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“उठ ल्यो रे अफार
लोग कबती पूड़ों म चल गीं” (उठ लो रे, वो देखो लोग कब का खेतों में चले गए)....नानी
के यहां की सुबह अक्सर इसी डांट से होती...हम लोग अलसाए करवट बदलते हुए कहते कि
उन्हें तो खेत में जाना है हम भला क्यूँ जल्दी उठें...और फिर सो जाते...ये अलग बात
है कि इतनी चहल पहल में नींद फिर आना मुमकिन नहीं होता था....अन्दर से उठकर आते और
बाहर अलसाकर मोढ़े में बैठ जाते...जहां से अपनी वो दुबली पतली छोटी सी नानी कुछ न
कुछ काम करती दिखती रहती...अगर बाहर सोये होते तब तो उजाला अपने आप सुबह उठा देता
था....नानी हर मौसम में ठीक चार बजे उठ जाती थीं....उधर गुरुद्वारे में गुरबानी
शुरू होती इधर नानी बिस्तर छोड़ देतीं....मैं पिछले 32 सालों से ये ही क्रम देख रही
थी...वो उठतीं...चाय बनातीं, पीतीं, पूरे आँगन में झाड़ू मारतीं, कूड़ा जलातीं, गाय
का गोबर उठातीं, उसे चारा डालतीं और फिर चाय की केतली दुबारा चूल्हे पर चढ़
जाती...चाय की ऐसी शौक़ीन कि क्या कहिये...मेरे ननिहाल में नाश्ते में लोग रोटी
सब्ज़ी या चाय रोटी जैसा कुछ खाकर खेतों पर निकल जाते हैं...नानी भी रोटी
खातीं...चूल्हे पर दाल चढ़ातीं, गाय को छांव वाले खूंटे पर बांधतीं, दरांत उठातीं
और मुंडेड़ा बांधे खेत के लिए निकल पड़तीं.
मैं भी उनके साथ
जाती थी...हमारे लिए ये घूमना भी होता था और इसका चाव भी बहुत होता...छोटी नहर के
बगल बगल उनके साथ साथ चलती...उचक कर नहर देखती तो नानी डांटतीं...बड़ी नहर के ऊपर
वाला संकरा पुल पार करते...मैं तो डरते डरते करती...नानी आराम से...और उसके बाद
आगे फिर छोटी नहर के बगल बगल खेतों से होते हुए अपने खेत पहुँचते....नानी अपना
मुंडेड़ा कसतीं और चरी के बीच जाने कहां गायब हो जातीं...
मैं खेत में इधर उधर
फुदका करती... ढों के पेड़ के नीचे बैठ जाती...ननि ननि करती उन्हें ढूंढती फिर उनके
पीछे पीछे रहती...वो चारा थोड़ा थोड़ा काटकर आगे बढती रहतीं और मैं अपनी नन्ही हथेलियों
से उन छोटी छोटी गड्डियों को एक जगह पर इकठ्ठा करती जिसका बाद में बड़ा गट्ठा बनाया
जाता...नानी एक छोटा गट्ठा मेरे लिए भी बनातीं...जब ज़रा बड़ी हुई तो ख़ुद ही काट
लेती थी...
बचपन में लौटते में
कभी बोरिंग तो कभी नहर में नहाकर आती...घर आकर मशीन में कुटी (चारा) कटवाती...वैसे
आमतौर पर ये काम शाम को होता था...जब मशीन में चारा ज़्यादा लग जाता तो एक तरफ
नानाजी और एक तरफ मैं पकड़कर मशीन चलाते...बाद में नानाजी नहीं कर पाते थे...जिन
दिनों नानी अस्पताल में भर्ती थीं गाँव के लोग कहते थे कि इतने समय में तो जाने
कितना गन्ना छील देतीं...मैं अपनी नानी की कार्यक्षमता देखकर हैरान रह जाया करती
थी...
