बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

मैं समझ सकती हूँ कि तुम नहीं बोल पायी... और यक़ीन मानो तुम नहीं बोल पायी तो ये कोई ग़लती नहीं थी...

मुझे शोर बहुत परेशान कर देता है....इतना कि मैं कोशिश करती हूँ इससे जितना दूर रह सकूँ रहूँ...कहीं  कहीं से ख़ुद को अलग कर देना पड़े तो भी गुरेज़ नहीं...सोशल मीडिया एक उदाहरण है...जब जब वहां का शोर असहनीय हो जाता है मुँह फेर लेती हूँ...कुछ दोस्त मज़ाक में चिढ़ाते हैं कि तुम्हें बुढ़ापा आ गया है...पर मैं अपने इस शेल में सुकून पाती हूँ...दिन, रात, फूल, पत्ती, चाँद, सितारे, सूरज, आसमान, मिट्टी, बच्चे, प्रेम, मुस्कुराहटें....मैं कई बार ख़ुद को इन तक ही सीमित रखना चाहती हूँ  

इन सब में ऐसा कतई नहीं कि शोर मेरा पीछा छोड़ देता है...किसी न किसी रास्ते वो दरवाज़ा खटखटाने ही लगता है...हमेशा न तो आँखें मूंदी जा सकती हैं न ही कान ढंके जा सकते हैं...और बाहर के शोर को जैसे तैसे रोक भी लिया जाए पर जो भीतर है उससे कैसे निपटा जाये..उसे न तो नज़रंदाज़ करते बनता है न भूलते...

इस वीकेंड #MeToo का कुछ ऐसा ही शोर रहा...बात लड़कियों के उन अनुभवों की थी जब अपने कार्य स्थल में उन्हें यौन हिंसा का सामना करना पड़ा...अभिनय, पत्रकारिता, फ़िल्म निर्माण, लेखन के क्षेत्र से जुड़ी लड़कियों ने जब अनुभव साझा करने शुरू किये तो एक के बाद एक छवियाँ टूटती गयीं...हमारे बीच रोज़गार की जगहें व वहां के माहौल में दिन के उजालों में भी अँधेरे ही पसरे मिले...मैं हमेशा ही कहती हूँ कि जितना हम रिपोर्टों में देखते हैं असलियत उससे कहीं ज़्यादा है क्योंकि अधिकाँश बातें दर्ज ही नहीं हैं...मेरे हिसाब से तो शायद ही कोई ऐसी लड़की होगी जिसे कभी यौनिक हिंसा का सामना न करना पड़ा हो...हम अपने समाज की पढ़ी लिखी काबिल लड़कियों को काम करने के लिए ये ही माहौल दे पा रहे हैं.. ध्यान रहे, घर कोई सुरक्षित नहीं और कार्यस्थल में भी हर महिला शामिल है इसका उसके पद, शैक्षणिक योग्यता या अनुभव से कोई लेना देना नहीं...ऐसी किसी भी बात से उसकी गरिमा कम या ज़्यादा नहीं हो जाती

इस उथल पुथल में पिछले 2-3 दिन तबियत बड़ी भारी रही...मैंने कोई चर्चा नहीं सुनी...एक जगह 2 मिनट के वीडियो पर बहस इस बात पर थी कि इस प्रकार की हिंसा को अन्य प्रकार की महिला हिंसा या यौन हिंसा के साथ देखा जाए या नहीं, उन लड़कियों को सोशल मीडिया पर कहना चाहिये या नहीं, इतने सालों बाद बात करनी चाहिए या नहीं वगैरह वगैरह ....क्या बकवास है ! अब हम हिंसाओं को इस नज़रिए से देखेंगे....यकीन मानिए यौन हिंसा के अनुभव कह पाना आसान नहीं होता और मुश्किल ये कि इनकी यादें कभी पीछा नहीं छोड़तीं बल्कि ये पूरे व्यक्तित्व पर बीमार कर देने की हद तक असर डालती हैं  

आप किसी भी लड़की या बच्ची से बात करके देखिये हमारे समाज में हाल ये है कि हर लड़की की अपनी तमाम कहानियां निकल आएँगी...आज आप अपना चेहरा देखकर ही बेचैन हैं...कुछ मामलों में आप कह रहे हैं सॉरी हम समझ नहीं पाए, हमसे चूक हुई...जिस बात या घटना या अनुभव को आप एक सॉरी से बैलेंस करने की कोशिश करते हैं आपके ख़याल में ही  नहीं कि उसका असर क्या हुआ था...

