अपनी लाडली संग नानी |
फिर कुछ समय बाद एक बछिया हुई....सफ़ेद, छोटी सी, छोटा सा
मुंह, छोटे छोटे खुर और नन्ही सी पूंछ...वो गाय के आगे पीछे घूमा करती...और मैं
उसके आगे पीछे...ऐसे मचल उठी थी मैं उसे देखकर...कित्ती प्यारी है ये....अरे इसकी
आँखों पर भी काजल लगा है और ये तो गाय से भी ज़्यादा सुन्दर है...अपनी नन्ही
मुट्ठियों में भर कर मैं बार बार उसको चारा देती...नानी से कहती उसे प्यास लगी
होगी चलो पानी पिलाते हैं...बचपन में काम करने का कुछ ज़्यादा ही चाव होता है..बड़े
लोगों जैसा....मेरे लिए एक छोटी बाल्टी रख दी गयी थी...तो बस उसमे भर कर बछिया के
लिए पानी लाना...इस घर में अब एक नयी दोस्त आ गयी थी और अब मुझे बाहर जाने की ज़रूरत
नहीं थी...मैं सबको चहक चहक कर बताती कि पता है हमारे घर में सुन्दर सी बछिया आई
है...अब भला गाँव के बच्चों के लिए इसमें क्या नया था...वो मेरी नादानी पर हंस
देते और मैं मुंह बना लेती...हाँ मामी लोग मेरी ही तरह चहक कर पूछतीं...अच्छा क्या
सच में?? कब आई? कैसी दिखती है? हमें भी दिखाओगी? और बस मेरी ख़ुशी का ठिकाना
नहीं...
जो काम नानी करती वो मुझे भी करना होता....मैं कोई छोटी
बच्ची थोड़े ही न थी...पानी लाया जाता तो एक छोटी बाल्टी मेरी, चारे का गट्ठा (बिठुग)
होता तो एक छोटी बिठ्गी मेरी, तसले में गोबर उठता तो छोटा तसला मेरा भी होता, चौक
की लिपाई होती तो नन्हे नन्हे हाथ भी गीली मिट्टी और गोबर संग फिसल रहे होते और
रात को रोटियाँ सिकतीं तो छोटी छोटी टेढ़ी मेढ़ी रोटियां मैं भी बनाती...नानी गाय के
लिए बनाती तो मैं बछिया के लिए...वो बर्तन धोतीं तो मैं धुले बर्तन अन्दर
रखती...बस फिर खाट में उनसे चिपके, तारों, जुगनुओं को निहारते और नानी की कहानियां,
लोरियां सुनते सो जाती...
जब बड़ी हुई तो बछिया एक बड़ी तंदुरुस्त गाय में तब्दील हो
चुकी थी, ये बड़े बड़े सींग, सबको मारने को आती, उसे बस मेरी नानी ही खिला पिला सकती
थीं या एक से दूसरे खूंटे में बाँध सकती थीं...हाँ लाठी लेकर नानाजी भी ये काम कर
लेते थे...जब नानी दूध दोने को बैठतीं तो कई बार वो इधर उधर करने लगती...तो पहले
उसे डांट पड़ती.... “गौड़ी...देख ले हां”...वो मज़े लेती और तब भी न सुनती तो नानाजी
लाठी लेकर खड़े हो जाते...उसके बाद वो एकदम शरीफ बच्चे की तरह सीधी रहती.. बचपन में
मैं ये प्रक्रिया बड़े ध्यान से देखती थी और वो दूध के ऊपर उठता झाग देखकर कितना
खुश होती थी...गुड़ के साथ गरम दूध मिलता था, गुड़ वाली खीर बनती थी, छांछ, मक्खन,
गरम गरम घी और घी के बाद बचा वो सुनहरे रंग का महियर...चीनी मिलाकर खाने में क्या
तो स्वादिष्ट लगता था..रोटी के अंदर रोल बनाकर...वाह..जैसे अभी अभी जैसे जीभ में
स्वाद घुल गया हो...
