आज ज़रा सैर हो जाये
अहमदाबाद के कुछ बाज़ारों की....क्या कहा?? मॉल? न बाबा, बाज़ार मतलब तो वो शोख चटख
रंगों से सराबोर, ज़िन्दगी के शोर और रौनक से भरे हुए, उस जगह के ठेठ देसीपन को ख़ुद
में समेटे हुए पुराने बाज़ार....हँसते खिलखिलाते, भीड़ भाड़ से भरे बाज़ार जहाँ छोटी
छोटी दुकानें रास्तों पर क़ब्ज़ा जमा लें....मोल भाव करके दाम कम करना ग्राहक का
हुनर हो जिसके आगे तमाम न नुकुर के बाद भी आख़िर में दुकानदार को घुटने टेकने
पड़ें....इन बाज़ारों की ज़िन्दगी को महसूस करने मैं होली के आस पास गयी थी...जी हाँ
उस वक़्त तो ख़रीददारी अपने शबाब पर थी....लिखने में देरी इसलिए क्यूंकि छुट्टियों
के दिनों में बेपरवाह यूँ ही अलग थलग पड़े रहना इतना अच्छा लगता है कि वक़्त, मूड और
नीयत एक साथ मिल बैठें और कोई काम समय से हो जाये ये मुश्किल ही होता है.
अगर घूमने – फिरने,
दोपहर की तेज़ धूप और रात के स्याह अँधेरे की परवाह किये बग़ैर किसी जगह के चप्पे चप्पे को
खंगाल डालने को आवारागर्दी करना कहते हैं तो जी हाँ ये ये मेरा पसंदीदा काम है. इस
शहर में मेरा ठिकाना मेरी बहन के यहाँ है जो किसी ‘आदर्श गृहिणी’ की तरह घर के काम
काज और बच्चों की फ़िक्र में कुछ यूँ आधी हुई जाती है कि शौक और अपनी निजी इच्छाओं
से जुड़ी बातें वो भूतकाल में ही करती है....मसलन ”मुझे भी डांस का बड़ा शौक था” या “मुझे भी घूमने जाना बहुत अच्छा लगता था”....वर्तमान
में कुछ बचा नहीं और भविष्य पर प्रश्नचिन्ह है...उसके पास हर रोज़ काम की एक लम्बी
लिस्ट होती है....अगर किसी को इंसानी मशीन देखनी हो तो वो यहाँ आये या किसी और
गृहिणी के घर भी चला जाये...तो अब ये तय था कि ‘आवारागर्दी’ तो अकेले ही करनी
पड़ेगी....पर इसे संयोग कहें या हमारी अच्छी किस्मत कि हमें यहाँ भी एक साथी मिल
गयीं...रश्मि जोशी. उनसे मेरी मुलाक़ात साल भर पहले लखनऊ में हुई थी बस उसके बाद
फेसबुक ने हम दोनों की दोस्ती को ज़िन्दा रखा और इस यात्रा के दौरान ये और घनिष्ठ
और मज़बूत हो गयी.
वो भी मेरे जैसी
घुमक्कड़ मिज़ाज़...कभी भी कहीं भी चल पड़ो...फोटोग्राफर हैं तो कैमरे में उनकी जान
बसती है... घूमघाम का पहला अड्डा था तीन दरवाज़ा बाज़ार....ऑटोवाला जान चुका था कि
मैं गुजराती नहीं हूँ...बाज़ार के पास जब उसने हम दोनों को छोड़ा तो रश्मि से
गुजराती में कहता गया कि ये बेन हिन्दीभाषी प्रदेश से आई हैं आप तो यहीं के हो
इन्हें अच्छे से घुमा देना. उस जगह से गुज़रती तंग संकरी गलियों ने आख़िरकार हमें
बाज़ार तक पहुंचा दिया...तीन बड़े और क़ारीगरी से खूबसूरत बन पड़े दरवाज़ों ने एकाएक
मुझे लखनऊ के रूमी दरवाज़े की याद दिला दी...बस उसके आगे था बिलकुल मेरी अपेक्षाओं
जैसा सजीला बाज़ार.
तीन दरवाज़ा पर मेरी साथी रश्मि |
बाज़ार में सबसे पहले मेरा ध्यान खींचा उन छोटी पतली कलाइयों में रंग बिरंगी चमकीली चूड़ियाँ पहने, दोनों चोटियों पर रंगीन रिबन और उन बड़ी, निच्छल, चमकदार आँखों में मोटा काजल लगाये और अपने नन्हे हाथों से अपनी मां की उंगली थामे ठुमक ठुमक चलती उस बच्ची ने...बस उससे इशारों में बात करते हुए हम दोनों भी उस भीड़ भाड़ और संकरी गली में पीछे हो लिए.
चारों तरफ नज़र
दौड़ाई तो....उफ़, क्या कुछ नहीं मिलता यहाँ....हर वो चीज़ जो आप सोच सकते हैं और
बहुत कुछ ऐसा जो आप सोच नहीं सकते....ये बाज़ार काफी कुछ लखनऊ के अमीनाबाद बाज़ार
जैसा है....भीड़ में टकराते कन्धों के बीच आगे बढती हूँ तो आवाज़ आती है “सौ की चार
सौ की चार”, पहुँच के देखा तो पुरुषों की कमीजें बिक रहीं थीं....ज़रा सोचिये आज के
समय में ₹ 25 की एक कमीज़!!