मेरी याद्दाश्त बेहद बेहद कमज़ोर है...मेरे सभी साथी ये बात जानते हैं...बावजूद इसके मुझे अपनी ज़िन्दगी में अलग अलग उम्र व जगहों पर घटी वो सारी घटनाएं याद हैं...और जब वो याद आती हैं, मैं नहीं समझ पाती कि उस स्थिति को कैसे सम्भालूँ...जी हाँ मैं, 36 साल की पढ़ी लिखी कामकाजी लड़की....वीमेन्स स्टडीज पढ़ी हुई, 10-12 साल से NGO के ही क्षेत्र में काम करने वाली, बराबरी के मुद्दे पर पढ़ने लिखने बोलने वाली...जब भी कोई मुझसे ये कहता है कि मैं बहुत मज़बूत हूँ मुझे अपने आप में ये बात बेहद हास्यास्पद मालूम देने लगती है क्योंकि उन परछाइयों से ख़ुद को बाहर मैं अब तक नहीं निकाल सकी, बस संघर्ष कर रही हूँ...हाँ ये कोशिश ज़रूर रहती है कि और किसी के साथ ऐसी घटना न हो इसके लिए अगर कुछ कर सकूँ तो ज़रूर करूँ....

मेरी कमज़ोर याद्दाश्त के चलते मुझे ये याद नहीं कि उस वक़्त मेरी उम्र क्या थी, मैं छोटी थी क्योंकि पुराने लखनऊ के उस घर को जब मेरे परिवार ने छोड़ा तब मैं कक्षा 6 में थी....उससे पहले के समय में जबकि मुझे ये तक याद नहीं कि मैं स्कूल जाती थी या नहीं, जाती थी तो कहाँ, किस क्लास में...मुझे याद हैं आस पास के वो सब ‘भैया’ लोग जो कभी किसी घर की छत पर तो कभी मम्मी के घर पर न होने के वक़्त बारी बारी से अपनी इच्छाएं पूरी करते थे..वो तय करते थे कौन किसके साथ जाएगा...काम पूरा होने पर पुचकार के कान में कहते ‘किसी से कुछ कहना नहीं’...मुझे और कुछ भी नहीं याद पर इतना बहुत बहुत अच्छी तरह आज भी याद है कि बहुत दर्द होता था... ये इस तरह याद है मानो कल की बात हो...ये हमारे अड़ोस पड़ोस के सभ्य संस्कारी घरों और पारिवारिक मित्रों के घरों के वो भैया लोग थे जिनके भरोसे हमारे अभिभावक हमें बेझिझक छोड़ जाते थे...भरोसा था कि इनके साथ हम सुरक्षित हैं...

मेरा परिवार ऐसा था जहाँ अनुशासन का मतलब डर और दहशत था...मैं बचपन के उन अनुभवों के चलते बेहद दब्बू, डरपोक, अंतर्मुखी होती चली गयी...मेरा दिमाग़ मानो मकड़जाल की तरह उलझा हो, एक अजीब भावना या कुंठा से भरा...परिवार की चिंताएं स्कूल में अच्छे नंबर लाने से जुड़ी थीं क्योंकि ये तय हुआ था कि मुझे डॉक्टर बनाया जायेगा...ये बात कभी भी अपने परिवार में साझा नहीं कर सकी..मैं किससे कहती और क्या कहती...ये तो ‘गन्दी बात’ थी...मम्मी ने कहीं सुना तो वो कितना मारेंगी...ये वो स्थितियां थीं जब किसी का भी स्पर्श असहज करने लगे...पिता का भी और भाई का भी...समझ ही न आये कि रिश्तों के असलियत में क्या मायने हैं...क्योंकि वो सब भी तो भैया लोग ही थे...माँ अक्सर ननिहाल जाती थीं तो पापा स्कूल की छुट्टी के बाद हमें अपने दफ़्तर ही ले जाते...शिक्षा विभाग में छात्र कल्याण निधि देखते थे जहाँ से छात्र छात्राओं को छात्रवृत्ति मिलती थी....मुझे नहीं पता कि उस दिन पापा के ऑफिस में आया वो युवक बार बार मेरी ट्यूनिक के अन्दर क्यों हाथ डाल रहा था...मेरे पिता उसे शायद फॉर्म भरने की सही विधि या दस्तावेज़ लगाने की जानकारी दे रहे थे...जी हाँ मेरे पिता वहीं थे...और इस युवक का हाथ बार बार नीचे से मेरी ट्यूनिक के भीतर जाता हुआ ऊपर को बढ़ने लगता....ये ग़लत है...गन्दी बात...मैं डरती और उधर से हटकर दूसरी तरफ़ खड़ी हो जाती...वो फॉर्म को और ठीक से देखने के बहाने फिर मेरे बगल आ जाता....न मैं चिल्ला सकी, न मैं अपने पिता को बता सकी और न ही बाद में घर पर ही किसी से कह सकी...यक़ीन मानिए मुझे उस वक़्त की उम्र भी नहीं याद बस इतना याद है की प्राइमरी स्कूल जाती थी...इन लोगों की हिम्मत को समझने की कोशिश करते चलिए....अभी तक और बाद में भी किसी आपराधिक रिकॉर्ड वाले व्यक्ति ने ही ऐसा किया हो, ऐसा कभी नहीं रहा    

