बुधवार, 23 जुलाई 2014

यूँ लौटना बचपन के गलियारों में

बड़ी हसरत से इंसाँ बचपने को याद करता है
ये फल पक कर दोबारा चाहता है ख़ाम हो जाए (नुशूर वाहिदी)

बालकनी में बैठी हूँ....सामने पार्क में पेड़ पौधों के चटख हरे पत्ते देख रही हूँ जो तेज़ बारिश के बाद धुल कर और खिल आये हैं.....आसमान फिर काले बादलों से घिर गया है....ठंडी हवाएं छूकर निकल रही है...आँखें बंद करती हूँ तो एकदम चौंक जाती हूँ...जैसे एक फ़्लैश बैक सा कुछ हुआ....दोबारा बंद करती हूँ....हाँ ये तो कुछ जाना पहचाना सा है....वो सौंधी मिटटी की ख़ुशबू, चारों तरफ़ सब कुछ भीगा, नहाया और पत्तों और फूलों के रंग और भी खिल गए हैं....घरों में गाय, भैंस, बैल सब थोड़े भीगे भीगे एकदम सीधे खड़े हैं....रह रह कर गर्दन झटकते हैं तो घंटियाँ बज उठती हैं गले की.....वो एक छोटे बच्चों की टोली हल्ला मचाती दौड़ती, पानी में कभी छप छपाक करती तो कभी बचती बचाती दौड़ी जा रही है....वो दूर से एक बुज़ुर्ग महिला,  दुबली पतली छोटी सी, गढ़वाली शैली की गत्ती धोती बांधे आवाज़ देती हैं...और इस टोली से एक 7- 8 साल की बच्ची, गुलाबी फ्रॉक पहने चल पड़ती है उनकी  तरफ़....पीछे से साथी कुछ कहते हैं तो पलटती है और चंचल आँखों से कुछ इशारा करती है....अरे ये तो मैं हूँ....और वो सब मेरे बचपन के साथी...कैसे लग रहे हैं सब...कोई निकर बनियान पहले निकल पड़ा तो कोई सिर्फ़  पैंट में...और रिंकी को तो देखो इसकी फ्रॉक तो अभी आम की टहनी में फंस कर फट गयी थी और वो ऐसे ही आ गयी...सब भीगे भागे....पैर मटमैले पानी से सने....इशारा समझने की कोशिश करती हूँ...मैंने शायद ऐसा कुछ कहा कि अभी थोड़ी देर में आती हूँ....आगे बढ़ती हूँ उन महिला की तरफ़ जो अब थोडा साफ़ दिखने लगी हैं.....ये तो नानी हैं...अरे हाँ...गोशाला से अपनी गाय को बाहर लाती मेरी नानी..और उतनी बूढ़ी भी नहीं दिख रहीं....कैसे डपट रही हैं भीगने पर...और ज़रा देखो मुझे मैं हँसे जा रही हूँ...और कितनी मासूमियत से कह रही हूँ....बंटी, सुरेश, रज्जो, नित्तू, रिंकी और संजू भी तो थे साथ में...नानी मेरे कपड़ों और पैरों की तरफ़ इशारा करती हैं कि किस क़दर गन्दा कर दिया है मैंने इन्हें...तो मैं मौके का फ़ायदा उठाती हूँ और कहती हूँ....नहर चली जाऊं नहाने... पर नानी तो सुनती ही नहीं...मना कर दिया...मैं चिपक गयी उनसे....कि हाँ कहो तभी छोडूंगी...उनके कपड़े भी भिगा दिए...फिर से एक प्यार भरी डांट के साथ इजाज़त मिल जाती है नहर पर जाने की...और ज्यादा देर नहीं लगानी...मैं फिर दौड़ पड़ती हूँ सड़क की तरफ़जहाँ घर के कोने पर लगे जंगली जलेबी और बाड़ के लिए लगाई गयी काँटों वाली झाड़ के पीछे छुपे मेरे साथी मेरा इंतज़ार कर रहे हैं....मिलने पर एक बार फिर हल्ला और दौड़ पड़े छोटी नहर की तरफ़ नहाने...लो बंटी फिसल भी गया..फिर सबकी हंसी छूट पड़ती है..ये कितना गिरता रहता है...कोई बात नहीं अभी नहायेगा तो साफ़ हो जायेगा...और ये शुरू हुई नहर में बच्चों की छप छपाक...आँखें खोलती हूँ...मुस्कुरा रही हूँ पर आँखें डबडबाई हुई हैं....क्या कुछ है जो छूट गया...जिससे दूर निकल आये...रिश्तों कि गर्माहट से, खुशियों से, शरारतों से, हंसी ठिठोलियों से और शामिल हो गए इस बनावटी दुनिया में 
           
वक़्त के साथ हसरतें बहुत तेज़ी से बढ़ती हैं....बहुत कुछ पाना होता है, हासिल करना होता है और उसके लिए सबसे पहले उसके लायक बनना होता है...फिर दुनिया की लगभग गला काट प्रतियोगिता में कूद कर ख़ुद को साबित करना होता है....दो ही तरीकों से लड़कियों के घरवाले उनके भविष्य की कल्पना करते हैं....या तो मतलब भर का पढ़ा लिखा कर शादी कर देना या फिर करियर बनने के बाद शादी....शादी नॉन नेगोशिएबल है....मेरे घर के लोग अपवाद नहीं है ये अलग बात है कि मैं ज़रुरत से ज़्यादा ज़िद्दी निकल गयी....इस मशीनी ज़िंदगी, बनावटी रिश्तों और माहौल में जब दम घुटने लगता है तो आज भी नानी की गोद याद आती है....हम किस क़दर स्वार्थी होते हैं...रिश्ते भी हमें तब याद आते हैं जब हमे ज़रुरत होती है...अपना दिल हल्का करने बचपन की उन गलियों में मैं पूरे 3 साल बाद जा रही थी....क्या कुछ बदला होगा इन 3 सालों में...और मेरी नानी...वो अब और भी बूढ़ी दिखने लगी होंगी...माँ बताती है पहले से भी दुबली हो गयी हैं

