शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

ठसक बनारस की ....


इस शहर से ये मेरी पहली मुलाक़ात थी. बहुत समय से यहाँ आना चाहती थी पर अपनी तमाम महत्वाकांक्षाओं के जाल में फंसे हुए मेरे जैसे लोगों की प्राथमिकताओं में ‘ज़िन्दगी जीना’ शायद कहीं पीछे छूट गया है. शायद यही वजह थी कि यहाँ आना हुआ तो वो भी व्यावसायिक कारणों से. अवध की शामों को तो बचपन से देखती आ रही हूँ. ये अलग बात है की शामें मुझे कभी पसंद नहीं रहीं, वो मुझे एक अलग किस्म की उदासी से भर देती हैं. रातें मुझे सुकून तो सुबह मुझे ऊर्जा देती है . तो अब बारी थी बनारस की मशहूर सुनहरी सुबह देखने की. 
एक अलग क़िस्म का चुम्बकीय आकर्षण है इस शहर में. आप हर एक चीज़ की तरफ खिंचते हैं. एक बड़ी वजह ये भी है कि लखनऊ में जिस ज़िन्दगी और देसीपन को अब दम तोड़ते देख रही हूँ वो यहाँ की हर चीज़ में अब भी दिखाई देती है. मैं इस बात से इनकार भी नहीं करती कि यहाँ कुछ नहीं बदला होगा. शायद यहाँ के पुराने लोगों के लिए बनारस भी वैसे ही बदला होगा जैसे मेरे लिए लखनऊ और शायद रह रह के उनके दिल में भी इस बदलती तस्वीर की टीस ज़रूर उठती होगी.
पतली संकरी गलियाँ, कंचे खेलते, पतंगों के पेंच लड़ाते बच्चे, लखौडी ईंटों के मकान, दीवारों की दरारों से निकलते पीपल के पौधे, गोल टोपी और हिना से रंगी दाढ़ी वाले खां साहब की वो रंग बिरंगी पतंगों की दुकान जहाँ वो पहले तो बच्चों को बनावटी गुस्सा दिखा कर डपटते पर थोड़ी देर में उनकी मासूमियत के आगे मुस्कुराकर घुटने टेक देते, छतों पर सर्दियों की गुनगुनी धुप में बैठी महिलाओं की चुहलबाजी, छतों से ही अगल बगल के घरों में कटोरियों की अदला बदली..पीपल के पेड़ वाले चबूतरे पर बैठी बुजुर्गों की मंडली और उनकी गप्पें...मैं अपने बचपन के दिनों में वापस चली गयी थी. एक लम्बे अरसे बाद मैंने आदाब का जवाब राम राम से सुना. मैं यहाँ ये साफ़ कर दूँ कि मैं कतई ये नहीं कह रही कि मैं वाराणसी को धार्मिक सौहार्द के लिए प्रेरणा के तौर पर देख रही हूँ...पर टुकड़े टुकड़े में मिल रहे ये अनुभव मुझे कहीं मुझे पुराने लखनऊ की, अपने बचपन की याद दिला रहे थे और मुझे वहां लौटना अच्छा लग रहा था. अच्छा शायद इसलिए भी लग रहा था कि मैं उन दो समुदायों को साथ में इतने आराम से रहते हुए देख रही थी जिनको आज राजनीतिज्ञों ने एक दूसरे का दुश्मन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. लखनऊ से इतर यहाँ अल्पसंख्यक समुदाय कुछ हिस्सों तक सीमित नहीं थे. ये वही बनारस है जहाँ जब एक तरफ काशी विश्वनाथ के कपाट खुल रहे होते थे तो दूसरी ओर बिस्मिल्ला खां साहब की शहनाई शहरवालों को सुबह होने की खबर देती थी. ये वही काशी है जिसकी झलक मुझे ‘काशी का अस्सी’ में मिली थी.  मैं उस मशहूर गंगा जमुनी तस्वीर को देख रही थी. जानती हूँ कि ये इतनी संवेदनशील है कि कब बिगड़ जाए पता नहीं चलता पर अभी मैं इसके बारे में सोचना भी नहीं चाह रही थी.