नए घर के अड़ोस पड़ोस के कुछ भैया लोग हों या ननिहाल के गांव के वो लोग या रिश्तेदार...उन्हें खेलती, पढ़ती, खाती, सोती, रोती लड़की या बच्ची बस एक ही तरह दिखती थी...वो उसके शरीर के अलग अलग हिस्सों तक पहुँचना चाहते थे...ये वो लोग थे जिन्हें सम्मान भी देना होता था...देना ही था क्योंकि घर पर ये ही सिखाया गया था ये भैया हैं, ये मामा हैं, ये अंकल हैं...दुनिया के आगे वे ख़ासे शरीफ़ सज्जन संस्कारी थे भी....बल्कि कई बार तो इनमें वो लोग भी थे जिनकी बाहर ज़ुबान तक नहीं खुलती थी...अक्लमंद से लेकर बेवकूफ़ कहे जाने वाले तक सब ही थे...असर और गंभीर होना था...इन सब के पीछे जो कुछ घट रहा था कहीं शायद मन उसके साथ एडजस्ट होने लगा था कि शायद ऐसा ही होता है...क्योंकि ये तो बचपन की मेरी उन सहेलियों के साथ भी हो रहा था और उनके भाई को सब पता भी था...तो शरीर ने प्रतिकार करना बंद कर दिया...ऐसी स्थितियों में ज़ुबान पाताल लोक चली जाती...इसके आगे अगली बात ये कि आत्मग्लानि से ख़ुद का ही मन भरने लगा कि सब मेरी गलती है....क्योंकि अगर मेरी ग़लती नहीं होती तो घर में मार पड़ने का डर भी न होता...इन स्थितियों ने कक्षा 7 तक आते आते लड़कों या पुरुषों के प्रति मेरे व्यवहार को बेहिसाब उलझा दिया था...ये सामान्य तो कतई नहीं था और उसे सामान्य करने वाला/ वाली मेरे इर्द गिर्द भी कोई नहीं था/ थी

‘यक़ीन’ बेहद ज़रूरी शै है...मुझे ये यक़ीन होना कि मुझे सुना जायेगा, मेरी बातों पर यक़ीन किया जाएगा...ये यक़ीन बहुत कुछ होने से रोक सकता था...पर यक़ीन की जगह डर था कि मेरी बात कौन मानेगा, कहूंगी तो जाने कैसी प्रतिक्रिया होगी, मार पड़ेगी...किसी भी पारंपरिक परिवार की तरह को-एड में पढ़ने के बावजूद लड़कों से दोस्ती की इजाज़त नहीं थी, लड़कियों से भी अधिक दोस्ती पसंद न की जाती...घर के अनुशासन वैसे ही थे, मैं बच्ची से किशोरी बनने की ओर थी लेकिन पढ़ाई में पिछड़ रही थी..उन बातों का ज़िक्र पहले कहीं और कर चुकी हूँ...नंबर लाने के दबाव यथावत थे...मैं रिश्तेदारी या अड़ोस पड़ोस के उन ‘सम्मानित’ लोगों द्वारा दिए जा रहे अनुभवों से जब मचल जाती तो अकेले में रोती, कई बार पूजा में रखी तस्वीरों के सामने बैठ कर...यहाँ उन सब का तो ज़िक्र ही नहीं है कि कब किसने फब्तियाँ कसीं, अश्लील इशारे किये...यहाँ जो हैं वो भी कुछ ही घटनाएं हैं

