शुरू हुईं...एक बड़ी संख्या में युवा जानकारी के अभाव में यौन संक्रमण का शिकार है...कई बार पुरुष साथी महिला साथियों के प्रति असंवेदनशील हो जाते हैं जिसके परिणाम न सिर्फ़ स्वास्थय की दृष्टि से घातक हैं बल्कि वे अनैतिक और अमानवीय भी होते हैं...कभी कभी ऐसा जानकारी के अभाव में होता है और कई बार ये पितृसत्तात्मक परवरिश का नतीजा होता है... इन पर बातें हुईं, सवाल उठे, ये बढ़िया बात हुई

बात चयन के अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निजी ज़िन्दगी से जुड़े फैसले लेने की हुईं और जोर शोर से हुईं....ऐसी मुखर अभिव्यक्तियाँ देखना सुखद था और ये कहना ज़रूरी है कि इन बातों में पुरुषों की खूब भागीदारी रही...मैं इसे अब सिर्फ़ महिला मुद्दे कहना पसंद नहीं करती क्योंकि मेरे लिए ये बराबरी और मानवाधिकारों के मुद्दे हैं जो स्त्रियों तक सीमित नहीं  

बात शरीर से जुड़ी सहजता व हक़ की हुई और यहाँ बराबरी, यौनिक और चयन के अधिकार के साथ मिलकर कुछ घालमेल सा होने लगा...उदाहरण के लिए अगर देखें तो मुझे अपने शरीर के प्रति सहज होना चाहिए, उसकी बनावट या रंग के प्रति शर्म या हीनता का भाव नहीं होना चाहिए...मुझे उन कपड़ों को चुनने का अधिकार होना चाहिए जिनमें मैं सहज महसूस करूं...अर्थात सुन्दरता के ‘मापदंडों’ या ‘दबावों’ से मुझे आज़ादी चाहिए...लेकिन लेकिन लेकिन...पहली बात तो बराबरी या नारीवाद के आन्दोलन का ये एक पक्ष है और दूसरी बात हम महिला सिर्फ़ शरीर के यौनिक अंगों के बारे में बात करके या उन्हें दिखाकर कौन सी बराबरी की कोशिश कर रहे हैं...इससे कौन सा सशक्तिकरण हो रहा है...यदि उसी भाषा में कहें तो ब्रा न पहनने, निपल्स दिखने, प्यूबिक हेयर न शेव करने या अनशेव्ड अंडरआर्म्स दिखाकर आने वाली बराबरी समझ नहीं आ रही थी | मुश्किल ये थी कि इसके ज़रिये हासिल किया जाने वाला उद्देश्य स्पष्ट नहीं था...कम करते करते क्या बिना कपड़ों के बाहर निकल जाने से बराबरी आ जाएगी...यौनिकता का मुद्दा इस तरह सिमटा कि स्त्री अस्मिता भी देह तक सीमित होती गयी जबकि जो बात कही जा रही थी उसके हिसाब से ये सब इससे मुक्त होने की कोशिश थी...

मुझे कम कपड़ों में घूमने वाले या अनशेव्ड अंडरआर्म्स वाले पुरुष भी पसंद नहीं...पर ये उनका निजी मसला है सहजता- असहजता से जुड़ा...मैं इसके पीछे की बात को भी समझती हूँ कि पुरुषों के पास ये विकल्प है, उनके ऐसा करने पर उनके चरित्र पर सवाल नहीं है और यदि सिर्फ़ सहजता की दृष्टि से देखा जाये तो ये एक बड़ी सहूलियत और सशक्तिकरण है भी...लेकिन इसका अर्थ ये कतई नहीं हुआ कि बराबरी कपड़े त्यागने से ही आएगी...हाँ महिलाओं के लिए भी वो माहौल हो कि उन्हें उनके शरीर के प्रति इतना concious न कर दिया जाए कि उनका सारा ध्यान हर वक़्त अपने शरीर और उसके न दिखने पर हो...वे अपने शरीर के प्रति सहज हों...और उन्हें अपने कपड़े चुनने और अपने शरीर को अपनी तरह रखने की आज़ादी हो...पर क्या ज़रूरी है कि ये बातें उस तरह की जाएँ जिस तरह की जा रही हैं...ठीक बात है कि महिलाओं पर एक ख़ास किस्म की शारीरिक बनावट का दबाव नहीं होना चाहिए लेकिन ज़रूरी नहीं कि हर महिला के लिए सहजता असहजता की वही परिभाषा हो जो आपके लिए है...वो चाहे अंतः वस्त्रों के इस्तेमाल की बात हो या शरीर पर आ रहे रोयें की...कई लोगों के लिए जिनमें मैं भी शामिल हूँ ये बातें साफ़ सफ़ाई से जुड़ जाती हैं....और फिर इस आधुनिकतावाद के हिसाब ये यदि पुरुष अपने यौनिक अंगों की बातें करने लगे, उन्हें दिखाने लगे तो? तब भला वो अश्लील कैसे हो जाए? इन सब अर्थों में तो ‘कामसूत्र’ और खजुराहो की गुफाएं भी सशक्तिकरण के उदाहरण होने लगेंगे? इसका अंत नहीं, इसका कोई हासिल नहीं, इस विषय को जिस तरह इस्तेमाल किया जाना चाहिए ये उससे भटकने जैसा है...ऐसे में हमारी भाषा, व्यवहार, उदाहरण, तर्क, जानकारी और समझ इन सबका ध्यान से इस्तेमाल किया जाना बहुत ज़रूरी है

बाज़ार की भी चालाकियां समझिये...ये हर तरह की बातें करके सामान भी बेच रहा है और दबाव भी बना रहा है....यहाँ साड़ियाँ और जेवर भी बिक रहे हैं और सशक्तिकरण और आज़ादी को ढाल बनाकर क्रॉप टॉप और शॉर्ट्स भी...डियोड्रंट भी और बर्तन मांजने का साबुन भी....अपनी हेयर रिमूवल क्रीम, सेनेटरी पैड  से लेकर मर्दों के अंडरगारमेंट्स बेचने तक की ज़िम्मेदारी औरत की है जिसे वो करती जा रही है...वो रैंप पर चलती है, चयन के अधिकार का इस्तेमाल कर बिकनी में घूमती है...आपको वाकई लगता है वो सशक्त है? या ये आज़ादी एक नयी छुपी हुई गुलामी लेकर आई है जिसे हम समझ नहीं पा रहे....क्या इन तमाम लड़कियों और महिलाओं का उद्देश्य आकर्षक दिखना और पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करना नहीं? इस कामुकता की क्या भूमिका है? क्या ये महज़ सहजता के लिए है? या हम बदलते वक़्त के साथ पुरुषों की ज़रूरतों और उम्मीदों को मैच करने के लिए ख़ुद को अपग्रेड कर रहे हैं...नारीवादी और कट्टरपंथी दोनों ही फैशन शोज का विरोध करते हैं लेकिन बिल्कुल भिन्न कारणों से...क्या हम उन्हें समझ रहे हैं? क्या हम ये समझ रहे हैं कि रेडिकल नारीवाद अकेलेपन में बराबरी नहीं ला सका था...बात सम्पूर्णता में किये जाने वाले प्रयासों की है

तो जब बात सहजता की हो तो क्या ज़रूरी है कि हर व्यक्ति को उसी तरह सहज लगे जैसे हमें लगता है...लड़कियां सुंदर दिखने और ‘मार्केट में बिकने वाले सामान’ के दबावों से मुक्त हों पर इसके लिए ज़रूरी नहीं कि हम उन पर नए नियम लादें या ये सब उन तरीकों से ही संभव होगा जो हम बता रहे हैं...शॉर्ट्स पहनने में आराम लगे तो पहनो लेकिन किसी को दिखाने, कुछ साबित करने, किसी को आकर्षित करने या किसी समूह में स्वीकार्यता पाने जैसे दबावों या लोभ में नहीं...बोल्ड और खुलकर कहने के चक्कर में हमने स्त्री को उसकी यौनिकता तक ही सीमित किया है | हाँ ये ज़रूर है कि इन बातों के पीछे तर्क हों...उदाहरण के लिए सहजता और चयन के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए अगर हम छठ और करवाचौथ को सही ठहराने लगें तो गड़बड़ है

इस विषय में जैसा मैंने कहा मैं उलझन में हूँ...पर अपना विचार बदल सकती हूँ यदि मुझे ठोस तर्क दिए जाएँ...बराबरी का मतलब मेरे लिए दूसरे की नासमझियों को अपनाना नहीं...सिगरेट मर्द भी पी सकते है और औरतें भी लेकिन अगर कोई औरत ये सोचकर सिगरेट पीती है कि इस तरह उसे मर्दों की बराबरी करनी है तो ये सिवाय नासमझी के कुछ भी नहीं...ये अलग बात है कि इस तरह की सोच और व्यवहार रखने वालों की तादाद भी कम नहीं...फ़िलहाल यौनिकता और देह सहजता के अर्थ को देह प्रदर्शन तक सीमित करने में मुझे कोई समझदारी नहीं दिखती...बराबरी सही अर्थों में करें जिसमें दूसरे की कमियां भी दूर की जाने की कोशिश हो....नारीवादी बनें ज़रूर बनें लेकिन ज़िम्मेदारी और समझदारी से...मैं जानती हूँ कि ये विचार मुझ पर परंपरागत होने का ठप्पा लगा सकते हैं लेकिन फिर भी...जेंडर समानता की अपनी समझ व कोशिशों में मैं किसी भी जल्दबाज़ी या बचकानी हरकत को करने से बचूंगी...“बोल्ड” और “बिंदास” होने की सिर्फ़ ये ही परिभाषाएं व तरीके नहीं और यौनिकता के मुद्दे को महज़ देह के कुछ ख़ास हिस्सों तक समेट देना भी हल नहीं...अच्छा ही होगा अगर नारीवाद के संघर्षों और आन्दोलनों को पढ़ें और उनके नतीजों से सबक लेते चलें...आधुनिक दिखने और आधुनिक होने का अंतर समझें और देखें कि ज़रूरत किस चीज़ की है....एक पितृसत्तात्मक समाज में हम महिलाओं को मौके बहुत मुश्किल से मिलते हैं इनका इस्तेमाल समझदारी से करें |      