2
इस घर को पहली बार
बिना नानी के देख रही हूँ...पहली बार यहाँ ताला लगा देखा है...दिल धक् से बैठ
गया...कुछ वैसा मानो आप कई दिनों बाद अपने घर लौटें और घर का सब कुछ चोरी हो गया
हो...मन अभी भी नहीं मान रहा कि नानी अब हमारे बीच नहीं हैं...घर के कोने कोने में
तलाश रही हूँ और हर एक शय से वो झांकती दिख रही हैं...कभी लगता है पीछे के आँगन
में चरी काटती होंगी...कभी लगता है अभी छन्नी (गौशाला) से भूसे का टोकरा उठाये
निकलेंगी...लगता है कभी रसोई में शाम की चाय बना रही होंगी और अगर कहीं भी नहीं
दिख रहीं तो खेत से अभी लौटती होंगी...उनकी गाय मायूस सी खामोश लेती है...उसे सब
पता है...उसे पालनेवाली उसे इतने दिनों से नहीं दिखी...जिस गाय के दूर दूर तक कोई
नहीं फटकता था अब वो किसी को नहीं मारती...कोई भी चारा डाल ले रहा है पानी पिला ले
रहा है, दूसरे खूंटे में बाँध दे रहा है...इन जीवों के पास हमारी भाषा नहीं पर
संवेदनशीलता, भावनाओं, प्रेम और रिश्तों को निभाने में इनका कोई सानी नहीं...
कहां कहां तलाशूँ
तुम्हे नानी...ख़ुद तुम नहीं जानती थी अचानक ऐसा कुछ होने वाला है...बरसात के मौसम
की पूरी तैयारियां कर रखी थी तुमने...लकड़ियाँ काट के सुखा रखी हैं...उपले बना रखे
हैं...देखो तो उनसे भी तुम्हारी उँगलियों के निशान कैसे झांकते हैं...कितना सारा
प्याज़ हुआ तुम्हारी क्यारियों में इस बार, लहसुन भी और सब बता रहे थे कि थैले भर
भर के तुमने बैंगन भी बांटे थे...
आज सुबह सुबह उठी तो
पहली बार तुम मुझे नहीं दिखी...गुरबानी भी आज नहीं भा रही थी...पहले तो जैसे ही
सुबह उठकर करवट बदलती थी जाली वाली खिड़की के पार या तो तुम मुझे चाय पीती दिख जातीं
या अपनी गाय से जुड़ा कोई काम करते...आज दिख ही नहीं रही थी...मैं रो पड़ी...तुम्हे
ऐसे नहीं जाना था….
3
बीती बातें कैसे याद
आती हैं...कुछ दिन पहले तक तुम मेरे साथ थी...पिछली बार जब यहाँ से लौटी थी तो
लिपट के किस कदर रोये थे...नाना का जाना एक बड़ा सदमा था...मैं समझाने की एक नाकाम
कोशिश भर ही कर सकती थी...तुमसे वादा किया था कि जल्दी आउंगी...अपना ध्यान
रखना...मैं तो जल्दी आ गयी पर तुमने वादा कैसे तोड़ दिया...नहीं पता था कि अगली बार
तुम्हें यूँ बिस्तर पर पड़े, ज़िन्दगी मौत के बीच जूझते देखूंगी...किस क़दर कमज़ोर हो
चुकी थी तुम...पीली पड़ती जा रही थी...बल्कि उस दिन भी ये तो पता था कि तुम बीमार
हो पर मैं पूरी तरह आश्वस्त थी कि तुम ठीक हो जाओगी और घर साथ लौटोगी....उस एक
हफ़्ते तुम्हारे सिरहाने बैठे, तुम्हारा हाथ थामे, तुम्हारा सिर सहलाते यादों वो 32
साल मेरी आँखों के आगे से गुज़र रहे थे...तुम्हारा यदा कदा बातें करना या फिर
गुस्साना भी मन को मज़बूती दे रहा था कि तुम ठीक हो रही हो...उस दिन जब तुम बैठ
पायी थी तो जी कैसा ख़ुश हो गया था...लगा था कि बस दो चार दिन और फिर तुम घर पर होगी
हमारे साथ.....तुम्हारी वो बच्चों जैसी बातें हिम्मत बाँध रही थीं...पर जाने अचानक