कक्षा 9 में मेरी तबियत बिगड़ी...झटके से लगने लगे.. लोगों को लगा मिर्गी के दौरे हैं, परिवार को लगा किसी को पता न चले...जब भी अति उत्साहित होती, नर्वस होती, डरती, जल्दबाज़ी में होती तो ऐसा होता...हाथ का सामान छूट जाता...मैं खड़ी होती तो गिर जाती, हाथ पैर ठन्डे हो जाते, ऐसा तब तक होता रहता जब तक सब छोड़ छाड़ कर रिलैक्स न हो जाती...वो क्या था ये कोई नहीं जान पाया क्योंकि किसी चिकित्सकीय रिपोर्ट में कभी कुछ नहीं निकला...शायद इसी वजह से माँ को लगता कि कुछ हवा बयार है और वे उसके इलाज चालू रखतीं...एक बार एक डॉक्टर ने इतना ज़रूर कहा कि इसका ब्लड प्रेशर अचानक से गिर जाता है....हाँ मुझे नींद की दवाइयां सभी डॉक्टरों ने खूब खिलायीं लगभग 13-14 साल...इतनी कि मैं उनकी आदी हो गयी और बाद में उनसे पीछा छुड़वाने के लिए अलग इलाज कराना पड़ा...शुरूआती समय में एक साल दवाइयों की ज़रुरत नहीं पड़ी थी... एक युवा डॉक्टर जो अपनी पढ़ाई कर रहे थे वो हफ़्ते में एक दिन बुलाकर मुझसे बात करते...यूँ ही इधर उधर की...और मैं साल भर ठीक रही...आज जानती हूँ कि इसे काउंसलिंग कहते हैं...उस कॉउंसलिंग की अहमियत अब समझती हूँ कि कोई एक शख़्स था जो प्यार से मुझसे मेरी रुचियाँ पूछता, क्या अच्छा लगता है क्या बुरा, क्या तकलीफ़ होती है, कब ज़्यादा होती है और जो मैं बताती उस पर यक़ीन करता...क्या पता मेरी इस बीमारी या तकलीफ़ के पीछे मेरे बचपन के बीते अनुभवों की भी कोई भूमिका रही हो  

ये अजीब स्थितयाँ थीं कि पुरुषों के प्रति भय भी था और वहीं स्कूल में दोस्त भी बन रहे थे...कहीं आकर्षण भी था, उलझनें भी थीं, बस रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं था...सब कुछ किसी न किसी तरह साथ साथ चल रहा था...मैं बड़ी हो रही थी लेकिन न ज़ुबान खुल रही थी न स्थितियाँ बदल रही थीं, बस लोग बदल रहे थे...ये वो बातें थीं जो सहेलियों से भी साझा नहीं हो रही थी...मुझे नहीं याद कि क्या मुझे ऐसा लगता था कि ये तो सबके साथ होता है...इन सालों में एक बात और हुई...मुझमें दूसरों की संवेदना पाने की आदत बनने लगी...अपनी बीमारी की बातें करना, उसे पढ़ाई में पिछड़ने का बहाना बताना... शायद ये इसलिए था क्योंकि जो बात कहनी थी उसे कहने के तो कोई रास्ते थे नहीं, दुनिया मुझे ऐसी लड़की के तौर पर न देखे जो पढ़ने में या किसी भी काम में अच्छी नहीं है...मैं सबकी जैसी लगूं, स्वीकार्यता पाऊं, पसंद की जाऊं...इसके लिए ज़रूरी है कि मैं उन्हें बताऊँ कि मैं ऐसी क्यों हूँ पर सारी बातें तो बता नहीं सकती तो वो बताया जाये जो सबसे आसान है...