ट्रेन लेट थी....अच्छा ही हुआ...5 बजे के अँधेरे में मुझे इस स्टेशन पर डर लगता....धामपुर...जी..वही शुगर मिल्स वाला धामपुर...नहीं मेरा ननिहाल यहाँ नहीं...यहाँ से लगभग 38 किमी दूर है..यहाँ पहुँचने के दो रास्ते हैं.. या तो धामपुर या काशीपुर..काशीपुर का रास्ता लम्बा है और सही समय पर पहुँचाने वाली ट्रेनें सीमित हैं इन दोनों स्टेशनों पर..अब सीधी बस तो नहीं मिलेगी...बदल बदल कर जाना पड़ेगा...सुबह सुबह प्रेस की गाड़ियाँ जाती हैं पर अब देर हो गयी है..पापा ने बताया स्टेशन से रिक्शा कर लूँ नगीना तिराहे तक वहां से बस मिल जाएगी...बाहर आती हूँ, सर पर टोपी, कंधे पर गमछा और हिना की हुई दाढ़ी वाले एक मुसलमान बुज़ुर्ग ख़ुद ही दौड़े आते हैं कि गुड़िया कहाँ जाओगी...मैंने बताया नगीना तिराहा...मेरा सूटकेस रिक्शे पर रखने लगे...मुझे अच्छा नहीं लगा...मैं खुद रख सकती हूँ...वो बुज़ुर्ग थे...बोले अरे बिटिया तुम क्यूँ रखोगी...देखती हूँ सड़क गीली है...जगह जगह पानी भी भरा हुआ है...पता चला कि सुबह सुबह बारिश हुई हैं...उनके पूछने पर मैंने बताया लखनऊ से आ रही हूँ....वो बोले अच्छा नखलऊ...राजधानी...वो तो बड़ा शहर है...मैं मुस्कुरा भर दी...यहाँ की जुबान में बिजनौर की खड़ी बोली का असर है और लखनऊ को यहाँ नखलऊ ही कहा जाता है...उन्होंने पूछा कहाँ जाना है मुझे...कालागढ़?? अरे बिटिया बस थोड़ी सी देर पहले ही सीधी बस छूटी है अब तो अफ़ज़लगढ़ तक ही मिलेगी वहाँ से टेम्पो में जाना होगा...तिराहे पर पहुँचते ही उन्होंने मेरा सामान उतरा, मेहनताना लिया और रिक्शा किनारे लगा कर खड़े हो गए...मुझे बताया कि बस कहाँ से मिलेगी...मैंने उनका शुक्रिया अदा किया और आती जाती बसों में पता करने लगी की किसमें जा सकती हूँ...वो दोबारा मेरे पास आये...एक दुकान की तरफ़ इशारा कर मुझसे वहां बैठने को कहा और बोले मैं बता दूंगा कौन सी बस जाएगी वहाँ...मैं उन्हें परेशान नहीं करना चाहती थी और वैसे भी इतने सालों में अपने सारे काम ख़ुद करने की आदत भी हो गयी है...मैंने उनसे कहा कि वो परेशान न हों...बोले कैसी बात करती हो गुड़िया...तुम्हे सही बस में बैठा कर ही जायेंगे....मैं हैरान थी ये देखकर कि आज भी ऐसे लोग होते हैं...बस आई उन्होंने मेरा सामान उसमे रखा और परिवार के बुज़ुर्ग की तरह हिदायत दी कि ध्यान से जाऊं और मुस्कुराते हुए हाथ हिला कर विदा ली..        
ये एक सुखद एहसास था...सालों बाद ऐसा महसूस हुआ था...एक अजनबी साथ जो कुछ मिनटों में अपना सा हो गया...वैसा प्यार वैसी ही फ़िक्र...हम कितनी फ़र्क दुनिया में जीते हैं...वहां तो अपने भी अजनबी हो जाते हैं...खैर..ये हिमांचल रोडवेज़ की बस है जिसमे मैं सवार हूँ...भीगे मौसम में बाहर का नज़ारा लेते हुए चल रही हूँ....खेत ज़्यादातर ख़ाली पड़े हैं...गेहूं कट चुके हैं...बस चरी लगी हुई है...अब जुलाई में धान लगेंगे....कोटद्वार से आने वाली खो नदी पर बना है ये शेरकोट का पुल....पिछले साल के मानसून में पानी भर गया था तो ये रास्ता बंद कर दिया गया था....नानी के गाँव से भी कई लोग घर ख़ाली करके कालागढ़ चले गए थे...रोडवेज़ की बस आधे घंटे में ही अफ़ज़लगढ़ पहुंचा देती है..प्राइवेट बसें देर लगाती हैं.... अफ़ज़लगढ़...ये यहाँ का बड़ा बाज़ार है...उधर के गांवों में अगर कोई सामान कालागढ़ में नहीं है तो यहीं मिलेगा और अगर यहाँ भी नहीं है तो धामपुर या काशीपुर ही जाना पड़ेगा....सुबह का वक़्त है दुकानें खुल ही रही हैं...पर फलों के ठेले और चाय के होटल खुल गए हैं...ये बसों के रास्ते में पड़ता है न इसलिए.....मैं नानी नाना के लिए कुछ फल लेती हूँ और फल वाला ही मुझे बताता है कि पेट्रोल पंप के आगे टेम्पो मिलेगा....मैं उधर ही बढ़ चलती हूँ...सुबह सुबह स्कूल के बच्चे चहकते हुए रिक्शों और बसों में जाते दिखते हैं...कुछ मदरसे की तरफ़भी जा रहे हैं...ये मुझे सुभान नाना ने बताया जो अभी अभी दिखे मुझे....वो फल बेचते हैं...कितने बुज़ुर्ग हो गए हैं अब और कमज़ोर भी...सालों बाद यूँ देखकर कितना अच्छा लगा...बचपन से ही देख रही हूँ इन्हें...सर पर फलों का टोकरा लिए, आँखों में ऐनक चढ़ाए, कुरते और तहमत में सुभान नाना फल लाते थे...मेरी नानी में और इनमे बड़ी नोंक झोंक हुआ करती थी...नानी कहतीं तुम पैसे ज़्यादा लेते हो तो वो बोलते पंडितानी तू पैसे ही मत दे बच्चे साल में एक दो बार ही तो आते हैं...एक और भी तो थे उमर नाना...वो बड़े शांत थे...वो भी बहुत प्यार करते थे पर वो अब नहीं रहे....हम दोनों को एक ही टेम्पो में जाना था...ये सजे धजे रंगीन बड़े वाले टेम्पो...जिन्हें हम लोग बचपन में गणेशजी कहते थे...आज भी यहाँ वही चलते हैं....खूब ठूंस ठूंस के लोग बैठाए जाते हैं..और चारों तरफ़ खड़े भी होते हैं और अगर कालागढ़, कादराबाद, विजयनगर या भिकावाले के साप्ताहिक बाज़ार का दिन हो तो सब्जी के बोरे और फलों के टोकरे भी लद जाते हैं...आज एक तरफ़ एक साहब की साइकिल बाँधी गयी है....ये सब यहाँ बहुत नार्मल है...रफ़्तार धीमी और आवाज़ तेज़ ये इस वाहन का स्टाइल है
कादराबाद का विद्यालय...मेरी माँ यहीं पढने आती थी...बस में...टिकट कुछ पैसों का हुआ करता था...अब तो इस इलाके में कई स्कूल खुल गए हैं...अंग्रेजी माध्यम वाले...ज़ाहिर है लोग वहीँ भेजना बेहतर समझते हैं...अपनी नानी और आस पास के गाँव के बारे में ये जानकारी साझा करती चलूँ...यहाँ 14 कॉलोनियां  हैं....कॉलोनियां क्या गाँव समझिये....भिकवाला, चूड़ीवाला, कादराबाद, जामनवाला वगैरह...आज़ादी के बाद सरकार ने...भूतपूर्व सैनिकों, आज़ाद हिन्द फ़ौज के स्वतंत्रता सेनानियों को 50 – 50 बीघा ज़मीन और मकान निःशुल्क दिए थे...गाँव में मकान थे और उससे लगे खेत....नहीं मेरे नाना इन दोनों में से कोई नहीं थे...उनके चाचा थे...और बाद में नाना ने यहाँ ज़मीन और मकान ले लिया था...वो तो ख़ालिस किसान रहे..

