इस तथाकथित डेवलपमेंट सेक्टर से जुड़े हुए लगभग 8 साल पूरे हो चुके हैं....पढाई को भी जोड़ दूँ तो 10 साल. वक़्त बहुत तेज़ी से गुज़रा. पढाई के दिनों में एक ख़ास छवि थी इस क्षेत्र
की मेरे दिमाग में. कि ये क्षेत्र उन जुझारू, बहादुर, संवेदित और जानकार लोगों का
है जो वाकई में समाज को बदलने की न सिर्फ नियत और इच्छा रखते हैं बल्कि विरोध और
कठिनाइयों से निपटने की कुव्वत भी. उस ख़ास बुद्धिजीवियों की जानकारी का भंडार और
जूनून देख कर चकित भी होती थी और प्रभावित भी. ऐसा महसूस होता था की काश हम भी कभी
इन जैसे बन सकें. ये ही वो लोग हैं जो बराबरी का समाज लाने का माद्दा रखते हैं. पर
इतने सालों में ये छवि न जाने कितनी बार टूटी, कितनी बार बदली और इस क्षेत्र का एक
असली और बेहद अलग चेहरा एक दु:स्वप्न की तरह झकझोर कर चला गया. मैं यहाँ ये बात साफ़
कर दूँ कि मैं शिद्दत से इस बात को मानती हूँ कि अच्छे लोग कम हैं पर वे हर जगह
मौजूद हैं बल्कि शायद उनकी वजह से ही उम्मीदें आज भी जिंदा हैं. साथ ही इस लेख का आशय
ये कतई न निकाला जाय कि मैंने हर पुरुष या लड़के को एक ही वर्ग में लाकर खड़ा कर
दिया है. चूँकि बीते कुछ दिनों में एक के बाद एक घटनाएं मेरे आस पास के लोगों के
साथ साथ मेरे साथ भी घटीं इसलिए इस तरह के लोगों के ख़िलाफ़ बोलना ज़रूरी हो गया है. अब
इस बात में कोई संदेह नहीं कि अन्य क्षेत्रों की भांति ये क्षेत्र भी अत्यधिक
प्रदूषित हो गया है. ये प्रदूषण मानसिकता से लेकर आचरण तक हर जगह है. सबसे ज्यादा ख़तरनाक बात ये है कि ऐसा करने वाले बुद्धिजीवी लोग वो हैं जो मंचों पर अपने भाषणों
में, अपनी किताबों व लेखों में बड़ी बड़ी आदर्श बातें करते हैं. इन लोगों से युवा
खासे प्रभावित होते हैं और इन्हें अपने आदर्श के तौर पर देखते हैं. लेकिन गुस्से,
घृणा, नफरत और अफ़सोस से भरा होता है वो पल जब इनकी दुहरी मानसिकता और ओछापन नज़र
आता है.
आज मैं इस बात को पूरी मज़बूती के साथ कहती हूँ कि कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि व्यक्ति किस संस्था से जुड़ा हुआ है. उनकी सोच की ये गन्दगी हर स्तर
पर है. बात ग्राम, ज़िले या प्रदेश स्तर की संस्थाओं की हो या बड़ी अंतर्राष्ट्रीय
संस्थाओं की.....सोच का ये दिवालियापन हर जगह काबिज़ हो चुका है. इसे सोच के खुलेपन
से लेकर, फैशन और मौज मस्ती के रूप में देखा जा रहा है. एक लड़की से मुख़ातिब हर
दूसरा आदमी उसमें मौका तलाशता हुआ मिलता है. ये सोच रखना कि महिला अधिकारों और
बराबरी की बात करने वाले ये पुरुष संवेदित हैं, अक्सर एक भद्दा झूठ साबित होता है.
