गुरुवार, 24 मई 2018

बाज़ारवाद से तय होती दैहिक स्वतंत्रता और नारीवाद


“अरे यार मैं न सिगरेट के बिना दारू पी नहीं पाती”, ये कहते हुए मुक्ता (बदला हुआ नाम) ने एक लम्बा कश खींचा और देर रात पब की जगमगाती शोर भरी रौशनी में उसे आज़ाद कर दिया....मुक्ता से कई सालों से जान पहचान है...वो एक छोटे ज़िले के परम्परागत परिवार से थी....जहाँ पहनने ओढ़ने के तरीके अब भी पुराने ही थे...मुक्ता पढ़ी लिखी थी और लखनऊ शहर में नौकरी कर रही थी...यहाँ भी उसके पहनावे में कोई बदलाव नहीं आया हालाँकि उसके दफ़्तर की सहेलियां इसपर उसे जब तब सलाह देतीं....वो संकुचित मानसिकता की नहीं थी लेकिन वो ऐसी समझ या जानकारी रखती हो कि तरक्कीपसंद कह दिया जाए तो ऐसा भी नहीं था...काम भर का सब ठीक था...

कुछ सालों बाद उसे एक बेहतर कंपनी में एक बड़े शहर में नौकरी मिल गयी और वो चली गयी...इस शहर और इसके माहौल का सबसे बड़ा और पहला असर उसके बाहरी व्यक्तित्व पर पड़ा...मैं तस्वीरें देखती तो ये सोचकर बहुत ख़ुश होती कि ये इस तरह के कपड़े पहनना चाहती थी पर इसे तब माहौल नहीं मिला और अब ये अपनी मर्ज़ी से जी पा रही है इससे अच्छा भला क्या....बंद गले के सूट में रहने वाली लड़की अब अमूमन ऑफ शोल्डर शॉर्ट ड्रेसेज़ में ही दिखती...देश विदेश या पार्टी पब की तस्वीरें सोशल मीडिया में शाया होती रहतीं...मुद्दे उसकी बातों से पहले भी गायब थे और अब भी....हाँ अगर हम लोग उसपर बात करें तो उसका समर्थन ज़रूर रहता लेकिन उसकी अपनी तरफ़ से कुछ कहने की कोशिशें नहीं दिखतीं...पर देर रात पार्टी, डिस्को, शराब, सिगरेट, छोटे फैशनेबल कपड़े अब आदत का हिस्सा थे...उसकी बातों का खुलापन भी अमूमन इनके और सेक्स से जुड़ी बातों के इर्द गिर्द ही था....व्यवहार में अब वो ख़ासी तंगदिल, मतलबी और स्वार्थी हो चुकी थी...पर यदा कदा जब ज़रा मिले तो वो एक अजीब किस्म के दबाव में लगती...सुंदर दिखना, “हॉट, सेक्सी और डिज़ाइरेबल” लगना, देखने में कहीं से भी पिछड़ा न लगना बल्कि अति आधुनिक लगना, बातों में संकुचित न लगना, उसके ये सब चयन अपने लिए हों ऐसा नहीं था....उसने इसे एक दबाव के तहत अपनाया था ताकि वो इस बड़े शहर की भीड़ में शामिल हो सके, उस पर एक छोटे शहर या कसबे की लड़की होने का टैग न लगे और फिर इसे ही उसने अपना शौक और आदत बना लिया...आस पास के लोगों के इस दबाव को हम “पीयर ग्रुप प्रेशर” भी कहते हैं...अफ़सोस ये था कि विचारों, समझ और व्यवहार में वो तरक्की नहीं आ सकी थी                
  
अब इन दिनों फिर से एक अजीब उलझन सी है...शायद मैं ही नहीं समझ पा रही या जाने क्या बात है...कुछ दिन के लिए सोशल मीडिया पर वापसी हुई...वहां का शोर, नफ़रत, क्रान्ति और नारीवाद के अंदाज़...सब कुछ कुछ यूँ था कि दिल घबराने लगा और वापस सब बंद कर दिया... वहां की बातें और चर्चाएँ देख मुक्ता अक्सर याद आ जाती... पर एक मुश्किल ये भी है कि उलझन जब तक ज़ाहिर नहीं हो जाती तो चैन भी नहीं आता...इसलिए उसे अब यहाँ उतार रही हूँ...