वो ऑटो, बस या ट्रेन में बैठे सहयात्री हों, क्लिनिक में बैठे डॉक्टर या मंदिर के पुजारी...मेरी आवाज़ बहुत बाद तक भी नहीं खुली...और उनके हाथ बहुत आसानी से मुझ तक पहुंचते रहे...मैं नहीं समझ पायी कि दिल्ली में उस क्लिनिक के बुज़ुर्ग डॉक्टर या नीमसार के उस मंदिर के पुजारी ने मेरे कपड़ों के भीतर हाथ क्यों डाला....तब तक मैं बीए में पहुँच चुकी थी...अब तक मेरे भीतर आत्मग्लानि के साथ साथ दुख और ख़ुद के प्रति ग़ुस्से ने जगह बना ली...वहीं मेरे परिवार को मैं बहुत 'तेज़' लगती थी...ये अजीब था क्योंकि मैं ये भी चाहने लगी थी कि मुझपर ध्यान दिया जाए और मैं ये भी चाहती थी कि सब दूर रहें, मुझे छुएँ न....मुझे हर पुरुष का स्पर्श एक सा लगता....पाठ पूजा वाला मेरा परिवार जिन गुरु जी के यहाँ मेरे जाने और उनके द्वारा मुझे लाड़ किये जाने पर ख़ुश होता... जिस दिन उन्होंने इस तरह की कोशिशें कीं मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी....किससे कहूँ...क्या कहूँ ये तो भगवान की तरह पूजे जाते हैं...इनके सामने तो मैं बड़ी हुई हूँ...मैं ख़ुद परेशान होने पर इनसे अपना मन हल्का करती थी...कैसे बताऊँ कि ये इस कदर गिरे हुए हैं, कौन यक़ीन करेगा...मैं एमए में थी और तब भी कुछ नहीं कह सकी...कुछ दिक्कतों से जूझते मेरे परिवार को लगता कि वे समाधान बता सकेंगे और मुझे बार बार वहां भेजा जाता...उनके लाड़ को देखते हुए मुझे अकेले ही भेज दिया जाता...ईमानदारी से कहूँ तो ज़िन्दगी में पहली बार किसी के लिए दिल से बद्दुआ निकली थी...कुछ सालों बाद रोते हुए फ़ोन पर भाई ने जब उनकी मौत की ख़बर दी तो मैं एक अजीब ख़ुशी और राहत से भर गयी थी...

आप कह सकते हैं कि क्यों नहीं कहा, बड़े होने पर कैसे चुप रह गयी, तुम्हारी ही ग़लती है...आप बेशक कह सकते हैं और मुमकिन है मैं समझा ही न सकूँ कि मेरे अन्दर की बच्ची एक डरपोक युवती किस तरह बन गयी...ये सच है कि आज मुखर हूँ पर ऐसा नहीं कि घटनाएँ बाद में हुई नहीं...एक घटना तो कुछ साल पहले ही हुई जिसको जब मैंने अपनी दोस्तों को बताया तो उन में से एक ने मुझे जमकर फटकार लगाई और कहा तुम्हारी ही ग़लती है तुमने उसी वक़्त प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी...मैं क्यों जड़ हो गयी थी इस बात का जवाब मेरे पास नहीं था...

इन सबका कोई एक नुकसान या कुछ एक समयावधि का नुकसान नहीं होता...मैं आज भी देर रात जागती हूँ...एक स्वस्थ नींद बमुश्किल आती है...जागना मेरे लिए थकन भरा हो सकता है लेकिन सोना एक अजीब असहजता भरा...मेरे आस पास कोई एक घटना भी पता चलने पर मेरी ज़िन्दगी के अनुभवों का फ्लैशबैक मुझे कितनी देर कितने दिनों तक परेशान रखता है...

मैं एक सामान्य व्यक्ति के तौर पर नहीं पल बढ़ सकी...मेरे व्यवहार सामान्य नहीं बन सके...किसे ज़िम्मेदारी दूं...परिवार, समाज, रिश्तेदार, या ख़ुद को...मेरे व्यक्तित्व पर आज भी मेरे कल का असर है...मैं किसी पर भी भरोसा नहीं कर पाती...किसी भी पुरुष पर नहीं...हर पल ख़ुद को ये बताने के बावजूद कि ‘नहीं सब एक से नहीं होते’...मुझे किसी के स्पर्श के ख़याल से भी असहजता होने लगती है क्योंकि ‘प्रेम’ की कल्पना मेरे जीवन में जिस उम्र से आई और जिस तरह आई और बाद तक आती रही उनमें बहुत अधिक अंतर रहा हो ऐसा नहीं था, सब मेरे शरीर के इर्द गिर्द था...एक ऐसा भी समय आया था जब अपने ही शरीर से नफ़रत सी होने लगी थी...मुझे किसी व्यक्ति पर यक़ीन नहीं आता जब वो मुझे ये बताता है कि उसे मुझसे प्रेम है...मैं न सिर्फ़ व्यक्तियों बल्कि प्रेम की पुरज़ोर समर्थक होने के बावजूद भी प्रेम पर विश्वास नहीं कर पाती हूँ...और संबंधों में रहने पर शायद मेरे व्यवहार सामान्य होते भी नहीं...शायद कभी नहीं रहे...एक शोर है जो पीछा नहीं छोड़ता...सामने वाले को लगता है कि मैं उसे नहीं समझ रही...मैं बताने की कोशिश करती हूँ पर फिर लगता है कि कोई बात नहीं जाने दो इससे ज्यादा क्या समझूं क्या समझाऊं

