मेरे नानाजी को रोटी और जैम बहुत पसंद था....मुझे याद नहीं
पिछले कितने सालों से उनका रात का भोजन ये ही था...सब्जियां उन्हें नापसंद
थीं...सब्ज़ी रोटी लेकर जाने पर फ़ौरन कह देते मुझे भूख नहीं है...मनाया जाता, डांटा
जाता कि कुछ तो खा लीजिये...नहीं मानते...बड़ी मान मुनौव्वल के बाद जैम रोटी पर
राज़ी होते थे...उनकी रोज़ की न न पर मेरी नानी झुंझला जाया करती थीं...और दोनों में
बराबर के झगड़े होते...
पिछले साल इन्ही दिनों मैं अपने ननिहाल में थी...अपना बचपन
दुबारा जी कर आई थी...ख़ुद से ये कहा था कि अब यहाँ जल्दी जल्दी आया करूंगी...यूँ
सालों में नहीं...पर हम आजकल के लोग....रिश्तों को निभाने में बहुत पिछड़े होते
हैं...अपने शहर में पैर पड़ते ही हमारी प्राथमिकताएं फिर बदल जाती हैं, दफ़्तर,
मीटिंग, असाइनमेंट, घर, यहाँ वहां और दुनिया जहान के काम...एक एक पायदान करके ख़ुद
से किया वो वादा फिर नीचे खिसकता जाता है...हम ‘कुछ दिनों बाद जायेंगे’ का कह कह कर अपने आपको
जवाब देकर बचना चाहते हैं और एक दिन पता चलता है कि इन बहानों ने वो दूरी खींची जो
कभी पाटी नहीं जा सकेगी और वो अफ़सोस जो दिल से कभी नहीं निकलेगा..
मैं आज किसी बेहद क़रीबी और बेहद अपने को खोकर आई हूँ....भारी
मन, तकलीफ़, दुःख और अफ़सोस के साथ...मेरी आंखों के आगे जैसे ज़िन्दगी की तस्वीर का
एक फ्रेम टूटकर गिरा हो...हर टुकड़े से एक याद एक क़िस्सा झांक रहा है और मैं उन बिखरे टुकड़ों को कहीं कहीं समेटती चल रही हूँ....मेरे नानाजी हम सब से बहुत दूर जा चुके
हैं
बचपन से अपने नानाजी को देखती थी..वो एक बुज़ुर्ग थे और धीरे
धीरे कुछ कुछ काम करते रहते...पर बहुत सक्रिय नहीं होते थे...गाँव के बाक़ी लोग
बताते हैं कि वो एक ज़बरदस्त किसान थे...बहुत कर्मठ...मिट्टी फेंकें तो कहो ज़मीन सोना
उगले...उनके चचेरे भाई बताते थे कि भाई जी के बैल थक जाते थे पर वो न बैठते
थे....गली से जब निकलते तो जो बच्चा बाहर दिखता उसे स्कूल छोड़ आते...जिसको पैसे की
तंगी होती उसकी फ़ीस जमा कर आते...सारे लोग डरते...वो सबके बाडाजी (ताऊजी) थे. न
ख़ुद ख़ाली बैठते न किसी को बैठने देते...पर उसके बाद उन्हें न्यूरो की कुछ दिक्क़त
हुई...कहते हैं दिमाग़ की कोई नस सूख गयी...ऑपरेशन हुआ पर उसके बाद वो पहले जैसे सक्रिय
न रह सके...झड़ से गए....ये उन दिनों की बात है जब मैं बिलकुल अबोध थी...इसलिए
मैंने नानाजी को खेती करते नहीं देखा...नानी के कामों में मदद कर दिया करते...गाय
को पानी पिला देना...नानी के साथ मशीन में कुटी (चारा) कटवाना, गाय को अलग अलग
खूंटों पर बाँध देना...बाज़ार से सब्ज़ी-फल ला देना वगैरह...मेरी नानी के घर पर
हैंडपंप नहीं था...पड़ोस से पानी लाना होता था...एक अजीब सी समझ थी ये कि एक अगर
