बुधवार, 28 सितंबर 2016

सामाजिक सर्विलांस पर रखे चरित्र

(इस लेख को फिल्म समीक्षा की उम्मीद में न पढ़ें)
  
वो एक अजीब स्थिति थी...नहीं पता कि हॉल में पसरा सन्नाटा किस बात का था...लोग फ़िल्म की कसावट में जकड़े थे....उसके बहाव में बह रहे थे...सस्पेंस महसूस कर रहे थे...या खामोशी से उन उन लम्हों को याद कर रहे थे जब वो ऐसी किसी स्थिति का हिस्सा बने थे...जब उन्होंने ऐसा किसी के साथ किया था...जब ऐसा कुछ उनमे से किसी के साथ हुआ था...जब उनके चरित्र को उनकी निजी आदतों पर आंका गया था या फिर उन्होंने ख़ुद ऐसा किसी और के साथ किया था...जब वो ऐसे दोस्त, पड़ोसी, माता पिता, बॉयफ्रेंड, गर्लफ्रेंड, रिश्तेदारसरकारी अधिकारी कुछ भी बने...जाने क्यूँ मैं दिल से ये ही चाह रही थी कि वहां बैठा हर इंसान अपनी ज़िन्दगी में आये उस लम्हे को याद कर सके जब उसने ऐसा किया...किसी से भले ज़िक्र न करे पर कहीं खुद अपने अंदर अपने ऊपर शर्मिंदा हो...याद करे कि वो देर रात घर लौटने वाली लड़की बदचलन नहीं....वो कॉल सेंटर में काम करती है, कॉल गर्ल नहीं है और अगर है भी तब भी उसकी अस्मिता, वजूद और हक सिमट नहीं जाते...वो दोस्तों संग शराब पीने वाली लड़की वेश्या नहीं...वो एक बेहद अक्लमंद और संवेदनशील इंसान और कामकाजी औरत है....और वैसे आप तो शराब न पीने वाली लड़कियों को पिछड़ा समझते हैं...तो अब क्या हुआ...ऐसा दोगलापन भी क्या कि अगर वो साथ बिस्तर तक पहुँच जाय तब तो ठीक वरना वो बदचलन...इस तरह के तमाम सवाल उठाये ही गए हैं...जिनकी कसौटी पर आम तौर पर लड़कियों का चरित्र आंका जाता है...पर क्या तुम्हें याद आया कि कब तुम्हारी साथी की उस पार्टी में जाने की इच्छा नहीं थी, तुम्हारे बॉस के साथ वो असहज हो रही थी पर तुम्हे ज़रा भी कोफ़्त नहीं हो रही थी...ये अलग बात है कि किसी रोज़ इसी तरह वो अपना एक और साथी चुन लेती तो वो तुम्हारे लिए बदचलन हो जाती...क्या याद आया तुम्हे कि उस दिन तुम्हारी साथी एकांत चाहती थी...उसे तुम्हारा साथ तो चाहिए था पर शारीरिक सम्बन्ध नहीं और कैसे उसके मना करने के बावजूद तुमने उसकी एक न सुनी थी और कैसा इमोशनल ब्लैकमेल किया था उसे....कैसे प्रेम के सारे अर्थ सिर्फ़ शरीर तक आकर सिमट गए थे...क्या तुम्हे याद आई अपनी वो दोस्त जो जिससे बेइंतेहा दोस्ती थी तुम्हारी...हर सुख दुःख हंसी मज़ाक लड़ाई झगड़े के साथी लेकिन वो तुम्हे एक दोस्त के तौर पर ही देखती थी...अपने एक तरफ़ा प्यार में पागल होकर अपने सड़े अहं के साथ किस कदर मुश्किलें खड़ी की तुमने...कैसी कैसी स्थितियों में क्रूर हुए तुम...कि सावधानी लेने के नाम पर तुम्हे अपने मज़े में खलल लगती थी जबकि ताक पर तुम्हारी साथी की सेहत थी...वही साथी जिससे तुम्हे बेइंतेहा मुहब्बत थी....कैसे उस छोटी बच्ची के जिस्म पर उँगलियाँ फिराने की कोशिश की थी तुमने...उसकी सहमी आँखों पर ज़रा भी तरस नहीं आया तुम्हे....जबकि कैसे बहन से छेड़छाड़ होने पर खून खौल उठता था तुम्हारा...कैसे दफ़्तर में आधुनिक कपड़े पहनने वाली, अंग्रेजी बोलने, शराब पीने, पार्टी करने वाली लड़कियों पर तुम फ़िदा रहते थे लेकिन घर पर तुम्हे बीवी बहन और बाकी औरतें सीमा रेखा के अन्दर ही सुहाती थीं....कैसे किसी की भावनात्मक कमजोरी के दौर को तुमने अपने लिए एक मौके के तौर पर देखा था...कैसे अपनी बीवी की सेक्स के लिए इच्छा ज़ाहिर करने पर असहज हो गए थे तुम...प्रेम में सेक्स ज़रूरी है और इसलिए तुमने गर्लफ्रेंड से किया भी पर ऐसे सेक्स करने वाली लड़कियां वहाँ भीतर तुम्हारे दिल में 'अच्छी' नहीं ही मानी जाती थीं...क्या कुछ भी याद करके शर्मिंदा हो पाए तुम? वो किरदार जिन्हें तुम परदे पर देख रहे थे वो तुम्हारे और मेरे बीच के ही किरदार हैं  