वो पुरुष जानकार, पढ़ा लिखा, अच्छा वक्ता और प्रदर्शनकारी तो हो सकता है पर वो एक
संवेदित इंसान हो या अपने उन भाषणों पर अमल करने वाला हो ऐसा कतई ज़रूरी नहीं. ये
लोग हमारे आस पास होते हैं, हमारे अध्यापक, बॉस, सहकर्मी या कई बार ये वो भी हो
सकते हैं जिन्हें हमने अभी तक अपने आदर्श के रूप में देखा हो. ये हमारे जानने में कोई भी हो सकते
हैं इसीलिए ये लोग ज़्यादा ख़तरनाक होते हैं. अपनी पढाई पूरी करके इस क्षेत्र में
काम करने आई लड़कियां इनकी सॉफ्ट टार्गेट होती हैं जिन्हें ये आसानी से अपनी बातों
से प्रभावित भी कर लेते हैं और फंसा भी लेते हैं. बीते कुछ दिनों में मेरी मित्र
के साथ और पिछले कुछ दिनों में मेरे साथ घटी इस घटना ने एक बार फिर झटका दिया. हमारी
उस सोच को फिर पुख्ता किया कि कोई फ़र्क नहीं पड़ता वो पुरुष कौन है, क्या है, क्या
करता है, उसकी सामाजिक, वैचारिक, शैक्षिक पृष्ठभूमि क्या है, चाहे कुछ हो जाए उस
पर भरोसा करने की ग़लती मत करो. उनसे बात भी मत करो, और ये सोच तो भूल के भी मत रखो
की चूँकि तुम और वो एक ही क्षेत्र में काम करते हैं या एक ही ऑफिस में काम करते
हैं तो औपचारिक शिष्टाचार या एक दूसरे की
मदद करना सामान्य बात है. बच के रहो क्यूंकि तुम्हारे इस आचरण का मतलब ये कुछ और ही
निकालते हैं. अपनी सोच की सारी हदें पार करते हुए वो तुम्हारे इस व्यवहार का नतीजा
ये निकालते हैं कि तुम उनके लिए उपलब्ध हो. और अगर उनके इस व्यवहार पर कोई आपत्ति
जताती हो तो इसका साफ़ मतलब ये है कि तुम्हे अपनी सोच और नज़रिया खोलने की ज़रूरत है.
उनके हिसाब से तुम्हें उनके भद्दे मज़ाक पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, उनके चाय,
कॉफ़ी या उनके साथ घूमने जाने की इच्छाओं को पूरा करना चाहिए, अपनी सोच और मानसिकता
को बदलते हुए इस खुलेपन को अपनाना चाहिए जिसमें उनके बेहुदे स्पर्श पर तुम्हे
आपत्ति, गुस्सा, या घृणा का भाव आने की जगह मज़ा आये. इसे फैशन और अपनी देह की
स्वतंत्रता समझना चाहिए. यही बराबरी है, यही चलन है, यही सशक्तिकरण है और उनके हिसाब
से यही सही है.
पर क्या किया जाये. पुरुषों की ऐसी खेप को कैसे समझाएं कि
महाशय हम बड़ी ढीठ लड़कियां हैं, और आप जैसे लोगों ने हम लोगों को चालाक भी बना दिया
है, सड़क, बस, ऑटो, स्कूल, दफ्तर हर जगह आप जैसे लोग मौका तलाशते मिल ही जाते हैं.