अव्वल तो मेरा ये मानना है कि नारीवाद का कोई ख़ास प्रकार नहीं...कोई एक परिभाषा नहीं..ये जगह, समय, ज़रुरत के हिसाब से बदलता रहा है...उदाहरण के लिए शायद हिन्दुस्तान में ज्यादा बड़ी ज़रूरत दहेज या घरेलू हिंसा पर काम करने की हो और किसी और देश में फोकस तनख्वाह में गैरबराबरी हो. दूसरी बात और वो भी मेरी निजी राय है कि नारीवाद की बात सिर्फ़ और सिर्फ़ अनुभव आधारित नहीं होनी चाहिए...महिला आंदोलनों, नारीवादियों के संघर्षों और नारीवाद की तमाम परिभाषाओं और प्रकारों को पढ़ा जाना चाहिए, समझना चाहिए..अनुभव और एकेडेमिक (जिसका अर्थ सिर्फ़ कोर्स कर लेना भर नहीं) का साथ होना बहुत ज़रूरी है | तीसरी बात ये कि मेरी समझ से आज के समय में नारीवाद सिर्फ़ महिला अधिकारों या महिला पुरुष बराबरी की बात नहीं कर रहा...बल्कि नारीवादियों की एक बड़ी संख्या पहले से ही egalitarian समाज की बात करती रही है...तो आज भी बात सिर्फ़ महिला पुरुष की नहीं बल्कि एक बड़े अर्थ में बराबरी की है...लेकिन इस बराबरी को समझा जाना भी बहुत ज़रूरी है|

स्वघोषित नारीवादी या क्रांतिकारी होने का चलन है...यदि व्यापक अर्थों में इसके साथ ऐसे काम किये जा रहे हैं जिनका प्रभाव सकारात्मक है तो मुझे किसी के स्वघोषित होने में कोई दिक्क़त भी नहीं | लेकिन मसले कुछ और हैं और मुझे लगता है की बराबरी की परिभाषाओं में आगे बढ़ते हुए हम न सिर्फ़ भटक रहे हैं बल्कि ख़ुद को देह तक सीमित करते जा रहे हैं | कुछ उदाहरणों के ज़रिये देखते हैं:

सुन्दरता, रंग, डील डौल का दबाव और बाज़ार दोनों बहुत बड़ा है...इतना कि इससे पुरुष भी पूरी तरह आज़ाद नहीं...लेकिन commodification आम तौर पर महिलाओं का ही होता है..पुरुष खरीददार की भूमिका में है...ऐसे में हमारे बीच अभियान आते हैं जो इन दबावों पर सवाल उठाते हैं और इन्हें तोड़ने की कोशिश करते हैं...बड़े स्तर पर गोरा करने की मानसिकता के ख़िलाफ़ अभियान चलते हैं...ये न सिर्फ़ ज़रूरी हैं बल्कि प्रशंसनीय भी हैं...व्यक्तिगत अभियानों से लेकर संस्थानों तक में इनके बारे में लिखा जाता है कहा जाता है

महिला स्वास्थय, किशोरी स्वास्थय, माहवारी से जुड़ी जानकारियाँ साझा होती हैं कि किस तरह किशोरियों और महिलाओं का स्वास्थय सही जानकारी व संसाधनों के अभाव के कारण ताक पर रखा हुआ है...जानकारियों के सही स्रोत हैं नहीं और ग़लत जानकारियाँ नुक्सान ही पहुंचाती हैं साथ ही टैबू भी मज़बूत करती चलती हैं...इस तरह की तमाम बातों के चलते ये कोशिशें बहुत ज़रूरी हैं क्योंकि इनका असर सिर्फ़ शारीरिक स्वास्थय तक सीमित नहीं