फ़िल्म देखते वक़्त मेरे दिमाग में फ़्लैश बैक में जाने क्या क्या चल रहा था...हर उम्र, स्थितियों, जगहों से जुड़ी वो बातें याद आ रही थीं जिन्हें हमेशा दफ़न करने की ही कोशिश की लेकिन ज़रा सा छेड़ भर देने से एक भयंकर शोर के साथ वो दुबारा खड़ी हो जाती थीं...जैसे आज हुई थीं...मैं खामोश थी...फिल्म के बाद भी खामोश रही...लोग वाह वाह कर रहे थे, तारीफें कर रहे थे और मैं समझ नहीं पा रही थी कि इस फिल्म में इन्होने ऐसा क्या देखा जो पता नहीं था..सुना नहीं था, किया नहीं था या किसी भी तरह अनुभव ही नहीं हुआ था...क्या वो सब अभिनय कर रहे थे ये दिखाने का कि हमने कभी ऐसा नहीं किया...क्या वो भीतर ही भीतर शर्मिंदा थे...क्या कहीं कोई चोट लगी थी...क्या उन लड़कियों को ये अहसास हुआ था कि अपने मर्ज़ी के साथी चुनकर, या बाहरी दुनिया का हिस्सा बनकर वे कुछ ग़लत नहीं कर रहीं...ये उनकी निजी ज़िन्दगी और उनके हक हैं...जिन पर उन्हें विश्वास और फख्र होना चाहिए...क्या ये लड़कियां याद कर पा रही थीं कि कब इन्होने किसी और लड़की के चरित्र प्रमाण पात्र जारी किये थे....यूँ ही ‘स्लट’, ‘बिच’, ‘होर’ कह दिया था...जिस लड़के को ये पसंद करती थीं वो अगर किसी और लड़की को पसंद करता था तो वो लड़की गालियों की हक़दार बन जाती....पड़ोस में देर रात लौटने वाली या फिल्म देखने जाने वाली लड़की ‘उस टाइप’ की हो जाती सिर्फ इसलिए क्यूंकि हम वो सब काम नहीं कर पा रहे थे...हर वो लड़की जो हमे सिखाई गयी ‘अच्छी लड़की’ या नैतिकता की परिभाषा से इतर कुछ करती वो गलत हो जाती...क्या याद आ पा रहा था?

मैं बेचैन थी...पर मैं चाहती थी कि वहां बैठे सभी लोग बेचैन हों...वो सब मर्द बेचैन हों जो कभी न कभी ऐसे हुए थे...वो जानें देखें कि कैसी सड़ांध है उनकी सोच की लेकिन उसी पल मुझे ये भी लगा कि क्या वाकई नहीं जानते कि इन्होने क्या किया है और कब किया है...बाहर इनमे से कितनों ने ही इस पर बड़ी बड़ी बातें की हैं...ये आधुनिक हैं, खुली सोच के हैं...इन्हें लड़कियों की आजादी देखकर ख़ुशी होती है...पर क्या वाकई ये सोच है? क्यूंकि व्यवहारिकता तो कुछ और ही बता देती है...वो उस दोगलेपन को उजागर कर देती है जिसकी कल्पना भी नहीं की थी.... “चलते हैं न तुम्हारे घर...कब तक लोगों की परवाह करोगी...तुम व्यस्क हो और ये तुम्हारी ज़िन्दगी है”..... “अरे यार एक दो ड्रिंक से कुछ नहीं होता, ट्राय न”, “अभी 10 ही तो बजे हैं चली जाना क्या जल्दी है”....“सेक्स प्रेम का बहुत ज़रूरी हिस्सा है...तुम भी किस ज़माने की बातों में उलझी हो लेट्स डू इट”.... “सॉरी यार मिस्ड इट अगेन ऐसा करो आई पिल ले लो”....तुम ही कहते थे न...तो ये सब तो वहां होता है जहां साथी अपनी मर्ज़ी से चुने जाते हैं...तुम्हारे मन की इस दुनिया में शराब और सेक्स ज़रूरी हो जाता है...वो आधुनिक होने का प्रमाण हो जाता है...इतना कि तुम्हें किसी का किसी के साथ कितनी बार भी सेक्स करना गलत नहीं लगता लेकिन बाद में गलत सिर्फ लड़की ही कैसे हो जाती है....अब उन लड़कियों का सोचके देखें जहां चुने हुए साथी जैसा कुछ नहीं....