इस शहर के रंग जिंदगी से भरे थे बिल्कुल बच्चों की तरह. आप उनकी तरफ देखें और वो एहसास जो आपको ऊर्जा और ज़िन्दगी के साथ आँखों में चमक और होठों पे मुस्कराहट दे जायें. हमारा अगला पड़ाव था उन लोगों के मोहल्लों में जिनके हुनर ने इस शहर की पहचान में बड़ा इज़ाफा  किया था. बुनकर, जुलाहे, और उनके हर घर में चलता हथकरघे का संगीत. उस संगीत के साथ चलता उन चटख रंगीन सूती और रेशमी धागों का ताना बाना किसी को भी मंत्र मुग्ध कर दे. ऐसे ही एक घर में जब उन रंगीन चमकीले धागों को मैं बच्चों की तरह देख रही थी तो उस कारीगर ने मुस्कुराते हुए मुझसे पुछा कि मैं कहाँ से आई हूँ. मैंने कहा ‘लखनऊ’ तो उसकी मुस्कराहट और लम्बी हुई और बहुत गर्मजोशी से उसने मुझे उसका हथकरघा देखने के लिए बुलाया. वो बहुत चाव से मुझे बता रहा रहा था कि कैसे ये हथकरघा काम करता है, कैसे अलग अलग धागे इस्तेमाल होते हैं, ताना और बाना क्या होता है वगैरह वगैरह. वो जानता था कि न तो मैं कोई खरीददार हूँ, न कोई विदेशी और न ही कोई फोटोग्राफर या फ़िल्मकार, फिर भी वो मुझे बता रहा था, मुझे इसकी उम्मीद नहीं थी. मैं उसकी आत्मीयता व उसके उत्साह से प्रभावित थी. उसने मुझसे कुछ भी नहीं कहा लेकिन जब मैं उसके घर से निकली तो अपने साथ एक उदासी लेकर लौटी. पर क्यूँ? थोड़ी देर पहले तक ही तो मुझे उसके रंगीन धागों और हथकरघा के संगीत में ज़िन्दगी दिख रही थी और उसने भी तो मुझसे कुछ नहीं कहा. बस यूँ ही बात करते वक़्त मैंने सामने घर में रखी मशीन के बारे में पूछा तो उसने बताया कि  वो पावरलूम है, उसमें कम मेहनत लगती है और काम भी जल्दी होता है पर वो महंगी होती है. बेहतरीन और खूबसूरत कपडे बुनने वाला ये बुनकर एक निम्न स्तरीय जीवन जी रहा था. बुनकरों के पास से ये सामान ‘गद्दी वालों’ के पास जाता है जो उसे देश के बड़े बड़े शहरों में भेजते हैं, विदेशों में निर्यात करते हैं या बनारस की बड़ी दुकानों में बेचते हैं. ग़ैर बराबरी की ये खाई और इसकी गहराई किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विचलित कर दे. मैं हैरान हूँ कि हर ख़ूबसूरत  दिखने वाली चीज़ या स्थिति के पीछे की तस्वीर इतनी तकलीफ़ देने वाली क्यों होती है. हज़ारों लाखों में बिकने वाली साड़ियों को बनाने वालों को अगर उनके श्रम के मुताबिक़ मेहनताना मिलता तो उनकी स्थिति ऐसी तो न ही होती. पिछले साल जब बाराबंकी के बुनकरों की बस्ती में गयी थी तो उनकी स्थिति इससे भी बुरी थी पर उनका उद्योग फैशन से नहीं जुड़ा था पर यहाँ ऐसा नहीं है. उसके उस आदाब का जवाब मैं एक फीकी मुस्कान से ही दे पाई और भारी मन से उसके घर से निकल आई.
इन गली मुहल्लों में पूरा दिन कब निकल गया पता ही नहीं चला. मेरी साथी मेरी उदासी भांप गयी थी. सो मेरा मन बहलाने के लिए वो मुझे घाट के पास के बाज़ार में घुमाने ले गयी. तो भीड़ भाड़, चहल पहल, रौनक, रंगों और रौशनी से सराबोर ये दूसरी तस्वीर थी बनारस की. कभी कभी सोचती हूँ कि यहाँ की धार्मिक पहचान में कौन सा सुख या मज़ा मिलता है इन विदेशी सैलानियों को.