पानी ला रहा होता था और जैसे ही वो घर के पास पहुँचता दिखता तो दूसरा फ़ौरन उसका
बोझ हल्का करने पहुँचता और वहां से आगे एक बाल्टी ख़ुद लेकर आता...और हाँ बिना नागा
नानी नाना का एक दुसरे से नोक झोंक करना. वक़्त के साथ साथ एक एक करके इन सब कामों
की संख्या कम होती चली गयी और अब पिछले कुछ समय से उन्हें आँगन पार करने के लिए भी
सहारे की ज़रुरत पड़ती...उनकी उम्र उनसे उनकी ताक़त छीनती जा रही थी...और अब तो वो
बात भी बहुत धीमी आवाज़ में करते थे
नानाजी हमेशा मुस्कुराते रहते...मैं उनसे बहुत लडती थी
उन्हें डांटती थी...तो वो कई बार मां से कहते इसको मत लाया करो बहुत डांटती है....उन्हें
गुदगुदी लगती तो हम खूब परेशान करते...गाल नोचते, खूब छेड़ते...और वो हमें प्यार से
डांटा करते...अभी पिछली बार ही मैंने उनसे कहा था “ननाजी सच सच बतयां तुम सबसे
ज्यादा प्यार कैथे करदो”....तो नानाजी ने अपने चिरपरिचित अंदाज़ में जवाब ईमानदारी
से दिया और कहा “बेटी सबसे ज्यादा प्यार त मि कैलाश थे ही करूद”...कैलाश मेरे भाई
का नाम है जो कि भयानक तरीके से नानाजी का सिरचढ़ा रहा है...उसकी हर ग़लती
माफ़...मैंने उनका जवाब सुनते ही कहा “अच्छा इन बात च हैं?” तो फिर हंसने
लगे...उनके जवाब में मानो उनकी बेचारगी रही हो...
उस कमरे में घुसते ही दाहिनी तरफ़ उनकी चारपाई लगी
होती...बाक़ी लोगों के बिस्तर समेट लिए जाते थे पर नानाजी का हमेशा लगा रहता...कमरे
में घुसते ही हमें उनको देखने की आदत थी...पहुंचने की देर होती थी और में उन्हें
छेड़ना शुरू कर देती...पर हाँ वो आइसक्रीम बर्फ़ वाला आता तो उसके लिए या फिर वो
लालझीभ टॉफ़ी या ऊँगली में फंसाने वाले पापड़ के लिए भी पैसे नानाजी से ही लिए
जाते...हाँ नानी का इमोशनल ब्लैकमेल भी खूब होता था. नानाजी समय के साथ साथ
भावनात्मक रूप से भी कमज़ोर हो गए थे...हम लोगों को या किसी भी मेहमान को देखते ही
मारे ख़ुशी के रोने लगते थे...
बाहर आँगन में वो अपने मोढ़े पर बैठे होते...गन्ने के बड़े
शौक़ीन...दांत एकदम दुरुस्त....नियम के भी पक्के...सुबह नहा धोकर और हर शाम हाथ
मुंह धोकर प्रार्थना का नियम पक्का था...चाय कभी बिना बिस्कुट के नहीं पी...कुछ
साल पहले तक बीड़ी पीते थे...और इसी बात पर मैं उनके लिए हमेशा विलेन बनी रहती...किसी
को भी डपट देते पर वो गांव के सबसे बुज़ुर्ग लोगों में से थे और अपने वक़्त में सबकी
इतनी मदद की थी कि आज पूरे गांव की अगली पीढ़ी उनके बच्चों की ज़िम्मेदारियाँ निभा
रही थी...कोई कभी कुछ ख़ास बना लाता, कोई बाज़ार से फल सब्ज़ी या घर का बाक़ी सामान ले
आता, गांव के डॉक्टर बेवजह डांट खाने के बाद भी मुस्कुराते रहते...नानाजी की तबियत
बिगड़ने पर ईद के दिन अपने मेहमानों को बैठा छोड़ नानाजी को देखने पहुँच जाते..