जामनवाला में जिस जगह उतरना होता था उसे वहां अड्डा बोला जाता था....वहां एक उजड़ा हुआ मकान हुआ करता था...उसी से पहचान कर उतर जाते थे पर आज टेम्पोवाले ने जहाँ उतारा वहां तो ऐसा कुछ नहीं...सड़क किनारे नयी नयी दुकाने खुली हुई हैं..एक बड़ी चक्की भी बन गयी हैं...अरे इन्हें तो मैं पहचानती हूँ ये बलजीत मामाजी के बेटे हैं...हाँ पापा भी दिख गए...मतलब सही जगह पहुंची हूँ...दूर तक फैले खेतों से लगे कालागढ़ के पहाड़ी जंगल दिखाई दे रहे हैं....एक सड़क अन्दर गाँव की ओर जाती है..इस गाँव का नाम जामनवाला क्यूँ पड़ा ये मुझे आज तक समझ नहीं आया....गाँव थोड़ा आगे से शुरू होता है अभी थोड़ी दूर तक खेत ही हैं...बायीं तरफ़ महिंद्र मामाजी का कोल्हू है...उनका बेटा उसकी देख रेख करता है....इस गाँव की ख़ुशबू आज भी वही है...कितना आज़ाद सा महसूस हो रहा है....मानो कहीं बेड़ियों में जकड़ी हुई थी और वह से जान छुड़ाकर आई हूँ....इस गाँव में गढ़वाली, सरदार, हरियाणा के जाट व हरिजन लगभग लगभग बराबर गिनती में रहते हैं...सब एक दुसरे की भाषा आराम से समझते और बोलते हैं....एक दूसरे के सुख दुःख में काम आने से लेकर रंजिशों में क़त्ल ए आम सब कुछ यहीं हो जाता है....जातिवाद का पूरा पालन किया जाता है पर आत्मीयता बनी रहती है....गाँव शुरू होता है..दाहिनी तरफ़ मंदिर और उसे बगल में प्राथमिक पाठशाला जिसके मैदान में अब लड़के शाम को वॉलीबाल खेलते हैं....पुरानी इमारत उजड़ चुकी है बगल में नए कमरे बनाये गए हैं..और वो पुराना विशाल बरगद का बूढा पेड़ आज भी घनी छाया दे रहा है....सड़क के बायीं तरफ़ तो बड़ी सारी दुकानें खुल गयी हैं...कितना बदल गया है...पर इस सड़क के हाल ख़राब हो गए हैं...आगे बढ़ने पर एक चौराहा आता है...एक रास्ता पुराना जामनवाला, एक सरदारों के मोहल्ले को और एक नया जामनवाला की ओर....यहाँ भी कुछ दुकाने हैं...बिष्ट मामाजी की और खान भैया की क्लिनिक....माँ पापा की ग़ैर मौजूदगी में खान भैया नानी नाना का पूरा ध्यान रखते हैं..उनकी ख़बर लेते रहना ज़रुरत पड़ने पर दवाइयां देते रहना बल्कि मेरे नाना तो कभी कभी उन्हें दांट भी देते हैं पर वो कभी बुरा नहीं मानते...बुज़ुर्ग एकदम बच्चे हो जाते हैं...एक बार एक नानी को ये भैया दवा देने पहुंचे तो उन्होंने ज़िद पकड़ ली कि पहले समोसा खिलाओ तब दवा खाऊँगी....ऐसा गाँव में ही हो सकता है...बेचारे खान भैया समोसा लाके दिया तब मानी वो नानी....हमें अब दाहिनी तरफ़ बढ़ना है....ये खड़ंजे नए बिछे हैं...अच्छा पिछले प्रधान ने सड़क बनवाई है ये वाली...बायें हाथ पर सतपाल मामा की दुकान....ये दुकान तो बचपन से देख रही हूँ...और बड़ी सारी चीज़ें खायी हैं यहाँ से लेकर...तब तो कुछ पैसों में ही मिल जाती थी...आज भी कुछ ख़ास महंगी नहीं...जीभ लाल कर देने वाली वो खट्टी मीठी टॉफी...लालजीभ कहते थे उसे...वो गोल लम्बे पापड़ जिन्हें उँगलियों में फंसा कर खाते थे...चूरन की गोलियां और भी न जाने क्या क्या....आगे बढ़ती हूँ...हमे बायें जाना है...सीधा वाला रास्ता कुएं की तरफ़ और वहां से चक्की मोहल्ले को मुड़ जाता है...एक ज़माने में वहां चक्की हुआ करती थी.