नकली रंग बिरंगे
फूल, कपडे, पर्स, सौंदर्य प्रसाधन, रसोई का सामान, तोरण, पूजा का सामान, खिलौने,
फल, सजावटी सामान, घर की बल्कि घर क्या किसी की ज़िन्दगी से जुड़ी छोटी मोटी ज़रूरतों
की हर चीज़ यहाँ उपलब्ध थी....एक अच्छी बात जो मुझे यहाँ देखने को मिली है वो ये कि
व्यवसाय में यहाँ महिलाएं भी काफी आगे हैं....कैसी भी दुकानें हों सब्जी से लेकर
पानी पूरी तक की, उन्हें सँभालते यहाँ महिलाएं बहुतायत में देखी जा सकती
हैं....इसमें कोई दो राय नहीं कि यहाँ के लोग बहुत मेहनती और काम की इज्ज़त करने
वाले होते हैं....ये यहाँ के लोगों का गुण है और इसके लिए किसी ‘सरकार’ कोई कोई
श्रेय नहीं जाता है....यहाँ व्यक्ति मौके तलाशते हैं आमदनी के, वो इंतज़ार नहीं
करते कि उन्हें उनकी डिग्रियों के आधार पर ही काम मिले और अच्छी बात ये है कि इस
आमदनी को वे मेहनत से उपजाते हैं.
इस बाज़ार में ही
अहमदाबाद की जामा मस्जिद है...कुछ बेनक़ाब खिलखिलाती लड़कियों को मैंने अन्दर जाते
देखा तो उत्सुकता हुई....आमतौर पर मस्जिदों में महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित होता
है...मेरी साथी रश्मि मुझे वहीँ ले जा रही थी....तपती फर्श धूप से गर्म हो आग उगल रही
थी...जूते हाथ में लेकर वज़ूखाने तक यूँ दौड़ लगाई जैसे किसी ने पीछे शेर छोड़ दिए
हों....हाँफते हुए चारों ओर एक नज़र दौड़ाई....क्या भव्य और ख़ूबसूरत मस्जिद!!
वज़ूखाने से मस्जिद की तरफ चेहरा करने पर एक विशाल खुले आँगन के सामने मस्जिद और
बाकी तीनों ओर दीवार से सटी गलियारों जैसी जगह...मैं खुश थी ये देखकर कि कोई भी,
महिला, पुरुष या बच्चे कहीं भी बैठकर प्रार्थना कर सकते हैं...वज़ूखाना भी एक
ही....मतलब प्रार्थना करने के लिए लिंग पर आधारित बंटवारा इस मस्जिद में नहीं
हुआ...ये जगह हर किसी के लिए खुली है...अगली दौड़ उस बड़े आँगन को पार करके मस्जिद
तक पहुँचने के लिए लगानी थी...उस शांत भवन की ठंडी फर्श पर पैर रखकर जब सांस में
सांस आई तो मस्जिद की क़ारीगरी पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकी....ये मस्जिद सुल्तान
अहमद शाह के काल में 1423 में बनायीं गयी थी....260 खम्भों पर टिकी इस मस्जिद में
15 खूबसूरत गुम्बदें हैं....शुरूआती समय में मस्जिद में महिलाओं के लिए एक अलग
झरोखा बनाया गया था जो अब इस्तेमाल नहीं होता...अब महिलाएं भी किसी भी जगह बैठकर
प्रार्थना कर सकती हैं....मैं यहाँ की क़ारीगरी को आँखों के साथ साथ अपने कैमरे में
क़ैद करती चल रही थी.
मस्जिद में आने जाने के तीन रस्ते हैं...आँगन से सटे उन गलियारों से होकर एक रास्ते की तरफ बढ़ी तो एक बुज़ुर्ग महिला गुस्से से उन गिलहरियों को डपट कर भगा रही थी जो झुण्ड में खंभों से उतर उनके सब्जी पूड़ी के दोनों से खाना चुगने आ रही थी...महिला भिखारिन थी, मैं उनकी तस्वीर लेने लगी तो एक लम्बी मुस्कुराहट उनके झुर्रियों से भरे चेहरे पर तैर गयी....मैंने उन्हें उनकी तस्वीर दिखाई तो दुपट्टा मुँह पर रख वो जोर से खिलखिलाई...जब मैं चलने लगी तो पूरे हक से उन्होंने गुजराती में कुछ कहा, मुझे समझ नहीं आया तो दोबारा कुछ यूँ कहा “मनी (money) दो मनी, शाम की चाय पीनी है”...अब तो खिलखिलाए बग़ैर मैं भी न रह सकी...एक नौजवान उनकी चाय लेकर पहुँच चुका था और अब वो अपनी शाम की चाय सुड़कने में मशगूल हो चुकी थीं....इसी जगह से मेरी साथी ने मुझे पीछे का बाज़ार दिखाया....ये माणिक चौक था....फल और सब्जियों का बड़ा बाज़ार और रात में खाने पीने की दुकानें इसे रौशन करती हैं...रात 1- 2 बजे तक लोगों की भीड़ रहती है....अब तो रात का ये फ़ूड बाज़ार देखना ज़रूरी हो गया था.
