अचानक चारों तरफ से बेटियों को बचाने की अपीलें सुनाई पड़ने लगीं हैं...इतना तो
इतने सालों में नहीं सुना....गली नुक्कड़ की समितियों से लेकर देश के प्रधानमंत्री
तक सब जाग गए हैं...बेटियों को तो बचाना ही है....पर जाने क्यूँ इनकी ऐसी पहल पर
ख़ुशी से ज्यादा इनकी सोच पर अफ़सोस हो रहा है...बल्कि ज़्यादातर जगहों पर तो इस
दोगलेपन पर ग़ुस्सा आ रहा है....और एक अजीब सा चलन भी तो चल निकला है...ख़ुद को
फेमिनिस्ट कहना और ऐसी अपीलें जारी करने का फैशन...ये वो लोग हैं जिन्हें बराबरी,
अधिकार, स्वतंत्रता, आत्मसमान, अस्मिता के मुद्दों से कोई लेना देना नहीं...बस
झम्म से कूद पड़ेंगे कि बेटी बचाओ बेटी बचाओ....महिला सशक्तिकरण का मतलब सिर्फ़ पढ़ाई
तक सीमित करने वालों के लिए जींस शर्ट पहन लेने, अंग्रेज़ी में बात कर लेने और पेज
थ्री पार्टियों में शिरकत कर लेने तक ही सीमित है....इस क्षेत्र में पढ़ाई करने के
बाद जुड़े रहने का मौका मिला पर अपने आस पास की/ के इन पढ़े लिखे नारीवादियों को
देखती हूँ तो जी में आता है कह दूं कि आधे से ज़्यादा बंटाधार तो तुम लोगों ने ही
कर रखा है...इससे पहले मैं जिस संस्था में कार्यरत थी मुझे अच्छे से याद है की
मेरी ही एक सहकर्मी ख़ुद को बड़ी बड़ी फेमिनिस्ट कहती थीं...पर महिला सशक्तिकरण पर
उनके विचार जानकार मुझे उनपर सिर्फ़ तरस ही आ पाया था...हमारे आस पास अचानक से ये
जो खेप खड़ी हो चली है जिसका बच्चियों को बचाने का औचित्य बस इतना ही है कि बेटी
नहीं होगी तो बहू कहाँ से आएगी और फिर वंश कैसे चलेगा को कैसे समझाया जाए कि
नारीवाद इससे कितना जुदा है.... ये वो लोग हैं जिनके लिए बराबरी का मतलब सिर्फ़
बेटी की पढ़ाई तक सीमित है...उन बेटियों की परवरिश और ज़िन्दगी से जुड़े तमाम और
मसलों तक इनकी सोच कभी नहीं पहुँचती...करवाचौथ, तीज, छठ पर बाज़ार की ग़ुलाम बन जाने
वाली इन महिलाओं और सीता, सावित्री (और अब जशोदाबेन) को आदर्श महिला बताने वालों
को क्या बताइयेगा कि बात सिर्फ़ पैदा करने तक सीमित नहीं बल्कि बराबरी और अधिकार की
है...आज भी ज़्यादातर लोगों के हिसाब से त्याग, ममता, करुणा, दया, लज्जा और भी बाकी
के कमज़ोर बनाने वाले केमिकल प्राकृतिक और आवश्यक रूप से महिलाओं में पाए जाते हैं
और ये उनके गहने हैं और ऐसा ही होना चाहिए....आज तक समझ नहीं आया मुझे कि गर्भ में
ही गुणों का ये बंटवारा कैसे हो जाता है...आज तक तो किसी विज्ञान की किताब में पढ़ा
नहीं...जाने ये कहाँ से पढ़ के आये हैं...फ़िलहाल तो इस पूरे अभियान के खेवनहार बने
व्यक्ति की संवेदनशीलता ही देखें जिनकी अपनी पत्नी ने जीवन गुमनामी, अकेलेपन और
तमाम अभावों में बिताया और वो कल भी ऐश से रहे और आज भी ऐश से हैं...मंच पर जाकर
या कैमरे के सामने बेटी बचाओ का हल्ला कर देने से क्या वो सारी बातें भुला दी
जायेंगी...उनके नारों पर बांवरे होते लोग ज़रा एक बार तो सोच का स्तर देखें...लड़की
के पैदा होने पर एक पेड़ लगाओ ताकि उसकी लकड़ियाँ बेचकर शादी की जा सके...जिस
व्यक्ति की सोच से व्यवहार तक रूढ़ीवाद से बुरी तरह ग्रस्त है वो भला क्या ख़ाक
महिला सशक्तिकरण करेगा....सुनने में शायद बुरा लगे पर ख़ुद को प्रगतिशील दिखाना भी
आज के समय में मजबूरी हो चली है...इन नारीवादियों को विदेशी फंडिंग वाले प्रोजेक्ट
और इन नेताओं को सरकारों की नज़र में उठाना भी तो है....क्या हम नहीं जानते महिला
दिवस की शुभकामनायें भेजने, उस दिन लेखों से तमाम वेबसाइटों, ब्लॉग, चैनलों के साथ
अखबारों को रंग देने वालों में से कितने लोग वाक़ई बराबरी की बात करते हैं, चाहते
हैं और अपनी कही बातों के वाकई करीब होते हैं...दुनिया दोगले लोगों से भरी पड़ी है
अगर आप जवाब देना नहीं जानते तो घुट जायेंगे....आप चाहे कितना भी हल्ला मचा लें ‘बेटी
बचाओ’ का या कितने भी अभियान चला लें...हक़ीक़त ये है कि मौजूदा हालातों में कोई
भी...और कोई भी मतलब कोई भी...नहीं चाहेगा कि उसके घर बेटी पैदा हो....कोई मां बाप
अपनी ज़िन्दगी इस दहशत में नहीं बिताना चाहेंगे कि वो बच्ची सुरक्षित कैसे रहे..कब
उनकी बेटी के साथ क्या हो जाए नहीं पता..घर, परिवार, स्कूल, सड़क, दफ्तर,
थाना..कहीं भी तो वो सुरक्षित नहीं....माहौल आप दे नहीं पा रहे तो बेटी बचाना तो
भूल ही जाइए