ये गाय बड़ी नखरीली थी...या यूँ कहें कि नानी ने नखरे उठाये
तो वो ऐसी होती गयी...ऐसी लाडली...ज़रा देर धूप न लगे, ज़रा बौछार पड़ी नहीं कि गौशाला
में बाँध दो, हैण्ड पंप का पानी पिलाओ, किसी का जूठा नहीं...उसकी अपनी बछिया का भी
नहीं...सिर से मारकर गिरा देती थी बाल्टी....सारे गाँव के गाय भैंस नहर जाते पानी
पीने और इनके लिए बूढ़े नानी नाना हैंडपंप से पानी लाते, ताज़ा चारा, दाल चावल रोटी
सब्जी, आटा गुड़...सब चाहिए होता था...गुड़ तो अलग से इनके लिए बनवाया जाता था...कई
बार नानी उसके बगल में बैठी बतियाया करती, उसे ज़रा सहलातीं तो वो गर्दन को लम्बा
कर आगे बढ़ा देती और आँखें मूँद लेती...नानी बातें करती और उसे सहलाती रहती...वो
आँख मूंदे तसल्ली से सब सुना करती...
मेरी मां और इस गाय में शिकायत भरा रिश्ता रहा...जैसा दो
बहनों में होता है न..कि मां तुम मुझसे ज़्यादा प्यार उसे करती हो...बिलकुल
वैसा...होना लाज़मी भी था...मेरी नानी कभी हमारे पास यहाँ रहने नहीं आयीं क्यूंकि गाय
थी, कभी आराम नहीं करती थीं, क्यूंकि गाय की सेवा करनी होती थी...पिछले साल ही जब
दोपहर को उनके बगल लेटी थी तो वो कह ही रही थीं...“मि त रात दिन बुलुद कि म्यार
रैंदी रैंद चल जांद न ये त मि अपर समण खड्या दीन्द...ये गौड़ थे कैल नि रखण...पाणी
भि नि दीण”...उन्हें रात दिन ये ही फ़िक्र सताती थी कि उनके बाद इस गाय का क्या
होगा...एक बार दोनों बिछड़े थे तो दोनों ने खाना पीना छोड़ दिया था...गाय को कोई कुछ
कह देता तो बढ़िया वाली फटकार मिलती...मेरी नानी का जीवन पूरी तरह से गाय और नानाजी
के इर्द गिर्द था...गाय उन्हें उनके ब्याह के गौदान में मिली बछिया की पीढ़ी
थी...तो 70-71 सालों का साथ था इस पीढ़ी के साथ...फिर तो ये लाड़ दुलार भी लाज़मी था
और अपनी जगह मेरी मां की शिकायतें भी..
पर क्या खूब साथ प्यार और साथ निभाया तुम तीनों ने...नाना
गए तो हम लोगों की तमाम कोशिशों के बाद भी तुम नहीं रुकी और आहिस्ता से हाथ छुड़ाकर
यूं गयी कि आज भी तुम्हारी ठंडी हथेलियों का अहसास बिलकुल ताज़ा है मेरे हाथों में
मेरे ज़हन में...अभी जैसे कल की ही बात हो कि तुम मेरी गोद में थी...बचपन से लेकर
बड़े होने तक का फ्लैशबैक है कि थमता ही नहीं...इतना ताज़ा कि यहाँ कुछ ब्लैक एंड
व्हाइट नहीं...सब एकदम साफ़ रंगीन...तुम्हारी तस्वीर पर उँगलियाँ फेरते वक़्त आज भी
आँखें और दिल भर आता है और एक सिहरन सी दौड़ जाती है उँगलियों के रास्ते पूरे जिस्म
में...नाना को गए तीन महीने हो गए और तुम्हे होने वाले हैं...जाने यकीन क्यूँ नहीं
होता...जब तुम गयी थी तब ही लोग कहने लगे थे अब ये गाय न रह पाएगी....कैसी खामोश
हो गयी थी वो...उसकी खामोशी देख रोना आने लगता था...कल तक जो किसी को पास फटकने
नहीं देती थी आज उसे कोई भी बाँध ले रहा था, खिला ले रहा था....वो सब समझ गयी
थी...मां की चिंताएं अब अलग हो गयी थीं कि कैसे रह पाएगी गाय उनके बिना...वो ये
सोच सोचकर रो देतीं...पड़ोसियों ने पहल की और अपने यहां ले गए...मां पापा को आये 10
दिन ही तो हुए थे कि पापा लौट गए थे वहां...उसी दिन उसकी तबियत बिगड़ गयी थी...और
ऐसी बिगड़ी कि सुधरी नहीं..मानो इंतज़ार कर रही हो अपनों का...खाना पीना छोड़ा तो
कमज़ोर हो गयी...गिर गयी तो घाव हो गए...पापा अपने घर ले आये थे...महीने भर से रात