कई बार हमारी तेज़ी आपको फ़ौरन आपकी हदें बता देती है और कभी कभी थोड़ी देर हो जाती
है....आप उस वक़्त बच निकलते हैं. पर हाँ इतना ज़रूर तय है कि आपके चंगुल में तो हम
आने से रहीं और ये भी तय है कि देर सवेर आपको सबक सिखाने में हमे रत्ती भर संकोच न
होगा, और उस सबक की भाषा, यकीन मानिए वही होगी जो आप समझते हैं और आप जिसके योग्य
हैं. हो सकता है आपके हिसाब से हम बेहद दकियानूसी और सोच से पिछड़ी हों, हम
आधुनिकता, तरक्की और खुलेपन के उस मापदंड पर बिलकुल भी फिट न बैठते हों जो आपकी उन
तरक्कीपसंद बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में हमारी मौजूदगी को सार्थक करे पर क्या करें
इन चुनौतियों ने मज़बूत कर दिया है हमें. हम न सिर्फ़ आपकी घटिया हरकतों के
दुर्ग को भेदेंगे, आपके क्षेत्र में आपके सामने अपनी मौजूदगी मज़बूती से दर्ज
कराएँगे, कहीं कोई समझौता नहीं करेंगे बल्कि वक़्त आने पर आपको सबक सिखाने से भी नहीं
चूकेंगे. हर बार आपका वक़्त अच्छा हो और आप बच निकलें ये मौका अब तो आपको मिलने से
रहा. मैं हैरान हूँ तुम मर्दों के बढ़ते उस हौसले पर जिसमे अपने इस व्यवहार पर तुम्हें
शर्मिंदगी होने की जगह गर्व होता है.
लड़कियों इस बात को जान लो कि न समाज, न समाज का ढांचा और न
समाज के ठेकेदार, कोई भी तुम्हारी तरफ़ नहीं है. हर किसी को सवालिया नज़र से देखना यूँ
तो सही नहीं पर जो स्थितियां हैं उसमें सिर्फ ये ही सही है. भरोसा सिर्फ खुद पर
करो और दूसरों पर जितना भी करो अपनी सारी ग्रंथियां खोल के करो, कोई फर्क नहीं
पड़ता सामने कौन है. किसी भी शर्त पर, किसी भी तरह के फ़ायदे के लिए ख़ुद को समर्पित
करने से बचो. तुम्हारी दैहिक स्वतंत्रता से जुड़ा निर्णय लेने का हक़ सिर्फ और सिर्फ
तुम्हारा है. किसी और को ये हक़ नहीं बनता कि वो उस पर तुम्हे सलाह भी दे. और हाँ
कई बार आपका दिमाग उस वक़्त साथ नहीं देता पर ये तय कर लो कि इन लोगों को इनकी
जुबां में सबक सिखाना बहुत ज़रूरी है. खुद को सुरक्षित रखने के लिए भी और उन तमाम
लड़कियों को हौसला देने के लिए भी जिनकी उम्मीद तुम सब हो. वो जानकार हैं, बुद्धिजीवी
हैं, पढ़े लिखे हैं, अनपढ़ हैं, विद्यार्थी हैं, बेरोजगार हैं, अफसर हैं, गरीब हैं, अमीर
हैं, रसूखवाले हैं, रिश्तेदार हैं या कोई भी हैं. हमारी बला से. तुम्हारा शोषण
करने वाले या तुम्हारी ज़िन्दगी तय करने वाले ये कोई नहीं...महाशय आपकी दोहरी
मानसिकता आपको मुबारक जो बड़ी बड़ी बातें करने के बाद खुलेपन और दैहिक स्वतंत्रता का
हवाला देकर स्त्री को एक उपभोग की ही वस्तु बनाती है. हाथों में नोबेल विजेताओं की
किताबें होना, बड़े क्रांतिकारियों के विचार मुंहजुबानी याद होना, शराब पीना, लड़की
के शरीर के हर हिस्से तक अपनी पहुँच बनाना आपके लिए चलन होगा. पर अपनी इस आदत और
हरक़त को खुद तक ही रखिये और खुद को हम सबसे दूर रखिये. आप एक अच्छे इंसान होते तो
साथ चलने में हमें भी ख़ुशी होती. पर ऐसा नहीं है और अकेले हम अब भी नहीं. आप जैसों
की तादाद बहुत ज्यादा है पर हम जानते हैं दुनिया में एक बड़ी तादाद उन अच्छे पुरुषों
की भी है जो हमारा साथ देने, हौसला बढाने, इंसानियत में विश्वास को जिंदा रखने के
साथ साथ आपको आपकी सही जगह याद दिलाने में हर क़दम पर हमारे साथ होते हैं.