शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

कभी न भूलती वो एक जोड़ा कजरारी आंखें


अपनी लाडली संग नानी
चौक में लगे नीम के नीचे चारपाई पर बैठी बड़े ही विस्मय और कौतुहल से मैं उसकी कजरारी आँखें देखती और मन में सोचती कि नानी ने कितना सुन्दर काजल लगाया है इसके...सुबह सुबह ही लगा देती हैं क्या कि कभी देखा ही नहीं...फिर फुदकते हुए नानी के पास पहुँचती और पूछती कि गाय के काजल उन्होंने लगाया क्या...वो बालमन के सवाल पर हंस देतीं और मेरे आगे के सवालों से बचने के लिए कह देती हाँ....पर इससे तो और सवाल उपज जाते...कब लगाती हो, कैसे लगाती हो, रोज़ लगाती हो, सब लोग अपनी अपनी गाय के लगाते हैं, इससे क्या होता है...ऐसी झड़ी कि नानी खीझ जातीं...मैं वापस चारपाई पर आती और फिर उतने ही ध्यान से उन बड़ी बड़ी सुन्दर कजरारी आँखों को निहारने लगतीउसकी पूँछ के काले सफ़ेद बाल देख नानी को बताती कि देखो ये बुड्ढी हो रही है...

फिर कुछ समय बाद एक बछिया हुई....सफ़ेद, छोटी सी, छोटा सा मुंह, छोटे छोटे खुर और नन्ही सी पूंछ...वो गाय के आगे पीछे घूमा करती...और मैं उसके आगे पीछे...ऐसे मचल उठी थी मैं उसे देखकर...कित्ती प्यारी है ये....अरे इसकी आँखों पर भी काजल लगा है और ये तो गाय से भी ज़्यादा सुन्दर है...अपनी नन्ही मुट्ठियों में भर कर मैं बार बार उसको चारा देती...नानी से कहती उसे प्यास लगी होगी चलो पानी पिलाते हैं...बचपन में काम करने का कुछ ज़्यादा ही चाव होता है..बड़े लोगों जैसा....मेरे लिए एक छोटी बाल्टी रख दी गयी थी...तो बस उसमे भर कर बछिया के लिए पानी लाना...इस घर में अब एक नयी दोस्त आ गयी थी और अब मुझे बाहर जाने की ज़रूरत नहीं थी...मैं सबको चहक चहक कर बताती कि पता है हमारे घर में सुन्दर सी बछिया आई है...अब भला गाँव के बच्चों के लिए इसमें क्या नया था...वो मेरी नादानी पर हंस देते और मैं मुंह बना लेती...हाँ मामी लोग मेरी ही तरह चहक कर पूछतीं...अच्छा क्या सच में?? कब आई? कैसी दिखती है? हमें भी दिखाओगी? और बस मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं...   

जो काम नानी करती वो मुझे भी करना होता....मैं कोई छोटी बच्ची थोड़े ही न थी...पानी लाया जाता तो एक छोटी बाल्टी मेरी, चारे का गट्ठा (बिठुग) होता तो एक छोटी बिठ्गी मेरी, तसले में गोबर उठता तो छोटा तसला मेरा भी होता, चौक की लिपाई होती तो नन्हे नन्हे हाथ भी गीली मिट्टी और गोबर संग फिसल रहे होते और रात को रोटियाँ सिकतीं तो छोटी छोटी टेढ़ी मेढ़ी रोटियां मैं भी बनाती...नानी गाय के लिए बनाती तो मैं बछिया के लिए...वो बर्तन धोतीं तो मैं धुले बर्तन अन्दर रखती...बस फिर खाट में उनसे चिपके, तारों, जुगनुओं को निहारते और नानी की कहानियां, लोरियां सुनते सो जाती...

जब बड़ी हुई तो बछिया एक बड़ी तंदुरुस्त गाय में तब्दील हो चुकी थी, ये बड़े बड़े सींग, सबको मारने को आती, उसे बस मेरी नानी ही खिला पिला सकती थीं या एक से दूसरे खूंटे में बाँध सकती थीं...हाँ लाठी लेकर नानाजी भी ये काम कर लेते थे...जब नानी दूध दोने को बैठतीं तो कई बार वो इधर उधर करने लगती...तो पहले उसे डांट पड़ती.... “गौड़ी...देख ले हां”...वो मज़े लेती और तब भी न सुनती तो नानाजी लाठी लेकर खड़े हो जाते...उसके बाद वो एकदम शरीफ बच्चे की तरह सीधी रहती.. बचपन में मैं ये प्रक्रिया बड़े ध्यान से देखती थी और वो दूध के ऊपर उठता झाग देखकर कितना खुश होती थी...गुड़ के साथ गरम दूध मिलता था, गुड़ वाली खीर बनती थी, छांछ, मक्खन, गरम गरम घी और घी के बाद बचा वो सुनहरे रंग का महियर...चीनी मिलाकर खाने में क्या तो स्वादिष्ट लगता था..रोटी के अंदर रोल बनाकर...वाह..जैसे अभी अभी जैसे जीभ में स्वाद घुल गया हो...

ये गाय बड़ी नखरीली थी...या यूँ कहें कि नानी ने नखरे उठाये तो वो ऐसी होती गयी...ऐसी लाडली...ज़रा देर धूप न लगे, ज़रा बौछार पड़ी नहीं कि गौशाला में बाँध दो, हैण्ड पंप का पानी पिलाओ, किसी का जूठा नहीं...उसकी अपनी बछिया का भी नहीं...सिर से मारकर गिरा देती थी बाल्टी....सारे गाँव के गाय भैंस नहर जाते पानी पीने और इनके लिए बूढ़े नानी नाना हैंडपंप से पानी लाते, ताज़ा चारा, दाल चावल रोटी सब्जी, आटा गुड़...सब चाहिए होता था...गुड़ तो अलग से इनके लिए बनवाया जाता था...कई बार नानी उसके बगल में बैठी बतियाया करती, उसे ज़रा सहलातीं तो वो गर्दन को लम्बा कर आगे बढ़ा देती और आँखें मूँद लेती...नानी बातें करती और उसे सहलाती रहती...वो आँख मूंदे तसल्ली से सब सुना करती...

