बुधवार, 28 सितंबर 2016

सामाजिक सर्विलांस पर रखे चरित्र

(इस लेख को फिल्म समीक्षा की उम्मीद में न पढ़ें)
  
वो एक अजीब स्थिति थी...नहीं पता कि हॉल में पसरा सन्नाटा किस बात का था...लोग फ़िल्म की कसावट में जकड़े थे....उसके बहाव में बह रहे थे...सस्पेंस महसूस कर रहे थे...या खामोशी से उन उन लम्हों को याद कर रहे थे जब वो ऐसी किसी स्थिति का हिस्सा बने थे...जब उन्होंने ऐसा किसी के साथ किया था...जब ऐसा कुछ उनमे से किसी के साथ हुआ था...जब उनके चरित्र को उनकी निजी आदतों पर आंका गया था या फिर उन्होंने ख़ुद ऐसा किसी और के साथ किया था...जब वो ऐसे दोस्त, पड़ोसी, माता पिता, बॉयफ्रेंड, गर्लफ्रेंड, रिश्तेदारसरकारी अधिकारी कुछ भी बने...जाने क्यूँ मैं दिल से ये ही चाह रही थी कि वहां बैठा हर इंसान अपनी ज़िन्दगी में आये उस लम्हे को याद कर सके जब उसने ऐसा किया...किसी से भले ज़िक्र न करे पर कहीं खुद अपने अंदर अपने ऊपर शर्मिंदा हो...याद करे कि वो देर रात घर लौटने वाली लड़की बदचलन नहीं....वो कॉल सेंटर में काम करती है, कॉल गर्ल नहीं है और अगर है भी तब भी उसकी अस्मिता, वजूद और हक सिमट नहीं जाते...वो दोस्तों संग शराब पीने वाली लड़की वेश्या नहीं...वो एक बेहद अक्लमंद और संवेदनशील इंसान और कामकाजी औरत है....और वैसे आप तो शराब न पीने वाली लड़कियों को पिछड़ा समझते हैं...तो अब क्या हुआ...ऐसा दोगलापन भी क्या कि अगर वो साथ बिस्तर तक पहुँच जाय तब तो ठीक वरना वो बदचलन...इस तरह के तमाम सवाल उठाये ही गए हैं...जिनकी कसौटी पर आम तौर पर लड़कियों का चरित्र आंका जाता है...पर क्या तुम्हें याद आया कि कब तुम्हारी साथी की उस पार्टी में जाने की इच्छा नहीं थी, तुम्हारे बॉस के साथ वो असहज हो रही थी पर तुम्हे ज़रा भी कोफ़्त नहीं हो रही थी...ये अलग बात है कि किसी रोज़ इसी तरह वो अपना एक और साथी चुन लेती तो वो तुम्हारे लिए बदचलन हो जाती...क्या याद आया तुम्हे कि उस दिन तुम्हारी साथी एकांत चाहती थी...उसे तुम्हारा साथ तो चाहिए था पर शारीरिक सम्बन्ध नहीं और कैसे उसके मना करने के बावजूद तुमने उसकी एक न सुनी थी और कैसा इमोशनल ब्लैकमेल किया था उसे....कैसे प्रेम के सारे अर्थ सिर्फ़ शरीर तक आकर सिमट गए थे...क्या तुम्हे याद आई अपनी वो दोस्त जो जिससे बेइंतेहा दोस्ती थी तुम्हारी...हर सुख दुःख हंसी मज़ाक लड़ाई झगड़े के साथी लेकिन वो तुम्हे एक दोस्त के तौर पर ही देखती थी...अपने एक तरफ़ा प्यार में पागल होकर अपने सड़े अहं के साथ किस कदर मुश्किलें खड़ी की तुमने...कैसी कैसी स्थितियों में क्रूर हुए तुम...कि सावधानी लेने के नाम पर तुम्हे अपने मज़े में खलल लगती थी जबकि ताक पर तुम्हारी साथी की सेहत थी...वही साथी जिससे तुम्हे बेइंतेहा मुहब्बत थी....कैसे उस छोटी बच्ची के जिस्म पर उँगलियाँ फिराने की कोशिश की थी तुमने...उसकी सहमी आँखों पर ज़रा भी तरस नहीं आया तुम्हे....जबकि कैसे बहन से छेड़छाड़ होने पर खून खौल उठता था तुम्हारा...कैसे दफ़्तर में आधुनिक कपड़े पहनने वाली, अंग्रेजी बोलने, शराब पीने, पार्टी करने वाली लड़कियों पर तुम फ़िदा रहते थे लेकिन घर पर तुम्हे बीवी बहन और बाकी औरतें सीमा रेखा के अन्दर ही सुहाती थीं....कैसे किसी की भावनात्मक कमजोरी के दौर को तुमने अपने लिए एक मौके के तौर पर देखा था...कैसे अपनी बीवी की सेक्स के लिए इच्छा ज़ाहिर करने पर असहज हो गए थे तुम...प्रेम में सेक्स ज़रूरी है और इसलिए तुमने गर्लफ्रेंड से किया भी पर ऐसे सेक्स करने वाली लड़कियां वहाँ भीतर तुम्हारे दिल में 'अच्छी' नहीं ही मानी जाती थीं...क्या कुछ भी याद करके शर्मिंदा हो पाए तुम? वो किरदार जिन्हें तुम परदे पर देख रहे थे वो तुम्हारे और मेरे बीच के ही किरदार हैं  