ये स्थानीय बाज़ार इस शहर के आईने की तरह लग रहा था. भाषा, बोली, पहनावा, रंग, यहाँ तक कि उस सर्द हवा में भी एक ठसक महसूस की जा सकती थी. रात में रौशनी से नहाया घाट के किनारे का बाज़ार, सड़क पर चहलकदमी करते विदेशी, उनको अपनी दुकानों की तरफ रिझाते दुकानदार, खाने पीने, पहनने ओढने से लेकर, फैशन और ज़रूरत का हर सामान आकर्षक कलेवर में सजा दिख रहा था. पूजा के लिए फूल, धूप और अगरबत्तियों से महकती दुकानें, झिलमिल सितारों वाली फ्रॉक पहनी उस नन्ही बच्ची की उँगलियाँ थामे उससे गंगा आरती दिखाने के लिए ले जाती उसकी माँ, गंगा पर उतरता गंगा आरती का प्रतिबिम्ब, किसी को बाँधने के लिए क्या इतना काफी नहीं? कुछ घुलती सी जाती है ये जगह आपके अन्दर साँसों के साथ.  
3 दिन यहाँ बिताने के बाद जब वापस लखनऊ लौट रही थी तो कुछ अधूरापन सा लगा....जैसे यहाँ वापस आना बहुत ज़रूरी है....मैं यहाँ से जितना कुछ ले जा सकती हूँ वो अभी अपने अन्दर समेट ही नहीं पाई थी....वो रंगों की ख़ुशबू, वो चमकीली मुस्कुराहटें, सिन्दूरी सुबहों, रौनक भरी शामों और रूहानी रातों का वो भीना एहसास....बहुत कुछ समेटना है.....जल्द ही लौटूंगी बनारस तुम्हें अपने साथ और ज्यादा ले जाने...                      
          
                                        

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

विवाह में ‘न’ के मायने


कल बड़े दिनों बाद थोड़ा फुर्सत में अपनी भाभी के साथ बैठी थी. उनकी तबियत ठीक नहीं थी तो मैंने भी ऑफिस से छुट्टी ले ली थी. शाम का वक़्त रहा होगा, एक महिला उनके हाल चाल लेने आयीं. शाम की चाय के साथ तीन महिलाओं की गप्पों का सिलसिला चल निकला. शुरू में हंसी मजाक के साथ शुरू हुई बातें धीरे धीरे संजीदा मुद्दों की तरफ बढती गयीं. उस महिला की बातें और व्यव्हार शुरू में थोड़ा अटपटा लगा पर धीरे धीरे हम सभी सहज हो गए. चलिए बातों की आसानी के लिए उनका नाम रख लेते हैं प्रतिभा. प्रतिभा के जीवन के अनुभव उसके चेहरों की लकीरों में नज़र आ रहे थे. हमारे समाज में ये एक आम बात है, एक औरत की सही उम्र चेहरे से कम ही पता चल पाती है. चेहरा उसकी ज़िन्दगी के अनुभवों का आईना दिखा देता है. अगर अनुभव सुखद थे (जो कि आमतौर पर कम ही होते हैं) तो आप सही उम्र देखेंगे वरना उसकी तकलीफों को पूछे या सुने बिना ही उन खाली उदास आँखों, फीकी मुस्कुराहटों, पेशानी पर पड़े बल और चेहरे पर उम्र से पहले ही उभर आई लकीरों में आप उसके अनुभव साफ़ देख सकेंगे. ये देख पाना भी एक हुनर है पर यकीन मानिये अगर आपके अन्दर कहीं भी एक इंसान जिंदा है तो आपको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी.
खैर हम वापस आते हैं प्रतिभा पर. मेरी भाभी ने जब उनका परिचय मुझसे कराया तो बताया कि प्रतिभा को पढ़ने लिखने का बहुत शौक है और वो कवितायेँ बहुत अच्छी लिखती हैं. उनकी शादी कम उम्र में ही हो गयी थी लेकिन उसके बाद उन्होंने अपनी पढाई जारी रखी. बच्चों को भी खूब पढ़ाया, बेटी प्रेम विवाह करना चाहती थी तो उसका पूरा साथ दिया. मैं सुखद आश्चर्य से सुन रही थी और प्रतिभा के चेहरे में वो तलाश कर रही थी जो मुझे सुनने को नहीं मिल रहा था. मेरी दिलचस्पी  वो कहानी जानने में बढ़ती जा रही थी जो उसके ‘आज’ के पीछे थी. यूँ तो हर व्यक्ति विशेष की कोई न कोई कहानी ज़रूर होती है पर आप कह सकते हैं कि महिला मुद्दे मेरे सरोकारों में पहले आते हैं तो मेरा रुझान उनमें ज्यादा है. मैंने हमेशा पाया कि हर लड़की और औरत अपने साथ संघर्ष की  एक अलग ही कहानी लेकर आती है. प्रतिभा की भी एक कहानी थी. अनगिनत पर्तों में लिपटी कहानी जब धीरे धीरे खुलने लगी तो कई बार ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं जड़ हो चुकी हूँ और हौसले की किस मिट्टी से बनी है ये औरत.