मेरी मां और इस गाय में शिकायत भरा रिश्ता रहा...जैसा दो बहनों में होता है न..कि मां तुम मुझसे ज़्यादा प्यार उसे करती हो...बिलकुल वैसा...होना लाज़मी भी था...मेरी नानी कभी हमारे पास यहाँ रहने नहीं आयीं क्यूंकि गाय थी, कभी आराम नहीं करती थीं, क्यूंकि गाय की सेवा करनी होती थी...पिछले साल ही जब दोपहर को उनके बगल लेटी थी तो वो कह ही रही थीं...“मि त रात दिन बुलुद कि म्यार रैंदी रैंद चल जांद न ये त मि अपर समण खड्या दीन्द...ये गौड़ थे कैल नि रखण...पाणी भि नि दीण”...उन्हें रात दिन ये ही फ़िक्र सताती थी कि उनके बाद इस गाय का क्या होगा...एक बार दोनों बिछड़े थे तो दोनों ने खाना पीना छोड़ दिया था...गाय को कोई कुछ कह देता तो बढ़िया वाली फटकार मिलती...मेरी नानी का जीवन पूरी तरह से गाय और नानाजी के इर्द गिर्द था...गाय उन्हें उनके ब्याह के गौदान में मिली बछिया की पीढ़ी थी...तो 70-71 सालों का साथ था इस पीढ़ी के साथ...फिर तो ये लाड़ दुलार भी लाज़मी था और अपनी जगह मेरी मां की शिकायतें भी..

पर क्या खूब साथ प्यार और साथ निभाया तुम तीनों ने...नाना गए तो हम लोगों की तमाम कोशिशों के बाद भी तुम नहीं रुकी और आहिस्ता से हाथ छुड़ाकर यूं गयी कि आज भी तुम्हारी ठंडी हथेलियों का अहसास बिलकुल ताज़ा है मेरे हाथों में मेरे ज़हन में...अभी जैसे कल की ही बात हो कि तुम मेरी गोद में थी...बचपन से लेकर बड़े होने तक का फ्लैशबैक है कि थमता ही नहीं...इतना ताज़ा कि यहाँ कुछ ब्लैक एंड व्हाइट नहीं...सब एकदम साफ़ रंगीन...तुम्हारी तस्वीर पर उँगलियाँ फेरते वक़्त आज भी आँखें और दिल भर आता है और एक सिहरन सी दौड़ जाती है उँगलियों के रास्ते पूरे जिस्म में...नाना को गए तीन महीने हो गए और तुम्हे होने वाले हैं...जाने यकीन क्यूँ नहीं होता...जब तुम गयी थी तब ही लोग कहने लगे थे अब ये गाय न रह पाएगी....कैसी खामोश हो गयी थी वो...उसकी खामोशी देख रोना आने लगता था...कल तक जो किसी को पास फटकने नहीं देती थी आज उसे कोई भी बाँध ले रहा था, खिला ले रहा था....वो सब समझ गयी थी...मां की चिंताएं अब अलग हो गयी थीं कि कैसे रह पाएगी गाय उनके बिना...वो ये सोच सोचकर रो देतीं...पड़ोसियों ने पहल की और अपने यहां ले गए...मां पापा को आये 10 दिन ही तो हुए थे कि पापा लौट गए थे वहां...उसी दिन उसकी तबियत बिगड़ गयी थी...और ऐसी बिगड़ी कि सुधरी नहीं..मानो इंतज़ार कर रही हो अपनों का...खाना पीना छोड़ा तो कमज़ोर हो गयी...गिर गयी तो घाव हो गए...पापा अपने घर ले आये थे...महीने भर से रात दिन सेवा करते...थोड़ा थोड़ा करके खिलाते पिलाते रहते...दवाइयां करते, चोटों पर मरहम लगाते, अब कुछ दिन से छोटे बच्चों की तरह बोतल से पानी पिलाने लगे थे...वो उठ नहीं पाती तो बगल वाले मामाजी की मदद से उसको खिसकाकर उसके नीचे का पुआल बदलवाते...बारिश ऐसी कि रुकने का नाम न ले...खेतों में मेढ़ें टूट गयीं...बारिश ने दिक्क़तें और बढ़ा दीं...वो फैल कर लेट गयी थी इसके लिए गौशाला घुटन भरी हो जाती...बाहर ही शेड बनाया गया...5 दिनों से खाना पीना बंद कर दिया था...एक दिन थके हारे पापा अपने लिए चाय बनाकर लाये और साथ में रस्क...जाने क्या दिमाग में आया कि क्या पता गाय भी खा ले...एक दिया तो उसने खा लिया...बेचारे बगल से फ़ौरन एक पैकेट खरीद कर लाये...उसे खिलाया बोतल से पानी पिलाया तब ख़ुद चाय पी...अब पापा के रात दिन उसके इर्द गिर्द होते...वो कहते मां ने जीवन भर इतनी सेवा की है...इतना लाड़ प्यार से पाला है ऐसे कैसे छोड़ दें...गाय की जगह इंसान होती तो क्या छोड़ देते...परिवार की सदस्य है ये भी...जाने क्या चलता रहता था दिमाग में कि गर्दन लम्बी कर लेटकर सारा वक़्त रसोई की तरफ़ ताका करती...मन बांवरा होता है जैसे सब कुछ जानते हुए मैं उम्मीद पाले बैठी थी कि तुम बोल पड़ोगी, लौट आओगी...वो तो फिर मुझसे कहीं बढ़कर थी...वो तुम्हारी राह तकती रहती कि तुम अभी रसोई से निकलो और फिर उसे सहलाओ...तुम न आयीं और तुम्हारी बाट देखते देखते वो ही तुम्हारे पास चली गयी...कल की रात उसकी हम इंसानों के बीच आख़िरी रात थी.