बुधवार, 18 अप्रैल 2018

नफ़रतों का दौर और तिरंगे के बदलते मायने


एक अजीब अवसाद में हूँ...घुटन, हताशा, ग़ुस्सा या क्या कुछ कहा जाए...चारों तरफ़ से आने वाली नफ़रत और नकारात्मकता का एक उपाय ख़ुद को ख़बरों और सोशल मीडिया से अलग करना लगा था...बड़ी राहत भी रही...पर ख़बरें पहुँचती हैं क्यूंकि वो उन लोगों के, उस समाज के बारे में हैं जिसका हिस्सा मैं भी हूँ...उन ख़बरों में किसी न किसी रूप में मैं हूँ...मिलने वाली ख़बरें सिवाय इस अवसाद को बढ़ाने के कुछ नहीं करतीं...और आने वाली प्रतिक्रियाएं उम्मीदों को और धुंधला कर देती हैं....

हमारे बीच नफ़रत और हिंसा के हर रोज़ नए उदाहरण गढ़े जा रहे हैं...अमन, शान्ति, भाई - चारे, विविधता जैसी बातों का बुलबुला हर रोज़ ठीक वैसे फुला कर उड़ा दिया जा रहा है जैसे मेले में साबुन के घोल में सींक डुबोकर वो आदमी उड़ाता था...दहशत फैलाने, सबक सिखाने में समूह को मज़ा आ रहा है...वे तंत्र को अपनी मुट्ठी में समझते हैं...उन्होंने ये हिंसा इसी तंत्र की विचारधारा से सीखी है, वे जानते हैं कि उनके जुर्म को सही ठहराने वाले कम नहीं...आख़िर वे धर्म का काम कर रहे हैं...राम का नाम और दम तोड़ते तिरंगे का हाथ में होना इनकी बेगुनाही साबित करने को काफ़ी है...ये अलग बात है कि उस तिरंगे में इनकी श्रद्धा महज़ एक रंग के प्रति है...बाकी नफ़रतें ही नफ़रतें हैं...अख़लाक़, जुनैद हों या कि नन्ही आसिफ़ा... मेरठ, मुज़फ्फरनगर हों या कि बेचैन कश्मीर घाटी....क्या है इसकी जड़ में? नफ़रत...किसके प्रति? एक समुदाय विशेष के प्रति...क्यों? कहाँ से आपकी सोच में ये नफ़रत आई? बहुसंख्यक होने नाते? किसने सिखाया? मां बाप ने? परिवार ने? विद्यालय ने? किताबों ने? स्कूलों ने? नेता ने? सरकार ने? धर्म ने? राम ने, माँ दुर्गा ने या इन सबने मिलकर? किसने सिखाया नफ़रत करना...किसी धर्म या जाति से...इस क़दर कि किसी कि जान लेना कोई बड़ी बात न रहे...कि किसी को डर के साए में धकेलकर सुख मिले...कि बच्चियों, औरतों के बलात्कार दिल बहलाने के खेल हो जाएँ...कहाँ से सीखते हो? तिलक को टोपियों से नफ़रत करने की शिक्षा और उनके ख़िलाफ़ जानवर बन जाने का बल आख़िर मिला कहाँ से? हत्याओं और बलात्कार पर गुरूर से तिरंगा यात्रा निकालना कौन सी राष्ट्रभक्ति है...अपने भीतर के इंसान को मारकर आख़िर क्या हासिल करने चले हैं आप?

साम्प्रदायिक हिंसा, साम्प्रदायिक दंगे, साम्प्रदायिक हत्याएं और साम्प्रदायिक बलात्कार...कहीं कुछ रिकॉर्ड है आपके पास अपनी नफरतों का? कोई दस्तावेज़? कैसे होगा ये तो सरकार के पास भी नहीं...जब होता है तब भी वो आरोपियों को बरी करने के सिवा क्या ही कर पाती है...हमारे यहाँ बच्चे, महिला, बुज़ुर्ग, दलित सबके अधिकार सुनिश्चित करने के लिए कुछ न कुछ कानूनी व्यवस्था है...उनका क्रियान्वयन होना न होना अलग बात है...लेकिन अल्पसंख्यकों के लिए तो ऐसा कोई कानून नहीं...उनकी बराबरी और अधिकार संविधान की प्रस्तावना तक सीमित है जिसका राकेट बनाकर हवा में जब तब उड़ाया जाता है? मूलभूत अधिकार अब किसी कॉमेडी शो जैसे समझे जाएँ...याद कीजियेगा नफ़रतें तो घर घर में हैं...जब बर्तन अलग हो जाते हैं, छुआछूत माना जा रहा होता है, बच्चे के संगी साथी बदले जाते हैं...नींव वहीँ पड़ रही होती है...और हमारे इर्द गिर्द का हर व्यक्ति और संस्थान इसे बल दे रहा होता है ठीक वैसे जैसे पितृसत्ता अपनी जगह बनाती है. 

आसिफ़ा के साथ हुई घटना को पहले सम्पूर्णता में स्वीकारिये...वो बलात्कार है लेकिन उसकी जड़ में साम्प्रदायिकता है...वो एक विशेष समुदाय में दहशत भरने, उसे सबक सिखाने की मंशा से किया गया अपराध है...दलितों, आदिवासियों के साथ भी ऐसा ही होता है...ये दोहरे अपराध है. वो उन्मादी भीड़ हो, आपके बीच के नेता, परिवार वाले या रिश्तेदार, उन्हें पहचानिए जो सीधे या परोक्ष रूप से इन नफ़रतों, इन हिंसाओं के संरक्षक हैं...जो वकील भी हैं, पुलिस भी, मंत्री भी और डॉक्टर भी...ये सब जगह हैं...पूरे समाज में हैं, हर गली मोहल्ले में हैं क्यूंकि ये घर घर में हैं...मेरे और आपके भी...इसलिए मेहरबानी करें अब जब आसिफ़ा के लिए इंसाफ़ की बात करें तो पहले अपनी इस लम्बी बीमारी से बाहर आयें...एक बच्ची के साथ हुए अपराध ग़लत और एक समुदाय विशेष के प्रति नफ़रत जायज़ तो नहीं हो सकती...मेरे जानने में कुछ लोगों को बराबरी की बातें भी सही लगती हैं और आरएसएस-विहिप जैसी संस्थाएं भी...उनकी आस्था मानवाधिकारों में भी है और लक्ष्मी से पाँव दबवाते नारायण से लेकर मूंगा पुखराज में भी...उन्हें बच्चियों का पढ़ना, वंचित समूहों का आगे बढ़ना भी सही लगता है और रामायण महाभारत की कहानियां भी...वहाँ टैगोर भी रोचक हैं और चेतन भगत भी...स्त्री विमर्श भी ज़रूरी है और करवाचौथ तीज भी..इस घालमेल के साथ भला कौन सी दिशा में आगे बढ़ेंगे...निजी तौर पर ये सोच चाहे घर परिवार में हो या बाहर, सिवाय घुटन के और कुछ नहीं देती...
        
मेरे लिए ये पहले इसी नफ़रत का मुद्दा है...यही जड़ है...इसी से महिला हिंसा भी अपनी जगह बना रही है...पेज थ्री या फ़िल्म फ़ेयर और टीवी में साज़िशों के नित नए कीर्तिमान स्थापित करते अवास्तविक कार्यक्रमों से समय निकाल कर कुछ और भी देखें....राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट कहती है कि 2016 में बलात्कार की कुल 38947 घटनाएं हुई हैं...ध्यान दें ये सिर्फ़ वो संख्या है जो रजिस्टर हुई है...इस संख्या में 16863 मामले ऐसे हैं जिनमें पीड़िता की उम्र 18 वर्ष से कम थी...अभी रुकिए और सुनिए...इनमें 520 मामले ऐसे हैं जिनमें पीड़िता 6 वर्ष से भी कम उम्र की थी...आपके परिवार, रिश्तेदारी, अड़ोस पड़ोस में जो बच्चियां है...जी आपकी बेटी, भांजी, भतीजी या पड़ोसी की बिटिया...ठीक वैसी...क्या करूँ हम ऐसी लकवाग्रस्त कौम हो चुके हैं कि जब तक निजी न हों तब तक सोच भी नहीं पाते...जो लोग घर परिवार आस पड़ोस और रिश्तेदारी को सबसे महफ़ूज़ मानते हैं उनके लिए भी ख़बर है...बलात्कार के कुल मामलों में से 94.6% मामलों में अपराधी कोई जानने वाला ही था...इनमें पिता, दादा, चाचा, मामा, भाई, पड़ोसी, सहकर्मी जैसे सभी तथाकथित विश्वसनीय लोग शामिल हैं....रिपोर्ट में तमाम और भी बातें हैं...60 वर्ष की महिलाएं भी सुरक्षित नहीं उनके साथ भी बलात्कार हुए हैं...मामले बढ़े हैं और सज़ा की दर 29.4 से कम होकर 25.5 हो गयी है..