मेरी ज़िन्दगी समाज के सर्विलांस पर होती है....कब उठती हूँ...कहाँ जाती हूँ...कौन घर आता है...कहाँ काम करती हूँ...क्या काम करती हूँ...क्या पहनती हूँ...क्या खाती हूँ....लड़कों से दोस्ती है...कब वो अकेले आते हैं घर...आते हैं तो घर के अन्दर क्या होता होगा....सेक्स ही होता होगा....घर पर लड़के नहीं आने चाहिए...एक ही लड़का आता है या अलग अलग...अगर आते हैं तो लड़की गलत है...रात को कहाँ से आती हूँ...दो दिन तक घर से बाहर क्यूँ रहती हूँ...किससे बात करती हूँ...पड़ोसियों के यहां कथा में क्यूँ नहीं जाती और देर रात फिल्म देखने क्यूँ जाती हूँ....शादी नहीं की...क्यूँ नहीं की...उम्र हो गयी है...ज़रूर कोई चक्कर होगा...घरवालों ने ज्यादा छूट दे रखी है...क्या पता इसमें ही कोई कमी हो...जाने कितने सवालों की एक्सरे मशीन से हर रोज़ हर पल मेरे चरित्र का स्कैन होता है और अगर उस दिन मैं बाइज्ज़त बरी हो सकी तो वो मेरी किस्मत है...ये अलग बात है कि इनमे से किसी सवाल का जवाब देना अब मैं ज़रूरी नहीं समझती...

उस फिल्म को देखते वक़्त क्या खुद से सवाल किया था कि क्यूँ करते हैं हम ऐसा...क्यूँ बन जाते हैं ऐसे जाननेवाले...पड़ोसी, परिवारजन, रिश्तेदार, दोस्त या सहकर्मी...शर्मिंदगी हुई थी या ये ही लगा था कि अब लड़कियां ऐसा करेंगी तो उनके साथ ऐसा तो होगा ही...मुझे लगता है ज्यादातर ने आत्मग्लानि से बचने के लिए अपने अन्दर उठ रहे उन सवालों को ये जवाब देकर ही शांत किया होगा....और ये भी जानती हूँ कि अगले ही दिन मेरा पाला एक ऐसे व्यक्ति से पड़ सकता है जिसके लिए मैं सिर्फ इसलिए पिछड़ी हूँ क्यूंकि मैंने उसके साथ शराब पीने का ऑफर ठुकरा दिया....आपको लगता है तमाम दफ्तरों में बैठी लड़कियों, औरतों की जिंदगियां आसान होती हैं....इस गुलाबी आईने में ख़ुद की वो सियाह सूरत और सीरत पहचानिए....आपके फूहड़ मज़ाक पर आपको हड़का देने वाली लड़की का ‘सेंस ऑफ़ ह्यूमर’ बीमार घोषित हो जाता है और वो प्रोफेशनल सेक्टर के लिए अयोग्य हो जाती है....तुम्हारी नज़र में हमारा चरित्र हमारी बर्दाश्त करने की सीमा से तय होता है...