कार्यस्थल पर आमतौर पर मैं खडूस हो उठती हूँ...मुझे ये बहुत आसान लगता है...दोस्ती करने की छूट देने पर कोई मौके तलाशे से बेहतर है वो मुझे खडूस समझे, पीठ पीछे बुराई करे पर सामने अपनी हद में रहे...ये एक कारण है कि मेरे दोस्तों की संख्या बहुत बहुत सीमित है...हाँ ये अलग बात है कि इक्का दुक्का दोस्ती पर प्रोत्साहन मिला हो ऐसा नहीं...ये बेहद मुश्किल है और स्वस्थ भी नहीं कि आप आज के समय में कार्यस्थल पर अलग अलग खांचों में रहें

ये सच है कि मैं विवाह, गर्भधारण या प्रसव की प्रक्रिया में नहीं जाना चाहती लेकिन ये भी सच है कि मैं एक बच्चा गोद लेना चाहती हूँ...पर मैं इस ख़याल भर से सिहर उठती हूँ कि मैं हर पल उसकी सुरक्षा किस तरह कर पाऊँगी...कैसे हर वक़्त निगरानी करूंगी कि यदि वो बच्ची हो तो ऐसे किसी अनुभव से न गुज़रे जिनसे मैं गुजरी...और यदि वो बेटा हो तो घर के बाहर उस पर समाज का ये चेहरा अपना असर न छोड़ दे...हर वक़्त कैसे साथ रह सकूँगी कि कहीं ये बच्चे शोषित या शोषक न बन जाएं...बचपन में तो लड़के भी यौन शोषण के ख़ासे शिकार होते हैं...और ये सब करते हुए मैं कहीं हर बात में दखलंदाज़ी करने वाली माँ न बन जाऊं...जो अपने जीवन में किसी पुरुष पर यक़ीन नहीं कर सकती वो क्यों कर अपनी बेटी या बेटे को लेकर ओवर प्रोटेक्टिव नहीं होगी...कैसी बुरी अभिभावक बनूंगी मैं...सोना (मेरी भांजी) को लेकर ऐसे भय से हमेशा घिरी रहती...ये देखकर सुकून होता है कि वो अपनी हर छोटी बड़ी बात साझा करती है, डरती नहीं और आज उसमें और दीदी में या उसमें और मुझमें वैसे सम्बन्ध नहीं जैसे मेरे अपने अभिभावकों से रहे...मेरी इर्द गिर्द की दुनिया, संस्थानों व एक समाज के तौर पर ये आपकी विफलता है

मेरे स्वास्थय के अलग मसले हैं....जिसमें एक बड़ा हिस्सा मानसिक स्वास्थय से जुड़ता है...किसे क्या कहूँ ...मेरे सुंदर से दिखने वाले परिवार में बड़े होने पर मैं सबके नज़दीक थी पर सब मुझसे दूर थे...ये दूरियां कभी कम नहीं हुईं बस उनसे लड़ना, उनका सामना करना, नज़रंदाज़ करना आता चला गया...