यौनिक स्वास्थय पर चर्चाएँ शुरू हुईं...एक बड़ी संख्या में युवा जानकारी के अभाव में यौन संक्रमण का शिकार है...कई बार पुरुष साथी महिला साथियों के प्रति असंवेदनशील हो जाते हैं जिसके परिणाम न सिर्फ़ स्वास्थय की दृष्टि से घातक हैं बल्कि वे अनैतिक और अमानवीय भी होते हैं...कभी कभी ऐसा जानकारी के अभाव में होता है और कई बार ये पितृसत्तात्मक परवरिश का नतीजा होता है... इन पर बातें हुईं, सवाल उठे, ये बढ़िया बात हुई

बात चयन के अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निजी ज़िन्दगी से जुड़े फैसले लेने की हुईं और जोर शोर से हुईं....ऐसी मुखर अभिव्यक्तियाँ देखना सुखद था और ये कहना ज़रूरी है कि इन बातों में पुरुषों की खूब भागीदारी रही...मैं इसे अब सिर्फ़ महिला मुद्दे कहना पसंद नहीं करती क्योंकि मेरे लिए ये बराबरी और मानवाधिकारों के मुद्दे हैं जो स्त्रियों तक सीमित नहीं  

बात शरीर से जुड़ी सहजता व हक़ की हुई और यहाँ बराबरी, यौनिक और चयन के अधिकार के साथ मिलकर कुछ घालमेल सा होने लगा...उदाहरण के लिए अगर देखें तो मुझे अपने शरीर के प्रति सहज होना चाहिए, उसकी बनावट या रंग के प्रति शर्म या हीनता का भाव नहीं होना चाहिए...मुझे उन कपड़ों को चुनने का अधिकार होना चाहिए जिनमें मैं सहज महसूस करूं...अर्थात सुन्दरता के ‘मापदंडों’ या ‘दबावों’ से मुझे आज़ादी चाहिए...लेकिन लेकिन लेकिन...पहली बात तो बराबरी या नारीवाद के आन्दोलन का ये एक पक्ष है और दूसरी बात हम महिला सिर्फ़ शरीर के यौनिक अंगों के बारे में बात करके या उन्हें दिखाकर कौन सी बराबरी की कोशिश कर रहे हैं...इससे कौन सा सशक्तिकरण हो रहा है...यदि उसी भाषा में कहें तो ब्रा न पहनने, निपल्स दिखने, प्यूबिक हेयर न शेव करने या अनशेव्ड अंडरआर्म्स दिखाकर आने वाली बराबरी समझ नहीं आ रही थी | मुश्किल ये थी कि इसके ज़रिये हासिल किया जाने वाला उद्देश्य स्पष्ट नहीं था...कम करते करते क्या बिना कपड़ों के बाहर निकल जाने से बराबरी आ जाएगी...यौनिकता का मुद्दा इस तरह सिमटा कि स्त्री अस्मिता भी देह तक सीमित होती गयी जबकि जो बात कही जा रही थी उसके हिसाब से ये सब इससे मुक्त होने की कोशिश थी...

