अहमदाबाद. यह शहर
मेरे लिए अनजाना नहीं लेकिन कुछ ख़ास जाना पहचाना भी नहीं....यहाँ के चटख रंग, ऊर्जावान
और मेहनती लोग, साधारण जीवनशैली और गरबे का संगीत...बहुत कुछ है जो किसी को प्रभावित कर देता है पर एक संवेदित नागरिक के तौर
पर सोचूं तो गुजरात के साथ काले अध्याय भी जुड़े हुए हैं जिनका असर आज भी ज़िन्दा
है.....ख़ैर...इस बार यहाँ आने की वजह पारिवारिक थी...अभी तक बाहर निकलना ज्यादा हुआ
ही नहीं पर घर बैठे ही कुछ देखा महसूस किया वहीँ यहाँ साझा करुँगी.
कहते हैं प्रेरणा
लेने के लिए दुनिया, लोग, समय, उम्र, क्षेत्र इत्यादि की कोई सीमाएं नहीं होती पर
बात यहाँ उससे एक क़दम आगे जाकर जब आपको ये एहसास अपने आस पास के जीव जंतुओं को देख
कर हो जाये....ज़रुरत बस ख़ुद को उनसे जोड़कर महसूस करने की होती है.....मसलन कभी झूमकर
नाचते हुए मोर को देखिये, जी करेगा कि दुनिया भूलकर उसके साथ झूमें नाचें...ख़ुद के
अन्दर के सोये हुए बेपरवाह इंसान को फिर ज़िन्दा कर दें...जंगल में चौकड़ी भरते
हिरणों के झुण्ड को देखिये, आप याद करने लगेंगे कि वो आख़िरी बार कब था जब आप
दोस्तों के साथ यूँ ही किसी दिन सड़क पर निकल पड़े थे या वो कब था जब आप खुल कर कुछ
यूँ हँसे थे कि आँखें गीली हो गयी थीं....सड़क पर या मिट्टी में लोटते उन नन्हे
मुन्ने शावकों को देखिये आपको अपने बचपन के दिन याद आ जायेंगे जब खेलते हुए धूल मिट्टी
में गिरना पड़ना आम बात होती थी या ज़िद में सड़क पर लेट जाना ब्लैकमेल करने का सबसे
आसान तरीका.
ज़िन्दगी उम्मीदों
का नाम है और उम्मीदें ज़िन्दा रखने के लिए मज़बूत हौसलों का होना बहुत ज़रूरी है....एक
दिन यूँ ही जब आसमान बादलों से घिरा था और कमरे में बैठकर कॉफ़ी की चुस्कियां लेते
हुए नज़र बाहर बालकनी में पड़ी तो कबूतरों का एक जोड़ा दिखा...बेहद प्यारा पक्षी होता
है ये, जो इस शहर में बेइंतहा पाया जाता है....यहाँ सुबह अलार्म की आवाज़ से न होकर
कबूतरों की गुटरगूं से होती है...मेरी बहन का घर ऊंची इमारतों वाली जिस सोसाइटी
में हैं वहां अक्सर महिलाएं इसी कोफ़्त में बडबडाती दिख जाएँगी कि इन कबूतरों ने तो
जीना दूभर कर दिया है...हर वक़्त शोर...खिड़की या दरवाज़ा खुला छोड़ दो तो अन्दर घुस
आते हैं...बालकनी में फिर घोंसला बना दिया है वगैरह वगैरह....कबूतरों के साथ इनकी
ऐसी नोकझोंक से दो बातें बहुत याद आती हैं...एक, हर किसी के बचपन में एक ऐसा
बुज़ुर्ग (नानी, नाना, दादी, दादा या कोई और भी) ज़रूर होता था जिसे परेशान करना
बच्चों का पसंदीदा शगल होता था. ये बुज़ुर्ग परिवार, मोहल्ले, गाँव, कहीं के भी हो
सकते थे...बच्चों की शैतानियों से गुस्साए ये बुज़ुर्ग उनको डपटते, भगाते, उनके मां
बाप से उनकी शिकायत करते या छड़ी लेकर उनको दौड़ाते कभी भी देखे जा सकते थे....पर
किसी दिन अगर ये ही बच्चे उन्हें नहीं दिखते तो सबसे ज्यादा बेचैनी भी इनको ही हो
जाती..या किसी दिन माता पिता बच्चों को डांट रहे होते तो बचाने भी सबसे पहले ये ही
पहुँचते क्यूंकि डपटने का हक़ सिर्फ इनका ही होता था...एक अलग क़िस्म का रिश्ता होता
था इन बुजुर्गों और बच्चों में....कुछ ऐसा ही रिश्ता है यहाँ मंडराते इन कबूतरों
और इन महिलाओं में....दूसरी जो बात बहुत याद आती है वो है टॉम एंड जेरी
कार्टून....बिलकुल वैसा ही युद्ध छिड़ा रहता है दोनों में...
wow, great. your writing is so impressive. ye baat ab bahut door tak jaayegi :) all the best
जवाब देंहटाएंbeautiful... And really sensitive too Rashmi... Kudos...
जवाब देंहटाएं