दो दिन की बच्ची क्लीनिक के टॉयलेट में फ्लश कर दी जाती है, स्कूल जाती बच्चियां लौटती नहीं, बसों में दबोच ली जाती हैं, शरीर पर दर्जनों चोटों के निशान मिलते हैं...आपसी रंजिश में अगवा कर ली जाती हैं, बलात्कार होता है, बार बार होता है, मार दी जाती हैं.....छेड़खानी, अपहरण.. ये देश के हर कोने में घट रहा है....मैं शरीफ़, आप शरीफ़, आपके इर्द गिर्द के लोग शरीफ़...तो आख़िर ये सब करने वाले कहाँ से आ रहे हैं और इन्हें बचाने वाले भी? ज़रा ख़ुद को देखते चलें....किस तरह के चुटकुलों और बातों पर हंसी आती है हमें, मज़ा आता है...किसी के टोकने पर हम उसे सेन्स ऑफ़ ह्यूमर सुधारने की सलाह देते हैं... साथी के कान में वो बात कहकर दोनों ताली बजाकर ठहाका लगाते हैं...ग़ुस्से में कौन सी गालियाँ निकलती हैं मुंह से...बल्कि अब तो इनका इस कदर फैशन है कि ये ग़ुस्से तक सीमित नहीं आम बोलचाल की भाषा में भी है...क्या शामिल है से लेकर हमारे ग़ुस्से से जुड़ी बातों में      

अपने इर्द गिर्द देखिये...बच्चों, युवाओं, परिवार वालों में पनपते संभावित अपराधी, दंगाई, हत्यारे, बलात्कारी, चोर को पहचानिए...उसे संभालिये...इसी रिपोर्ट में आगे पढने पर पता चलता है कि देश में हुए कुल अपराधों में 35849 अपराध करने वाले 18 वर्ष से कम उम्र के हैं...इन अपराधों में चोरी से लेकर बलात्कार और हत्याएं सभी शामिल हैं...उदाहरण के लिए 892 मामले हत्याओं और 1903 मामले बलात्कार के हैं...इन 44171 अपराधियों में अनपढ़ पढ़े लिखे सभी शामिल हैं...96% से अधिक अपने माता पिता या अभिभावक के साथ रहते हैं...इन्ही परिवारों में शामिल हैं वे पिता, भाई, दोस्त जो अपराधी बनाते हैं...ठीक वैसे जैसे आसिफ़ा के मामले में बनाया...बदला लेने के लिए, सबक सिखाने के लिए...इसके साथ ही अपराधी बनाने और उन्हें बढ़ावा देने का काम करते हैं संस्थान व तंत्र...सरकार, पुलिस, न्यायप्रणाली जो जब तब किसी न किसी के पास गिरवी हो जाती है...असहिष्णुता की ज़रूरत कहाँ है और वो दिखती कहाँ है...कानून के संरक्षकों की ज़िम्मेदारी क्या है और वे करते क्या हैं...सरकारें आती हैं नारों का झुनझुना थमाती हैं...आरोप प्रत्यारोप की राजनीतिक फुटबॉल खेलती हैं और कुछ दिनों में हम लोग सब भूल जाते हैं...या और घटना के इंतज़ार में बैठ जाते हैं...अपराधों की ऐसी फ़ेहरिस्त और ख़स्ताहाल सज़ा की दरें तब हैं जब हर सरकार कानून व्यवस्था और महिला सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्ध है...बलात्कार की घटनाओं का विरोध करिए लेकिन उसके साथ उन सभी वजहों और तंत्रों का भी जहाँ से ये घटनाएं बल पा रही हैं...हमेशा सेफ़र साइड में रहने का मोह अब छोड़ दीजिये...एडजस्ट और अफ़सोस करने के सिवाय अब क्या ही बचा है हमारे पास `                           

लेकिन ‘हम क्या हो गए हैं और क्या होते जा रहे हैं?’ ये सवाल अब सिर्फ़ उन तक सीमित नहीं जो अपराधी हैं, नफ़रत की राजनीति करते हैं...ये सवाल अब उन सबके लिए, हमारे लिए भी है जो इनके ख़िलाफ़ हैं...क्यूंकि अब ये इवेंट मैनेजमेंट की तरह घट रहा है...मैं इस समाज का हिस्सा होने के नाते घिरी हूँ...तमाम लोगों से, शक्लों से, दिमाग़ों और व्यवहारों से, अपराधियों और पीड़ितों से, नेता और जनता से, मीडिया वालों और इंसाफ़ के झंडाबरदारों से भी...मैं देखती हूँ फूटते ग़ुस्से को, युवाओं में उबाल और भाषणों में बेक़ाबू होती ज़ुबान को...सड़क पर उतरते लोगों को और उनमें अधिकतर के प्रति अपना प्रचार पाने की भूख को...नारों और आसिफ़ा की तस्वीरों का पोस्टर हाथ में लिए मुस्कुराकर तस्वीरे खिंचवाते लोग जाने कैसी ज़हनियत वाले हैं...उन्ही मुद्दों पर किसी के विरोध का बहिष्कार करने वाले जाने कितने समर्पित हैं...मैं उन तमाम लोगों से घिरी हूँ जो मानवाधिकार की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले हैं...लेकिन उनके निजी मतभेदों या आपसी प्रतिस्पर्धा ने उनके भीतर द्वेष, असुरक्षा, ईर्ष्या को कूट कूटकर भर दिया है...कैसे मानूं कि इन के आगे मुद्दों के कोई मायने भी हैं...ये दूसरों की कोशिशों को निष्क्रिय कर देने की हद तक जाते हैं...यहाँ एक अलग नफ़रत जगह बना रही है...कोशिशें हैं छपने की, दिखने की, निजी हित साधने की...इस बहाने अगर कुछ हो गया तो अच्छा ही है लपक कर उसका श्रेय ले ही लिया जाएगा...दिखावटी विचार और वास्तविक व्यवहार के फ़र्क, हर किसी को नीचा दिखाने की आदतें...सर्वहारा को समर्पित समूहों में भी कूट कूटकर भरा स्वार्थ व बड़प्पन किस तरह बदलाव लाएगा, ये आन्दोलन कितने सार्थक होंगे, मैं नहीं देख पाती...एक्टिविस्ट दिखना भी एक तरह का फैशन हो चला है और हर किसी की नज़र में वो असली व दूसरा नकली एक्टिविस्ट है...दूसरे का मजाक उड़ाना आम बात है क्योंकि सही सिर्फ़ वो है जो आप कर रहे हैं बाकी सब बेकार...मैं जानती हूँ कि सब ऐसे नहीं...कुछ चुनिन्दा लोगों की वजह से ही अब भी सांस ली जा पा रही है...लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत बहुत कम है...मैं हताश हूँ, निराश हूँ अवसाद में हूँ....क्योंकि बदलाव के रास्तों को ब्लॉक करने का काम हमारे ये व्यवहार भी कर रहे हैं...सँभालने की बड़ी ज़रूरत क्या इधर नहीं...इस दौर में धराशायी होती इंसानियत और समाज का हिस्सा हम सब हैं.




रविवार, 11 फ़रवरी 2018

तुम सबकी आभा है मुझमें...


मुझे याद भी नहीं कि कबसे सुनती आ रही हूँ कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है...ज़ालिम सास और बेचारी बहू की कहानियाँ या इसी का उल्टा भी...औरतों में एक दूसरे के प्रति द्वेष भाव होता है, जलन होती है, वे दूसरी औरत को ख़ुश, सुंदर या आगे बढ़ते हुए नहीं देख सकतीं...ये और न जाने क्या क्या...ये कहने वाले पुरुष भी रहे हैं और औरतें भी...पर जाने क्यों मेरे अनुभव ऐसे नहीं रहे...रही इन भावों की बात तो वो तो अलग अलग लोगों पर है इनमें पुरुष भी हो सकते हैं और महिला भी...कोई नासमझ ही होगा जो कहेगा कि पुरुषों में द्वेष या जलन नहीं...परिवारों में उठते कुछ भावों की तमाम वजहें हैं...किसी की दुनिया यदि किसी मर्द के इर्द गिर्द ही बुनी जायेगी तो इसके नतीजे कई तरह से देखने को मिलेंगे ही...ये किसी के औरत होने की वजह से नहीं   
पहले कभी सोचा नहीं पर अब सोचती हूँ तो लगता है मैं तो अपने इर्द गिर्द स्त्रियों से ही घिरी हूँ...जो सहजता, स्नेह, मदद साथ या डाँट मुझे उनसे मिली वो कहीं और नहीं...खुल कर तारीफ़ करना, सलाह देना और ग़लत होने पर टोक भी देना...मुझे नहीं समझ आता कि सालों साल सुनायी जाने वाली कहानियों की वो कौन सी महिलाएं होती हैं...मुझे तो इनका साथ एक बेहतर इन्सान और स्त्री बनाता है...कितनी सहज होती हूँ मैं इनके साथ जैसी पुरुष मित्रों के साथ कभी नहीं होती...उनमें कोई कमी हो ऐसा नहीं लेकिन फिर भी...इन सहेलियों के होने से जीवन सार्थक सा लगने लगता है..और यहाँ दोस्ती में किसी तरह के नियम व शर्तें हैं ही नहीं...फ़ेसबुक पर हुई दोस्ती में ऐसी आत्मीयता होना सोचा ही नहीं जा सकता...मैं और सुदीप्ति जो कभी मिले ही नहीं...अभी कुछ वक़्त पहले ही फ़ोन पर बात हुई वरना फ़ेसबुक ही कड़ी रहा हमारे बीच...उनसे ऐसी आत्मीयता है मानों सालों पुरानी सहेलियां हों...मैं अपनी महिला मित्रों के साथ जैसी उन्मुक्त हो जाती हूँ कहीं और नहीं हो पाती...यहाँ स्त्रीत्व का उत्सव है.   