मुझे कम कपड़ों में घूमने वाले या अनशेव्ड अंडरआर्म्स वाले पुरुष भी पसंद नहीं...पर ये उनका निजी मसला है सहजता- असहजता से जुड़ा...मैं इसके पीछे की बात को भी समझती हूँ कि पुरुषों के पास ये विकल्प है, उनके ऐसा करने पर उनके चरित्र पर सवाल नहीं है और यदि सिर्फ़ सहजता की दृष्टि से देखा जाये तो ये एक बड़ी सहूलियत और सशक्तिकरण है भी...लेकिन इसका अर्थ ये कतई नहीं हुआ कि बराबरी कपड़े त्यागने से ही आएगी...हाँ महिलाओं के लिए भी वो माहौल हो कि उन्हें उनके शरीर के प्रति इतना concious न कर दिया जाए कि उनका सारा ध्यान हर वक़्त अपने शरीर और उसके न दिखने पर हो...वे अपने शरीर के प्रति सहज हों...और उन्हें अपने कपड़े चुनने और अपने शरीर को अपनी तरह रखने की आज़ादी हो...पर क्या ज़रूरी है कि ये बातें उस तरह की जाएँ जिस तरह की जा रही हैं...ठीक बात है कि महिलाओं पर एक ख़ास किस्म की शारीरिक बनावट का दबाव नहीं होना चाहिए लेकिन ज़रूरी नहीं कि हर महिला के लिए सहजता असहजता की वही परिभाषा हो जो आपके लिए है...वो चाहे अंतः वस्त्रों के इस्तेमाल की बात हो या शरीर पर आ रहे रोयें की...कई लोगों के लिए जिनमें मैं भी शामिल हूँ ये बातें साफ़ सफ़ाई से जुड़ जाती हैं....और फिर इस आधुनिकतावाद के हिसाब ये यदि पुरुष अपने यौनिक अंगों की बातें करने लगे, उन्हें दिखाने लगे तो? तब भला वो अश्लील कैसे हो जाए? इन सब अर्थों में तो ‘कामसूत्र’ और खजुराहो की गुफाएं भी सशक्तिकरण के उदाहरण होने लगेंगे? इसका अंत नहीं, इसका कोई हासिल नहीं, इस विषय को जिस तरह इस्तेमाल किया जाना चाहिए ये उससे भटकने जैसा है...ऐसे में हमारी भाषा, व्यवहार, उदाहरण, तर्क, जानकारी और समझ इन सबका ध्यान से इस्तेमाल किया जाना बहुत ज़रूरी है

बाज़ार की भी चालाकियां समझिये...ये हर तरह की बातें करके सामान भी बेच रहा है और दबाव भी बना रहा है....यहाँ साड़ियाँ और जेवर भी बिक रहे हैं और सशक्तिकरण और आज़ादी को ढाल बनाकर क्रॉप टॉप और शॉर्ट्स भी...डियोड्रंट भी और बर्तन मांजने का साबुन भी....अपनी हेयर रिमूवल क्रीम, सेनेटरी पैड  से लेकर मर्दों के अंडरगारमेंट्स बेचने तक की ज़िम्मेदारी औरत की है जिसे वो करती जा रही है...वो रैंप पर चलती है, चयन के अधिकार का इस्तेमाल कर बिकनी में घूमती है...आपको वाकई लगता है वो सशक्त है? या ये आज़ादी एक नयी छुपी हुई गुलामी लेकर आई है जिसे हम समझ नहीं पा रहे....क्या इन तमाम लड़कियों और महिलाओं का उद्देश्य आकर्षक दिखना और पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करना नहीं? इस कामुकता की क्या भूमिका है? क्या ये महज़ सहजता के लिए है? या हम बदलते वक़्त के साथ पुरुषों की ज़रूरतों और उम्मीदों को मैच करने के लिए ख़ुद को अपग्रेड कर रहे हैं...नारीवादी और कट्टरपंथी दोनों ही फैशन शोज का विरोध करते हैं लेकिन बिल्कुल भिन्न कारणों से...क्या हम उन्हें समझ रहे हैं? क्या हम ये समझ रहे हैं कि रेडिकल नारीवाद अकेलेपन में बराबरी नहीं ला सका था...बात सम्पूर्णता में किये जाने वाले प्रयासों की है