दिन सेवा करते...थोड़ा थोड़ा करके खिलाते पिलाते रहते...दवाइयां करते, चोटों पर मरहम
लगाते, अब कुछ दिन से छोटे बच्चों की तरह बोतल से पानी पिलाने लगे थे...वो उठ नहीं
पाती तो बगल वाले मामाजी की मदद से उसको खिसकाकर उसके नीचे का पुआल
बदलवाते...बारिश ऐसी कि रुकने का नाम न ले...खेतों में मेढ़ें टूट गयीं...बारिश ने दिक्क़तें
और बढ़ा दीं...वो फैल कर लेट गयी थी इसके लिए गौशाला घुटन भरी हो जाती...बाहर ही
शेड बनाया गया...5 दिनों से खाना पीना बंद कर दिया था...एक दिन थके हारे पापा अपने
लिए चाय बनाकर लाये और साथ में रस्क...जाने क्या दिमाग में आया कि क्या पता गाय भी
खा ले...एक दिया तो उसने खा लिया...बेचारे बगल से फ़ौरन एक पैकेट खरीद कर
लाये...उसे खिलाया बोतल से पानी पिलाया तब ख़ुद चाय पी...अब पापा के रात दिन उसके
इर्द गिर्द होते...वो कहते मां ने जीवन भर इतनी सेवा की है...इतना लाड़ प्यार से
पाला है ऐसे कैसे छोड़ दें...गाय की जगह इंसान होती तो क्या छोड़ देते...परिवार की सदस्य
है ये भी...जाने क्या चलता रहता था दिमाग में कि गर्दन लम्बी कर लेटकर सारा वक़्त
रसोई की तरफ़ ताका करती...मन बांवरा होता है जैसे सब कुछ जानते हुए मैं उम्मीद पाले
बैठी थी कि तुम बोल पड़ोगी, लौट आओगी...वो तो फिर मुझसे कहीं बढ़कर थी...वो तुम्हारी
राह तकती रहती कि तुम अभी रसोई से निकलो और फिर उसे सहलाओ...तुम न आयीं और
तुम्हारी बाट देखते देखते वो ही तुम्हारे पास चली गयी...कल की रात उसकी हम इंसानों
के बीच आख़िरी रात थी.
मैं कभी तुम तीनों की एक दूसरे के बिना कल्पना नहीं
कर पाती थी...कैसे करती कभी अलग अलग देखा ही नहीं था...दीदी की शादी में तुम आई थी
और विदाई होते ही रट पकड़ ली थी लौटने की....ऐसा जुड़ाव एक दुसरे से कि अलग रह ही नहीं
पाते थे....मुझे खूब याद है घास के गट्ठे लिए अभी हम दूर होते थे...पर जाने ये गाय
कैसे जान जाती थी कि पुकारना शुरू कर देती थी...हम लोगों तक उसकी आवाज़ पहुँचने
लगती...उस घर में तुम्हारे और नाना के बाद परिवार की वो ही एक सदस्य रह गयी थी
जिसमें मैं तुम्हारी कल्पना करती...पर भला वो भी इस सदमे और बिछोह को कैसे
सहती...मैं जब जब उसके कष्ट के बारे में सोचती थी तो आँखें भर जातीं...पर आज सुबह
फ़ोन पर जब उसके जाने की ख़बर मिली तो दिल धक् से हो गया...जैसे एक पल को सब रुक गया
हो....हम इसे भी नहीं रोक पाए...बचपन की यादों की जिस किताब को सीने से चिपकाए
रहती हूँ...उसके पन्ने ये कैसी कैसी कहानियाँ समेटते जा रहे हैं...मैं इसे और कसके
थाम लेती हूँ...कि कोई पल न बिखरे....अलविदा मेरी एक और साथी....याद आ रही है बचपन
की वो दुपहर...छोटी बाल्टी में मेरा तुम्हारे लिए पानी लाना...नन्ही हथेलियों में
चारा बटोर लाना...फिर खाट पर बैठना और विस्मय से तुम्हारी कजरारी आंखें निहारना...नानी
तुम कितना अच्छा काजल लगाती हो!!
सुंदर लिखा है पर कंजूसी क्यों... थोड़ा विस्तार से लिखना चाहिए था...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और संवेदनशील विवरण।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद!
हटाएंबहुत ही संवेदनात्मक स्मृतियाँ हैं ,नानी और उनकी गाय के बीच के प्यार को एक नन्ही सी बच्ची की नजर से देखना अद्भुत है ,आपकी स्मृतिया और उनका प्रस्तुतीकरण बहुत ही रोचक और सुन्दर है !
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