रेडियो के कैसे तो शौक़ीन थे...उन्हें कुछ और नहीं चाहिए होता
था...बस रेडियो की फ़रमाइश होती जिसमें उन्हें ख़बरें सुननी होतीं...यूँ तो उनकी
याद्दाश्त धुंधला रही थी पर बुलेटिन उन्हें सारे याद रहते...नानाजी एकदम बच्चे
सरीखे थे...जब उन्हें पता होता कि उनकी किसी बात या काम पर उन्हें डांट पड़ सकती है
तो फ़ौरन मुकर जाते... “न बबा मिल नि कार” (न बच्चा मैंने नहीं किया)...’बबा’ बच्चे
के लिए दुलार का शब्द हैं... “ननाजी झूठ बुना छो?”... “न बबा अछें भगवान जाणी” (न
बच्चा सच में भगवान जनता है)...साथ में यूँ मुस्कुराते रहते कि कोई छोटा बच्चा भी
समझ जाए कि वो काम नानाजी ने किया है...और उसके बाद हंस पड़ते..
मैंने नानाजी को उनके कर्मठ अवतार में कभी नहीं देखा बस
गाँव वालों से किस्से सुने हैं...उन्होंने मुझे बड़ा होते और मैंने उन्हें वक़्त के
साथ साथ और कमज़ोर होते देखा...उन्हें यूँ देखना तकलीफदेह होता था...पर हम सब अपने
मन को समझाते कि ये बुढ़ापे का शरीर है...अब वो पहले जैसे कोई काम नहीं कर पाते
थे...मेरी नानी ने इस लम्बे वक़्त में उनकी सेवा की...माँ पापा यहाँ आते जाते रहते
थे...पापा ने सेवा में कभी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी....पर नानाजी ख़ुद जानते थे कि जो
काम उनकी जीवनसाथी कर रही है वो और वैसा कोई न कर पाए शायद...ये ही वजह थी कि
पिछले दिनों जब नानी की तबियत बिगड़ी तो एक दिन नानाजी रात में दो बजे उठकर बैठ
गए...मां ने पूछा क्या हो गया कोई परेशानी है...तो बोले इसे कुछ हो गया तो मैं क्या
करूँगा और फिर मुझे कौन देखेगा...नानी नाना की ज़िन्दगी एक दूसरे के इर्द गिर्द
थी...डांट फटकार नोंक झोंक झगड़े सब कुछ...इस बार देख के आई हूँ कि कैसा था वो
रिश्ता कि एक के जाने पर दूसरे के लिए जीवन बेमानी हो चला है...
नानी कहती हैं अब मैं किससे बात करूंगी झगडा करूंगी हर वक़्त
इस कमरे में एक साथ था...एक ठौर था...कुछ भी नहीं रहा सब ख़ाली हो गया...हम इसे
सेवाभाव से अलग करके देखें तो शायद समझ सकें...नानी 13 साल की उम्र में ब्याह कर
आई थी...नाना उस वक़्त 16 साल के थे...दोनों का ये साथ 71 साल का था...उनकी
प्रतिक्रिया समझी जा सकती थी...जिस तरह नानाजी के मृत शरीर की वो उंगलियाँ सीधी कर
रही थीं कि देखो कैसे ऐंठ रही हैं...दर्द होता होगा...या जैसे उनके चेहरे को
सहलाती थीं तो कलेजा मुंह को आता था...ऐसी स्थिति में कुछ भी समझाना बुझाना बेमानी
होता है...4 बजे गुरुद्वारे में गुरबानी बजते ही बोलीं चाय बनानी है हम दोनों का
चाय का समय हो गया है....हम सब आज कुछ अलग क़िस्म के रिश्तों की दुनिया में जीते
हैं...पर इन रिश्तों को समझने की कोशिश करें तो इनकी इज्ज़त करने लगेंगे...नानी ने
बड़ी तकलीफें देखी जीवन में, झगड्तीं तो कहतीं कि परेशान कर दिया है...पर आज उनके
चले जाने पर वो अपने जीवन की कल्पना ही नहीं कर पा रहीं...रात भर मैं उनके साथ
बैठी रही...वो खाना पानी सब छोड़े बैठी थीं...किसी तरह खिलाया पिलाया...रात भर मुझे
अपनी यादों की गलियों में साथ घुमाती रहीं...और मैं किस भावना से भरती जा रही थी
उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं...