मैं कभी तुम तीनों की एक दूसरे के बिना कल्पना नहीं कर पाती थी...कैसे करती कभी अलग अलग देखा ही नहीं था...दीदी की शादी में तुम आई थी और विदाई होते ही रट पकड़ ली थी लौटने की....ऐसा जुड़ाव एक दुसरे से कि अलग रह ही नहीं पाते थे....मुझे खूब याद है घास के गट्ठे लिए अभी हम दूर होते थे...पर जाने ये गाय कैसे जान जाती थी कि पुकारना शुरू कर देती थी...हम लोगों तक उसकी आवाज़ पहुँचने लगती...उस घर में तुम्हारे और नाना के बाद परिवार की वो ही एक सदस्य रह गयी थी जिसमें मैं तुम्हारी कल्पना करती...पर भला वो भी इस सदमे और बिछोह को कैसे सहती...मैं जब जब उसके कष्ट के बारे में सोचती थी तो आँखें भर जातीं...पर आज सुबह फ़ोन पर जब उसके जाने की ख़बर मिली तो दिल धक् से हो गया...जैसे एक पल को सब रुक गया हो....हम इसे भी नहीं रोक पाए...बचपन की यादों की जिस किताब को सीने से चिपकाए रहती हूँ...उसके पन्ने ये कैसी कैसी कहानियाँ समेटते जा रहे हैं...मैं इसे और कसके थाम लेती हूँ...कि कोई पल न बिखरे....अलविदा मेरी एक और साथी....याद आ रही है बचपन की वो दुपहर...छोटी बाल्टी में मेरा तुम्हारे लिए पानी लाना...नन्ही हथेलियों में चारा बटोर लाना...फिर खाट पर बैठना और विस्मय से तुम्हारी कजरारी आंखें निहारना...नानी तुम कितना अच्छा काजल लगाती हो!!              


मंगलवार, 9 जून 2015

क्यूंकि... तू नहीं थी तेरे साथ एक दुनिया थी...

1

“उठ ल्यो रे अफार लोग कबती पूड़ों म चल गीं” (उठ लो रे, वो देखो लोग कब का खेतों में चले गए)....नानी के यहां की सुबह अक्सर इसी डांट से होती...हम लोग अलसाए करवट बदलते हुए कहते कि उन्हें तो खेत में जाना है हम भला क्यूँ जल्दी उठें...और फिर सो जाते...ये अलग बात है कि इतनी चहल पहल में नींद फिर आना मुमकिन नहीं होता था....अन्दर से उठकर आते और बाहर अलसाकर मोढ़े में बैठ जाते...जहां से अपनी वो दुबली पतली छोटी सी नानी कुछ न कुछ काम करती दिखती रहती...अगर बाहर सोये होते तब तो उजाला अपने आप सुबह उठा देता था....नानी हर मौसम में ठीक चार बजे उठ जाती थीं....उधर गुरुद्वारे में गुरबानी शुरू होती इधर नानी बिस्तर छोड़ देतीं....मैं पिछले 32 सालों से ये ही क्रम देख रही थी...वो उठतीं...चाय बनातीं, पीतीं, पूरे आँगन में झाड़ू मारतीं, कूड़ा जलातीं, गाय का गोबर उठातीं, उसे चारा डालतीं और फिर चाय की केतली दुबारा चूल्हे पर चढ़ जाती...चाय की ऐसी शौक़ीन कि क्या कहिये...मेरे ननिहाल में नाश्ते में लोग रोटी सब्ज़ी या चाय रोटी जैसा कुछ खाकर खेतों पर निकल जाते हैं...नानी भी रोटी खातीं...चूल्हे पर दाल चढ़ातीं, गाय को छांव वाले खूंटे पर बांधतीं, दरांत उठातीं और मुंडेड़ा बांधे खेत के लिए निकल पड़तीं. 

मैं भी उनके साथ जाती थी...हमारे लिए ये घूमना भी होता था और इसका चाव भी बहुत होता...छोटी नहर के बगल बगल उनके साथ साथ चलती...उचक कर नहर देखती तो नानी डांटतीं...बड़ी नहर के ऊपर वाला संकरा पुल पार करते...मैं तो डरते डरते करती...नानी आराम से...और उसके बाद आगे फिर छोटी नहर के बगल बगल खेतों से होते हुए अपने खेत पहुँचते....नानी अपना मुंडेड़ा कसतीं और चरी के बीच जाने कहां गायब हो जातीं... 

मैं खेत में इधर उधर फुदका करती... ढों के पेड़ के नीचे बैठ जाती...ननि ननि करती उन्हें ढूंढती फिर उनके पीछे पीछे रहती...वो चारा थोड़ा थोड़ा काटकर आगे बढती रहतीं और मैं अपनी नन्ही हथेलियों से उन छोटी छोटी गड्डियों को एक जगह पर इकठ्ठा करती जिसका बाद में बड़ा गट्ठा बनाया जाता...नानी एक छोटा गट्ठा मेरे लिए भी बनातीं...जब ज़रा बड़ी हुई तो ख़ुद ही काट लेती थी...

बचपन में लौटते में कभी बोरिंग तो कभी नहर में नहाकर आती...घर आकर मशीन में कुटी (चारा) कटवाती...वैसे आमतौर पर ये काम शाम को होता था...जब मशीन में चारा ज़्यादा लग जाता तो एक तरफ नानाजी और एक तरफ मैं पकड़कर मशीन चलाते...बाद में नानाजी नहीं कर पाते थे...जिन दिनों नानी अस्पताल में भर्ती थीं गाँव के लोग कहते थे कि इतने समय में तो जाने कितना गन्ना छील देतीं...मैं अपनी नानी की कार्यक्षमता देखकर हैरान रह जाया करती थी...

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इस घर को पहली बार बिना नानी के देख रही हूँ...पहली बार यहाँ ताला लगा देखा है...दिल धक् से बैठ गया...कुछ वैसा मानो आप कई दिनों बाद अपने घर लौटें और घर का सब कुछ चोरी हो गया हो...मन अभी भी नहीं मान रहा कि नानी अब हमारे बीच नहीं हैं...घर के कोने कोने में तलाश रही हूँ और हर एक शय से वो झांकती दिख रही हैं...कभी लगता है पीछे के आँगन में चरी काटती होंगी...कभी लगता है अभी छन्नी (गौशाला) से भूसे का टोकरा उठाये निकलेंगी...लगता है कभी रसोई में शाम की चाय बना रही होंगी और अगर कहीं भी नहीं दिख रहीं तो खेत से अभी लौटती होंगी...उनकी गाय मायूस सी खामोश लेती है...उसे सब पता है...उसे पालनेवाली उसे इतने दिनों से नहीं दिखी...जिस गाय के दूर दूर तक कोई नहीं फटकता था अब वो किसी को नहीं मारती...कोई भी चारा डाल ले रहा है पानी पिला ले रहा है, दूसरे खूंटे में बाँध दे रहा है...इन जीवों के पास हमारी भाषा नहीं पर संवेदनशीलता, भावनाओं, प्रेम और रिश्तों को निभाने में इनका कोई सानी नहीं...