मेरे इर्द गिर्द तमाम लोगों के लिए ये सवाल है...पर अब मुझे वाकई नहीं लगता कि कोई फर्क पड़ता है इससे...क्यूंकि वापस आकर एक अच्छा रिव्यु पोस्ट हो जाता है, कुछ देर चर्चा हो जाती है...तारीफ हो जाती है सलाह दे दी जाती है कि ज़रूर देखें....और ऐसा कहकर हम ये ज़ाहिर कर देते हैं कि हम ऐसी ज़िम्मेदार फिल्में देखते हैं मतलब संवेदनशील हैं....हम कितने ज़िम्मेदार हैं और फिल्म में दिखाए गए खलनायकों जैसे नहीं हैं....हमें स्त्री विमर्श पर बोलने के लिए कुछ और बातें पता चल जाती हैं जिसके ज़रिये हम प्रभावशाली बातें कर पाते हैं और संवेदनशील होने का मैडल हथिया लेते हैं...किसी लड़की से ज्यादा बात करने या उसमें दिलचस्पी लेने और संवेदनशील होने में ज़मीन आसमान का फर्क होता है...अब भी मानती हूं कि सब ऐसे नहीं लेकिन बड़ी संख्या ऐसों की ही है...चेहरे दुहरी सोच के नकाब में हैं….रही बात ‘न’ को स्थापित करने की तो जानकारी का दायरा बढ़ाइए... ‘No Means No’ (न मतलब न) विश्व भर में चल रहा अभियान है...हिन्दुस्तान में भी इसकी कम चर्चा नहीं हुई...पर आपके लिए तो ‘न’ का अर्थ लड़की की शर्म से निकाला जाता है और उसमें आपको एक अलग ही किस्म की ‘हाँ’ दिखती है...      

एक बात जो बेहद ज़रूरी है...संवाद...खासतौर पर लड़कों बच्चों के साथ...संवाद की कमी ज़बरदस्त भटकाव ला रही है...उन्हें दोस्तों में अपनी इमेज बनाने का अजीब दबाव है...लड़की छेड़ना, मार पीट, मां बहन की गालियां, हिंसा...तमाम सारी बातें जिसपर उनसे चर्चा नहीं की जाती...अपने आसपास के लोगों, मीडिया और माहौल से प्रभावित होकर वो एक अलग ही ट्रैक में बढ़ जाते हैं...जहां उन्हें ‘बुलेट राजा’ जैसा बनना होता है....यहां ज़बरदस्ती करना ‘हीरो’ होने की ज़रूरी शर्त है....हर रोज़ इतनी हिंसा की ख़बरों में जिन अपराधियों का ज़िक्र है वो हमारे आपके घरों से ही निकल रहे हैं...उनमें अनपढ़ भी हैं और कान्वेंट से पढ़े हुए भी...झुग्गी में रहने वाले हैं और बड़े अधिकारियों के बेटे भी.... ये जिस ‘भौकाल’ की ख्वाहिश और नशा है देखिएगा वो आपके समाज को बना क्या रही है....हिंसा को ख़त्म करने के लिए पहले सहमती और असहमति की संस्कृति के लिए जगह बनाइये...किसी लड़की का चरित्र सिर्फ़ इसलिए संदिग्ध नहीं हो जाता क्यूंकि वो आपकी ‘अच्छी लड़की’ की परिभाषा से फर्क है.  


और लड़कियों...बिना वजह शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं बल्कि सबकी बातों पर तो ध्यान देने की भी ज़रूरत नहीं...पर अपने जैसी रहो....किसी समूह विशेष में शामिल होने या उनकी स्वीकार्यता पाने के लिए भला क्यों ख़ुद को बदलो...हमारी ज़िन्दगी हमारी दुनिया भला कोई और क्यों तय करे....ख़ासतौर पर वो जिसके लिए हम उपभोग की वस्तु से इतर कुछ हुए ही नहीं...तुम्हारे लिए नियम क़ायदे कानून भला वो क्यों बनाएं, तुम्हारे फ़ैसले वो क्यों लें...कुछ करो तो इसलिए करो कि तुम्हारा दिल किया...किसी भेड़चाल में शामिल होने के लिए नहीं...बस दिमाग की खिड़कियां खुली रखो...और हां किसी के साथ कुछ ग़लत होने पर बन सको तो उसकी हिम्मत बनो परेशानी नहीं...ये कहने से बचो कि ‘हम भी तो बाहर जाते हैं हमारे साथ तो कभी ऐसा नहीं हुआ’...क्यूंकि ‘ये’ किसी घोषणा के साथ नहीं होता...और करने वाले ज़्यादातर जान पहचान के होते है....बाकी...फिल्म तो अच्छी थी ही...लोगों का मनोरंजन हुआ और वीकेंड की एक शाम सार्थक साबित हुई. 

मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

बराबरी की लड़ाई में बेनकाब होते चेहरे


सब कुछ ठीक ठाक सा ही चल रहा था...लोग मोदी विरोधी बातें लिख रहे थे... दक्षिणपंथी रवैये पर सरकार की बखिया उधेड़ रहे थे...कोई भी भेदभाव वाला, पिछड़ा, गैरबराबरी वाला, दमनकारी फ़ैसला आता और पूरी मजबूती के साथ एक पूरा वर्ग विरोध में खड़ा हो जाता...कसके एक दूसरे का हाथ थामे, हौसला देते हुए...नए दोस्त बनते गए, उनकी बातों से लोग प्रभावित होते और फिर और लोगों से जुड़ते जाते...ऐसा करते करते दक्षिणपंथी व्यवस्था के ख़िलाफ़ एक भरा पूरा वर्ग जिसमे छात्र- छात्राएं, बुद्धिजीवी, प्रोफेशनल्स, गैर सरकारी संगठन, सामाजिक कार्यकर्ता जैसे तमाम लोग एकजुट हो गए...पर ज़रा एक बुर्के- परदे नाम का झोंका क्या आया पल भर न लगा इस समूह को औरत और मर्द में विभाजित होने में (सब ऐसे नहीं हैं ये भी सच है, पर बड़ी आबादी ऐसी ही निकली)... इस मसले को धार्मिक रंग भी खूब दिया गया.

जिसने बुर्के के विरोध में कुछ कहा उसे गालियाँ मिलीं, चरित्र प्रमाणपत्र जारी हो गए, धमकियाँ मिलने लगीं और क्या कुछ नहीं कहा गया...ध्यान दें ये वो ही लोग हैं जो अभी तक साथ चल रहे थे...तरक्कीपसंद ख़याल ज़ाहिर कर रहे थे... ऐसी बड़ी बड़ी बातें कि आपके पास प्रभावित होने के अलावा कोई चारा न हो...पर ये ही वो लोग हैं जो अब मां बहन की गालियाँ दे रहे थे...रंडी से लेकर रंडी की औलाद तक का तमगा लगा रहे थे...शैतान की उपाधि दे रहे थे एंटी मुस्लिम या एंटी हिन्दू होने की बात करने लगे थे....आख़िर हक़ की आवाज़ उठाने वाली औरत "रंडी" क्यूं? वैसे सच कहूँ तो मुझे बहुत ज्यादा हैरानी नहीं हुई क्यूंकि ये बात मैं पहले भी कह चुकी हूँ कि मैंने जेंडर से जुड़े मुद्दों पर बड़े बड़े तरक्कीपसंदों का गला बैठते और उन्हें बगले झांकते देखा है...तो भई एक झटके में कइयों का मुखौटा उतर गया...ये भी क्या ज़बरदस्त टेस्टिंग हुई.

कुछ बेहद मूलभूत बातें...और इन्हें यहाँ दर्ज करने से पहले ये साफ़ कर दूँ कि मेरे हिसाब से बराबरी किसी भी धर्म में औरतों को नहीं मिली इसलिए यहाँ इसे किसी एक विशेष धर्म के लेंस से देखना आपकी आँखों और दिमाग की कमज़ोरी होगी जिसपर मुझे कोई सफ़ाई नहीं देनी.

1-      लड़की लड़का पैदा हुए, न बुर्के में हुए न बिकनी में न घूंघट में न धोती कुरते या कुरते पायजामे में....जी हाँ वो नंगे पैदा हुए...कैसे हुए ये भी जानते ही होंगे...नहीं जानते तो गूगल कीजिये लेख से लेकर वीडियो तक सब उपलब्ध है....वे औरत मर्द के बीच उन्ही शारीरिक संबंधों का नतीजा थे जो आपके लिए शादी से पहले पाप और शादी के बाद पुण्य होते हैं. 9 महीने भ्रूण बनकर उसी औरत के गर्भ की गर्मी में पले बढ़े जिससे जुड़ी बातें खुलकर करना शर्म की बात हैं...और उस भ्रूण के विकसित होकर एक शिशु बनकर दुनिया में आने का रास्ता वो ही था जिसे आपके यहाँ नरक का द्वार कह दिया गया है...पैदा होते ही मां बच्चे को उसी छाती से दूध पिलाती है जिसे आप आमतौर पर बाकी लड़कियों के क्लीवेज झांकते वक़्त देखते हैं...तो बात साफ़ है कि सब कुछ जुड़ा तो शारीरिक संरचना से है...बस लड़की और लड़के में ज़रा फ़र्क है.  