ये क्या होता गया...तुम्हारा कराहना, तुम्हारा दर्द से तड़प जाना भीतर तक तोड़ दे
रहा था...ज़रा आराम मिलता तो फिर तुम इशारों में जवाब देती...तुम्हारा बोलना इशारों
तक सीमित हो गया था...मैं तिल तिल टूट रही थी पर जैसे लग रहा था तुम्हें जाने नहीं
दूंगी...किस कदर डर गयी थी मैं कि लगता था एक पल के लिए भी पलकें न झपकाऊं...दर्द,
थकान कुछ नहीं था बस ये लग रहा था किसी तरह तुम दुबारा उठ खड़ी हो....मैं इतनी
कमज़ोर कभी नहीं हुई और सच कहूँ तो इससे पहले कभी ख़ुद मुझे भी ये अहसास नहीं हुआ था
कि मैं तुम्हें इतना ज्यादा प्यार करती हूँ....मैं तुम्हारा हाथ कसके थामे हुए
थी...तुम्हे एकटक देख रही थी न...फिर तुम कब और कैसे चली गयी कि मुझे खबर तक नहीं
हुई....कैसे टटोल रही थी मैं तुम्हारी उंगलियाँ कि शायद कुछ हरकत हो जाए...शायद दर्द
से ही सही तुम एक बार कुछ कहो और ये सारे के सारे लोग झूठे साबित हो जाएँ....तुमसे
लिपटी तुम्हारा हाथ थामे मैं तुम्हे पुकार रही थी पर तुम कोई जवाब ही नहीं दे रही
थी...ये सब लोग जब तक तुम्हे ले नहीं गए मुझे लगा तुम कुछ तो बोल पड़ोगी....इंसान
प्यार में कैसा हो जाता है नानी...मैं तुम्हारे होने की उम्मीद अब भी पाले हुए थी
जबकि तुम तो कहीं दूर जा चुकी थी...
4
तुम्हारी उन खुरदुरी
हथेलियों का का स्पर्श अभी तक ज्यूं का त्यूं है...गांव के हर व्यक्ति के पास
कितने किस्से हैं सुनाने को...और मैं सब कुछ सुनती हुई अपनी कल्पनाओं में उन
किस्सों को जीवंत देखती जा रही हूँ....जब इन लोगों को यकीन नहीं हो रहा तो मुझे
भला कैसे होता...हर एक सामान को छू छूकर उसमें तुम्हारा स्पर्श ढूंढ रही हूँ...आज
तुम नहीं पर तुम्हारी खटिया, गद्दी में तुम्हारी खुश्बू लपेटे लेटी हूँ....रात
आसमान के तारों को ताकती तुम्हारी लोरी याद कर रही हूँ...डेगची को छूकर तुम्हारे
हाथ की दाल का स्वाद मुंह में घोल रही हूँ...कैसी ज़िद रहती थी मेरी कि जब तक मैं
यहाँ हूँ दाल तुम ही बनाओ....विस्मित होकर तुम्हें छांछ छोलते देखती थी तो ख़ुद भी करने की ज़िद करती थी और आख़िरकार वो हांडी फोड़ ही देती थी... तुम्हारे बक्से से सामान निकाल रही हूँ और उससे जुड़ी
एक एक याद में खोती जा रही हूँ...तुम्हारी धोतियाँ...ये नीली वाली कितने चाव से
भिजवाई थी मैंने कि तुम पर कितनी अच्छी लगेगी...बचपन में कितने ध्यान से देखती थी
कि ये गत्ती धोती तुम बांधती कैसे हो...छोटी सी काया वाली मेरी नानी..घर के चप्पे
चप्पे, एक एक चीज़, दर ओ दीवार...छत और आँगन...पेड़ पौधे...चूल्हा चिमटा, डोलची
फुकनी, उपले लकड़ी, अनाज फल, मिट्टी के ज़र्रे से लेकर पेड़ों की छांव और हवा के बहाव
में तुम खुश्बू बनी बह रही हो...तुम्हारी गाय...कितना लड़ती थी तुम सबसे इसके
लिए...कितने लाड़ से पाला इसे और इसके पुरखों को तुमने...सब छूट गया न..आकर देखो
ज़रा किस कदर उदास हो चली है ये...खाना पीना सब कुछ छूटा...वो किसी तरह जी रही है
क्यूंकि समझ गयी है कि उसकी वो मां नहीं है अब...मां बाप छूटे और अब तो उसका वो घर
आंगन भी छूटा...