मुझे नाना नानी से मिलने जाना था...पर टालती जा रही थी
क्यूंकि प्राथमिकताओं में ऊपर दफ़्तर और बाक़ी के काम काज आ गए थे...लगता था बस अगले
हफ्ते पक्का चली जाउंगी...मैं ख़ुद अपनी नज़रों में शर्मिंदा होती और ख़ुद ही अपने को
व्यस्त होने की दलील देती...शनिवार सुबह पौने पांच बजे जब नानी ने रोते हुए कहा कि
नाना कुछ बोल नहीं रहे चले गए तो लगा ये कैसे मुमकिन है...अभी तो मुझे मिलने जाना
था...वो एकदम ठीक थे कुछ नहीं हुआ था पर 5 मिनट के अन्दर ये सब...ऐसा कैसे हो सकता
है...पूरा परिवार सब कुछ छोड़ छाड़ के चल पड़ा वहाँ...वहां मेरे नाना सचमुच अब मुझसे
बात नहीं कर रहे थे...कुछ नहीं बोल रहे थे...न हंस रहे थे न रो रहे थे....वो अब जा
चुके थे...
10 घंटे के उस रास्ते में मैं जाने क्या क्या याद करती
रही...कितना कुछ है...इस फ्रेम के बिखरे टुकड़े समेटना मुमकिन नहीं...उनकी यादें
पहाड़ों सी विशाल और समंदर सी गहरी हैं...कहां समेट सकूंगी...हम वक़्त बीतने के बाद
ख़ाली घरों की दीवारों, बड़े आँगन, वहां के पेड़ों और बाकी निशानों से यादें बटोरते
फिरते हैं लेकिन जब सही वक़्त होता है तब हम व्यस्त होते हैं....ये नहीं सोचते किसी
को हमारा इंतज़ार है...आंखों की रौशनी के साथ न देने पर भी कुछ लोग हैं जिनकी आँखें
हमारी राह देखती हैं...हमसे बात करना चाहती हैं, कुछ वक़्त बिताना चाहती हैं, आज भी
हमारे नखरे उठाना चाहती हैं...
हम सबके यूँ हर काम को अचानक छोड़ कर चले आने से हमारी निजी
जिंदगियों में कुछ नहीं बिगड़ा...कहीं कोई काम नहीं रुका...तो क्यूँ मैं पहले नहीं
आ गयी...क्यूँ नहीं समझा कि ये पल दुबारा नहीं मिलेंगे...ये साथ कब तक के हों पता
नहीं...एक न एक दिन सब बिछड़ जायेंगे तो क्यूँ न आज इन रिश्तों का हाथ मजबूती से
थाम कर चलें...क्यूं न उनके जीवन का ख़ालीपन मुस्कुराहटों से भरते रहा करें जिनकी
गोद में जाने क्या क्या शैतानियाँ कीं, कितनी तकलीफें दीं, कैसी कैसी मांगें कर
दीं...और जिन्होंने हमेशा मुस्कुराकर मजबूती से थामे रखा...बहुत छोटी छोटी बातें
हैं पर यकीन मानिए बहुत ज़रूरी हैं...प्राथमिकताओं की लिस्ट में संशोधन बहुत ज़रूरी
है...आंखें मूंद के एक पल उन ख़ास लोगों को याद करिए...ये ही हैं जो ज़िन्दगी को
ज़िन्दगी बनाते हैं...कब बिछड़ जायें नहीं पता...लिस्ट में सबसे ऊपर इन रिश्तों को लिख
डालिए...और कुछ यूं लिखिए कि इसमें कोई बदलाव न हो
अपनी नानी से लिपटकर उनकी खुश्बू और नानाजी का मुस्कुराता
चेहरा साथ लायी हूँ....मन में अफ़सोस है और अपराधबोध भी...कुछ वक़्त की ही तो उम्मीद
थी और मैं वो भी न दे सकी...इस बार हल्दी चावल की फिटाई लगाने, सिर पर हाथ फेरने और
दस रुपये का नोट पकड़ाने वाला कोई नहीं था....भीतर तक तोड़ गया आपका यूँ चले जाना...मुझे
माफ़ कर दीजियेगा!!