2-      पैदा होने के बाद दोनों को कपड़े में लपेटा गया...बच्चे को पता नहीं था कि वो क्या है...वो बस टुकुर टुकुर विस्मय से ये नयी दुनिया देख रहा था...बच्चा बड़ा होता है उसका नाम रखा जाता है, उसकी परवरिश होती है, खेल तय होते हैं, काम तय होते हैं, मिज़ाज तय होते हैं, व्यवहार तय होते हैं और कपड़े भी तय होते हैं....ये सब उसके जीवन में इतने आहिस्ता से शामिल किया जाता है जैसे उसका खाना बदलना या उसके कपड़ों की माप बदलना कि सबकुछ बदलता भी जाए और पता भी न चले...नतीजा लड़के माचो मैन बनते हैं और लड़कियां डेलिकेट डार्लिंग...दोनों के लिए उनकी डील डौल बेहद ज़रूरी हो जाती है पर एक को मजबूती दिखानी होती है तो दूसरी को अपने शरीर के उतार चढ़ाव और नाज़ुक- गोरी चमड़ी...एक अपने मज़बूत बाजुओं पर इतराता है तो दूसरी अपनी गोरी कलाइयों में खनकती चूड़ियों पर...एक को चौड़ी छाती ताननी होती है तो दूसरी को अपना वक्ष छुपाना होता है...कहीं कुछ दिख न जाए....कहीं कोई शॉर्ट्स टी शर्ट में होता है तो दूसरी ओर कोई अपना दुपट्टा और कमर से नीचे लटकती चोटी संभाल रही होती है...टांगे दिखना, झीना कपड़ा पहन लेना, या बाकी छोड़िये जीन्स टी शर्ट पहनने पर भी त्योरियां चढ़ने लगती हैं...गांव देहात में पल्ला सिर से सरकना नहीं चाहिए और बुर्के की तो खैर कोई उम्र ही नहीं होती. यहाँ ध्यान दीजिये कि कपड़े तय करने से पहले कतई पूछा नहीं गया...विकल्प नहीं दिए गए...लड़की के सामने चार तरह के परिधान रखकर ये नहीं कहा कि अपनी पसंद का पहनावा अपनी सहूलियत से चुन लो...हाँ चार एक ही तरह के परिधान भले रख दिए गए हों...साथ ही दिमागी परवरिश ऐसी कि वो इस सब को सही मानकर चले.

3-      हम उस समाज में बढ़ने लगते हैं जहाँ जिस लड़की का शरीर दिख जाए तो वो बदचलन हो जाती है और उसके साथ कोई अप्रिय घटना होने पर वो खुद ज़िम्मेदार होती है क्यूंकि वो सही लड़की नहीं थी...भीषण गर्मियों में देखिये अपने घरों में कि किस तरह मर्द अधनंगे टहलते हैं कि गर्मी बहुत है और औरत के पास विकल्प नहीं...गाउन पहन कर किसी बाहर वाले के सामने नहीं आ सकती मानो इसकी गिनती कपड़ों में है ही नहीं. मज़े की बात है आज तक कभी ऐसी कोई चर्चा होते नहीं सुनी कि मर्दों को शरीर ढंक कर रखना चाहिए ताकि वो औरतों की बुरी नज़र का शिकार न हों...मतलब आप ये मानते हैं कि बुरी नज़र सिर्फ मर्द की होती है बल्कि बातों से तो यूँ लगता है कि सारे मर्दों की बुरी ही होती है...तो भैया अगर रोग तुम्हे है तो इलाज की ज़रूरत भी तुम्हे ही है न...ऐसा तो है नहीं कि बुखार तुम्हे आएगा तो दवा अपने पडोसी की कराओगे.

4-      यहाँ एक और रिवाज़ चल निकला कि भई गुस्सा कहीं का भी और कैसा भी हो उसे निकालो औरत पर और अगर ज्यादा ही रंजिश है तो उसकी यौनिकता से बेहतर कोई विकल्प नहीं...वहीँ प्रहार करो क्यूंकि ये न सिर्फ़ उसकी बल्कि पूरे खानदान की ‘इज्ज़त’ है...मतलब ये कि दिमाग, समझ, व्यवहार, काम, या दिल, जिगर, गुर्दा, हाथ, पैर, आँख, कान, मन भर नसों और हड्डियों से भरे पूरे शरीर में आपको दिखा क्या- योनि...अब भई जब बच्ची हुई थी तब उसने तो कहा नहीं था कि खानदान की इज्ज़त को उसकी योनि में फिट कर दो...तो ये माजरा क्या है...कुछ भी नहीं आपकी मानसिक बीमारी का एक लक्षण मात्र है...और इसमें आप अकेले शामिल नहीं हैं...हर वो व्यक्ति इसमें शामिल है जिसके लिए शर्म हया लड़की का गहना हो जाते हैं...मर्दानगी की परिभाषाओं में तो शर्म का ज़िक्र होता ही नहीं...और न ही हमारे समाज में लड़कियों को विरोध करना सिखाया जाता है...उसे बताया जाता है त्याग, करुणा, सहनशक्ति, ममता, शर्म, सुन्दरता (जिसकी परिभाषाएं भी कोई अच्छी नहीं)...तो भई कुल मिलाकर औरत हुई सामान और मर्द को बनाया गया उसका मालिक.