कहां कहां तलाशूँ तुम्हे नानी...ख़ुद तुम नहीं जानती थी अचानक ऐसा कुछ होने वाला है...बरसात के मौसम की पूरी तैयारियां कर रखी थी तुमने...लकड़ियाँ काट के सुखा रखी हैं...उपले बना रखे हैं...देखो तो उनसे भी तुम्हारी उँगलियों के निशान कैसे झांकते हैं...कितना सारा प्याज़ हुआ तुम्हारी क्यारियों में इस बार, लहसुन भी और सब बता रहे थे कि थैले भर भर के तुमने बैंगन भी बांटे  थे...

आज सुबह सुबह उठी तो पहली बार तुम मुझे नहीं दिखी...गुरबानी भी आज नहीं भा रही थी...पहले तो जैसे ही सुबह उठकर करवट बदलती थी जाली वाली खिड़की के पार या तो तुम मुझे चाय पीती दिख जातीं या अपनी गाय से जुड़ा कोई काम करते...आज दिख ही नहीं रही थी...मैं रो पड़ी...तुम्हे ऐसे नहीं जाना था….

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बीती बातें कैसे याद आती हैं...कुछ दिन पहले तक तुम मेरे साथ थी...पिछली बार जब यहाँ से लौटी थी तो लिपट के किस कदर रोये थे...नाना का जाना एक बड़ा सदमा था...मैं समझाने की एक नाकाम कोशिश भर ही कर सकती थी...तुमसे वादा किया था कि जल्दी आउंगी...अपना ध्यान रखना...मैं तो जल्दी आ गयी पर तुमने वादा कैसे तोड़ दिया...नहीं पता था कि अगली बार तुम्हें यूँ बिस्तर पर पड़े, ज़िन्दगी मौत के बीच जूझते देखूंगी...किस क़दर कमज़ोर हो चुकी थी तुम...पीली पड़ती जा रही थी...बल्कि उस दिन भी ये तो पता था कि तुम बीमार हो पर मैं पूरी तरह आश्वस्त थी कि तुम ठीक हो जाओगी और घर साथ लौटोगी....उस एक हफ़्ते तुम्हारे सिरहाने बैठे, तुम्हारा हाथ थामे, तुम्हारा सिर सहलाते यादों वो 32 साल मेरी आँखों के आगे से गुज़र रहे थे...तुम्हारा यदा कदा बातें करना या फिर गुस्साना भी मन को मज़बूती दे रहा था कि तुम ठीक हो रही हो...उस दिन जब तुम बैठ पायी थी तो जी कैसा ख़ुश हो गया था...लगा था कि बस दो चार दिन और फिर तुम घर पर होगी हमारे साथ.....तुम्हारी वो बच्चों जैसी बातें हिम्मत बाँध रही थीं...पर जाने अचानक ये क्या होता गया...तुम्हारा कराहना, तुम्हारा दर्द से तड़प जाना भीतर तक तोड़ दे रहा था...ज़रा आराम मिलता तो फिर तुम इशारों में जवाब देती...तुम्हारा बोलना इशारों तक सीमित हो गया था...मैं तिल तिल टूट रही थी पर जैसे लग रहा था तुम्हें जाने नहीं दूंगी...किस कदर डर गयी थी मैं कि लगता था एक पल के लिए भी पलकें न झपकाऊं...दर्द, थकान कुछ नहीं था बस ये लग रहा था किसी तरह तुम दुबारा उठ खड़ी हो....मैं इतनी कमज़ोर कभी नहीं हुई और सच कहूँ तो इससे पहले कभी ख़ुद मुझे भी ये अहसास नहीं हुआ था कि मैं तुम्हें इतना ज्यादा प्यार करती हूँ....मैं तुम्हारा हाथ कसके थामे हुए थी...तुम्हे एकटक देख रही थी न...फिर तुम कब और कैसे चली गयी कि मुझे खबर तक नहीं हुई....कैसे टटोल रही थी मैं तुम्हारी उंगलियाँ कि शायद कुछ हरकत हो जाए...शायद दर्द से ही सही तुम एक बार कुछ कहो और ये सारे के सारे लोग झूठे साबित हो जाएँ....तुमसे लिपटी तुम्हारा हाथ थामे मैं तुम्हे पुकार रही थी पर तुम कोई जवाब ही नहीं दे रही थी...ये सब लोग जब तक तुम्हे ले नहीं गए मुझे लगा तुम कुछ तो बोल पड़ोगी....इंसान प्यार में कैसा हो जाता है नानी...मैं तुम्हारे होने की उम्मीद अब भी पाले हुए थी जबकि तुम तो कहीं दूर जा चुकी थी...


तुम्हारी उन खुरदुरी हथेलियों का का स्पर्श अभी तक ज्यूं का त्यूं है...गांव के हर व्यक्ति के पास कितने किस्से हैं सुनाने को...और मैं सब कुछ सुनती हुई अपनी कल्पनाओं में उन किस्सों को जीवंत देखती जा रही हूँ....जब इन लोगों को यकीन नहीं हो रहा तो मुझे भला कैसे होता...हर एक सामान को छू छूकर उसमें तुम्हारा स्पर्श ढूंढ रही हूँ...आज तुम नहीं पर तुम्हारी खटिया, गद्दी में तुम्हारी खुश्बू लपेटे लेटी हूँ....रात आसमान के तारों को ताकती तुम्हारी लोरी याद कर रही हूँ...डेगची को छूकर तुम्हारे हाथ की दाल का स्वाद मुंह में घोल रही हूँ...कैसी ज़िद रहती थी मेरी कि जब तक मैं यहाँ हूँ दाल तुम ही बनाओ....विस्मित होकर तुम्हें छांछ छोलते देखती थी तो ख़ुद भी करने की ज़िद करती थी और आख़िरकार वो हांडी फोड़ ही देती थी... तुम्हारे बक्से से सामान निकाल रही हूँ और उससे जुड़ी एक एक याद में खोती जा रही हूँ...तुम्हारी धोतियाँ...ये नीली वाली कितने चाव से भिजवाई थी मैंने कि तुम पर कितनी अच्छी लगेगी...बचपन में कितने ध्यान से देखती थी कि ये गत्ती धोती तुम बांधती कैसे हो...छोटी सी काया वाली मेरी नानी..घर के चप्पे चप्पे, एक एक चीज़, दर ओ दीवार...छत और आँगन...पेड़ पौधे...चूल्हा चिमटा, डोलची फुकनी, उपले लकड़ी, अनाज फल, मिट्टी के ज़र्रे से लेकर पेड़ों की छांव और हवा के बहाव में तुम खुश्बू बनी बह रही हो...तुम्हारी गाय...कितना लड़ती थी तुम सबसे इसके लिए...कितने लाड़ से पाला इसे और इसके पुरखों को तुमने...सब छूट गया न..आकर देखो ज़रा किस कदर उदास हो चली है ये...खाना पीना सब कुछ छूटा...वो किसी तरह जी रही है क्यूंकि समझ गयी है कि उसकी वो मां नहीं है अब...मां बाप छूटे और अब तो उसका वो घर आंगन भी छूटा...