सहमति...ये एक बड़ी बात है वयस्क संबंधों में...और ये ही सही स्थिति पर अपने यहाँ इसके खेल भी कम नहीं...पहली बात तो ये कि आमतौर पर हमारे यहाँ संबंधों की जो छवियाँ गढ़ी जाती हैं उनमें लड़की समर्पण की मुद्रा में ही होती है...वो न इच्छा ज़ाहिर कर सकती है न ही साथी द्वारा इच्छा ज़ाहिर किये जाने पर इन्कार...उसे उस क्रिया में उस समय ठीक उसी तरह रूचि लेनी चाहिए जैसा उसका साथी ले रहा है...इन स्थितियों में उसे ये चुटकी बजाते समझ आ जाये कि ये प्रेम नहीं है, ऐसा होना भी मुश्किल है क्योंकि उस तक यूँ ही नहीं पहुंचा जाता पहले उसका भरोसा जीता जाता है...कहीं कोई चेकलिस्ट जैसा नहीं होता...कई जगहों पर स्थितियाँ भिन्न हैं ये भी सच है...पर हाँ सहमति से बने संबंधों के अच्छे या बुरे अनुभव और यौन हिंसा भिन्न बातें  हैं...और सही मायनों में सहमति से बने सम्बन्ध ही सही हैं...

मैंने बचपन से लेकर आज तक कभी किसी को कोई सिग्नल नहीं दिया पर लम्बे समय तक मुंह भी बंद ही रखा...जानती हूँ कुछ लोगों को ये लड़कियों की ग़लतियाँ लगती हैं बल्कि कई बार करियर में आगे बढ़ने की सीढ़ियां भी...मैं ऐसे लोगों के प्रति कतई जवाबदेह नहीं...जवाबदेह तो ये सारी संस्थाएं व लोग हैं....मुझे कुछ अपनों का साथ न मिलता तो मेरी ज़िन्दगी जहन्नुम ही रहती...आज उससे कुछ बेहतर है....कुछ ही...मैं हर उस लड़की और औरत की बात समझ पाती हूँ और अब भी समझ पा रही हूँ जो अपनी तकलीफ़ें अपने अनुभव साझा करती हैं...मैं उनमें शामिल रही हूँ...मैंने अपनी ज़िन्दगी में हर जगह इन बातों को झेला है और मैं समझ सकती हूँ कि तुम नहीं बोल पायी...और यक़ीन मानो तुम नहीं बोल पायी तो ये कोई ग़लती नहीं थी...तुम आज कह रही हो ये भी कोई ग़लती नहीं बल्कि हिम्मत की बात है...हम में से कितनी ही लड़कियां ये सब पढ़ते सुनते वक़्त मन ही मन कहती हैं कि हाँ ऐसा मेरे साथ भी तो हुआ था...पर खुलकर आज भी नहीं कह पातीं...ज़िन्दगी में कभी कहीं घटी एक घटना पूरा व्यक्तित्व बदल देती है...अपने शोषण की ये बातें याद करना और साझा करना कोई अच्छा अनुभव नहीं होता...ये तकलीफ़ के उस दौर से दोबारा गुज़रने जैसा होता है...यहाँ बात आपकी संवेदना बटोरने, ख़ुद की तारीफ़ करवाने, टीआरपी बटोरने की नहीं है...ये सच बयान करने की बात है...इसलिए इनकी सुनिए...इसे ‘बहाना’, ‘फैशन’, ‘भेड़चाल’, 'बदला लेना', या ‘लोकप्रियता बटोरने के सस्ते हथकंडे’ मत समझिये...लड़कियों को यदि भरोसा रहे कि उनपर यक़ीन किया जायेगा तो स्थितियां इतनी न बिगड़ें…’ग़लत इस्तेमाल’ की बात करने से पहले उसका प्रतिशत देखिए और हर जगह हर नियम कानून में देखिए...कई जगहों पर कार्यवाही भी हुई हैं...इन जगहों को बधाई...कार्यस्थल को सुरक्षित व सहज बनाने जैसी ज़िम्मेदारी से बचा नहीं जा सकता