5-      धर्म हुए, नियम कानून हुए, व्यवस्थाएं बनी, काम तय हुए...बात ये, कि ये सब किये किसने...कौन शामिल था जब ये सब तय हुआ...जब पुरुष घर का मुखिया और बेटा घर का चिराग हो गया...जब सती और जौहर के रिवाज़ तय हुए...जब पति स्वामी हो गया, जब औरत घर की चार दीवारी में सीमित कर दी गयी...जब उसके हिस्से धीरे धीरे सिर्फ सुनना, आदेश का पालन करना, बच्चे जनना और उनका पालन पोषण करना आ गया...उसे बुरा न लगे तो उसे देवी बना दिया...उसके क़दमों में जन्नत होने की बात कर दी...इस तरह एक लॉलीपॉप पकड़ाया और कहा गया बस इसमें ही खुश रहो. शरीर के हिस्सों को शर्म से जोड़ दिया और ज़िन्दगी भर उनकी हिफाज़त करने की हिदायत दे दी...पायल चूड़ी झुमके हार की खनखन और असहज कर देने वाले कपड़ों की भव्यता को तड़कीला भड़कीला बनाकर उसकी मोबिलिटी पर कण्ट्रोल कर दिया...उसने इन कैद की जाने वाली जंजीरों का मतलब न भांपा या यूँ कहें आपने चकाचौंध के साथ साथ ऐसा डर का माहौल बनाया कि उसके पास दूसरा विकल्प नहीं था...सिन्दूर न लगाया तो पति की जान ख़तरे में, व्रत न रखा तो बेटे की...अरे शादी से पहले ये मर्द कैसे जीवित था बिना औरत के सिन्दूर लगाए, मंगलसूत्र पहने...और बहन बेटियों के लिए व्रत का तो कोई कांसेप्ट मैंने आज तक न सुना न देखा

6-      कहां हैं आपके इतिहास में औरतें...बस ऋषि मुनि जैसे विद्वान् हैं...जिन्होंने रचा क्या गैरबराबरी से भरी पूरी किताबें...औरतें कहां थीं उस वक़्त...ऐसा नहीं था उनके पास दिमाग नहीं था...बात ये थी कि उनके पास मौका नहीं था...आज देखिये....कहीं भी किसी भी परीक्षा के नतीजे उठा के देख लीजिये...तमाम संघर्षों के बाद भी लड़कियां जब मैदान में उतरती हैं तो सैलाब बन जाती हैं...मुस्लिम साथी बात करते हैं कि उस वक़्त हमारे यहाँ इतनी तरक्की पसंद खयालात थे कि महिलाओं की ज़बरदस्त प्रतिभागिता थी...हर काम में उनका दखल था...व्यवसाय हो या युद्ध उनका दखल सब जगह था...तो भैया अब क्या हो गया...ज़रा अब अपने व्यवहार को देखो...अब देखो कितना आज़ादख़याल या खुला माहौल मिल रहा है लड़कियों को...कितने मौके मिल रहे हैं...इस्लाम के नियम, उनकी ‘मर्ज़ी’ और उनकी सुरक्षा के नाम पर उन्हें बुर्के के पीछे ढकेला हुआ है...अपने पहनावे में भी बदलाव न करते...और जब तुम शॉर्ट्स पहने टहला करते हों सड़कों पर, क्यूँ तब तुम्हारा इस्लाम खतरे में नहीं आता, तब तुम कूल कैसे हो जाते हो. ठीक ये ही बात घूंघट पर जाती है.

ये कैसी व्यवस्था या सोच है तुम्हारी कि लड़कियां तुम्हे वो पसंद आती हैं जो मॉडर्न हों, अक्लमंद हों...आज मिलें, कल डेट करें, देर रात साथ घूमें और परसों बिस्तर पर पहुँच जायें...न पहुंचे तो पिछड़ी हुई...पर हाँ अक्लमंद कितनी भी क्यों न हों बहस न करें...प्रेम के मायने कितने फ़र्क कर दिए गए... और ये ही परिभाषाएं बदलते देर नहीं लगती जब बात घर की औरतों की हो...उनका घर से बाहर आना जाना, पहनना ओढ़ना, व्यवहार, काम काज सब परम्परागत...बाकी छोड़िये कल तक जो मॉडर्न गर्लफ्रेंड थी वो भी अगर बीवी बन जाए तो उसे भी अपनी सीमाएं समझ लेनी चाहिए...और अगर कभी इसपर बात छेड़ी जाए तो कहा जायेगा हम तो मना करते हैं पर वो अपनी मर्ज़ी से ऐसा करती हैं...अगर वो अपनी मर्ज़ी से ऐसा करती भी हैं तो क्या आपकी ज़िम्मेदारी नहीं की आप उन्हें जागरूक करें...आप उन्हें विमर्श में शामिल करें...उन्हें दुनिया भर में हो रहे बदलाव और उसकी ज़रूरत के बारे में बताएं...पर नहीं आप उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए बुर्के या ऐसी किसी भी बात को उनकी पहचान या सुरक्षा से जोड़ देते हैं और अपने तरक्कीपसंद दोस्तों के बीच आकर बेचारे बन जाते हैं.    