सिर्फ़ एक बात जिसका अफ़सोस हमेशा रहेगा कि तुमने आराम का एक दिन भी नहीं देखा...13 साल की उम्र में इस घर में ब्याह के आई तुम बच्ची ही तो थी...सारा जीवन घर के कामों में...नाना की...गाय की, सेवा में...खेती बाड़ी में लगा दिया...कितना थक गयी होगी तुम....कैसे कहते हैं ये लोग कि अँधेरे ही खेतों में पहुँच जाती और दिन ढले ही लौटती...कुछ तो नहीं देखा तुमने...कहीं भी नहीं गयी और...एक दिन मजबूरी में बैंक गयी तो लोगों की भीड़ देख कितना असहज हो गयी थी...मामाजी बता रहे थे कैसे डांटा था तुमने उनको...तुम्हें थोड़ा तो आराम मिलता...ऐसी ही छोटी सी ख्वाहिश भी थी तुम्हारी कि कुछ दिन तुम हम सब के साथ बिता सको...पर हम लोग कुछ कर ही न सके...समझ ही नहीं पाती कि मां को अब क्या समझाऊं और कैसे समझाऊं   

मैं लौटते लौटते तक उन क्यारियों, घर के कोनों में तुम्हे तलाश रही थी...तुम होती तो ख़ुश होती कि ये लमडेर बच्चे आज कितनी सुबह उठकर तैयार हो चुके हैं....तुम हमें तब तक देखती रहती थी जब तक हम लोग आँखों से ओझल नहीं हो जाते थे पर आज तुम यूँ ओझल हुई कि ढूंढें नहीं मिल रही....नहीं पता था जिसका हाथ इतने दिन कसके थामे हुई थी वो साथ छोड़कर यूँ जायेगी...दीवार पर तुम्हारी तस्वीर लगता है अभी बोल पड़ेगी...उसपर उंगलियाँ फेरती हूँ तो मन भर आता है...रोक ही नहीं पाती...मेरे पास कितना कुछ है याद करने को...वो पल याद करते हुए मैं आज भी तुम्हारे साथ ही जी रही हूँ...तुम्हे छेड़ रही हूँ, तुम्हारे साथ हंस रही हूँ, तुमसे लिपट कर सो रही हूँ...काश तुम्हें जाने से रोक पाती...काश कुछ और वक़्त साथ बिता पाती...पर यहीं आकर हम लाचार होते हैं...और यहीं आकर हम समझ पाते हैं कि अपनी लापरवाहियों के चलते क्या कुछ खो दिया हमने...अब तुम मेरे भीतर हो नानी और हमेशा हमेशा रहोगी...बस एक बार कसके तुम्हारे गले लगने का दिल कर रहा है....   



(शीर्षक फ़राज़ साहब से माफ़ी के साथ)

सोमवार, 11 मई 2015

यादों की दीवार पर टंगी मुस्कुराती वो तस्वीर...


मेरे नानाजी को रोटी और जैम बहुत पसंद था....मुझे याद नहीं पिछले कितने सालों से उनका रात का भोजन ये ही था...सब्जियां उन्हें नापसंद थीं...सब्ज़ी रोटी लेकर जाने पर फ़ौरन कह देते मुझे भूख नहीं है...मनाया जाता, डांटा जाता कि कुछ तो खा लीजिये...नहीं मानते...बड़ी मान मुनौव्वल के बाद जैम रोटी पर राज़ी होते थे...उनकी रोज़ की न न पर मेरी नानी झुंझला जाया करती थीं...और दोनों में बराबर के झगड़े होते...

पिछले साल इन्ही दिनों मैं अपने ननिहाल में थी...अपना बचपन दुबारा जी कर आई थी...ख़ुद से ये कहा था कि अब यहाँ जल्दी जल्दी आया करूंगी...यूँ सालों में नहीं...पर हम आजकल के लोग....रिश्तों को निभाने में बहुत पिछड़े होते हैं...अपने शहर में पैर पड़ते ही हमारी प्राथमिकताएं फिर बदल जाती हैं, दफ़्तर, मीटिंग, असाइनमेंट, घर, यहाँ वहां और दुनिया जहान के काम...एक एक पायदान करके ख़ुद से किया वो वादा फिर नीचे खिसकता जाता है...हम कुछ दिनों बाद जायेंगे का कह कह कर अपने आपको जवाब देकर बचना चाहते हैं और एक दिन पता चलता है कि इन बहानों ने वो दूरी खींची जो कभी पाटी नहीं जा सकेगी और वो अफ़सोस जो दिल से कभी नहीं निकलेगा.. 
  
मैं आज किसी बेहद क़रीबी और बेहद अपने को खोकर आई हूँ....भारी मन, तकलीफ़, दुःख और अफ़सोस के साथ...मेरी आंखों के आगे जैसे ज़िन्दगी की तस्वीर का एक फ्रेम टूटकर गिरा हो...हर टुकड़े से एक याद एक क़िस्सा झांक रहा है और मैं उन बिखरे टुकड़ों को कहीं कहीं समेटती चल रही हूँ....मेरे नानाजी हम सब से बहुत दूर जा चुके हैं  