तरक्कीपसंद परिवार होते हैं और ज़रूरी नहीं कि ऐसे परिवार सिर्फ शहरों में हों, पढ़े लिखों के हों, किसी वर्ग विशेष के हों इत्यादि. इतने सालों में इतना तो समझ चुकी हूँ कि इस तरह की सीमाएं खुद को भुलावा देने के लिए हम लोगों ने खुद ही बनायीं हुई हैं. प्रतिभा ने पहले ही साफ़ कर दिया कि वो इतनी खुशकिस्मत नहीं थी कि उसे ऐसा परिवार मिला हो. वो बस्ती जिले के एक पिछड़े इलाके और आर्थिक रूप से  मध्य स्तरीय परिवार से थी. परिवार से मतलब उसका मायका. आमतौर पर हमारे समाज में तो एक औरत की पहचान भी स्थायी कहाँ होती है. जिस घर से जुडती है बस उसी हिसाब से पहचान भी बदल जाती है. 15 साल की उम्र में प्रतिभा की शादी हो गयी. ज़ाहिर बात है वो शारीरिक रूप से बेहद कच्ची थी. ये उसके पढ़ने, लिखने और खेलने कूदने की उम्र थी. पर अचानक उसके हाथों से किताबें छीनकर उनमें रसोई के बर्तन दे दिए गए, कन्धों पर स्कूल के बस्ते की जगह रिश्तों की ज़िम्मेदारियों ने ले ली और आँखों और ज़हन में पल पल पलते सपने मुरझा गए. प्रतिभा के मासिक चक्र भी शुरू नहीं हुए थे. गाँव देहात में आमतौर पर शादी होने के बाद भी विदाई तब की जाती है जब लड़की के मासिक चक्र शुरू हो जायें. रुखी भाषा में कहूँ तो इसके बाद लड़की को ससुराल वालों के सुपुर्द ऐसे किया जाता है कि लगता है कहा जा रहा हो कि लो बच्चा पैदा करने की मशीन तैयार हो गयी है, हमारी ज़िम्मेदारी बस यहीं तक थी अब ये तुम्हारी हुई, जैसे मर्ज़ी इस्तेमाल करो. इस प्रक्रिया को ‘गौने’ का नाम दिया जाता है. प्रतिभा की कहानी इस ख्याल को और पुख्ता करती है. 17 साल की उम्र में प्रतिभा के मासिक चक्र शुरू हुए और उसे ससुराल रवाना कर दिया गया. ठीक एक साल बाद यानि 18 साल की उम्र में प्रतिभा एक बच्चे की माँ बन चुकी  थी.
थोड़ी देर पहले तक खिलखिलाती और चहकती आँखों में दर्द, तकलीफ, घृणा और गुस्से की उभरी हुई तस्वीर मुझे भीतर तक झकझोर गयी. उसके कोरों पर चमकती बूँदें मुझे साफ़ नज़र आ रही थीं. मैं समझ सकती थी जिस ज़िन्दगी को प्रतिभा ने जिया था, उसमें अब आंसू बहाने की गुंजाईश ख़त्म हो चुकी थी. उन छोटी बूंदों को साड़ी के कोने से पोंछते हुए उसने कहा “जिसे सब बलात्कार कहते हैं वो तो मेरे साथ हर रोज़ होता था, फर्क बस इतना था कि क्योंकि मेरी उस आदमी से शादी हुई थी इसलिए वो सबकी नज़र में जायज़ था. मैंने अपने जीवन के 10 साल इसी तरह बिताये हैं दीदी, मेरी उम्र ही क्या थी तब”, मैं स्तब्ध थी.