आजकल जेब में पैसों की जगह वक़्त और दिमाग में शोर की जगह सुकून ने ले रखी है...तो इधर उधर देख, सुन, समझ और पहचान पाती हूँ...और तभी ये भी याद करती हूँ कि आसपास कितनी ही लड़कियां और महिलाएं हैं जो अपने अपने तरीके से अपने अपने समय में इस व्यवस्था को मुँह चिढ़ाती रही हैं...कई बार ख़ुद इस बात से बेख़बर कि उन्होंने कितनी मारक चोट दे दी....मैं उन सब को याद करने की कोशिश करती हूँ...मैम, जया आंटी, मानसी, तसनीम, सोना या अब जैसे उस दिन सुजाता (बदला हुआ नाम) मैम से ही मुलाक़ात हुई...85 वर्षीय महिला...ऊर्जा से भरी हुई...संयोग से मुझे उनके साथ थोड़ा अधिक वक़्त बिताने का मौका मिल गया, तो उनकी भी कहानी पता चली...यूँ भी कहानियां – प्रेम कहानियां सुनने में मेरा बड़ा मन लगता है...

तो....सुजाता जी ने अपनी दर्शनशास्त्र पढ़ाई कोलकाता के एक नामी कॉलेज से की...उसके बाद आगे की पढ़ाई और शोध के लिए वे लंदन चली गयींपीएचडी पूरी करने के बाद वतन लौटीं तो लखनऊ विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग में नौकरी मिल गयी....उनके लंदन प्रवास के दौरान जॉन (बदला हुआ नाम) से उनकी दोस्ती लौटने के महज़ छः महीने पहले ही हुई थी...हॉस्टल में आते जाते मुलाक़ात हो जाती...जॉन वहां ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहे थे....सुजाता जी के यहाँ आने के बाद पत्र व्यवहार होने लगा और फिर एक पत्र में जॉन ने अपने हिन्दुस्तान आने के बारे में लिखा और कहा कि ‘मुझे लगता है कि आपको मेरे साथ ही यहाँ आ जाना चाहिए’...कोई रूमानी बातें या डायलॉग नहीं...सब सांकेतिक लेकिन स्पष्ट...इससे पहले कभी सुजाता जी ने जॉन के लिए ऐसा महसूस नहीं किया था...और अब भी जो था वो शायद प्रेम नहीं लेकिन एक बेहद कोमल भाव ज़रूर था...“प्रेम तो मुझे शादी के बाद हुआ” उन्होंने खिलखिलाकर बताया...सुजाता से उम्र में 16 वर्ष छोटे जॉन भारत आये...परिवार तो कोलकाता में ही था जो इस विवाह की अनुमति शायद ही देता... साथियों के सहयोग से लखनऊ में ही शादी हुई...यंग वीमेन क्रिस्चियन एसोसिएशन के हॉस्टल में उन्होंने मुझे उत्साह से वो कमरा भी दिखाया जहाँ उनकी शादी हुई और वो भी जो वहां उनका निजी कमरा हुआ करता था...शादी के कुछ वक़्त बाद वे लंदन चली गयीं और दूसरी नौकरी शुरू की...जॉन ने पढ़ाई पूरी की और अकादमिक क्षेत्र में बेहद सफल रहे... “मैंने एक बड़ा रिस्क लिया पर वो तो जीवन में किसी भी तरह होना ही था” वे कहती हैं....मैं विस्मित थी क्यूंकि इन दिनों प्रेम, भावनाओं और ऐसे साथ को व्यवहार में न होकर सिर्फ़ बातों में देखकर मन खिन्न था...मुझे उनकी कहानी परिकथा सी लग रही थी जिसे मैं बड़े चाव से सुनती जा रही थी...70 का दशक, पढ़ाई में बेहद आगे बढ़ना, विदेश हो आना, ख़ुद से 16 वर्ष छोटे व्यक्ति से प्रेम करना और साथ चल देना, उसे उसकी उस वक़्त की ज़रूरतों और प्राथमिकताओं पर पूरा सहयोग दे देना और इस बेहद खूबसूरत साथ के साथ ज़िन्दगी बिताना...ये वैसा था जैसे प्रेम की कल्पना करती थी.      
    
अब संबंधों को आमतौर पर टूटते बिखरते देखती हूँ...मेरे पास सुजाता जी के सवाल का कोई सीधा जवाब ही नहीं था जब उन्होंने मुझसे मेरे प्रेम संबंधों के बारे में पूछा...कि क्या मुझे कभी प्रेम नहीं हुआ?

मैं गर ईमानदारी से ख़ुद की बात करूँ तो प्रेम की धारणा या ख़याल पर तो मुझे शिद्दत से यकीन है, मैं इसका पुरजोर समर्थन करती हूँ और मानती हूँ कि धर्म, जाति, उम्र, शक्ल सूरत, रंग जैसी समाज द्वारा बनायी गयी तमाम सीमाओं को तोड़कर प्रेम हो तो दुनिया की तमाम मुश्किलें आसान हो जाएँ...लेकिन ये मेरे विचार हैं...इनमें और मेरे व्यवहार में अंतर है...मेरे इर्द गिर्द का माहौल मुझे विश्वास करने की हिम्मत नहीं देता...उसकी एक बड़ी वजह ये भी हो सकती है कि विश्वास न करने से कम से कम छले जाने का डर तो नहीं...प्रेम के तमाम चेहरे जो मुख़ातिब हुए उनसे कम से कम विचार पर अपना यकीन बचा सकी, लगता है वही बहुत है...ये आदर्श स्थिति नहीं पर इसका अभी कोई हल भी नहीं...खैर आगे बढ़ते हैं..

मुझे अपनी रूपरेखा मैम से कभी डर नहीं लगा...नहीं ऐसा भी नहीं, जिन दिनों पढ़ रही थी तब थोड़ा लगता था वो भी शायद इसलिए कि सबने माहौल वैसा बना रखा था...बाद में तो वो मेरे लिए एक दोस्त सी होती गयीं...ये अलग बात है कि आज तक शायद ही कोई हो जिसने ये न कहा हो कि उसे मैम से बहुत डर नहीं लगता...मुझे इसकी वजह कभी समझ नहीं आई...उनकी इज़्ज़त, बड़े होने के नाते एहतराम अपनी जगह पर डर? ये तो वो कभी भी न चाहें...जब भी कभी किसी उलझन में फँस जाऊं तो जैसे अपनी सहेलियों से बात कहती हूँ वैसे ही उनसे पूछ लूं, उनसे कहूँ कि रास्ता दिखायें...और ये भी तय है कि ऐसे दोराहे पर जिधर चलने की सलाह वो दे दें उस पर विश्वास से बढ़ जाऊं...एक परम्परागत हिन्दू ब्राह्मण परिवार से आने वाली मैं, आज कुछ भी वैचारिक समझ बना सकी हूँ या उसे काम में बदल सकी हूँ तो सिर्फ़ उनकी वजह से...साझी दुनिया मेरा वैचारिक घर...उस दिन एक मित्र ने जब कहा कि अच्छा अपनी ‘सेकंड मदर’ के पास गयी हो तो लगा कि हाँ बात तो बिल्कुल सच ही है.

मुझे उनकी निजी ज़िन्दगी के बारे में ज़्यादा पता नहीं...हालाँकि ये ख्वाहिश हमेशा रही की उनकी यात्रा, उनके संघर्ष जानूँ...लेकिन साथ बैठने पर बातों बातों में जो भी पता चलता तो मैं हैरान हो जाती...मैनपुरी जैसे एक छोटे से ज़िले से लखनऊ होते हुए ऑक्सफ़ोर्ड हो आना...उस वक़्त की शायद सबसे कम उम्र की महिला विभागाध्यक्ष हो जाना..वाइस चांसलर हो जाना....बला का अनुशासन, जानकारी, ज्ञान, मज़बूती और इतनी ही सरलता सहजता...समय की पाबन्द ऐसी कि आप उनके आने जाने से आप घड़ी मिला लें...मुद्दों के प्रति उनकी लगन कैसी मज़बूत रही होगी कि लोगों के भरसक विरोध, षड्यंत्रों के बावजूद वे टिकी रहीं...अकेले...कट्टरपंथी ताकतें जब एक होकर किसी के विरोध में आती हैं तो सामने वाले को तोड़ने का कोई मौका नहीं छोड़तीं...कितना मुश्किल है ये सब...पर वे न सिर्फ़ तब बल्कि अब भी उसी ईमानदारी और साफ़गोई से मुद्दों पर मुखर रहीं...इस उम्र में भी ऐसी सक्रियता...कैसा लगता है न कि कैसी ऊंची हस्ती हैं...हैं ही...पर सरलता ऐसी कि जब तब हम उनसे कैसा भी मज़ाक कर लें, छेड़ लें, पढ़ लें, समझ बना लें और जब मुश्किल हो तो अपनी बात भी साझा कर लें...सवाल पूछना ग़लत नहीं बल्कि एक ज़िन्दा दिमाग़ होने की निशानी है, ये कभी न जान पाती अगर उनके संपर्क में न आती..
          