बचपन से अपने नानाजी को देखती थी..वो एक बुज़ुर्ग थे और धीरे धीरे कुछ कुछ काम करते रहते...पर बहुत सक्रिय नहीं होते थे...गाँव के बाक़ी लोग बताते हैं कि वो एक ज़बरदस्त किसान थे...बहुत कर्मठ...मिट्टी फेंकें तो कहो ज़मीन सोना उगले...उनके चचेरे भाई बताते थे कि भाई जी के बैल थक जाते थे पर वो न बैठते थे....गली से जब निकलते तो जो बच्चा बाहर दिखता उसे स्कूल छोड़ आते...जिसको पैसे की तंगी होती उसकी फ़ीस जमा कर आते...सारे लोग डरते...वो सबके बाडाजी (ताऊजी) थे. न ख़ुद ख़ाली बैठते न किसी को बैठने देते...पर उसके बाद उन्हें न्यूरो की कुछ दिक्क़त हुई...कहते हैं दिमाग़ की कोई नस सूख गयी...ऑपरेशन हुआ पर उसके बाद वो पहले जैसे सक्रिय न रह सके...झड़ से गए....ये उन दिनों की बात है जब मैं बिलकुल अबोध थी...इसलिए मैंने नानाजी को खेती करते नहीं देखा...नानी के कामों में मदद कर दिया करते...गाय को पानी पिला देना...नानी के साथ मशीन में कुटी (चारा) कटवाना, गाय को अलग अलग खूंटों पर बाँध देना...बाज़ार से सब्ज़ी-फल ला देना वगैरह...मेरी नानी के घर पर हैंडपंप नहीं था...पड़ोस से पानी लाना होता था...एक अजीब सी समझ थी ये कि एक अगर पानी ला रहा होता था और जैसे ही वो घर के पास पहुँचता दिखता तो दूसरा फ़ौरन उसका बोझ हल्का करने पहुँचता और वहां से आगे एक बाल्टी ख़ुद लेकर आता...और हाँ बिना नागा नानी नाना का एक दुसरे से नोक झोंक करना. वक़्त के साथ साथ एक एक करके इन सब कामों की संख्या कम होती चली गयी और अब पिछले कुछ समय से उन्हें आँगन पार करने के लिए भी सहारे की ज़रुरत पड़ती...उनकी उम्र उनसे उनकी ताक़त छीनती जा रही थी...और अब तो वो बात भी बहुत धीमी आवाज़ में करते थे

नानाजी हमेशा मुस्कुराते रहते...मैं उनसे बहुत लडती थी उन्हें डांटती थी...तो वो कई बार मां से कहते इसको मत लाया करो बहुत डांटती है....उन्हें गुदगुदी लगती तो हम खूब परेशान करते...गाल नोचते, खूब छेड़ते...और वो हमें प्यार से डांटा करते...अभी पिछली बार ही मैंने उनसे कहा था “ननाजी सच सच बतयां तुम सबसे ज्यादा प्यार कैथे करदो”....तो नानाजी ने अपने चिरपरिचित अंदाज़ में जवाब ईमानदारी से दिया और कहा “बेटी सबसे ज्यादा प्यार त मि कैलाश थे ही करूद”...कैलाश मेरे भाई का नाम है जो कि भयानक तरीके से नानाजी का सिरचढ़ा रहा है...उसकी हर ग़लती माफ़...मैंने उनका जवाब सुनते ही कहा “अच्छा इन बात च हैं?” तो फिर हंसने लगे...उनके जवाब में मानो उनकी बेचारगी रही हो...

उस कमरे में घुसते ही दाहिनी तरफ़ उनकी चारपाई लगी होती...बाक़ी लोगों के बिस्तर समेट लिए जाते थे पर नानाजी का हमेशा लगा रहता...कमरे में घुसते ही हमें उनको देखने की आदत थी...पहुंचने की देर होती थी और में उन्हें छेड़ना शुरू कर देती...पर हाँ वो आइसक्रीम बर्फ़ वाला आता तो उसके लिए या फिर वो लालझीभ टॉफ़ी या ऊँगली में फंसाने वाले पापड़ के लिए भी पैसे नानाजी से ही लिए जाते...हाँ नानी का इमोशनल ब्लैकमेल भी खूब होता था. नानाजी समय के साथ साथ भावनात्मक रूप से भी कमज़ोर हो गए थे...हम लोगों को या किसी भी मेहमान को देखते ही मारे ख़ुशी के रोने लगते थे...     
   
बाहर आँगन में वो अपने मोढ़े पर बैठे होते...गन्ने के बड़े शौक़ीन...दांत एकदम दुरुस्त....नियम के भी पक्के...सुबह नहा धोकर और हर शाम हाथ मुंह धोकर प्रार्थना का नियम पक्का था...चाय कभी बिना बिस्कुट के नहीं पी...कुछ साल पहले तक बीड़ी पीते थे...और इसी बात पर मैं उनके लिए हमेशा विलेन बनी रहती...किसी को भी डपट देते पर वो गांव के सबसे बुज़ुर्ग लोगों में से थे और अपने वक़्त में सबकी इतनी मदद की थी कि आज पूरे गांव की अगली पीढ़ी उनके बच्चों की ज़िम्मेदारियाँ निभा रही थी...कोई कभी कुछ ख़ास बना लाता, कोई बाज़ार से फल सब्ज़ी या घर का बाक़ी सामान ले आता, गांव के डॉक्टर बेवजह डांट खाने के बाद भी मुस्कुराते रहते...नानाजी की तबियत बिगड़ने पर ईद के दिन अपने मेहमानों को बैठा छोड़ नानाजी को देखने पहुँच जाते.. 
   
रेडियो के कैसे तो शौक़ीन थे...उन्हें कुछ और नहीं चाहिए होता था...बस रेडियो की फ़रमाइश होती जिसमें उन्हें ख़बरें सुननी होतीं...यूँ तो उनकी याद्दाश्त धुंधला रही थी पर बुलेटिन उन्हें सारे याद रहते...नानाजी एकदम बच्चे सरीखे थे...जब उन्हें पता होता कि उनकी किसी बात या काम पर उन्हें डांट पड़ सकती है तो फ़ौरन मुकर जाते... “न बबा मिल नि कार” (न बच्चा मैंने नहीं किया)...’बबा’ बच्चे के लिए दुलार का शब्द हैं... “ननाजी झूठ बुना छो?”... “न बबा अछें भगवान जाणी” (न बच्चा सच में भगवान जनता है)...साथ में यूँ मुस्कुराते रहते कि कोई छोटा बच्चा भी समझ जाए कि वो काम नानाजी ने किया है...और उसके बाद हंस पड़ते..