इस वक़्त ज़्यादातर लोग खेतों पर होते हैं...इसलिए मोहल्ले में ज़्यादा चहल पहल नहीं...मैं देखती चलती हूँ कि क्या कुछ बदला आर क्या कुछ पहले जैसा है...ये सड़क एक झटके से बचपन के दिनों में वापस ले जाती है...आंधी आती थी तो सब नित्तू के घर पर इकट्ठा हो जाते थे आम के पेड़ों के नीचे आम बीनने...लुका छुपी और डंडा चूस पसंदीदा खेल हुआ करते थे...छुपने की जगह खूब थी...पेड़ों के पीछे, ट्रैक्टर के पीछे या गौशाला जिसे छन्नी कहा जाता है...गर्मियों की भरी दुपहर को भी घर में चैन नहीं मिलता था...लड़के वो पुराने टायर को डंडी से मारकर दौड़ाते रहते थे...और हम लोग कुछ और खेल खेला करते थे...वो आइसक्रीम वाला आता था तो उसके पीछे पीछे उसको चिढ़ाते सारे बच्चे दौड़ लगा देते थे...थोड़े गेहूं या किसी और चीज़ के बदले मिल जाती थी आइसक्रीम जिसे कई लोग बर्फ़ भी कहते थे...बेचनेवाला भी आइसक्रीम बर्फ़ ही कहता था...एकदम अलग ही होता था उसका स्वाद...फिर शाम को सब लोग एक दूसरे से पूछते थे तुम्हारे यहाँ दोपहर के खाने में क्या बना कुछ बचा है क्या...सब लोग अपने अपने यहाँ से खाना लाकर इकठ्ठा करते और फिर पार्टी होती...कई बार कुछ बनाने की कोशिश भी की जाती थी घरवालों के सहयोग से...

स्मृतियों से लौटती हूँ सामने पड़ोस की नानी मिल गयीं सर पर हाथ फेर कर उन्होंने हरियाणवी में कुछ कहा...बस इतना समझ आया कि आशीर्वाद दे रही थीं....घर पहुँचती हूँ...वो बड़ा आँगन...नानी की गाय जो मारने को आज भी वैसे ही आती है...और वो नीम के पेड़ के नीचे कुर्सी डाले नानाजी बैठे हैं...नानी रसोई से निकल रही हैं...कितनी बूढ़ी और दुबली हो गयी हैं मेरी नानी...झुर्रियां और उभर आई हैं...बाल और भी सफ़ेद हो गए हैं...देह कैसी ढीली हुई जाती है...हम दोनों लिपट जाते हैं एक दूसरे से और जाने क्यूँ रो पड़ते हैं और फिर थोड़ी देर बाद हंस भी पड़ते हैं..मेरी नानी की वो जानी पहचानी ख़ुशबू जो हमेशा ज़हन में ताज़ा रहती है....नानाजी के पास जाती हूँ और देखिये ज़रा उन्होंने एक बार में पहचाना ही नहीं...जब अपने चिर परिचित अंदाज़ में मैंने डांटा तब बोले अच्छा आ गयी ये अब कुछ दिन हल्ला होता रहेगा घर पर

मैं चारों तरफ़ नज़र दौड़ाती हूँ...आधे आँगन के फ़र्श पर सीमेंट लगा दिया गया है...मिट्टी के आँगन की लिपाई अब नानी नहीं कर पाती थी...और बरसात में फिसलन भी हो जाती थी...घर के काम काज से फ़ारिग होकर मैं और नानी पेड़ के नीचे खाट डाल कर बैठ जाते हैं...हमारे और पड़ोसियों के घर के बीच में बरगद का एक बड़ा पेड़ हुआ करता था...नानी ने तो लगभग पूरा ही कटवा दिया....गर्मियों की दोपहर में खूब सारे लोगों का जमावड़ा लग जाता था यहाँ....और ये आँगन का दूसरा नीम और जामुन और वो गौशाला के पीछे वाला जामुन...ये किनारे वाला डेकन और बायीं तरफ़ क्यारियों के पास वाला जामुन....इतने सारे पेड़ क्यूँ कटवा दिए नानी??? मुझे लग रहा था मेरे दिल दिमाग़ की बचपन वाली किताब से किसी ने कुछ पन्ने फाड़ दिए हों...मैं दुखी थी...इन पेड़ों की छाँव, फल, झूले मुझे सब याद आ रहे थे.... “बड़े पत्ते गिरते थे बेटा मुझसे अब इतनी सफ़ाई नहीं हो पाती थी...आंधी में लगता था किसी तार पर न गिर जाएँ....बस इसीलिए कटवा दिए”...बुढ़ापा किस क़दर लाचार कर देता है इंसान को...अपने ही हाथों बसी उन चीज़ों से दूरी बनानी पड़ जाती है जो अभी तक ज़िंदगी का हिस्सा हुआ करते थे….मेरे नाना नानी को इस जगह पर रहते हुए शायद 60 वर्षों से ज्यादा हो चुके हैं...ये वजह है कि हम सबकी लाख मिन्नतों के बावजूद भी वो इस जगह हो छोड़ने को तैयार नहीं....अब हम लोग भी ज़िद नहीं करते...उनका इस जगह की हर एक एक शय से जिस तरह का जुड़ाव है वो हम सबके साथ कभी नहीं हो पायेगा...और इन सबसे उनको दूर करना उन्हें ज़िंदगी से दूर करना सरीखा होगा..