कभी जड़ सा हो जाना और आस पास देखते रहना....अक्सर ही होता है मेरे साथ...बालकनी में खड़ी मोहल्ले में आते जाते लोगों, फेरीवालों, धूप सेंकती, स्वेटर बुनती, बच्चों को डांटती महिलाओं को....या कभी दफ़्तर की खिड़की से स्थिर हो बाहर दुनिया की रफ़्तार देखना...बुध बाज़ार में उमड़ी भीड़...पूरी सड़क पर, तख़्त, बल्लियों के ढांचों पर जैकेट, स्वेटर, जूते, चप्पल, बर्तन, सजावट का सामान...ज़ोर जोर से उठती दुकानदारों की आवाज़ें खरीददारों की उमड़ती भीड़, मोल भाव की चिक चिक....गाड़ियों की चिल पों...या फिर रुकने के सिग्नल पर उन बसों, ऑटो, रिक्शों में बैठे लोगों के चेहरों के पीछे झांकना....एक हलचल, आवाज़, कहानी, बेचैनी, ग़ुस्सा, शिकायतें या कितनी ही दफ़ा एक अजीब सा शोरजाने क्या कुछ पहुँचता रहता है इन जाने अनजाने चेहरों के पार से मुझ तक...कभी कभी एक अजीब उदासी ही उधर से इधर आ जाती और कुछ देर उलझन दे जाती...मैं लौट पड़ती हूँ कहानियों की तरफ़.. 
       
जया आंटी से पहली बार मिलने का मौका दुर्भाग्यवश बहुत दुखद था....सुबह ही मलय का एसएमएस आया कि अंकल नहीं रहे...वे काफ़ी समय से बीमार चल रहे थे....मैं दोपहर तक मांसी के घर पहुंची...पुराने लखनऊ के इलाके में पुराने ज़माने के मकान का वो एक बड़ा सा कमरा...आंटी के पास बैठी...बातचीत होती रही...वे बिल्कुल सहज थीं, आराम से बातचीत कर रही थीं, हंस बोल रही थीं...मुझे ये देख बड़ी तसल्ली भी हुई और ईमानदारी से कहूं तो आश्चर्य भी...हमारे यहां के समाज और परिवारों में ये आम नहीं है...उनके यहाँ भी नहीं ही था...घर की बड़ी बूढ़ी औरतें इस बात पर नाखुश थीं कि आंटी दहाड़े मार मार कर रो क्यूँ नहीं रहीं...पर उन्होंने कहा “हम क्यों रोये बेटा...इतने समय से अस्पताल में जाने कितनी दफ़ा और कितना रो चुके...किसी को दिखाने के लिए नाटक क्या करना”...उनकी बात बिल्कुल सही थी भी...वे, मांसी, नानी और मैं इधर उधर की तमाम हल्की फुलकी बातें करते रहे...मेरे लिए ये एकदम नया अनुभव था...आंटी से उसके बाद कई बार मुलाकात हुई और उनकी तमाम सारी बातें मुझे प्रभावित करती रहीं...

उत्तर भारतीय या पूरे मुल्क में ही पत्नियों के जीवन में रंग और खुशियों का वजूद पति के होने या न होने पर ही निर्भर करता है....न होने पर अधिकाँश मामलों में सामाजिक यातनाएं अंतहीन हो चलती हैं...उनका ख़ुश होना, अच्छे समारोह या आयोजन में शामिल होना, हँसना बोलना, घूमना फिरना, रंगों से दोस्ती सब बेमेल की बातें हो जाती हैं...पर आंटी के साथ मैं इन सारे बेढब नियमों की व्यवस्था को ध्वस्त होते देखती थी...उनमें वो एक युवा लड़की सा उत्साह, ज़िन्दगी के हर पल से मुहब्बत, शौक –पढ़ना, घूमना, सहेलियों के साथ मिल बैठना, कला आदि आदि...वे बाकी लोगों की तरह ज़िन्दगी के प्रति नाशुक्री नहीं थीं....उत्साह, प्रेम, रचनात्मकता, उम्मीदों और तमाम संभावनाओं से भरीं...साहित्य और सम सामयिक घटनाओं, सामाजिक मुद्दों पर चर्चाएँ करतीं...उत्साह से अपने लड़कपन की बातें करतीं...साथ ठहाके लगाकर हंसतीं...उनके साथ होने पर किसी हमउम्र के साथ होने का आभास होता बल्कि कई बार ऐसा लगता कि हम और मांसी उनके मुकाबले दिमागी तौर पर थके, बुज़ुर्ग और नीरस हैं...ज़िन्दगी से ऐसी मुहब्बत और बेफ़िक्र हो हर पल को जी भर जीने का ऐसा चाव मैंने उनमें ही देखा...

जब तब मांसी उनके किस्से सुनाया करती और सुखद आश्चर्य से मैं सुना करती और भीतर तक ख़ुश हो जाया करती...जाने उन्हें ख़ुद भी पता है या नहीं कि जो कुछ भी वो इस तरह सहजता से करती जातीं हैं वो एक नज़ीर है...उसका असर बाकियों को न सिर्फ़ प्रभावित करता है बल्कि उनके लिए रास्ते बनाता है...उनका मस्त मौला, ज़िंदादिल, खुशमिज़ाज़ अंदाज़ लड़कियों को अपनी मर्ज़ी से सीखने की झलक देता...वो मर्ज़ी जिसको नज़रंदाज़ या त्याग देने को हमारी परवरिश का हिस्सा बनाया जाता...कुछ यूं कि मेरे इर्द गिर्द के लोगों, परिवार, मोहल्ले, संस्थाओं की मर्ज़ी को अपनी मर्ज़ी बनाना ही एक ‘अच्छी लड़की’ का लक्षण हो जाता..पर इससे इतर यहां हरदोई ज़िले में पली बढ़ी एक औरत हमें ये बता रही थी कि जो सबसे ऊपर है वो मेरी मर्ज़ी, मेरा नज़रिया  मेरा अंदाज़ और मेरा मिज़ाज़ है क्योंकि ये मेरी ज़िन्दगी है..

ऐसा भी होता है न कि दो मुख्तलिफ़ शख्स भी अपने अपने अंदाज़ में बढ़ एक ही दिशा में रहे होते हैं, उन्हें ये पता भी नहीं होता ...एक नए ढांचे को गढ़ने के लिए एक माहौल भी होता है, एक इच्छा और तमाम अन्य वजहें जो मिलकर एक शख्सियत को गढ़ रही होती हैं...ठीक भी है सबकी इच्छाओं की दुनिया अलग अलग हो सकती है.

मांसी एक अद्भुत शख्सियत की लड़की है....बेहद मज़बूत...और ये मज़बूत होना कठोर होना कतई नहीं...बेहद समझदार, ज़िम्मेदार, जानकार, संजीदा, समर्पित पर उतनी ही खिलंदड़, ख़ुशमिजाज़, ज़िंदादिल और भावुक भी...अपनी कोई निजी बात पर बात करनी हो या काम से जुड़ी...वही समझदारी और व्यवहार एक अजब नेतृत्वक्षमता से भरा...बल्कि व्यवहार में ऐसा संतुलन जो कई बार हैरान कर दे...कभी अपने चुटकुलों से महफ़िल को ठहाकों से भर दे तो कभी काम से जुड़ी बातों पर राय रखे तो बिना मुत्तासिर हुए न रहा जाये...बला की मेहनती, निर्भीक और रौनक से भरी...कभी किसी चटख खिले फूल सी तो कभी पत्थरों से लड़कर पूरे शोर से आगे बढ़ती पहाड़ी नदी सी... ऐसी कामकाजी लड़कियों को देखकर एक अजीब तसल्ली और सुकून होता है कि तस्वीर बदल भी रही है...उम्मीद बंधती है...ये कामयाबियां जब संघर्ष के रास्ते पहुंची हों तो वो और भी कीमती हो जाती हैं...ख़ासतौर पर जब कामयाबी के रास्ते पर बढ़ते हुए इंसान ज़मीन का साथ न छोड़े...ऐसे में इंसानी गुण बने रहते हैं...उनका हल्ला न होकर उनका बने रहना ही तो ज़रूरी भी है...
      
अपनी निजी या बाहरी ज़िन्दगी में भी अक्सर बोझल सा महसूस करने लगती हूँ... प्रेम, सम्मान, स्पेस या अन्य मानवीय भावनात्मक गुणों को इर्द गिर्द नदारद पाती हूँ...रिश्तों को टूटते बिखरते देखती हूँ...धोखा, झूठ, चालाकियां, दोगलापन इस क़दर हावी होता है कि एक अजीब झुंझलाहट, एक कोफ़्त मन में भर जाती है...हर तरफ़ से मन उचटने लगता है...नकारात्मकता जब आती है तो पूरे ज़ोर से आती है...वो ज़िन्दगी की किताब का हर एक पन्ना खोल देती है और आपका ध्यान ख़ासतौर से हर उस जगह खींचती है जो तकलीफ़देह थे...अगर ये लगे कि हालात तब से अब तक लगभग जस के तस बने हैं तो धक्का महसूस होता है...समझ नहीं आता कि हम बढ़ रहे हैं या पिछड़ रहे हैं...बढ़ रहे हैं तो किस तरफ़...उलझनें दुश्वारियां जो ज़िन्दगी में ख़ुद नहीं आतीं बल्कि लोग लाते हैं....हर चेहरे की कहानियां जानने की शौक़ीन मैं, कई दफ़ा उन संघर्षों को जान जानकर परेशान भी हो उठती हूँ कि ख़त्म होना तो दूर की बात है ये सब कभी कम भी होगा या नहीं...ऐसे में ख़ुद को समेट लेने के अलावा कुछ और विकल्प नहीं रहते...हाँ ये सही तरीका नहीं लें फिर भी उस वक़्त तो दिल दिमाग़ को ज़रा सुकून मिलता ही है...अपने एक घरौंदे में सिमट कर बाहरी दुनिया से वास्ता ही तोड़ लें कुछ दिनों....इन स्थितियों में आस पास ऐसे लोग होना तपती ज़मीन पर ठंडी फुहार सा होता है...मेरे इर्द गिर्द हर उम्र वर्ग की ऐसी महिलाएं हैं ये बड़ी तसल्ली की बात है जो मुझे हौसला और उम्मीद देती रहती है...यहाँ ये अंदाज़ा न लगाया जाए कि पुरुषों के संघर्षों को नज़रंदाज़ किया जा रहा है लेकिन कई बार जो ऊर्जा इन महिलाओं से मिल रही होती है वो अलग है...इनके बारे में बताया जाना इसलिए भी ज़रूरी है कि अव्वल तो ख़ुद में हिम्मत बनी रहे और दूसरों तक भी ये बात पहुंचे कि मेरे बगल बैठी आम सी दिखने वाली बच्ची/ महिला/ बुज़ुर्ग कितनी असाधारण हैं...और उतने ही ख़ास हम सब हैं बस कोशिशें जारी रखें..