फ़िल्म देखते वक़्त मेरे दिमाग में फ़्लैश बैक में जाने क्या क्या चल रहा था...हर उम्र, स्थितियों, जगहों से जुड़ी वो बातें याद आ रही थीं जिन्हें हमेशा दफ़न करने की ही कोशिश की लेकिन ज़रा सा छेड़ भर देने से एक भयंकर शोर के साथ वो दुबारा खड़ी हो जाती थीं...जैसे आज हुई थीं...मैं खामोश थी...फिल्म के बाद भी खामोश रही...लोग वाह वाह कर रहे थे, तारीफें कर रहे थे और मैं समझ नहीं पा रही थी कि इस फिल्म में इन्होने ऐसा क्या देखा जो पता नहीं था..सुना नहीं था, किया नहीं था या किसी भी तरह अनुभव ही नहीं हुआ था...क्या वो सब अभिनय कर रहे थे ये दिखाने का कि हमने कभी ऐसा नहीं किया...क्या वो भीतर ही भीतर शर्मिंदा थे...क्या कहीं कोई चोट लगी थी...क्या उन लड़कियों को ये अहसास हुआ था कि अपने मर्ज़ी के साथी चुनकर, या बाहरी दुनिया का हिस्सा बनकर वे कुछ ग़लत नहीं कर रहीं...ये उनकी निजी ज़िन्दगी और उनके हक हैं...जिन पर उन्हें विश्वास और फख्र होना चाहिए...क्या ये लड़कियां याद कर पा रही थीं कि कब इन्होने किसी और लड़की के चरित्र प्रमाण पात्र जारी किये थे....यूँ ही ‘स्लट’, ‘बिच’, ‘होर’ कह दिया था...जिस लड़के को ये पसंद करती थीं वो अगर किसी और लड़की को पसंद करता था तो वो लड़की गालियों की हक़दार बन जाती....पड़ोस में देर रात लौटने वाली या फिल्म देखने जाने वाली लड़की ‘उस टाइप’ की हो जाती सिर्फ इसलिए क्यूंकि हम वो सब काम नहीं कर पा रहे थे...हर वो लड़की जो हमे सिखाई गयी ‘अच्छी लड़की’ या नैतिकता की परिभाषा से इतर कुछ करती वो गलत हो जाती...क्या याद आ पा रहा था?

मैं बेचैन थी...पर मैं चाहती थी कि वहां बैठे सभी लोग बेचैन हों...वो सब मर्द बेचैन हों जो कभी न कभी ऐसे हुए थे...वो जानें देखें कि कैसी सड़ांध है उनकी सोच की लेकिन उसी पल मुझे ये भी लगा कि क्या वाकई नहीं जानते कि इन्होने क्या किया है और कब किया है...बाहर इनमे से कितनों ने ही इस पर बड़ी बड़ी बातें की हैं...ये आधुनिक हैं, खुली सोच के हैं...इन्हें लड़कियों की आजादी देखकर ख़ुशी होती है...पर क्या वाकई ये सोच है? क्यूंकि व्यवहारिकता तो कुछ और ही बता देती है...वो उस दोगलेपन को उजागर कर देती है जिसकी कल्पना भी नहीं की थी.... “चलते हैं न तुम्हारे घर...कब तक लोगों की परवाह करोगी...तुम व्यस्क हो और ये तुम्हारी ज़िन्दगी है”..... “अरे यार एक दो ड्रिंक से कुछ नहीं होता, ट्राय न”, “अभी 10 ही तो बजे हैं चली जाना क्या जल्दी है”....“सेक्स प्रेम का बहुत ज़रूरी हिस्सा है...तुम भी किस ज़माने की बातों में उलझी हो लेट्स डू इट”.... “सॉरी यार मिस्ड इट अगेन ऐसा करो आई पिल ले लो”....तुम ही कहते थे न...तो ये सब तो वहां होता है जहां साथी अपनी मर्ज़ी से चुने जाते हैं...तुम्हारे मन की इस दुनिया में शराब और सेक्स ज़रूरी हो जाता है...वो आधुनिक होने का प्रमाण हो जाता है...इतना कि तुम्हें किसी का किसी के साथ कितनी बार भी सेक्स करना गलत नहीं लगता लेकिन बाद में गलत सिर्फ लड़की ही कैसे हो जाती है....अब उन लड़कियों का सोचके देखें जहां चुने हुए साथी जैसा कुछ नहीं....