मेरी नानी की उम्र 80 वर्ष से ज्यादा है...13 वर्ष की कच्ची उम्र में उनकी शादी हो गयी थी...शादी में गोदान होता है...उसमें गाय या बछिया का दान किया जाता है...मेरी नानी को गोदान में जो गाय मिली थी उसकी पीढ़ी अभी तक चल रही है....ये जो गाय इस वक़्त है न इनके पास...हाँ ये ही जो सबको मारने को आती है...ये उसी पीढ़ी की  है...मेरी नानी की ज़िंदगी इस गाय के इर्द गिर्द ही घूमती है...ठीक वैसे जैसे कि मां की अपने बच्चे के इर्द गिर्द...आँगन में 8 खूंटे लगे हैं...जैसे जैसे धूप अपनी जगह बदलती है वैसे वैसे गाय के खूंटे बदलते हैं...सारे नाज़ नखरे उठाये जाते हैं...ये गाय सिर्फ हैंडपंप का पानी पीती है वो भी किसी का जूठा नहीं होना चाहिए इसकी अपनी बछिया का भी नहीं...दाल चावल सब्जी रोटी इनके लिए सब कुछ बनता है...साल भर के लिए गुड़ अलग से बनवाया जाता है...इसकी ये सेहत यूँ ही नहीं है...पर अब ये बूढ़ी हो गयी है....दूध भी नहीं देती...पर इसकी सेवा बिलकुल पहले जैसे ही की जाती है...हाँ अब नानी थक जाती हैं पर किसी को दे भी तो नहीं पाती और ये भी तो नहीं रहती कहीं...पिछले साल गाँव में ही किसी को मुफ़्त में दे दी थी....दो दिन तक न गाय ने कुछ खाया पिया न मेरी नानी ने...दोनों का रो रोकर बुरा हाल हो गया था....तीसरे दिन पड़ोसी गए और उसे घर वापस ले आये...यूँ लगा मानों दो बिछड़ी आत्माएं मिली हों...साथ जीने मरने की कसमे खायी गयीं और अपना उपवास तोड़ा गया

शाम को गुरूद्वारे में गुरबानी शुरू होती है...हमेशा से देखती आई हूँ उतने वक़्त पेड़ पौधे एकदम सावधान की अवस्था में लगते हैं मुझे...मुझे नानी के यहाँ कि रातें बेहद खूबसूरत लगती हैं....आसमान एकदम स्याह और साफ़ होता है और इतने सारे तारे टिमटिमाया करते हैं...इनको देखना और बस देखते ही जाना बचपन से मेरा पसंदीदा काम हुआ करता है...और हाँ साथ ही उन टिमटिमाते जुगनुओं को देखना...बचपन में इन्हें पकड़ कर दोनों हथेलियों के बीच छुपा लेना फिर धीरे से खोलकर देखने में कितना मज़ा आता था....मेंढक यहाँ बहुतायत में होते हैं...पूरे आँगन में फुदका करेंगे...ध्यान न दिया तो कहिये कमरे में आ जाएँ....तो सन्नाटे को भंग करती मेंढक झींगुरों के शोर और तारों और जुगनुओं से जगमगाती होती हैं यहाँ की रात...घने अँधेरे में ये ज़िन्दा उम्मीद सरीखे होते हैं....बचपन में नानी से चिपक कर सोती थी उनकी चारपाई पर...वो निवाड़ वाली चारपाई...बगल वाले भैया बीन जाया करते थे नानी के लिए...नानी से कहानी सुनती, गाने सुनती, उनके बचपन के किस्से सुनती....और जगमगाते तारों को निहारती जाने कब सो जाती...बड़ी मुश्किल से अटे आज इस चारपाई में दोनों...नानी वैसी ही हैं बल्कि दुबली ही हुई हैं...पर मैं...सारी जगह ही घेर ली...

जाड़ा, गर्मी या बरसात कुछ भी हो गुरबानी सुबह ठीक 4 बजे शुरू हो जाती है और ठीक उसी वक़्त मेरी नानी बिस्तर छोड़ देती हैं....झाड़ू लगाती हैं, कूड़ा जलाती है, गोबर उठती हैं, गाय को चारा और पानी देती हैं और फिर चाय बनती हैं....नानाजी बीमार रहते हैं इसलिए अब वो कुछ नहीं कर पाते...उनकी सेवा भी नानी को ही करनी होती है...जिसमे दोनों बुजुर्गों के झगडे भी खूब होते हैं...पहले इतना सब करने के बाद नानी नाश्ता जिसमे अमूमन रोटी सब्जी बनती थी, बनाकर, हंडिया में दाल चूल्हे पर रखकर खेत चली जाती थी....वहां से चारा लेकर जब तक लौटतीं तब तक धीमी आंच पर दाल चूल्हे पर पकती रहती....क्या स्वाद था वो उफ़...और फिर घर के बने घी के साथ फूल की थाली में मुझे खाना परोसा जाता...ये मेरी पसंदीदा थाली थी क्यूंकि इसका रंग सबसे अलग था...नानी उस बड़ी मथनी से छांछ मथकर मक्खन निकालती थी...उसे छंछ छोलना कहते थे...मैंने भी ये काम करने की कोशिश में बड़ी हांडियां फोड़ी हैं