प्रतिभा से कभी कुछ पूछा नहीं गया, उसकी मर्ज़ी नहीं जानी गयी, उसे बस फैसला सुनाया गया. उसे मानना पड़ा क्योंकि उसे बचपन से सिखाया भी तो ये ही गया था. पहली बात तो वो कहती किससे? कहती तो बेशर्म कहलाती. लोगों के हिसाब से इसमें गलत ही क्या होता है, ये तो औरत की नियति होती है. ये बातें पढ़ने सुनने में आपको, हमें और कथित रूप से सभ्य लोगों को कितनी ही बुरी क्यों न लगें कड़वी सच्चाई ये ही है कि हमलोग अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि अलग अलग परिवेशों से आने वाली न जाने कितनी औरतें ऐसी ज़िन्दगी को अपनी नियति मानकर ख़ामोशी से जी जाती हैं. प्रतिभा ने अपने जीवन के 10 लम्बे साल इस शारीरिक, मानसिक, यौनिक और सामाजिक हिंसा को जीते हुए गुज़ारे थे. अब वो दो बच्चों की माँ थी. एक छोटी खरोंच भी अपना निशान छोड़ती है और यहाँ तो चोट का प्रहार शरीर से लेकर आत्मा तक था. जिस्म की खरोंच वक़्त के साथ ख़त्म हो जाती है लेकिन दिल और दिमाग की चोटें व्यवहार में असर छोड देती हैं. प्रतिभा में एक अलग किस्म की कड़वाहट आ गयी थी. उसे किसी का भी, कैसा भी स्पर्श परेशान कर देता था. बल्कि आज भी अगर वो किसी को भी अपनी तरफ बढ़ते हुए देखती है तो बेहद असहज हो जाती है. ये दूरी उसने स्त्री - पुरुष, हर किसी से बना ली है. यह बहुत हद तक समझा भी जा सकता है क्योंकि अपनी तकलीफ के उस दौर को उसने अकेले ही झेला है.
मगर जिस जज्बे की मिसाल प्रतिभा ने दी वो बहुत कम देखने को मिलता है. जब प्रतिभा थोड़ी समझने की स्थिति में आई तो उसने अपनी बिखरी ज़िन्दगी को समेटने का फैसला किया. अपने भीतर दौड़ रही कड़वाहट को उसने अपनी शक्ति बनाया. उसने अपनी पढाई दोबारा शुरू की. जिद की  और दसवीं, बारहवीं, बी. ए., एम्. ए. किया. खुद को किताबों की दुनिया में उतार लिया. हौसला आने लगा और वो घर वालों की नज़र में विद्रोही हो गयी. हमारे समाज में ‘न’ सुनना पति को नागवार गुज़रता है पर प्रतिभा ने ‘न’ बोलना सीखा. खुद से और बच्चों से जुड़े फैसलों में किसी की न सुनी. बेटी को खूब पढ़ाया, पी. एच. डी. करायी. बेटी ने अपनी पसंद से शादी करने की इच्छा जताई तो परिवार वालों के विर्रुद्ध जाकर बेटी की शादी उसकी पसंद के लड़के से करायी. प्रतिभा ने लिखने पढ़ने के शौक को अपना साथी बना लिया है.
प्रतिभा के संघर्ष की कहानी सुनकर मैं बहुत प्रभावित थी पर हाँ कुछ बातें हैं जो अन्दर तकलीफ देती हैं. प्रतिभा ने खुद को संभाला, बेटी, बेटे की अच्छी परवरिश की लेकिन कितनी गहरी हैं वो तकलीफें जिनकी टीस व्यक्तिगत तौर पर उसे आज भी बेचैन कर देती है और शायद हमेशा करती रहेंगी. किसी का प्यार, दुलार या संवेदना से भरा स्पर्श भी उसे परेशान कर देता है, वो दूरी जो उसने दुनिया से बना ली है, नहीं लगता कि कभी कम हो पायेगी. पर फिर ये भी लगा कि कितनी औरतें हैं जो इतनी हिम्मत जुटा पाती हैं जो प्रतिभा ने जुटाई. मैं कई ऐसी महिलाओं को जानती हूँ जिनके ऐसे अनुभव उनकी जीने की इच्छाशक्ति को ही ख़त्म कर देते हैं.