मैंने नानाजी को उनके कर्मठ अवतार में कभी नहीं देखा बस गाँव वालों से किस्से सुने हैं...उन्होंने मुझे बड़ा होते और मैंने उन्हें वक़्त के साथ साथ और कमज़ोर होते देखा...उन्हें यूँ देखना तकलीफदेह होता था...पर हम सब अपने मन को समझाते कि ये बुढ़ापे का शरीर है...अब वो पहले जैसे कोई काम नहीं कर पाते थे...मेरी नानी ने इस लम्बे वक़्त में उनकी सेवा की...माँ पापा यहाँ आते जाते रहते थे...पापा ने सेवा में कभी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी....पर नानाजी ख़ुद जानते थे कि जो काम उनकी जीवनसाथी कर रही है वो और वैसा कोई न कर पाए शायद...ये ही वजह थी कि पिछले दिनों जब नानी की तबियत बिगड़ी तो एक दिन नानाजी रात में दो बजे उठकर बैठ गए...मां ने पूछा क्या हो गया कोई परेशानी है...तो बोले इसे कुछ हो गया तो मैं क्या करूँगा और फिर मुझे कौन देखेगा...नानी नाना की ज़िन्दगी एक दूसरे के इर्द गिर्द थी...डांट फटकार नोंक झोंक झगड़े सब कुछ...इस बार देख के आई हूँ कि कैसा था वो रिश्ता कि एक के जाने पर दूसरे के लिए जीवन बेमानी हो चला है...

नानी कहती हैं अब मैं किससे बात करूंगी झगडा करूंगी हर वक़्त इस कमरे में एक साथ था...एक ठौर था...कुछ भी नहीं रहा सब ख़ाली हो गया...हम इसे सेवाभाव से अलग करके देखें तो शायद समझ सकें...नानी 13 साल की उम्र में ब्याह कर आई थी...नाना उस वक़्त 16 साल के थे...दोनों का ये साथ 71 साल का था...उनकी प्रतिक्रिया समझी जा सकती थी...जिस तरह नानाजी के मृत शरीर की वो उंगलियाँ सीधी कर रही थीं कि देखो कैसे ऐंठ रही हैं...दर्द होता होगा...या जैसे उनके चेहरे को सहलाती थीं तो कलेजा मुंह को आता था...ऐसी स्थिति में कुछ भी समझाना बुझाना बेमानी होता है...4 बजे गुरुद्वारे में गुरबानी बजते ही बोलीं चाय बनानी है हम दोनों का चाय का समय हो गया है....हम सब आज कुछ अलग क़िस्म के रिश्तों की दुनिया में जीते हैं...पर इन रिश्तों को समझने की कोशिश करें तो इनकी इज्ज़त करने लगेंगे...नानी ने बड़ी तकलीफें देखी जीवन में, झगड्तीं तो कहतीं कि परेशान कर दिया है...पर आज उनके चले जाने पर वो अपने जीवन की कल्पना ही नहीं कर पा रहीं...रात भर मैं उनके साथ बैठी रही...वो खाना पानी सब छोड़े बैठी थीं...किसी तरह खिलाया पिलाया...रात भर मुझे अपनी यादों की गलियों में साथ घुमाती रहीं...और मैं किस भावना से भरती जा रही थी उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं...

मुझे नाना नानी से मिलने जाना था...पर टालती जा रही थी क्यूंकि प्राथमिकताओं में ऊपर दफ़्तर और बाक़ी के काम काज आ गए थे...लगता था बस अगले हफ्ते पक्का चली जाउंगी...मैं ख़ुद अपनी नज़रों में शर्मिंदा होती और ख़ुद ही अपने को व्यस्त होने की दलील देती...शनिवार सुबह पौने पांच बजे जब नानी ने रोते हुए कहा कि नाना कुछ बोल नहीं रहे चले गए तो लगा ये कैसे मुमकिन है...अभी तो मुझे मिलने जाना था...वो एकदम ठीक थे कुछ नहीं हुआ था पर 5 मिनट के अन्दर ये सब...ऐसा कैसे हो सकता है...पूरा परिवार सब कुछ छोड़ छाड़ के चल पड़ा वहाँ...वहां मेरे नाना सचमुच अब मुझसे बात नहीं कर रहे थे...कुछ नहीं बोल रहे थे...न हंस रहे थे न रो रहे थे....वो अब जा चुके थे...

10 घंटे के उस रास्ते में मैं जाने क्या क्या याद करती रही...कितना कुछ है...इस फ्रेम के बिखरे टुकड़े समेटना मुमकिन नहीं...उनकी यादें पहाड़ों सी विशाल और समंदर सी गहरी हैं...कहां समेट सकूंगी...हम वक़्त बीतने के बाद ख़ाली घरों की दीवारों, बड़े आँगन, वहां के पेड़ों और बाकी निशानों से यादें बटोरते फिरते हैं लेकिन जब सही वक़्त होता है तब हम व्यस्त होते हैं....ये नहीं सोचते किसी को हमारा इंतज़ार है...आंखों की रौशनी के साथ न देने पर भी कुछ लोग हैं जिनकी आँखें हमारी राह देखती हैं...हमसे बात करना चाहती हैं, कुछ वक़्त बिताना चाहती हैं, आज भी हमारे नखरे उठाना चाहती हैं...      

हम सबके यूँ हर काम को अचानक छोड़ कर चले आने से हमारी निजी जिंदगियों में कुछ नहीं बिगड़ा...कहीं कोई काम नहीं रुका...तो क्यूँ मैं पहले नहीं आ गयी...क्यूँ नहीं समझा कि ये पल दुबारा नहीं मिलेंगे...ये साथ कब तक के हों पता नहीं...एक न एक दिन सब बिछड़ जायेंगे तो क्यूँ न आज इन रिश्तों का हाथ मजबूती से थाम कर चलें...क्यूं न उनके जीवन का ख़ालीपन मुस्कुराहटों से भरते रहा करें जिनकी गोद में जाने क्या क्या शैतानियाँ कीं, कितनी तकलीफें दीं, कैसी कैसी मांगें कर दीं...और जिन्होंने हमेशा मुस्कुराकर मजबूती से थामे रखा...बहुत छोटी छोटी बातें हैं पर यकीन मानिए बहुत ज़रूरी हैं...प्राथमिकताओं की लिस्ट में संशोधन बहुत ज़रूरी है...आंखें मूंद के एक पल उन ख़ास लोगों को याद करिए...ये ही हैं जो ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बनाते हैं...कब बिछड़ जायें नहीं पता...लिस्ट में सबसे ऊपर इन रिश्तों को लिख डालिए...और कुछ यूं लिखिए कि इसमें कोई बदलाव न हो


अपनी नानी से लिपटकर उनकी खुश्बू और नानाजी का मुस्कुराता चेहरा साथ लायी हूँ....मन में अफ़सोस है और अपराधबोध भी...कुछ वक़्त की ही तो उम्मीद थी और मैं वो भी न दे सकी...इस बार हल्दी चावल की फिटाई लगाने, सिर पर हाथ फेरने और दस रुपये का नोट पकड़ाने वाला कोई नहीं था....भीतर तक तोड़ गया आपका यूँ चले जाना...मुझे माफ़ कर दीजियेगा!!     