तसनीम को पिछले लगभग 9-10 सालों से देख रही हूँ...मेकओवर या ग्रूमिंग का बेहतरीन उदाहरण है ये लड़की....एक मध्यमवर्गीय पारंपरिक मुस्लिम परिवार से आने वाली साधारण ग्रेजुएट लड़की...मुद्दों से अनभिज्ञ लेकिन चीज़ों को समझने, ख़ुद को और अपने आसपास के माहौल को बदलने की उसकी कोशिशों ने तस्वीर ही बदल दी...परिवार से और उससे भी ज़्यादा ख़ुद से होने वाले टकराव सबसे मुश्किल होते हैं....20-22 साल एक तरह की परवरिश पाने के बाद उन तमाम मान्यताओं, रीति रिवाजों, आदतों, चलन, व्यवहार को बदलना बेहद मुश्किल होता है क्यूंकि आपको पीछे खींचने का काम सिर्फ़ परिवार, रिश्तेदार या समाज नहीं कर रहे होते बल्कि ख़ुद आपके भीतर बैठे हुए यकीन और आस्था भी कर रहे होते हैं...इस उम्र तक वो हमारी शख्सियत का हिस्सा हो चुके होते हैं...मैं ख़ुद इन टकरावों के बीच कितनी ही बार उलझी रहती हूँ....तो इस लड़की ने उस उम्र में समाज के प्रतिकूल माहौल में न सिर्फ़ ख़ुद को बदला बल्कि अपने परिवार में भी तमाम तब्दीलियाँ लायी...बिना किसी ग्लानि के बने बनाए नियम, स्टीरियोटाइप तोड़ना हो, मन का करना, पहनना - ओढ़ना, घूमना फिरना या फिर प्रेम करना और साल दर साल उस रिश्ते के साथ बढ़ते जाना...न सिर्फ़ ख़ुद आगे बढ़ना बल्कि घरवालों का हाथ थाम उन्हें भी वैचारिक स्तर पर आगे बढ़ाना...साथी का सहयोग और ईमानदारी बेहद ज़रूरी होती है, जो उसे लगातार मिली....अभी पिछले दिनों उसकी शादी देखना एक अलग किस्म की ख़ुशी महसूस करना था...कि आज जो लड़की सामने है वो कितनी मज़बूत, सुलझी और तरक्कीपसंद है...ख़ुद से मिलने वालों पर एक सकारात्मक असर ही डालेगी... और इन तमाम सारी बातों में हक़ीक़त में जो एक बात होती है वो ये कि लड़की के कामकाजी होने, बाहर की दुनिया देखने से घर और समाज के रवैये में बड़ा अंतर आता है...जिसकी एक वजह ये भी है कि नौकरीपेशा या कमाऊ लड़कियां एक अलग किस्म के आत्मविश्वास से भरने लगती हैं..

वैसे हैरान करने का काम 20-25 साल की लड़की ही करे ऐसा नहीं...इस काम में तो मेरी सोना भी कम नहीं...सोना, 15 साल की मेरी भांजी...इस उम्र में ज़िम्मेदारी का ऐसा अहसास और लगन होना बमुश्किल देखने को मिलता है...चंचलता से भरी ये नाज़ुक उम्र आमतौर पर किशोरियों को भटकाने लगती है....तरह तरह के सवाल, जिज्ञासाएं और इच्छाएं जिन्हें संभालने और सही रास्ते पर लेकर चलने की हमारे समाज में कोई ख़ास व्यवस्था नहीं...माता पिता और बच्चों के बीच के संवादों में ऐसे ज़िक्र और चर्चाएँ उतनी नहीं (हालांकि अपने समय को देखती हूँ तो लगता है हमारे समय में तो संवाद शून्य ही था, आज कम से कम बच्चे मुखर हैं)...ऐसे में इस बच्ची की अपने काम, पढ़ाई और जानकारी इकठ्ठा करने के शौक के प्रति लगन, छोटे भाई को साथ लेकर चलने और मां की सहेली बने रहने का ज़िम्मेदारी भरा अहसास हैरान करेगा ही...आठवीं में प्रतियोगिता में जब बच्चे अपनी किसी किताब से हल्की फुलकी कविता पढ़ रहे थे तब सोना टैगोर की ‘Where the mind is without fear’ सुनाकर आई...उसकी अध्यापिका ने हैरानी से पूछा कि क्या वो इस कविता का अर्थ समझती है तो सोना उन्हें अर्थ भी समझा आई...कविता लिखने चली तो उसके ज़ेहन में एक भूखे ज़रूरतमंद बच्चे का ख़याल था और अपनी कविता में ज़रुरतमंदों के लिए लोगों से अपील...रास्ते में एक बुज़ुर्ग भिखारी को 10 की जगह 20 रूपए देते हुए बोली कि बाबा इससे खाना ही खाना अच्छा.. कुछ पीने मत बैठ जाना...अपने यहाँ के भाषण प्रतियोगिता के लिए ‘देश में लैंगिक असामनता’ विषय को चुना व बहुत अच्छे से पेश किया... इस संवेदनशीलता के साथ ही वो मजबूती और आत्मविश्वास भी कि अपनी मदद और अपने मामले सबसे पहले ख़ुद ही सुलझा ले... ऐसी सोना जब ये कह देती है कि मौसी मैं आप सी हूँ या मुझे आप सा बनना है तो बड़ा दबाव महसूस होता है...इस उम्र में मैं एकदम उलट व्यवहार की थी...बल्कि आज भी उस सी मज़बूत नहीं... उसका ऐसा होना कितनी तसल्ली देता है कि हमारे इर्द गिर्द अगली पीढ़ी की सब नहीं भी तो कई बच्चियां जानकारी, संवेदनशीलता, ज़िम्मेदारी, और आत्मविश्वास से भरी हुई भी हैं...जिन्हें मेहनत करने, धूप में तपने से कोई गुरेज़ नहीं....इनको देखकर लगता है इतना घबराने की भी ज़रूरत नहीं...

जानती हूँ चीज़ें बेहद नकारात्मक हैं....हर पल तोड़कर रख देने को भरमार में इंतज़ाम है...हर पल एक नया संघर्ष है...विश्वास के अपने मसले हैं...लेकिन उन सब बंजर ज़मीन सी मुश्किलों पर ये सभी लड़कियां और महिलाएं मुहब्बत और बदलाव के खिलते फूल हैं...सदियों से होने वाले संघर्ष ज़ाया नहीं जा रहे, हाँ कुछ अलग सी चुनौतियाँ आने लगी है...पर इन्हें देख हिम्मत बंधती है कि उनसे भी निपट ही लिया जाएगा...और फिर एकल अभिभावक होने के मसले हों या रिश्तों और बाहर की दुनिया में आती मुश्किलें, इन पक्षों पर भी बेफ़िक्र होकर आगे बढ़ ही लिया जाएगा...जानती हूँ सही और ईमानदार पुरुष और अन्य साथियों बिना ये संभव नहीं...पर ये कुछ ज्यादा ही निजी सा था, जो याद आ रहा था वो ख़ुशगवार नहीं और मनः स्थिति भी फ़र्क तो आज उस पक्ष पर बात करने का दिल नहीं....आज बस अपनी सहेलियों को याद कर ख़ुश होने का मन था...    


(शीर्षक: नागार्जुन जी की एक कविता से प्रेरित)

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

माँ आदरणीय पर कौन सी माँ ?