प्रतिभा की कहानी जब सुन रही थी तो ज़हन में और बातें भी चल रही थी. दिसंबर 2012 में हुई  दिल्ली के बहुचर्चित बलात्कार की घटना से जुडी बातें कौंध गयी. साथ ही 2004 की एक परिचर्चा की भी याद हो आई. परिचर्चा सुप्रीम कोर्ट की एक वरिष्ठ वकील के साथ हुई थी जिसमें मुझे ये पता चला था कि हमारे कानून में वैवाहिक जीवन में पति द्वारा हुए बलात्कार को बलात्कार माना ही नहीं जाता. 2012 में वर्मा कमेटी ने एक अच्छी पहल करते हुए देश भर से सुझाव मांगे. न जाने कितने लोगों और संस्थाओं ने ये सुझाव दिया कि वैवाहिक जीवन में हो रही इन घटनाओं को भी बलात्कार में शामिल किया जाये. ये वो घटनाएं हैं जिनका कोई आंकड़ा ही नहीं मिलता क्योंकि इसे क्रूरता की श्रेणी में रखा जाता है. पर समाज के हर हिस्से, हर संस्था मे घर कर चुकी पित्रसत्ता से ये  संवेदनशील कमेटी, सरकार, राजनीतिक दल, न्यायपालिका, कुछ भी तो अछूता नहीं. जो कानून बना उसमें इन घटनाओं को बलात्कार में शामिल नहीं किया गया. दलीलें भी दे दी गयीं इस निर्णय के पीछे कि परिवार और विवाह संस्था को बचाए रखने के लिए ऐसा करना ज़रूरी है. कितनी हास्यास्पद बात है कि वही घटना किसी कुंवारी लड़की या महिला के साथ होने पर उसे बलात्कार माना जायेगा, उसके लिए अलग कानून होंगे, अलग सजायें होंगी लेकिन वही घटना अगर पति करे, बार बार करे, हर रोज़ करे तो उसका कानून, सजा, सुनवाई, सब अलग. जो सवाल उठते हैं वो पुराने हैं लेकिन आज तक अनुत्तरित हैं इसलिए ज़रूरी हैं. क्या महज़ शादी हो जाने से किसी घटना की जघन्यता कम हो जाती है? क्या शादी का मतलब कोई लाइसेंस है जो पति को अपनी पत्नी की देह का शोषण करने के लिए मिलता है? अपनी पत्नी की मर्ज़ी के खिलाफ जाकर, ज़बरदस्ती उससे सम्बन्ध बनाने वाले पुरुष में और एक बलात्कारी में क्या अंतर है? क्या एक पत्नी की इच्छा या मर्ज़ी की कोई अहमियत नहीं? कहीं हम ये तो नहीं कहना चाहते कि चूँकि उसने ऐसा अपनी पत्नी के साथ किया इसलिए ये उतना ग़लत नहीं, बाहर किसी और लड़की के साथ करता तो गलत होता? क्या हम ये कहना चाह रहे हैं कि पत्नी इसी प्रकार के उपभोग की ही वस्तु है? क्या हम सोच भी पा रहे हैं कि तथाकथित रूप से महान विवाह संस्था को बचाने के लिए हम इस मुल्क की अनगिनत पीड़ित महिलाओं और लड़कियों को किस नरक में धकेल रहे हैं? काश हमारे देश की निर्णायक प्रणाली में शामिल होने वाली सभी संस्थाएं और समूह थोडा संवेदनशील होकर ये सोचती कि विवाह संस्था को बचाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ औरत की ही तो नहीं और वो कैसी संस्था जो किसी औरत के जीवन को दु:स्वप्न में बदल दे. ऐसी संस्था को तो सिरे से ख़ारिज करके बाहर निकलने में ही समझदारी है. ज़रूरत थी कि वो इस मुल्क की लड़कियों में हौसला भर सकते कि ऐसी स्थितियों में वो अकेली नहीं हैं और उनके पास कानून की ताकत है. हमारी सरकार को इस बात का ज़रा भी अंदाजा नहीं कि उनके इस निर्णय ने न जाने कितने शोषक पुरुषों के हौसलों को मज़बूत किया, कितनी औरतों, बराबरी के समाज के लिए कार्य कर रहे लोगों और संगठनों की उम्मीदों को तार तार किया और असंवेदनशीलता की क्या मिसाल पेश की.
मैं खुश हूँ कि प्रतिभा ने स्थितियों के आगे घुटने टेकने से मना कर दिया, कम ही महिलाएं ऐसी हिम्मत जुटा पाती हैं लेकिन हम सच से मुंह नहीं फेर सकते और सच ये है कि उन काले वर्षों की वजह से प्रतिभा खुश और सामान्य तो आज भी नहीं!!                                                                                                                          
               
        

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

सवाल आधी आबादी की सुरक्षा का....