जामा मस्जिद के दरवाज़े, खंभों और गुम्बदों की एक झलक |
मस्जिद में आने जाने के तीन रस्ते हैं...आँगन से सटे उन गलियारों से होकर एक रास्ते की तरफ बढ़ी तो एक बुज़ुर्ग महिला गुस्से से उन गिलहरियों को डपट कर भगा रही थी जो झुण्ड में खंभों से उतर उनके सब्जी पूड़ी के दोनों से खाना चुगने आ रही थी...महिला भिखारिन थी, मैं उनकी तस्वीर लेने लगी तो एक लम्बी मुस्कुराहट उनके झुर्रियों से भरे चेहरे पर तैर गयी....मैंने उन्हें उनकी तस्वीर दिखाई तो दुपट्टा मुँह पर रख वो जोर से खिलखिलाई...जब मैं चलने लगी तो पूरे हक से उन्होंने गुजराती में कुछ कहा, मुझे समझ नहीं आया तो दोबारा कुछ यूँ कहा “मनी (money) दो मनी, शाम की चाय पीनी है”...अब तो खिलखिलाए बग़ैर मैं भी न रह सकी...एक नौजवान उनकी चाय लेकर पहुँच चुका था और अब वो अपनी शाम की चाय सुड़कने में मशगूल हो चुकी थीं....इसी जगह से मेरी साथी ने मुझे पीछे का बाज़ार दिखाया....ये माणिक चौक था....फल और सब्जियों का बड़ा बाज़ार और रात में खाने पीने की दुकानें इसे रौशन करती हैं...रात 1- 2 बजे तक लोगों की भीड़ रहती है....अब तो रात का ये फ़ूड बाज़ार देखना ज़रूरी हो गया था.
शाम का वक़्त काटने
हम लॉ गार्डन के बाज़ार गए....इस बाज़ार का समय है शाम 7 से रात के 12 – 1 बजे....और
लड़कियों का ये पसंदीदा बाज़ार है....सड़क किनारे फुटपाथ बाज़ार की शक्ल में सजा ये
बाज़ार आपको कच्छ की झलक देता है....लहंगा चोली, बालों से लेकर पैरों तक को सजाने
के तमाम नकली जेवर, बैग, चादरें, तोरण, कठपुतलियां, कच्छ की क़ारीगरी के सजावटी
सामान, जूतियाँ और न जाने क्या क्या...रंगों, सितारों और चमकीली क़ारीगरी से सजा ये
बाज़ार बेहद आकर्षक है...पर अगर आप मोलभाव के कच्चे हैं तो ये जगह आपके लिए
नहीं.
अहमदाबाद में कच्छ की झलक दिखाता लॉ गार्डन बाज़ार |
रात के 10 – 10:30
का वक़्त होगा...पर इस बात का यक़ीन करने के लिए आप अपनी घड़ी को शक़ की निगाहों से
देखेंगे क्यूंकि कोई ताज्जुब नहीं अगर आपको ये महसूस हो कि आपकी घड़ी आज धीमी चल
रही है या बंद पड़ गयी है....कौन कहता है कि रात को जिंदगी की रफ़्तार धीमी पड़ जाती
है या ज़िन्दगी थम जाती है...कम से कम आधी रात को भी रौशनी से नहाया और खाने के
शौकीनों की भीड़ से भरा माणिक चौक का बाज़ार आपकी इस सोच को खुली चुनौती देता है....मेरे
शहर के बाज़ार में रात को ये रौनक रमज़ान के दिनों में दिखती है....यूँ लग रहा था
जैसे किसी मेले में आ गए हों....ठेलों में दुकानें और सड़क पर बिछी कुर्सी
मेज़ें....अगर जगह मिले तो वहीँ बैठ कर खाइए वरना खड़े खड़े या फिर इंतज़ार करिए जगह
खाली होने का....क्या कुछ नहीं मिलता यहाँ खाने को, दक्षिण भारतीय, उत्तर भारतीय,
बम्बैय्या, चाईनीज़ सब कुछ...मगर इन सबके अलावा सैंडविच के जितने प्रकार मैंने यहाँ
देखे अपनी सीमित जानकारी के आधार पर ही सही पर उतने कहीं न देखे और न सुने.....हम
घुमक्कड़ों के साथ अब एक और साथी हो ली थी...रश्मि की प्यारी, होनहार और अल्हड़ बेटी
मिष्ठी...20 – 22 साल की उम्र की इतनी बेपरवाह और दुनिया के बनावटी रंगों से बची
लड़की सालों बाद मिली....बस तो तीन महिलाओं की तिकड़ी ने कब्ज़ा जमाया एक मेज़ पर और 2
– 3 तरह के सैंडविच और पाव भाजी का आर्डर हो गया.
आधी रात को जगमगाता माणिक चौक का बाज़ार |