रविवार, 25 नवंबर 2018

दिल के कोने में यादों समेत महफ़ूज़ 'कोने अंकल'

सारे ही काम तो हो रहे हैं, कुछ भी तो नहीं रुका...खाना पीना, सोना जागना, हँसी मज़ाक बल्कि घूमना फिरना भी...ये क्या है जो कल से बवंडर सा मेरे भीतर घूमे ही जा रहा है...इधर उधर की जाने किन किन बातों को अपनी ओर खींचता और तेज़ रफ़्तार का तूफ़ान लाता हुआ...बचपन की यादें बेहद धुंधली हैं ज़्यादातर याद ही नहीं...जो याद हैं उनमें भी अधिकतर दुस्वप्न सी हैं...पर मेरी उन तमाम यादों में एक शख्स़ की याद है जो बहुत बहुत प्यारी है, मेरे लिए बेहद ख़ास और मेरे बचपन की यादों का एकमात्र हिस्सा जो ख़ूबसूरत भी था और याद भी है...कोने अंकल !


उदयगंज के उस किराये के घर में बीच में एक बड़ा बरामदा था और चारों तरफ़ किरायेदार...कुल मिलाकर 4 परिवार...हमारे सामने की ओर दाहिने कोने में वो अंकल रहते थे...उनका परिवार ग़ाज़ीपुर में रहता था...वो सचिवालय में कार्यरत थे तो यहाँ अकेले रहते थे...एक छोटा कमरा और उसके आगे आंगन...कमरे में दाख़िल होते ही ठीक सामने अंकल के माता पिता की तस्वीर दीवार में टंगी दिखती...बायीं तरफ़ एक तख़्त जिसमें हल्की रंगीन धारियों वाली एकदम साफ़ सुथरी चादर बिछी रहती थी...कुछ ऐसे कि उनकी सिधाई आप स्केल से भी चेक कर लें...तख़्त के बगल में दीवार में बनी अलमारियाँ...तब लकड़ी की अलमारियाँ आमतौर पर चलन में नहीं थीं...उन अलमारियों में कुछ बांसुरियां रखी रहती थीं...अलग अलग साइज़ की...अंकल फ़ुर्सत में होते तो कभी कभी बजाया करते...नीचे की अलमारियों में किताबें...बायीं ओर की अलमारियों की तरह उस दीवार के दाहिने कोने में भी अलमारियाँ बनी थीं...लैय्या मूंगफली की नमकीन, सेंव, गुड़ से बनीं कुछ चीज़ें और ऐसा ही और सामान काँच की साफ़ सुथरी बोतलों में रखा रहता...अलमारी के बगल में टेलीविजन जिसमें लकड़ी के खिसककर बंद करने वाले शटर होते थे...टीवी के ऊपर एक साफ़ सुथरा कपड़ा बिछा होता, उसके ऊपर एक चपटा लम्बा टेपरिकॉर्डर, बगल में एल्युमीनियम का छोटा सा बक्सा जिसमें कैसेट रखे होते...इसके बगल में एक बड़ा सा बक्सा....उस छोटे से एक कमरे में कुल मिलाकर बेहद करीने से रखा बस ये ही सामान था...तख़्त और बक्से दोनों के बगल में खिड़कियाँ थीं...रसोई बाहर आंगन में थी...और बक्से के सामने वाली खिड़की में आंगन की तरफ़ से कूलर रखा था जिसपर गहरे हरे रंग का पेंट था...बर्तन धोने के लिये बाल्टी मग आंगन के दाहिनी ओर...ईमानदारी से कहूँ तो मुझे अपने घर की व्यवस्था और परिवार के लोगों के व्यवहार इतने अच्छे से याद नहीं है...और ये भी सच है कि आज तक मैंने कभी इतना सुव्यवस्थित घर किसी का भी नहीं देखा...बचपन में जिस माहौल में मैं थी उस हिसाब से इस घर में तमाम चीज़ें देखकर मन में कौतुहल होना या मेरा उत्साहित होना लाज़मी भी था.. 

मुझे नहीं पता क्यों मैं उनकी ऐसी लाडली थी...बाज़ार जाते तो साथ ले जाते...दफ़्तर से घर आते तो मैं उनके घर पहुँच जाती...वो कटोरी में मुझे लैय्या मूंगफली की नमकीन देते और उठाकर बक्से के ऊपर बैठा देते कि मैं कूलर की हवा भी खा लूं और खिड़की से उनसे बातें भी करती रहूँ......ख़ुद बाहर रसोई में अपने लिए रात के खाने की तैयारी करने लगते...आटा गूंदने के बाद पहले उसकी छोटी छोटी गोलियां बना लेते फिर एक एक करके रोटियाँ बेलते...एकदम गोल...जब जब मछली बनाते अपने घर से आवाज़ दे देते कि आज तुम्हारी दावत यहाँ है...काँटे वाली मछली कैसे खायें ये भी सिखाते...उनके हक़ से आने वाले इस न्योते पर मेरे शाकाहारी परिवार ने कभी कोई रोक टोक नहीं की...पूरे घर में बस उनके पास ही कैमरा था तो कभी कभी फ़ोटो भी खींचते...सारे किरायेदारों में आर्थिक रूप से वे सबसे बेहतर थे...आंटी ग़ाज़ीपुर में सरकारी इंटर कॉलेज में प्रिंसिपल थीं...उस घर में सबसे पहले स्कूटर उनके पास ही आया था..बादामी रंग का एलएमएल वेस्पा...रविवार का दिन ख़ास होता था फ़िल्म और तमाम धारावाहिकों की वजह से...उस दिन उनके कमरे की फर्श पर एक चटाई बिछती जिसमें घर के बाकी सारे बच्चे और कुछ बड़े बैठते...मैं तख़्त पर अंकल की गोद में बैठती...और इस बात का मुझे मन ही मन घमंड भी था....