कुछ समय पहले की ही बात है. एक महिला किसी से मेरा पता पूछते पूछते मेरे घर पहुँचीं. एक लम्बी यात्रा के बाद मैं उसी दिन लौटी थी. मुझे लगा कि संस्था से किसी प्रकार की मदद की ज़रूरत होगी. लेकिन जहाँ उन महिला ने अपने जीवन के पन्ने उलटे पलटने शुरू किये, उनकी आपबीती ने  मेरे अन्दर सिहरन पैदा कर दी. 25 सालों से अपने पति द्वारा सताई जा रही ये महिला अब मदद इसलिए ढूंढ  रही थी क्योंकि उसके बर्दाश्त करने की सीमा खत्म हो चुकी थी.  खुद शारीरिक हिंसा की शिकार इस महिला ने बताया कि इसका पति अपनी ही दोनों बेटियों का यौन उत्पीडन कर चुका है. इसमें से छोटी बेटी तो उस वक़्त कुछ महीनो की ही थी. दहशत में आई बेटी एक बार चीखी और बिस्तर से गिर गयी जिससे आज भी वो मानसिक रूप से असामान्य है. बड़ी बेटी के मन में डर इस क़दर बैठा कि आज भी वो उससे जूझ रही है. पति माँ और दोनों बेटियों को छोड़कर कहीं और रहता है और उन्हें खर्च भी नहीं देता है. कहीं से पता चलने पर एक संस्था की मदद से कोर्ट तक पहुंची तो लेकिन एक लम्बे अरसे के बाद भी अभी तक कुछ हाथ नहीं लगा. अब यहाँ ये बताना ज़रूरी हो जाता है कि ये किसी गरीब, ग्रामीण घर की कहानी नहीं है. पति एक बैंक में ऊंचे पद पर कार्यरत है और वो महिला खुद जादवपुर यूनिवर्सिटी की मनोविज्ञान में ऑनर्स है. अब एक दूसरी संस्था की मदद से उनकी छोटी बेटी को ख़ास बच्चों के स्कूल में निः शुल्क दाखिला मिल गया है और दबाव बनाने पर  केस की सुनवाई में भी तेज़ी आई है. यह सच है कि यह घटना बहुत आम घटना नहीं है लेकिन ऐसी घटनाएं होती हैं. और ये उस मुद्दे की बस बानगी है जिस पर  आगे इस लेख में बात होगी.
  
पिछले कुछ समय में सोया हुआ पूरा मुल्क अचानक जाग उठा. बड़ी तादाद में लोग सड़कों पर उतर आये. हर तरह का मीडिया सक्रिय हो गया और काफी लम्बे से सोया हुआ प्रशासन, राजनीतिक दल, पुलिसिया तंत्र और और कुछ हद तक हमारी न्यायप्रणाली भी इस रोष के चलते जाग उठी. मुद्दा कोई नया नहीं और न ही इसके लिए किसी भी समाज या संस्था की उदासीनता नयी है. महिला सुरक्षा, महिलाओं के प्रति बढती हिंसा, सामाजिक गैरबराबरी, हमारे समाज के हर स्तर पर जमी हुई पित्रसत्ता और इन मुद्दों पर चल रहे आन्दोलन भी कोई नए नहीं हैं.  लेकिन हाँ इन सबको जिस घटना ने हवा दी वो बेहद क्रूर, बर्बर, अमानवीय और जघन्य अपराध थी. इस देश की राजधानी व यहाँ के दिल कहे जाने वाले शहर दिल्ली के सभ्रांत इलाके में चलती बस में एक युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म ने इस देश में महिलाओं की स्थिति की पोल पट्टी खोल दी. राजधानी दिल्ली में महिला सुरक्षा को लेकर हो रहे सारे दावे हवा हो गए. युवा, नारीवादी संगठन, बुज़ुर्ग सड़कों पर उतर आये, ज़ाहिर बात है ये स्थिति  उनके लिए स्वीकार्य नहीं थी. सरकार ने भरोसा दिलाया कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा लेकिन साथ ही शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन कर रहे प्रदर्शनकारियों पर पानी की तेज़ बौछारें हुई, आंसू गैस के गोले छोड़े गए, लाठीचार्ज किया गया और प्रदर्शन रोकने के लिए धारा 144 लगाने के अलावा 9 मेट्रो स्टशन बंद कर दिए गए.  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इससे बड़ा सवाल और क्या हो सकता था. लेकिन मुद्दा इससे कहीं ज्यादा बड़ा और उसकी जडें कहीं ज्यादा गहरी हैं. 