तो जब बात सहजता की हो तो क्या ज़रूरी है कि हर व्यक्ति को उसी तरह सहज लगे जैसे हमें लगता है...लड़कियां सुंदर दिखने और ‘मार्केट में बिकने वाले सामान’ के दबावों से मुक्त हों पर इसके लिए ज़रूरी नहीं कि हम उन पर नए नियम लादें या ये सब उन तरीकों से ही संभव होगा जो हम बता रहे हैं...शॉर्ट्स पहनने में आराम लगे तो पहनो लेकिन किसी को दिखाने, कुछ साबित करने, किसी को आकर्षित करने या किसी समूह में स्वीकार्यता पाने जैसे दबावों या लोभ में नहीं...बोल्ड और खुलकर कहने के चक्कर में हमने स्त्री को उसकी यौनिकता तक ही सीमित किया है | हाँ ये ज़रूर है कि इन बातों के पीछे तर्क हों...उदाहरण के लिए सहजता और चयन के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए अगर हम छठ और करवाचौथ को सही ठहराने लगें तो गड़बड़ है

इस विषय में जैसा मैंने कहा मैं उलझन में हूँ...पर अपना विचार बदल सकती हूँ यदि मुझे ठोस तर्क दिए जाएँ...बराबरी का मतलब मेरे लिए दूसरे की नासमझियों को अपनाना नहीं...सिगरेट मर्द भी पी सकते है और औरतें भी लेकिन अगर कोई औरत ये सोचकर सिगरेट पीती है कि इस तरह उसे मर्दों की बराबरी करनी है तो ये सिवाय नासमझी के कुछ भी नहीं...ये अलग बात है कि इस तरह की सोच और व्यवहार रखने वालों की तादाद भी कम नहीं...फ़िलहाल यौनिकता और देह सहजता के अर्थ को देह प्रदर्शन तक सीमित करने में मुझे कोई समझदारी नहीं दिखती...बराबरी सही अर्थों में करें जिसमें दूसरे की कमियां भी दूर की जाने की कोशिश हो....नारीवादी बनें ज़रूर बनें लेकिन ज़िम्मेदारी और समझदारी से...मैं जानती हूँ कि ये विचार मुझ पर परंपरागत होने का ठप्पा लगा सकते हैं लेकिन फिर भी...जेंडर समानता की अपनी समझ व कोशिशों में मैं किसी भी जल्दबाज़ी या बचकानी हरकत को करने से बचूंगी...“बोल्ड” और “बिंदास” होने की सिर्फ़ ये ही परिभाषाएं व तरीके नहीं और यौनिकता के मुद्दे को महज़ देह के कुछ ख़ास हिस्सों तक समेट देना भी हल नहीं...अच्छा ही होगा अगर नारीवाद के संघर्षों और आन्दोलनों को पढ़ें और उनके नतीजों से सबक लेते चलें...आधुनिक दिखने और आधुनिक होने का अंतर समझें और देखें कि ज़रूरत किस चीज़ की है....एक पितृसत्तात्मक समाज में हम महिलाओं को मौके बहुत मुश्किल से मिलते हैं इनका इस्तेमाल समझदारी से करें |      




4 टिप्‍पणियां:

  1. Umda lekh hai sochne ko mazboor krta hai aur is or sochna bhi chahiye...

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  2. सच्चाई का आभास कराता सुन्दर लेख।

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  3. सीधी सशक्त बात पर हमारे देश में सभी कुछ बालीवुड तथा बाजारवाद से जनित वह प्रेरित होता है। यहां लोगों को अपनी सहजता वह अधिकारों की जानकारी पर ध्यान देने की बहुत आवश्यकता है।

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  4. ज़बरदस्त विश्लेषण।
    स्वयं उपभोक्ता न होकर हम बाज़ार के ग्राहक और माध्यम बन के रह गए हैं।
    ज़रूरी नही कि हर वस्तु को बाज़ार के वस्तुवाद से जोड़कर देखें, पर अपनी अनभिज्ञता/लोलुपता से खुद एक कारक बन जाएं वो भी सही नही।

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