उन्हें क्या कह कर बुलाना चाहिये ये मुझे क्या पता होता...मैं पैदा होते ही उसी घर में आई थी तो वही पली बढ़ी थी...ये सब बातें किसी ख़ास उम्र की नहीं, हों भी तो मुझे याद नहीं...पर उनका घर कोने में होने के चलते उनका नाम कोने अंकल रख दिया था और उसके बाद तो घर के बच्चे बड़े सब उसी तरह बुलाते...ऊपर माया बुआ के वो कोने वाले भाई साहब हो गए, माताजी के कोने वाले भैया और हमारे कोने अंकल...जाने कितने सालों तक तो मुझे पता भी नहीं था कि उनका असली नाम घनश्याम वर्मा है...मेरे लिए वो हमेशा ही कोने अंकल रहे...

हमारा परिवार वहां से अपने घर आ गया...उसके बाद कुछ समय के लिए वे उस किराये के घर में हमारे वाले कमरों में चले गए थे...ऐसा नहीं था कि बचपन में मैं बड़ी बातूनी थी या वो बहुत गप्पें मारते थे...हम बात करते थे क्या बात करते थे, ये याद नहीं...पर मैं बेहद सहज होती थी, मुझे अच्छा लगता था ये याद है...बहुत साल पहले वो लिली दीदी (उनकी बेटी) के साथ आये थे मिलने...अब उतनी बात नहीं हुई...मेरे भीतर एक संकोच सा आया पर आदर और प्यार में कहीं कोई कमी नहीं थी...सब अपने अपने जीवन में व्यस्त होते गए...पर मेरे ज़ेहन में वे हमेशा रहे...रिटायर होकर वे ग़ाज़ीपुर चले गए थे और मेरे पास कोई संपर्क ही नहीं था...कितनी मशक्कत के बाद उन्हें फ़ेसबुक पर ढूँढा था...पापा से भी बात करवाई...मेरी तस्वीरों पर वो कुछ कमेंट कर आशीर्वाद देते रहते...सुना कुछ महीनों पहले लखनऊ आये थे और मिलना चाहते थे...साधन न होने की वजह से नहीं आ पाए...जाने क्यों फ़ोन नहीं किया या कोशिश की और संपर्क नहीं हुआ...

कल पापा पुराने मोहल्ले की तरफ़ गए थे...बताया गया कोने अंकल नहीं रहे...दो महीने पहले गुज़र गए...मेरे भीतर के एक रंग रौशनी रौनक भरे हिस्से में अचानक अँधेरे से भरा गहरा सन्नाटा खिंच गया...मेरे बचपन का सबसे प्यारा और एकलौता इतना ख़ूबसूरत हिस्सा मानो किसी ने छीन लिया हो...ज़िन्दगी के उस अजीबोग़रीब वक़्त में वो एक समय था जिसे ऑक्सीजन कहा जा सकता है....भीतर क्या कुछ हो रहा है कि किसी को बताना मुश्किल है, अजीब सी स्थिति है..अफ़सोस, दुःख, पीड़ा, शॉक पता नहीं...जाने कौन कौन सी स्मृतियाँ लौट लौट कर आ रही हैं...कहा न काम कोई नहीं रुका पर भीतर कुछ थम गया...समझाना भी मुश्किल है और किसी का समझना भी...वो मेरे लिए कितने ख़ास थे ये तो मैं कभी उन्हें भी नहीं बता पायी...जब हर किसी से मैं दूर भागती थी उस एक वक़्त उनके साथ मैं एकदम सहज सुरक्षित होती थी...अपने परिवार के सदस्यों की भी इतनी महीन यादें नहीं मेरे ज़ेहन में, पर उनकी हैं....मुझसे उनका जुड़ाव भला कैसे कम होगा...उनके गले लगकर शुक्रिया कहने की तमन्ना ही रह गयी...जिन्हें मैंने ‘कोने अंकल’ नाम दिया था उन्होंने एक दिन अपने यहाँ बर्तन धोते हुए मेरी माँ से कहा था.... “इसका नाम रखिये...रश्मि !”