उस रोज़ सुबह 7 बजे आँख अन्नू के फ़ोन से खुली.... “बेन ये बताओ घी कैसे बनता है?” मेरा उनींदा दिमाग़ इस सवाल के लिए तैयार नहीं था...मैंने अलसाते हुए पूछा “मिक्सर है?”...उधर से पूरे आत्मविश्वास से आवाज़ आई “नहीं”..“मथनी है?”....नहीं...चम्मच है उससे काम चलेगा?”...मेरे जवाब का इंतज़ार किये बिना उसने सहायिका को आवाज़ देकर कहा “दीदी चम्मच से ही कर दीजिये, हो जाएगा”....इसके बाद भी मुझे कुछ बोलने का मौका दिए बिना उसने अपनी बात जारी रखते हुए उदास लहजे में जो अगली बात कही वो और भी अधिक अप्रत्याशित थी..नींद से भरे अलसाए दिल, दिमाग़ और शरीर के लिए ज़्यादा ही भारी...“बेन मेरा सपना पूरा नहीं होगा क्या? मेरे ढेर सारे बच्चे कैसे होंगे? साला...शादी नहीं होगी तो क्या हम मां नहीं बनेंगे...हम कह रहे हैं सादिया से चलो 3-4 सहेलियां मिलकर सिंगल मदर बनते हैं...बच्चे पैदा करेंगे...तुम सब ख़बरों में आ जाओगी...कोई कुछ कहेगा या विरोध होगा तो वो भी ख़बर और एक बड़ा सवाल....और हमें तो साला किसकी इतनी हिम्मत कि कोई कुछ कहे...बताओ क्या कहती हो सही आईडिया है न?”...मेरी नींद उड़ाने का भला इससे ज़ालिम तरीका क्या हो सकता था....चाय की तलब हो गयी पर अभी बातें पूरी नहीं हुई थीं...पुराने संबंधों पर बातें और उन लड़कों को गरियाने से दिन की शुरुआत हो गयी....

इस लड़की ने मुझे हमेशा विस्मित किया है...अपनी बातों, मलंग और मस्त रवैये और तमाम अन्य बातों से...हर बार कोई न कोई ऐसी बात जो चौंका देती....दुनिया को ठेंगे पर रख देना...और उसका ये तरीका मुझे अजीब ख़ुशी से भर देता....मैं जब से इसे जानती हूँ तब से ये बात जानती हूँ कि उसे ढेर सारे बच्चे पैदा करने थे....साल दर साल वक़्त बीतता गया, उसके साथ हम लोग बढ़ते गए लेकिन इतने वक़्त में एक ये बात कभी न बदली....ऐसा भी लगता कि उसे शादी भी शायद बस इसीलिए करनी है कि वो बच्चे पैदा कर सके...इस लेख का कुछ हिस्सा जब उसे पढ़ाया तो उसने फ़ौरन कहा कि “सुनो हम मज़ाक नहीं कर रहे हैं, सीरियस हैं....एक साल में अगर शादी नहीं हुई तो हम कुछ न कुछ जुगाड़ करके बच्चा तो पैदा कर ही लेंगे”....उसी रोज़ शाम अंकिता ने बातचीत के दौरान कहा “बहन हमें पति की ज़रुरत नहीं लगती पर बच्चे की लगती है अब जिसकी ज़रुरत होगी वो ही करना चाहिए न”...मैंने हंसते हुए कहा “हाँ बिल्कुल सही बात”... और ये कहते हुए मेरे ज़ेहन में सुबह की बातचीत ताज़ा होने लगी...मैंने उसका ज़िक्र भी किया तो ये आगे बताने लगी “पता मेरी एक सहेली ने कहा कि तुम अपनी जन्मपत्री पंडित को दिखाना...जब वो विवाह का योग बताये तब ही अपने लिए लड़का ढूंढना ज़रूर मिलेगा....हमने उससे कहा सुनो हमें पंडित ने पति योग तो नहीं संतान योग बताया है बताओ क्या करें....उसने कहा बेशर्म हो गयी हो बिल्कुल”....हम दोनों ही हंस पड़े... अन्नू की बात कानों में गूँज रही थी ... “शादी नहीं होगी तो क्या हम मां नहीं बनेंगे”...मैं इन ‘बिगड़ी’ लड़कियों को सुन कर ख़ुश हो रही थी....ढांचे पर पत्थर मार एक और दरार डालने वाली बात...शाबाश!!

वाकई अगर सोचें तो भला क्यों ये ज़रूरी हो...एक बच्चे की ख्वाहिश और ज़रूरत महसूस होना, लेकिन एक पुरुष साथी की ज़रूरत न महसूस होना, शादी के बंधन में बंधने की इच्छा न होना इतना अस्वाभाविक क्यों है....अन्तरंग संबंधों का शादी से पहले और बाद में होने से उसका जायज़ नाजायज़ या सही ग़लत होना....एकल अभिभावक बनना....मेरी ज़िन्दगी, मेरे शरीर, मेरे मन की ज़रूरतें भला बाकी बातों के दबाव में क्यों हों...ऐसे सवाल चोट तो करेंगे पर इन्हें सोचना तो ज़रूरी है ही...भला इन सबका ऐसा दबाव क्यों...हम अपनी चाहतें और ज़रूरतें देखते हुए रिश्ते क्यों चुन या बना नहीं सकते.  

मैं अगर अपनी ही बात करूँ तो मेरी जो सहजता महिला मित्रों के साथ है वो पुरुष मित्रों के साथ नहीं. बल्कि पुरुष मित्र गिनती के ही होंगे. अपनी ज़िन्दगी में मेरी प्राथमिकताएं फ़र्क हैं जैसे काम, परिवार, दोस्त, पढ़ना लिखना वगैरह...इन सबमें शादी के लिए वक़्त कहीं फ़िट नहीं होता. बल्कि मेरी तो शादी के लिए भी प्राथमिकताएं फ़र्क ही हैं. अपनी ज़िन्दगी से संतुष्ट हूँ और शादी की ज़रुरत महसूस ही नहीं होती. कुछ लोगों ने दबे स्वर और सभ्य भाषा में कहा कि जीवन की और भी ज़रूरतें होती हैं, साथ चाहिए होता है...उनके लिए मेरा जवाब ज़रा असभ्य हो जाता कि उन ज़रूरतों के लिए भला शादी करने की क्या ज़रुरत...मुझे कभी ऐसे भाव मिलते मानो मैं कैसी बेशर्म हूँ..इसी से चरित्र का अंदाज़ा भी लगा लिया जाता है...कभी हैरानी के भाव होते हैं तो कभी सहमति के भी. रही साथ की बात तो भई ‘फ़ैशन के इस दौर में गारंटी की इच्छा न करें’ की तर्ज पर मैं ‘साथ’ की गारंटी पर सवाल कर देती हूँ. तो बात हमेशा एक हल्के विवाद के बाद आई गयी हो जाती है. पर इन सबके बावजूद बच्चों से मुझे बेहद प्यार है. मैं माँ तो बनना चाहूंगी पर गोद लेकर, गर्भधारण करके नहीं. मुझे उस असहजता और दर्द से नहीं गुज़रना न ही मुझे ‘मेरा’ या ‘दूसरे’ का बच्चा जैसी ही कोई समस्या है. अभी इस ज़िम्मेदारी के लिए तैयार नहीं हूँ पर अगर कल को हो ही जाऊं तो भला क्यों शादी या पति की ज़रुरत हो. क्यों ये सोचना मुश्किल हो.

अब दूसरी स्थिति लें. मैं गर्भधारण करना चाहूँ तो? अन्नू की तरह. पर मुझे शादी की ज़रुरत न हो तो? मुझे एक बच्चे की ज़रुरत हो, मैं उसे पैदा करना, एक अभिभावक का प्यार देना चाहूँ लेकिन मुझे पति के रूप में किसी साथी की ज़रुरत न हो, मेरे लिए ये कोई ज़रूरी शर्त न हो कि बच्चे के जीवन में पिता हो ही, मेरी कोई इच्छा न हो कि मेरी बच्चे की ख्वाहिश के साथ जबरन मुझपर ससुराल से जुड़े तमाम सम्बन्ध और ज़िम्मेदारियाँ लाद दी जाएँ....मैं सक्षम व स्पष्ट हूँ, मेरी ज़रूरतें और प्राथमिकताएं फ़र्क हैं, तो क्यों सिर्फ़ शादी के ज़रिये रिश्तों की संवैधानिकता या असंवैधानिकता तय हो. तार्किक तौर पर सोचें, मैं एकल अभिभावक बनना चाहती हूँ, न मेरे साथ कोई धोखा हुआ, न ज़बरदस्ती बल्कि ये मेरा चुनाव है...उस बच्चे को एक अच्छा इंसान बनाने के लिए जो भी ज़रूरतें हैं, उनके लिए मैं सक्षम हूँ....तो शारीरिक सम्बन्ध का विवाह से पहले और बाद में बनाये जाने से ‘सही’ ‘ग़लत’ क्यों तय हो....मैं IVF तकनीक में न जाना चाहूँ, कोई हो जिससे शायद मुझे प्रेम हो, या कहिये सिर्फ़ आकर्षण हो तो क्यों ज़रूरी हो कि मेरी एक बच्चे की ज़रुरत के लिए हम बिना वजह शादी में बंधें...और अगर न बंधें तो क्यों वो ग़लत करार दिया जाए...अगर वो मेरा ही निर्णय है तो?