बातें बराबरी की होनी चाहिए...हर पीछे छूटे व्यक्ति को मुख्यधारा में लाने की होनी चाहिए और सिर्फ बातें नहीं कोशिशें और काम होने चाहिए....कभी संपत्ति में अधिकार की बात हो तो दिक्कत हो जाए, वो हक के लिए आवाज़ उठाये तो बुरी हो जाए...एक बेचारे बेसहारा को तरस खाकर जितना दिया जाए वो उसी में खुश रहे- कुछ ऐसी ही सोच है इस व्यवस्था की...वो ढंकी रहे और सिर्फ तब दिखे जब आप देखना चाहें, तब नहीं जब वो दुनिया देखना चाहे...अपने हिसाब से...धूप में तपना चाहे, बारिश में भीगना चाहे...बाहें फैलाए और भर ले भीगी मिट्टी की खुशबू अपने भीतर...आप सोच भी कैसे पाते हैं कि आप दूसरे के जीवन को कंट्रोल करें...आप तय करें उसके लिए...और धर्म को सबसे बड़ा हथियार बना लें...नहीं बनना वो कमसिन हूर परी...हमें क्या बनना है ये हम तय करेंगे...न तुम न तुम्हारा धर्म...जिस धर्म में बराबरी न हो...जिसकी पहचान जालीदार टोपी, दाढ़ी मूंछ, बुर्के, तिलक, और चार मंत्रो तक हो, हम उसे खारिज कर देंगी...जाओ कर लो शिकायत उस ख़ुदा और भगवान् से जिसे तुमने मंदिर के घंटों, मूर्तियों, और मस्जिद की सीढ़ियों तक सीमित कर दिया है...तुम्हारा ईश्वर फ़र्क है        

तुम दस लड़कियों से सम्बन्ध बनाओ तो कुछ नहीं पर अगर लड़की के एक से ज्यादा सम्बन्ध रहे तो उसका चरित्र खराब...इस तरह की और तमाम सारी बातें हैं जो तुम्हारे व्यवहार और तुम्हारी सोच के साथ साथ इस व्यवस्था की चालाकियों का खुलासा करती हैं...तभी तो कल तक बेहद अक्लमंद लगने वाली लड़की रंडी या रंडी की औलाद हो जाती है...जिसे आपने रंडी कहा उसके साथ जुड़ने वाले मर्दों या उसके रंडी होने का कारण बनने वाले मर्दों को आप क्या कहते हैं...बाप दादा भाई की यौनिकता पर हमले वाली गालियाँ क्यूँ नहीं...उनके लिए नामर्द होना गाली है...हमे हर वो शास्त्र और साहित्य जलाना है जो बराबरी को कहीं भी किसी भी रूप में रोकता है, गलत बताता है...और जिस योनि को गालियाँ देते हो, याद रखो तुम्हारा वो अंग जिस पर इतना गुरूर है तुम्हे वो क्या तुम भी इस दुनिया में न होते अगर ये योनि न होती...व्यवस्था गलत है, उसका विरोध करो...जहाँ गलत है, वहां विरोध करो...सही गलत को सहूलियत के हिसाब से नहीं चुना जाता...गर तुम ऐसे स्वार्थी हो तो दूसरों को किस मुंह से गलत कहते हो, उनके दमनकारी व्यवहार के ख़िलाफ़ क्यूँ बोलते हो...खुद के भीतर झांको और खुद को जवाब दो हम तो असलियत देख चुकीं....आखिरी बात...तुम्हारे कहने से आज तक न हम देवी हुईं न हमारे क़दमों में जन्नत आई...तो भैये तुम्हारे कहने से रंडी भी न होने की....तुम खुद को संभालो तुम्हारे लिए वही बड़ा काम है.