नीम के नीचे बैठी यहाँ की सुबह देख रही हूँ....सुबह 6 बजे तक सब खेतों को जा चुके होते हैं...लोग अपनी गाय भैंसों को (जिन्हें यहाँ डंगर कहते हैं) नहर पर पानी पिलाने ले जा रहे हैं...हाँ वही छोटी नहर जिसमें कभी हम बच्चे नहाया करते थे...अब तो उसके किनारे बनी सीढ़ियाँ टूट गयीं हैं...अब बच्चे नहीं जाते वहाँ....मेरे नानी नाना गाँव के सारे गढ़वालियों के अघोषित रूप से बोडी बाडा हैं..गढ़वाली में इसका मतलब ताई ताऊ होता है....सड़क हमारे घर के ही सामने से है तो गुजरने वाले सभी गढ़वाली बच्चे और बड़े बोडी बाडा और बाकी लोग दादी दादा या चाची चाचा राम राम करते हुए जाते हैं....वो दूधिया मामाजी अब भी आते हैं गाँव में....सबके यहाँ से दूध ले जाते हैं कालागढ़ की डेरी में...उनके बेटे अलग हो गए हैं इसलिए उन्हें अब भी काम करना पड़ता है...वो ब्रेड, बन और बिस्कुट वाला...भोपू लगा होता है उसकी साईकिल में और शायद हफ्ते में दो ही दिन आता है....वो जो सतपाल मामाजी की दुकान है न वहां डबलरोटी मिलती है...बन को सुखाकर बनती है शायद...मुझे उसका स्वाद बड़ा अच्छा लगता था...आज भी आती हूँ तो बचपन के वो स्वाद दुबारा चखना नहीं भूलती...वो उन गलियों में वापस जो ले जाते हैं  
आज सोचती हूँ शाम को खेत हो आऊँ और वो जो बगल के खेत में दरगाह है वहां भी तो जाना है....मां ने कहा था अपने खेत वाले पेड़ पर भी हो आऊँ...एक डौली का पेड़ है हमारे खेत में..कोई जंगली पेड़ होता है ये....उसकी कहानी ये है कि बहुत पहले यहाँ पीर बाबा का स्थान था...पेड़ के नीचे कच्चा सा कुछ बना हुआ था, आस पास के गाँव वाले आते थे...एक बार बाबा गाँव में किसी के सपने में आये और कहा कि उनके लिए एक स्थान बनवाया जाए...तो फिर बगल वाले खेत में दरगाह बन गयी...ये भी कहा गया कि पुरानी जगह वैसी ही रहेगी और यहाँ आनेवालों को पहले पुरानी जगह ही जाना होगा...माँ बताती हैं एक बार पेड़ की टहनियां बहुत झूल रही थीं तो उनके दिल में आया कि क्या पेड़ कटवा देना चाहिए..नयी जगह तो बन ही गयी है....तो उस रात गाँव में किसी और व्यक्ति के सपने में आकर बाबा ने कहा कि पेड़ कभी न काटना चाहो तो नीचे से झाड़ साफ़ कर लो....ये सब मान्यताएं हैं यहाँ की...पर बड़ी ही मज़बूत हैं...लोग आज भी मानते हैं की दिल में कोई सवाल हो तो बाबा से कहने पर किसी न किसी तरह जवाब ज़रूर मिलता है....जब भी हम आते हैं हमे यहाँ आना ही होता है...बल्कि कोई मन्नत जब मांगी जाती है तो बाकि देवी देवताओं के नाम के साथ साथ लिस्ट में इनका नाम भी होता है...इन्हें खुद ही सब पीर बाबा कहने लगे....नानी की सख्त हिदायत है जल्दी वापस आने की...भूत प्रेतों पर ज़बरदस्त विश्वास यहाँ लोगों को खूब डरा कर रखता है 

खेत तक पहुँचने के दो रास्ते हैं...एक वो जो अड्डे से होकर जाता है पक्की रोड के रास्ते...और दूसरा गाँव के ही साथ साथ बने कच्चे रस्ते से....मैं कच्चे रास्ते पर निकल पड़ी...सोचा लौटते में पक्की रोड होकर आ जाउंगी...नहर के किनारे तो पूरे ही टूट गए हैं....और अब तो लोगो ने खेतों में भी मकान भी बना लिए हैं...पहले गाँव एक तरफ़ था उसके बाद खेत शुरू होते थे...परिवार बढ़ रहे हैं तो शायद जगह की तंगी होती होगी...ये छोटी नहर बड़ी नहर से निकली है....बड़ी नहर रामगंगा नदी से निकाली गयी है....बीच में से उसका एक छोटा रास्ता बनाकर और गेट लगाकर बायीं तरफ़ मोड़ दिया गया है.....ताकि उस तरफ़ के सारे खेतों तक पानी पहुँच सके...और बाकि ज़रूरतों के लिए भी पानी उपलब्ध हो....इस बड़ी नहर के ऊपर एक संकरी सी पुलिया है....याद करती हूँ...बचपन में तो यूँ ही दौड़ जाते थे उसपर..चाहे जितनी गर्मी हो नहर का पानी एकदम ठंडा रहता था....5 -7 मिनट अगर लगातार रह लिए तो बाहर आकर कांपने लगते थे...ये हम शहर के बच्चों के हाल थे वहां वाले तो मज़े में नहाते थे...बल्कि पुलिया के ऊपर से छलांग लगायी जाती थी नहर में...उस जगह पर पानी की गहराई ज़्यादा थी तो ये ही शर्त लगती थी कि कौन वहाँ कूद पायेगा...छोटे बच्चों के लिए छोटी नहर थी और बड़ों के लिए बड़ी...जब और थोडा और बड़े हो जाएँ तो पुरुष तो जाएँ बड़ी नहर में पर महिलाएं घर पर सिमट जाएँ...छुटपन में ये बड़ी नहर हमारे लिए नदी सरीखी थी....बड़ी मुश्किल से आज डरते डरते पार किया इस पुलिया को...जब इस पार पहुँच गई तब जान में जान आई...मेरे इस डर को देख कर बच्चे भी हंस रहे थे मुझपर... 
              
अब मेरे बाएं और दाहिने, दोनों तरफ़ दूर दूर तक फैले खेत थे...मैं उस थोड़े चौड़े पर कच्चे रास्ते पर थी जिसमे बायीं तरफ़ एक छोटी कच्ची नहर बनायीं गयी थी खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए....इस नहर से छोटी छोटी नालियां बना कर खेतों को पानी मोड़ लिया जाता था...ये आपसे सहमती होती थी कि ऐसा बारी बारी से हो ताकि सबको पानी मिल सके......ये बोरिंग वाला खेत नारायण सिंह नानाजी का है...वो अब नहीं रहे...बचपन में नानी के साथ खेत पर आते थे और लौटते वक़्त इस बोरिंग में नहा कर जाते थे...उफ़ क्या तेज़ बहाव होता था..