मेरे पास किसी भी पुरुष पर भरोसा करने की कोई वजह नहीं....सिवाय इस तर्क के कि सब एक से नहीं होते....ये अलग बात है कि ईमानदारी से कहूँ तो व्यवहारिक तौर पर ये तर्क कारगर नहीं होता...दिल्ली के कनॉट प्लेस में विदा लेते हुए जब उस मित्र ने मुझे गले लगाया था तो मैं लगातार मन ही मन ख़ुद से कह रही थी ‘कोई बात नहीं, कोई बात नहीं ये बुरे व्यक्ति नहीं हैं’...ये सामान्य कतई नहीं है...मुझे दुनिया के तमाम सुंदर अनुभवों से मेरे बीते अनुभवों ने दूर किया है...प्रेम की वकालत करने के बावजूद मेरा भरोसा प्रेम पर नहीं क्योंकि व्यक्तियों पर नहीं....मेरी सहजता मेरी महिला मित्रों या बमुश्किल एक या दो पुरुष मित्रों तक सीमित है...मेरे पास न वो माहौल था, न लोग और न ही हिम्मत कि मैं कह पाती...ये सब दोहराना कम तकलीफ़देह नहीं है और अब इस बात से कोई फ़र्क भी नहीं पड़ता कि आप यक़ीन करते हैं या नहीं...आज के समय में मैं उससे ऊपर उठ गयी हूँ...कम से कम झिझक तो नहीं होती...आत्मग्लानि, ख़ुद पर ग़ुस्से जैसे ख़याल नहीं आते कि आत्महत्या का जी कर उठे...कोई सर्टिफ़िकेट भी नहीं चाहिये...ये सब कहते हुए मैं ये भी जानती हूँ कि सामान्य व्यवहार और शोषण में कहाँ रेखा खिंची है...आज मैं बोलती हूँ और मेरे बोलने से बहुत लोगों को दिक़्क़तें हैं, अपनों को भी….मुझे चुप कराने के प्रयास भी हर तरह से किये जाते हैं...ये भी सच है कि मेरे जीवन पर नियंत्रण करने की कोशिशें भी की जाती हैं….पर मैं आज हर उस महिला के साथ हूँ जो बोलने की हिम्मत कर रही है...ये मेरी ज़िम्मेदारी भी है....आपके लिए शायद ये समझना मुश्किल हो कि ऐसे साथ से किस तरह हिम्मत मिलती है...हम इस शोर के साए में क्यों जियें....रिश्तों, दोस्तियों, सहकर्मियों, अध्यापकों या किसी भी अन्य संबंधों की आड़ में या अजनबी बनकर भी देखिये कि आप कर क्या रहे हैं....और गर आइना है तो भला क्यों न दिखाया जाये....बात ये है कि आप अपना ही चेहरा नहीं देख पा रहे         

        

                    

   

9 टिप्‍पणियां:

  1. मेरे पास अल्फ़ाज़ नहीं।पढ़ा भी और महसूस भी किया।

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  2. वाह बहुत अच्छा लिखा । बहुत तकलीफ होती जब कोई लड़की इस तरह की भयानक और दर्दनाक घटना से गुजरती है । तुम्हारे इस लेख का एक एक शब्द दिल छूने वाले।

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  3. इतना विस्तृत अनुभव लिखने की पीड़ा से गुज़रने के लिए आपको सलाम, बानी रहे आवाज़ की ये ताक़त।

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  4. बहुत हिम्मत चाहिए ऐसा लिखने के लिए...I really salute u for this brave attempt.

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  5. I have no words to describe what I felt after reading this blog. As a male, I was always privileged and took so many of these things as 'given' or 'natural.' I did not understand the pain and trauma one has to go through after one such experience until I had one such experience when I was in my graduation. I was sexually molested by a middle-aged man on a busy, bustling railway station. I could never share that experience with anyone as I thought nobody would believe me. It requires indomitable courage to share these things on a public forum, and I sincerely admire you for that.

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  6. काश कि हर कोई हिम्मत कर पाता कि अपनी बात रख सके| काश कि हर किसी के पास एक सुनने वाला हो|
    आपकी इस कोशिश से ज़्यादा नहीं ना सही, कुछ को तो हिम्मत मिलेगी ही|
    आपके जज़्बे और कलम को सलाम|

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  7. Behad maani khez likha hai. . bahut himmat chahiyen ye sab likhne ke liye. .it will inspire others also. . really proud . .

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  8. आज पढ़ने का वक़्त मिला... निशब्द हूं रश्मि... इन अनुभवों से सीख कर शायद लड़कियां प्रतिकार करना सीख लें आगे की जेनेरेशन संवेदनशील और मुखर हो ऐसी उम्मीद है।

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  9. बेहद ही दर्दनाक और मार्मिक वर्णन है ,सचमुच निशब्द हूँ , हमारे समाज का बेहद ही घटिया रूप है ,आपके साहस को सलाम है जो बेबाकी से आपने रखा ,अब तो समाज मे और भी ज्यादा गिरावट आ रही है ,ये समय है जब आने वाली पीढ़ी को और अधिक मुखर बनाना होगा और हर गलत बात को विरोध करने के लिए समझाना होगा !

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