यहाँ तक तो बातें मेरी इच्छाओं व चुनाव की...अब अगर ये देखना शुरू करें कि मेरे इर्द गिर्द वो कौन सी संस्थाएं हैं जो सीधे तौर पर मुझे प्रभावित करेंगी...मेरे लिए स्थितियों को आसान या मुश्किल करेंगी...तो इस मामले में कानून बहुत उलझाने वाले हैं...अव्वल तो एकल अभिभावकों के लिए अलग से कोई कानून नहीं...इसके सामाजिक पहलू भी हैं...और कानूनी तौर से कई सारी बातें हैं जैसे गोद लेने या IVF तकनीक की जगह यदि बच्चा पैदा किया जाए तो उसमें बड़े पेंच हैं...मान लें अगर कोई महिला किसी पुरुष के साथ सम्बन्ध बनाकर गर्भ धारण करती है...सम्बन्ध बनाने से पहले ही ये बात स्पष्ट कर दी जाती है कि महिला को माँ बनना है, ये उसकी इच्छा, उसका चुनाव है, न शादी होनी है न ही पुरुष को किसी भी तरह की ज़िम्मेदारी निभानी होगी...इन सबके बावजूद यदि कल को जैविक पिता बच्चे पर दावा कर दे तो कानूनन उसके अधिकार हो सकते हैं..ये कोर्ट के निर्णय पर निर्भर करेगा...इसके अलावा उस बच्चे के भी न सिर्फ़ अपनी माँ बल्कि जैविक पिता की संपत्ति पर अधिकार होंगे...शादी होने या न होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा...अब ऐसे में भला कौन ही पुरुष साथी तैयार हो क्योंकि बहुत समय तक ये संभव नहीं कि संतान के आग्रह के बावजूद उससे पिता की पहचान छुपायी जाए या जीवन भर हर पल झूठ का सहारा लिया जाए...ख़ास तौर से संतान के वयस्क होने के बाद...ये सही भी नहीं लेकिन ऐसा होने के नतीजे उस पुरुष साथी के लिए मुश्किल पैदा कर सकते हैं....ऐसे में किसी भी पुरुष साथी का सहयोग देने से बचना स्वाभाविक है क्योंकि संतान की इच्छा तो पूरी तरह महिला की थी और सम्बन्ध सिर्फ़ इसी वजह से बनाए जा रहे थे..वो क्यों चाहेगा कि बाद में उसके जीवन में एक दोस्त को दिया गया सहयोग अचानक कोई समस्या बनकर आ जाए...ऐसे में ये ज़रूरी है कि एकल अभिभावकों व उनके बच्चों के लिए कानून में अलग समुचित व्यवस्था की जाए जिसमें सबके अधिकारों को सुनिश्चित किया जाए. 
  
इसके अलावा अब परिवार की ही भूमिका को अगर देखें....परिवार वो संस्था है जो अगर साथ आ जाये तो व्यक्ति की न सिर्फ़ सबसे बड़ी मुश्किल आसान हो जाए बल्कि उसे दुनिया से लड़ने का हौसला भी मिल जाए...लेकिन क्या ऐसा होता है? ऐसे परिवार बमुश्किल ढूंढे मिलें शायद जो इन स्थितियों में घर की बेटी का साथ दें...बल्कि जो होता है वो इसका उल्टा होता है...परिवार सबसे बड़ी रुकावट या विरोधी हो जाता है...ख़ासतौर से अगर बच्चा गोद, IVF या सरोगेसी की जगह किसी पुरुष साथी के साथ सम्बन्ध बनाकर पैदा किया जाए...ये एक बड़े कलंक की तरह देखा जाएगा जिसे कोई परिवार पसंद नहीं करेगा...बेटी का रात दिन जीना दुश्वार किया जा सकता है और बच्चे के लिए जो कड़वा व्यवहार होगा उसकी कोई सीमा नहीं...ऐसे में एक बात और आ जुड़ती है...बेटी के माँ बाप सालों साल कोशिश करते हैं कि उसकी शादी हो ही जाए...वो मान जाए और कर ले...ये कोशिश कहिये बेटी के 50- 55 साल के हो जाने तक भी चलती रहे...तो एक बात तो ये कि परिवार की नज़र में बेटी की शादी ज़रूरी होती है जिसके लिए परिवार के लोग कई कारण गिनाने लगते हैं....दूसरी बात ये कि एक ऐसी महिला की शादी होना उनकी नज़र में मुश्किल है जो एक माँ भी है...और अगर ये माँ बनने की प्रक्रिया बाक़ायदा सम्बन्ध बनाकर की गयी है तब तो शादी असंभव ही हुई...हमारे परिवारों में जहाँ बेटी ‘पराया धन’ है वहां उसके बच्चे कैसे अपनाए जा सकते हैं....किसी भी कारणवश यदि माँ को कुछ हो जाये तो बच्चे को अपनाने वाला कोई भी नहीं, उसका क्या जीवन हो...हमारे पास कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं. 
    
इसी तर्ज पर अब समाज की प्रतिक्रिया भी समझी जा सकती है...कि किस प्रकार का चरित्र हनन किया जायेगा...ये न सिर्फ़ माँ के लिए है बल्कि बच्चे के लिए भी उसका बचपन व युवावस्था तमाम मुश्किलों भरी होगी...वो ऐसे रिश्ते से दुनिया में आया होगा जिसे न सिर्फ़ समाज बल्कि क़ानून भी ‘नाजायज़’ कहता है...हर पल ख़ुद को ‘पाप की संतान’ सुनना एक अबोध मन पर क्या प्रभाव डालेगा ज़रा सोचें...माना कि माँ मज़बूत है दुनिया को ठेंगे पर रखने वाली लेकिन एक बाल मन तो कोमल होता है, भोला, निश्छल...इन सब बातों को समझ पाने से कहीं दूर....और परिवार व समाज कितना वीभत्स हो सकता है इसकी कई बार कल्पना करना भी मुश्किल है...ये दुश्वारियाँ मध्यमवर्गीय परिवारों और छोटे शहरों में अधिक हैं...ऐसे बच्चों की परवरिश बहुत ध्यान व समझ से करने की पूरी ज़िम्मेदारी माँ पर ही होगी क्योंकि उसे एक सकारात्मक या सहयोगी वातावरण मिलना फ़िलहाल तो दूर की बात है बल्कि आलोचनाओं और टीका टिप्पणियों का सामना आये दिन  न सिर्फ़ माँ बल्कि बच्चे को भी करना होगा...क्या हम एकल पिताओं को भी उसी तरह का व्यवहार देते हैं जैसे एकल माँ...पिता के केस में ख़ानदान आगे बढ़ने की बात लेकिन माँ के केस में बोझ...ज़रा सोच कर देखें...और ये भी देखें कि किस तरह पितृसत्ता औरत के दिल, दिमाग़, कपड़े, व्यवहार, सपनों से लेकर योनि तक कहीं उसका नियंत्रण नहीं रहने देती. 
  
ये उलझनें हैं जो कई बार इस समाज की सड़न का अहसास कराने लगती हैं. विवाह के रिश्ते में जबरन बनाए गए शारीरिक संबंधों, औरत की मर्ज़ी पूछे बग़ैर या उसके विरुद्ध जाकर या दबाव बनाकर बच्चों की कतारें लगा देना ग़लत नहीं होता...न परिवार और समाज में बल्कि काफ़ी हद तक क़ानून में भी....उसकी इज़्ज़त एक माँ के तौर पर ही होती है...मां से ऊपर तो इस देश में कुछ भी नहीं, सबसे ज्यादा श्रृद्धा इसी के प्रति, इसके नाम पर बलिदान से लेकर हत्याएं और मार काट हो जाए...तो फिर एक मां के प्रति श्रद्धा सिर्फ़ मां होने के कारण होनी चाहिए न...उसमे शादी शुदा होने या न होने की क्या भूमिका...सारा चरित्र निर्माण क्या सिर्फ़ यौन संबंधों के ही आधार पर होगा? क्या ये उसके चयन, उसकी आज़ादी, उसके निर्णयों को सीमित करने या जबरन कंट्रोल करने की कोशिश नहीं? या ये भी पितृसत्ता के लिए एक डर ही है कि जिस व्यवस्था में अभिभावक के तौर पर हमेशा पिता का नाम रहा हो, वंश उसके नाम से आगे बढ़ा हो अगर ये स्त्री के हिस्से चला गया तो क्या होगा? क्या होगा अगर स्त्री मां बनने के लिए भी ख़ुद अपनी मर्ज़ी से चुनाव करने लगे और विवाह संस्था को ख़ारिज कर आगे बढ़ जाए...प्रेम संबंधों पर कामसूत्र रच देने वाले, राधा कृष्ण के प्रेम को पूजने वाले, सरस्वती को देवी मानने वाले, प्रेम पर बनी फिल्मों को ब्लॉक बस्टर बनाने वाले असल व्यवहार में किस कदर दोगले और खोखले हैं...हमारे पास नफ़रत द्वेष और हिंसा के लिए तो भरपूर जगह है पर प्रेम के लिए नहीं...किसी को अगर ये लगता है कि गोद लेना सरल है तो वे भी ये जान लें कि एकल अभिभावक के लिए गोद लेने से जुड़ी प्रक्रिया व कानून भी आसान नहीं बल्कि खासे मुश्किल हैं  

कब होगा कि हम चयन और सहमति को सही अर्थों में समझेंगे...हम हिंसा पर ख़ामोश होना सिखाते हैं, विवाह के भीतर जबरन बनाए संबंधों को बलात्कार नहीं मानते, एक लड़की का बलात्कार हो जाने पर उसका मुंह ढँकवा देते हैं, ये लडकियां माँ सरस्वती की तरह नहीं पूजी जाती...या इन मां सरस्वती की मां कौन थीं...यहाँ परिवार के लोग खाप बन कर इज़्ज़त के नाम पर हत्याएं करते हैं, घर में ही बलात्कार हो जाते हैं...एक लड़की के पैदा होने से लेकर मरने तक हर क़दम उसके लिए एक नयी मुश्किल खड़ी कर देते हैंऐसे में चुनाव, मर्ज़ी वो भी ऐसी तो बड़ी बात हो गयी न...मैं  ये भी जानना ज़रूर चाहूंगी कि भारत माता विवाहित हैं या एकल अभिभावक हैं...या उनके अलावा भी पूजी जाने वाली तमाम माताओं का वैवाहिक स्टेटस क्या है...क्या सारी सहूलियत काल्पनिक पात्रों के लिए है...असल व्यवस्था में सिवाय बंदिशों के कुछ भी नहीं?   

(शीर्षक के लिए मनोज जी का आभार)