ये दाहिनी तरह रणवीर मामाजी के खेत है इसको पार करके हमारे....आज कटहल तोड़ा जा रहा है पेड़ से...हाल चाल लेने के बाद एक बड़ा कटहल मुझे भी पकड़ा दिया गया मैंने मना किया तो डांट भी पड़ गयी...बताया गया आ गयी हो तो लेती जाओ वरना हम घर पहुंचाने आते...ये गाँव में एक आम बात है...सब्जी हो या फल या कोई और नयी चीज़...लोग एक दूसरे के घर ज़रूर पहुंचाते हैं...मैं उनका शुक्रिया अदा कर खेत की ओर बढ़ चली...ये खेतों के बीचों बीच ढौं का पेड़ हुआ करता था और उससे चिपका यू के लिप्टिस का..जिसे लोग लिपस्टिक कहते हैं...कहाँ गए दोनों पेड़?? ढौं एक फल होता है सेब जितना बड़ा और भीतर से कटहल जैसा...पकने पर बड़ा ही मीठा और उसका पेड़ तो बहुत ही मज़बूत होता है...क्यूँ कटवा दिया गया...कोई वजह ही रही होगी...लेकिन मेरे बचपन की इन यादों का एक एक कर ग़ायब होना मुझे दुख दे रहा था...जहाँ कभी ये पेड़ हुआ करते थे मैं कुछ देर वहां बनी मेंढ़ पर बैठी रही...बचपन के दिन याद करती रही...नानी की तरह मुझे भी सिर पर कपड़ा जिसे गढ़वाली में मुंडेड़ा कहते हैं बाँध कर दंरात से घास काटना होता था...धान लगने के मौसम में वो घुटने तक के पानी में घुस कर धान लगाने होते थे...मुझे बहलाने के लिए आसान काम बताया जाता कि दूसरी क्यारी से पौध के गड्डियां लेकर आओ पर मैं कहाँ सुनने वाली...एक बार तो गुस्से में जो धान लगे थे वो ही निकालने शुरू कर दिए थे....गोविन्द मामाजी जो हमारे बटाईदार हैं वो बुला लेते फिर क्यारी में....कितनी बार उन पानी भरी क्यारियों में गिर जाती...मिट्ठी में पैर फंस जाते और मैं छपाक वहीँ...फिर कोई न कोई उठाने आता कि पंडित जी कि नातिन गिर गयी...और इतने सबके बाद पूरी शान से घास का एक गट्ठा नानी और मां की तरह मुझे भी अपने सिर पर ले जाना होता था...और वो देखने में छोटा नहीं लगना चाहिए...और दंरात मेरे गट्ठे पर ही लगनी चाहिए...ताकि मुझे बड़ेपन का एहसास हो...सब हँसते थे और मुझे बहलाने के लिए आँखे बड़ी बड़ी करके कहते कि अरे बाप रे इतना बड़ा गट्ठा लेकर कैसे जाओगी...बस मैं तो मारे ख़ुशी के फूली न समाती...हम शहर के बच्चों को ये सब बहुत रिझाता था पर वहां सब जानते थे कि हमारे बस का क्या है और क्या नहीं....अब ये सब याद कर कर के हंस रही हूँ और अफ़सोस भी कर रही हूँ कि काश कोई रिमोट होता जो बटन दबाते ही उस वक़्त को वापस ले आता...बचपन में हम बड़े होना चाहते हैं और आज जब बड़े हो गए हैं तो महसूस होता है ज़िंदगी में क्या कुछ दूर हो गया..सादगी, भोलापन, निश्छलता, साफ़गोई, नादानियाँ, खुशियाँ और छोटी छोटी उम्मीदें और भी न जाने क्या क्या...बचपन के साथी भी तो बिछड़ गए...लड़कियों की शादी हो गयी और लड़के भी नौकरी के लिए गाँव से बाहर पलायन कर गए 

बगल के खेत पर बढ़ चली हूँ दरगाह की तरफ....सरदारों के एक बड़े सभ्रांत परिवार के खेत में बनी है ये...यहाँ की भी अजीब मान्यता है...कि अगर ईंटों से भरी कोई गाड़ी यहाँ 5 ईंट गिराए बिना आगे बढ़ जाती है तो या तो ख़राब हो जाती है या कुछ न कुछ बाधा आ जाती है...उन ईंटों को इकठ्ठा कर यहाँ भवन निर्माण करा दिया जाता है...मानने को नहीं कहा बस मान्यता बताई यहाँ की.....अजीब है पर है..साल में एक बार यहाँ भंडारा भी होता है ..यहाँ से होकर घर लौटती हूँ पक्की रोड के रास्ते हल्का अँधेरा हो चुका है....पेट्रोल पम्प के आगे वाले खेत में एक कोल्हू लगा है...मैं उत्सुकतावश चल पड़ती हूँ...ये तो बंत मामाजी का कोल्हू है...वो हमारे दूसरे खेत के बटाईदार हैं...फटाफट कनस्तर झाड़कर उल्टा करके मेरे बैठने के लिए स्टूल तैयार हो जाता है...और एक पत्ते में गरम गरम गुड़ भी आ जाता है...ये मामूली वाला गुड़ नहीं था...यहाँ गन्ना बहुतायत में होता है...परिवार अपने लिए थोड़ा गुड़ ख़ास किस्म से मेवे डलवा कर बनवाते हैं...ये वही था...मज़ा आ गया...थोडा गुड़ घर के लिए भी बाँध दिया गया.....लौटते में रास्ते में एक नानी के हाल चाल लेने लगती हूँ...वो आज पहाड़ के अपने पुश्तैनी गाँव से लौटी हैं...वहां से मंडुए का आटा जिसे यहाँ चून कहते हैं, और झुंगरियाल के साथ गैथ की दाल पकड़ा देती हैं..बताती हैं कि नाती को बस भेज ही रही थी कि बोडी के यहाँ दे आ....पर जो चीज़ मेरे पसंद की थी वो थी अरसा...अरसा एक मिठाई होती है जो चावल को कूट कर गुड़ के साथ पका कर बनायी जाती है...ये ख़ास मौकों जैसे शादी या बड़ी पूजा या फिर बेटी को ससुराल विदा करते वक़्त ही बनती है...कहते हैं यूँ ही अगर खाने के लिए बनाना चाहें तो ये बनती भी नहीं....मान्यताओं से भरा जीवन है...उसमें एक ये भी सही...पर मेरा काम तो बन गया...इतना सारा सामान लेकर घर वापस आई और देर से आने पर नानी से फिर डांट खायी...बचपन की तरह फिर हंसती रही और नानी से लिपट गयी...बेचारी नानी किसी तरह मुझे डांट कर ख़ुद को अलग कर पायीं..