सिर्फ़ एक बात जिसका
अफ़सोस हमेशा रहेगा कि तुमने आराम का एक दिन भी नहीं देखा...13 साल की उम्र में इस
घर में ब्याह के आई तुम बच्ची ही तो थी...सारा जीवन घर के कामों में...नाना
की...गाय की, सेवा में...खेती बाड़ी में लगा दिया...कितना थक गयी होगी तुम....कैसे
कहते हैं ये लोग कि अँधेरे ही खेतों में पहुँच जाती और दिन ढले ही लौटती...कुछ तो
नहीं देखा तुमने...कहीं भी नहीं गयी और...एक दिन मजबूरी में बैंक गयी तो लोगों की
भीड़ देख कितना असहज हो गयी थी...मामाजी बता रहे थे कैसे डांटा था तुमने उनको...तुम्हें
थोड़ा तो आराम मिलता...ऐसी ही छोटी सी ख्वाहिश भी थी तुम्हारी कि कुछ दिन तुम हम सब
के साथ बिता सको...पर हम लोग कुछ कर ही न सके...समझ ही नहीं पाती कि मां को अब क्या
समझाऊं और कैसे समझाऊं
मैं लौटते लौटते तक
उन क्यारियों, घर के कोनों में तुम्हे तलाश रही थी...तुम होती तो ख़ुश होती कि ये
लमडेर बच्चे आज कितनी सुबह उठकर तैयार हो चुके हैं....तुम हमें तब तक देखती रहती
थी जब तक हम लोग आँखों से ओझल नहीं हो जाते थे पर आज तुम यूँ ओझल हुई कि ढूंढें
नहीं मिल रही....नहीं पता था जिसका हाथ इतने दिन कसके थामे हुई थी वो साथ छोड़कर
यूँ जायेगी...दीवार पर तुम्हारी तस्वीर लगता है अभी बोल पड़ेगी...उसपर उंगलियाँ
फेरती हूँ तो मन भर आता है...रोक ही नहीं पाती...मेरे पास कितना कुछ है याद करने
को...वो पल याद करते हुए मैं आज भी तुम्हारे साथ ही जी रही हूँ...तुम्हे छेड़ रही
हूँ, तुम्हारे साथ हंस रही हूँ, तुमसे लिपट कर सो रही हूँ...काश तुम्हें जाने से
रोक पाती...काश कुछ और वक़्त साथ बिता पाती...पर यहीं आकर हम लाचार होते हैं...और
यहीं आकर हम समझ पाते हैं कि अपनी लापरवाहियों के चलते क्या कुछ खो दिया हमने...अब
तुम मेरे भीतर हो नानी और हमेशा हमेशा रहोगी...बस एक बार कसके तुम्हारे गले लगने का दिल कर रहा है....
(शीर्षक फ़राज़ साहब से
माफ़ी के साथ)
शानदार संस्मरण। मुझे क्या हर पढ़ने वाले को अपनी नानी का अक्स दिखेगा। लमडेर बच्चे सयाने हो गए नानी तुम्हारे पीछे। खिराज-ए-अकीदत ....नानी
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