मेरी ज़िन्दगी समाज के सर्विलांस पर होती है....कब उठती हूँ...कहाँ जाती हूँ...कौन घर आता है...कहाँ काम करती हूँ...क्या काम करती हूँ...क्या पहनती हूँ...क्या खाती हूँ....लड़कों से दोस्ती है...कब वो अकेले आते हैं घर...आते हैं तो घर के अन्दर क्या होता होगा....सेक्स ही होता होगा....घर पर लड़के नहीं आने चाहिए...एक ही लड़का आता है या अलग अलग...अगर आते हैं तो लड़की गलत है...रात को कहाँ से आती हूँ...दो दिन तक घर से बाहर क्यूँ रहती हूँ...किससे बात करती हूँ...पड़ोसियों के यहां कथा में क्यूँ नहीं जाती और देर रात फिल्म देखने क्यूँ जाती हूँ....शादी नहीं की...क्यूँ नहीं की...उम्र हो गयी है...ज़रूर कोई चक्कर होगा...घरवालों ने ज्यादा छूट दे रखी है...क्या पता इसमें ही कोई कमी हो...जाने कितने सवालों की एक्सरे मशीन से हर रोज़ हर पल मेरे चरित्र का स्कैन होता है और अगर उस दिन मैं बाइज्ज़त बरी हो सकी तो वो मेरी किस्मत है...ये अलग बात है कि इनमे से किसी सवाल का जवाब देना अब मैं ज़रूरी नहीं समझती...

उस फिल्म को देखते वक़्त क्या खुद से सवाल किया था कि क्यूँ करते हैं हम ऐसा...क्यूँ बन जाते हैं ऐसे जाननेवाले...पड़ोसी, परिवारजन, रिश्तेदार, दोस्त या सहकर्मी...शर्मिंदगी हुई थी या ये ही लगा था कि अब लड़कियां ऐसा करेंगी तो उनके साथ ऐसा तो होगा ही...मुझे लगता है ज्यादातर ने आत्मग्लानि से बचने के लिए अपने अन्दर उठ रहे उन सवालों को ये जवाब देकर ही शांत किया होगा....और ये भी जानती हूँ कि अगले ही दिन मेरा पाला एक ऐसे व्यक्ति से पड़ सकता है जिसके लिए मैं सिर्फ इसलिए पिछड़ी हूँ क्यूंकि मैंने उसके साथ शराब पीने का ऑफर ठुकरा दिया....आपको लगता है तमाम दफ्तरों में बैठी लड़कियों, औरतों की जिंदगियां आसान होती हैं....इस गुलाबी आईने में ख़ुद की वो सियाह सूरत और सीरत पहचानिए....आपके फूहड़ मज़ाक पर आपको हड़का देने वाली लड़की का ‘सेंस ऑफ़ ह्यूमर’ बीमार घोषित हो जाता है और वो प्रोफेशनल सेक्टर के लिए अयोग्य हो जाती है....तुम्हारी नज़र में हमारा चरित्र हमारी बर्दाश्त करने की सीमा से तय होता है...

मेरे इर्द गिर्द तमाम लोगों के लिए ये सवाल है...पर अब मुझे वाकई नहीं लगता कि कोई फर्क पड़ता है इससे...क्यूंकि वापस आकर एक अच्छा रिव्यु पोस्ट हो जाता है, कुछ देर चर्चा हो जाती है...तारीफ हो जाती है सलाह दे दी जाती है कि ज़रूर देखें....और ऐसा कहकर हम ये ज़ाहिर कर देते हैं कि हम ऐसी ज़िम्मेदार फिल्में देखते हैं मतलब संवेदनशील हैं....हम कितने ज़िम्मेदार हैं और फिल्म में दिखाए गए खलनायकों जैसे नहीं हैं....हमें स्त्री विमर्श पर बोलने के लिए कुछ और बातें पता चल जाती हैं जिसके ज़रिये हम प्रभावशाली बातें कर पाते हैं और संवेदनशील होने का मैडल हथिया लेते हैं...किसी लड़की से ज्यादा बात करने या उसमें दिलचस्पी लेने और संवेदनशील होने में ज़मीन आसमान का फर्क होता है...अब भी मानती हूं कि सब ऐसे नहीं लेकिन बड़ी संख्या ऐसों की ही है...चेहरे दुहरी सोच के नकाब में हैं….रही बात ‘न’ को स्थापित करने की तो जानकारी का दायरा बढ़ाइए... ‘No Means No’ (न मतलब न) विश्व भर में चल रहा अभियान है...हिन्दुस्तान में भी इसकी कम चर्चा नहीं हुई...पर आपके लिए तो ‘न’ का अर्थ लड़की की शर्म से निकाला जाता है और उसमें आपको एक अलग ही किस्म की ‘हाँ’ दिखती है...      