मेरे पास ददिहाल की ज़्यादा यादें नहीं क्यूंकि वहां मैंने ज़्यादा वक़्त ही नहीं बिताया...दादाजी मेरे पैदा होने से पहले ही गुज़र गए थे और दादी की मृत्यु भी तब हो गयी थी जब मैं बहुत छोटी थी...फिर ददिहाल में एक बड़ा परिवार था और ननिहाल में तो सिर्फ हम लोगों का राज था...तो हम लोग सिरचढ़े भी थे... मेरा भाई नानाजी का सबसे लाड़ प्यार का था और आज भी है...मैं उनसे लड़ती रहती हूँ तो उन्हें लगता है मैं कम ही आया जाया करूँ...बहन एकदम सीधी है...तो वो सबकी लाडली है....मेरा मन यहाँ की यादों से भरा पड़ा है...निकालने बैठूं तो जाने कितना कुछ कह दूँ....कैसे इतने दिन गुज़र गए नानी के साथ हंसी मज़ाक करते, उनकी बातें, किस्से कहानियाँ सुनते, मेरी नानी मनमौजी हैं मतलब वो हर बात यूँ ही नहीं मान लेती मसलन भगवान को मानती हैं पर मंगल, बृहस्पति या शनिवार को मांस न खाना उनकी समझ में नहीं आता....सबको डपट देती हैं पर भीतर से उतनी ही कोमल हैं....ज़रा भी पढ़ी लिखी नहीं लेकिन खेती बाड़ी का पूरा हिसाब किताब ख़ुद देखती हैं और ज़रा भी किसी ने इधर उधर करने की कोशिश की तब तो उसकी खैर नहीं...सेवा के नाम पर भला मैंने क्या किया...बालों में तेल देकर चोटी बना दी, खाना बना दिया, 2 – 4 बाल्टी पानी ले आई या बर्तन मांज दिए...बस उसी में निहाल हुई जाती हैं...बुज़ुर्गों की उमीदें और अपेक्षाएं कितनी छोटी छोटी होती हैं और हम उन्हें भी पूरा नहीं कर पाते...अब लगता है कि ऐसा नहीं था कि इन 3 सालों में मैं यहाँ आ नहीं सकती थी पर जाने क्यूँ मैंने यहाँ आने को अपनी प्राथमिकता में नहीं रखा...लगा मां पापा हैं तो वहाँ...अब अफ़सोस होता है और अपराधबोध भी कि उस वक़्त में जो ख़ुशी दी जा सकती थी वो नहीं दी गयी....मेरा अब यहाँ से जाने का जी नहीं करता...यहाँ किसी भी चीज़ में कोई बनावट नहीं...कोई दिखावा नहीं...कोई चालाकी नहीं...बस यहीं यूँ नानी से गप्पें लड़ाऊं, हंसूं, मुझे ये महसूस हुआ कि मेरी नानी हँसना चाहती हैं खुलकर छोटी छोटी बातों पर पर ज़्यादातर वक़्त उनके पास साथ ही नहीं होता...उनकी जो साथी थी भी वो बच्चों के साथ कोई देहरादून तो कोई काशीपुर चली गयीं..जो हैं वो ज़्यादा चलने फिरने में असमर्थ हैं....अगर बाक़ी नानी लोग गाँव में होती हैं तो रोज़ शाम नानियों की टोली आ ही जाती है...मुझे याद है एक बार जब मैं नानी से गांव छोड़ लखनऊ चलने की ज़िद कर रही थी तो दूसरी नानी, नित्तू की दादी ने डपटकर कहा था...अब हम लोग कहीं नहीं जायेंगे...यहीं रहेंगे, यहीं मरेंगे...हमारा दगड़ा (साथ) है...

नानी को देखती हूँ तो सोचती हूँ 13 साल की छोटी उम्र में जो बच्ची ब्याह के आई थी उसके सपने रहे तो होंगे ही...क्या थे, क्या कुछ पूरे भी हुए या सब टूट गए...कभी किसी ने जानने की कोशिश ही नहीं की....एक लम्बी ज़िंदगी अलग अलग तरह के संघर्ष में बिताने के बाद हंसने की ख्वाहिश रखना तो एक बहुत छोटी सी इच्छा है...

आज जाना है...मैं देख रही हूँ नानी कल से ही चुप चुप हैं...दो दिन हमारा जाना स्थगित हो चुका है...इससे सबसे ज़्यादा मैं और नानी ही खुश हुए थे...मेरी नानी की ये आदत है कि एक दिन पहले से ही वो हम लोगों से कहने लगती थीं कि कल इस वक़्त तुम चले जाओगे...कल इस वक़्त ट्रेन में रहोगे...अब इस वक़्त फलां जगह पहुँच जाओगे.....और ठीक इसी तरह सोचते हुए उनका वो दिन बीतता था जिस दिन हम सफ़र करते थे....नानी कल से ही उदास हैं...कभी नीम के पेड़ तले अकेले बैठ जा रही हैं तो कभी गाय से बातें कर रही हैं....कल जब नानी के बाल बना रही थी तो लग रहा था जैसे दिल भरा जा रहा है....कितना कुछ काम कर जाऊं कि कुछ दिन इन्हें आराम मिल जाये...आज नानी अकेले में छुप छुपकर रो रही हैं...और मैं भी अपनी डबडबायी आँखें छुपाने की कोशिश करती फिर रही हूँ...बड़ी मज़बूत बनकर मुस्कुराते हुए उनके सामने जा रही हूँ...उनकी तो आवाज़ भी आज मद्धम है....जानती हूँ मेरी नानी अब कुछ दिन दूसरे कमरों में जायेंगी ही नहीं....हमारे जाने के बाद वहां का सन्नाटा उन्हें बेचैन कर देता है

प्लेट में हल्दी चावल की फिटाई आ गयी है....नानाजी ने कोई मन्त्र पढ़ कर टीका किया और वो नोट थमा दिया...उसकि क़ीमत दुनिया की सारी दौलत से ज़्यादा है....मैं और नानी फिर लिपट कर रो दिए...दोनों एक दूसरे को चुप भी कराते रहे...और इस बार हंस न सके....वो अड्डे तक नहीं आ पाएंगी पर जब तक मैं उस गली से निकल नहीं आई वो भीगी हुई बूढी आँखें मुझे देखती रहीं और हाथ हिला कर मुझे विदा करती रहीं....6:30 सुबह की बस अपने समय पर थी...हम कोटद्वार की तरफ़ निकल पड़े...बड़े भारी मन से मैं अपने बचपन की यादों से विदा ले रही थी...पर इस बार ये वादा ज़रूर किया था कि यहाँ आना अब फिर जल्दी ही होगा