सोमवार, 2 मार्च 2015

बेटी भला कोई क्यूँ चाहे

अचानक चारों तरफ से बेटियों को बचाने की अपीलें सुनाई पड़ने लगीं हैं...इतना तो इतने सालों में नहीं सुना....गली नुक्कड़ की समितियों से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक सब जाग गए हैं...बेटियों को तो बचाना ही है....पर जाने क्यूँ इनकी ऐसी पहल पर ख़ुशी से ज्यादा इनकी सोच पर अफ़सोस हो रहा है...बल्कि ज़्यादातर जगहों पर तो इस दोगलेपन पर ग़ुस्सा आ रहा है....और एक अजीब सा चलन भी तो चल निकला है...ख़ुद को फेमिनिस्ट कहना और ऐसी अपीलें जारी करने का फैशन...ये वो लोग हैं जिन्हें बराबरी, अधिकार, स्वतंत्रता, आत्मसमान, अस्मिता के मुद्दों से कोई लेना देना नहीं...बस झम्म से कूद पड़ेंगे कि बेटी बचाओ बेटी बचाओ....महिला सशक्तिकरण का मतलब सिर्फ़ पढ़ाई तक सीमित करने वालों के लिए जींस शर्ट पहन लेने, अंग्रेज़ी में बात कर लेने और पेज थ्री पार्टियों में शिरकत कर लेने तक ही सीमित है....इस क्षेत्र में पढ़ाई करने के बाद जुड़े रहने का मौका मिला पर अपने आस पास की/ के इन पढ़े लिखे नारीवादियों को देखती हूँ तो जी में आता है कह दूं कि आधे से ज़्यादा बंटाधार तो तुम लोगों ने ही कर रखा है...इससे पहले मैं जिस संस्था में कार्यरत थी मुझे अच्छे से याद है की मेरी ही एक सहकर्मी ख़ुद को बड़ी बड़ी फेमिनिस्ट कहती थीं...पर महिला सशक्तिकरण पर उनके विचार जानकार मुझे उनपर सिर्फ़ तरस ही आ पाया था...हमारे आस पास अचानक से ये जो खेप खड़ी हो चली है जिसका बच्चियों को बचाने का औचित्य बस इतना ही है कि बेटी नहीं होगी तो बहू कहाँ से आएगी और फिर वंश कैसे चलेगा को कैसे समझाया जाए कि नारीवाद इससे कितना जुदा है.... ये वो लोग हैं जिनके लिए बराबरी का मतलब सिर्फ़ बेटी की पढ़ाई तक सीमित है...उन बेटियों की परवरिश और ज़िन्दगी से जुड़े तमाम और मसलों तक इनकी सोच कभी नहीं पहुँचती...करवाचौथ, तीज, छठ पर बाज़ार की ग़ुलाम बन जाने वाली इन महिलाओं और सीता, सावित्री (और अब जशोदाबेन) को आदर्श महिला बताने वालों को क्या बताइयेगा कि बात सिर्फ़ पैदा करने तक सीमित नहीं बल्कि बराबरी और अधिकार की है...आज भी ज़्यादातर लोगों के हिसाब से त्याग, ममता, करुणा, दया, लज्जा और भी बाकी के कमज़ोर बनाने वाले केमिकल प्राकृतिक और आवश्यक रूप से महिलाओं में पाए जाते हैं और ये उनके गहने हैं और ऐसा ही होना चाहिए....आज तक समझ नहीं आया मुझे कि गर्भ में ही गुणों का ये बंटवारा कैसे हो जाता है...आज तक तो किसी विज्ञान की किताब में पढ़ा नहीं...जाने ये कहाँ से पढ़ के आये हैं...फ़िलहाल तो इस पूरे अभियान के खेवनहार बने व्यक्ति की संवेदनशीलता ही देखें जिनकी अपनी पत्नी ने जीवन गुमनामी, अकेलेपन और तमाम अभावों में बिताया और वो कल भी ऐश से रहे और आज भी ऐश से हैं...मंच पर जाकर या कैमरे के सामने बेटी बचाओ का हल्ला कर देने से क्या वो सारी बातें भुला दी जायेंगी...उनके नारों पर बांवरे होते लोग ज़रा एक बार तो सोच का स्तर देखें...लड़की के पैदा होने पर एक पेड़ लगाओ ताकि उसकी लकड़ियाँ बेचकर शादी की जा सके...जिस व्यक्ति की सोच से व्यवहार तक रूढ़ीवाद से बुरी तरह ग्रस्त है वो भला क्या ख़ाक महिला सशक्तिकरण करेगा....सुनने में शायद बुरा लगे पर ख़ुद को प्रगतिशील दिखाना भी आज के समय में मजबूरी हो चली है...इन नारीवादियों को विदेशी फंडिंग वाले प्रोजेक्ट और इन नेताओं को सरकारों की नज़र में उठाना भी तो है....क्या हम नहीं जानते महिला दिवस की शुभकामनायें भेजने, उस दिन लेखों से तमाम वेबसाइटों, ब्लॉग, चैनलों के साथ अखबारों को रंग देने वालों में से कितने लोग वाक़ई बराबरी की बात करते हैं, चाहते हैं और अपनी कही बातों के वाकई करीब होते हैं...दुनिया दोगले लोगों से भरी पड़ी है अगर आप जवाब देना नहीं जानते तो घुट जायेंगे....आप चाहे कितना भी हल्ला मचा लें ‘बेटी बचाओ’ का या कितने भी अभियान चला लें...हक़ीक़त ये है कि मौजूदा हालातों में कोई भी...और कोई भी मतलब कोई भी...नहीं चाहेगा कि उसके घर बेटी पैदा हो....कोई मां बाप अपनी ज़िन्दगी इस दहशत में नहीं बिताना चाहेंगे कि वो बच्ची सुरक्षित कैसे रहे..कब उनकी बेटी के साथ क्या हो जाए नहीं पता..घर, परिवार, स्कूल, सड़क, दफ्तर, थाना..कहीं भी तो वो सुरक्षित नहीं....माहौल आप दे नहीं पा रहे तो बेटी बचाना तो भूल ही जाइए