एक बात जो बेहद ज़रूरी है...संवाद...खासतौर पर लड़कों बच्चों के साथ...संवाद की कमी ज़बरदस्त भटकाव ला रही है...उन्हें दोस्तों में अपनी इमेज बनाने का अजीब दबाव है...लड़की छेड़ना, मार पीट, मां बहन की गालियां, हिंसा...तमाम सारी बातें जिसपर उनसे चर्चा नहीं की जाती...अपने आसपास के लोगों, मीडिया और माहौल से प्रभावित होकर वो एक अलग ही ट्रैक में बढ़ जाते हैं...जहां उन्हें ‘बुलेट राजा’ जैसा बनना होता है....यहां ज़बरदस्ती करना ‘हीरो’ होने की ज़रूरी शर्त है....हर रोज़ इतनी हिंसा की ख़बरों में जिन अपराधियों का ज़िक्र है वो हमारे आपके घरों से ही निकल रहे हैं...उनमें अनपढ़ भी हैं और कान्वेंट से पढ़े हुए भी...झुग्गी में रहने वाले हैं और बड़े अधिकारियों के बेटे भी.... ये जिस ‘भौकाल’ की ख्वाहिश और नशा है देखिएगा वो आपके समाज को बना क्या रही है....हिंसा को ख़त्म करने के लिए पहले सहमती और असहमति की संस्कृति के लिए जगह बनाइये...किसी लड़की का चरित्र सिर्फ़ इसलिए संदिग्ध नहीं हो जाता क्यूंकि वो आपकी ‘अच्छी लड़की’ की परिभाषा से फर्क है.  


और लड़कियों...बिना वजह शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं बल्कि सबकी बातों पर तो ध्यान देने की भी ज़रूरत नहीं...पर अपने जैसी रहो....किसी समूह विशेष में शामिल होने या उनकी स्वीकार्यता पाने के लिए भला क्यों ख़ुद को बदलो...हमारी ज़िन्दगी हमारी दुनिया भला कोई और क्यों तय करे....ख़ासतौर पर वो जिसके लिए हम उपभोग की वस्तु से इतर कुछ हुए ही नहीं...तुम्हारे लिए नियम क़ायदे कानून भला वो क्यों बनाएं, तुम्हारे फ़ैसले वो क्यों लें...कुछ करो तो इसलिए करो कि तुम्हारा दिल किया...किसी भेड़चाल में शामिल होने के लिए नहीं...बस दिमाग की खिड़कियां खुली रखो...और हां किसी के साथ कुछ ग़लत होने पर बन सको तो उसकी हिम्मत बनो परेशानी नहीं...ये कहने से बचो कि ‘हम भी तो बाहर जाते हैं हमारे साथ तो कभी ऐसा नहीं हुआ’...क्यूंकि ‘ये’ किसी घोषणा के साथ नहीं होता...और करने वाले ज़्यादातर जान पहचान के होते है....बाकी...फिल्म तो अच्छी थी ही...लोगों का मनोरंजन हुआ और वीकेंड की एक शाम सार्थक साबित हुई. 

7 टिप्‍पणियां:

  1. Behad bechain tippani... bheetar jhankti si... jaise koi saf aaina Jahan aapke peatibimb ki aankhen jhank rahi hon aapki aankhon ke bheetar

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  2. Bahut hi badhiya likha hai..
    Ek ek baat samaj ko aaena dikhane wali hai. Bahut badhiya

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  3. उम्दा लेखन। आत्मा को झकझोर देने वाला लेख

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  4. Bahut santulit,bebaak aur preshaankun....main hamesha muntzir rahtaa hoon k kuchh tumhaari taraf se aaye...qalam ko qalam ki tarah kam log istemaal karte hain...jazbe ko salaam...bahut umdah

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  5. बेबाक़ लिखा। उम्मीद है एक दिन हमारा समाज आपकी और हमारी उम्मीदों के माफ़िक़ होगा।

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