शायद कुछ सवाल खुद से पूछें जाएँ तो थोडा आसानी हो. क्या बलात्कार की ये एकमात्र घटना है या देश की राजधानी में यह पहली बार हुआ है?? क्या महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा, छेड़छाड़ से लेकर यौन शोषण या दहेज़ हत्या कोई नयी बात है?? क्या महिलाएं इस देश के किसी भी हिस्से में, किसी भी संस्था में, घर से लेकर सड़क, दफ्तर तक, कहीं भी खुद को पूरी तरह सुरक्षित महसूस करती हैं?? क्या महिलाओं को अपने जीवन से जुड़े फैसले खुद लेने का अधिकार है?? क्या महिलाएं पुलिस प्रशासन या न्यायपालिका पर पूरा भरोसा कर सकती हैं?? क्या इस देश में बच्चियां सुरक्षित हैं?? क्या हमारे राजनीतिक दल, हमारे नेता, हमारे जनप्रतिनिधि, हमारी सरकार  या हमारा राज्य महिलाओं से जुडी समस्याओं और मुद्दों को लेकर संवेदनशील है??  क्या यह सब मिलकर अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं?? और क्या हमारे देश में कानूनों की कोई कमी है?? 

कुछ आंकड़े शायद स्थिति को थोडा स्पष्ट करें. 2010 में जागोरी संस्था द्वारा आई रिपोर्ट ने बताया कि अकेले दिल्ली शहर में 44% महिलाएं मौखिक उत्पीडन का शिकार हुई हैं जिसमें छीटाकशी और सीटी बजाकर छेड़ना शामिल है. 13% महिलाओं ने शारीरिक उत्पीडन का सामना किया है. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों में 2010 की तुलना में 2011 में 7.1% की बढ़ोत्तरी हुई है और 2007 से 2011 तक इनमें 23.4% की वृद्धि हुई है. भारतीय दंड संहिता के तहत आने वाले महिलाओं के खिलाफ हुए अपराध पिछले 5 सालों में 8.8% से बढ़कर 2011 में 9.4% तक पहुँच गए हैं. 2011 में महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों की संख्या 228650 थी जिसमे 24206 बलात्कार, 8618 दहेज़ हत्याएं, 35565 अपहरण , 42968 छेडछाड, 8570 यौनिक हिंसा, 99135 पति या अन्य रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता, 80 लड़कियों के व्यापार की घटनाएं शामिल हैं. इन अपराधों के आधार पर सबसे अधिक घटनाएं पश्चिम बंगाल में हुई हैं व उत्तर प्रदेश इस सूची में 22639 घटनाओं (जिसमें 2042 बलात्कार शामिल हैं) के साथ तीसरे स्थान पर है. अपहरण व दहेज़ हत्या की घटनाओं के मामले में उत्तर प्रदेश इस सूची में 7525 अपहरणों और 2322 दहेज़ हत्याओं के साथ सबसे ऊपर है. यहाँ पर ये कहना बेहद ज़रूरी है कि यह सिर्फ वो संख्या है जो कि दर्ज होती है. अधिकांशत: तो तो कई कारण पीड़ित महिलाओं की हिम्मत तोड़ने का काम करते हैं जैसे पारिवारिक दबाव, किसी भी प्रकार का सहारा न होना, कभी डर तो कभी शर्म, सामाजिक दबाव, पुलिस का असंवेदनशील रवैया या न्यायपालिका की कमरतोड़ लम्बी प्रक्रिया. आज भी हमारे समाज में दोयम दर्जे पर जी रही औरत आमतौर पर पुलिस या कोर्ट का दरवाज़ा तब खटखटाती है जब उसके बाकी सारे विकल्प बंद हो चुके होते हैं क्योंकि इन जगहों पर पहुँचने  को भी परिवार की इज्ज़त से जोड़कर देखा जाता है जिसकी ज़िम्मेदारी उसी औरत के कन्धों पर होती है. इज्ज़त और शान के नाम पर होने वाली हत्याएं हम रोज़ ही अखबारों में पढ़ते हैं. दिल्ली बलात्कार कांड के बाद न्यूज़ चैनलों पर चल रही चर्चाओं से पता चला कि बलात्कार के लगभग 1 लाख मुक़दमे हमारी न्यायपालिका में लंबित पड़े हैं, उसी के कुछ दिन बाद हिंदुस्तान अखबार के माध्यम से पता चला कि कुछ पीड़ित 36, 37 सालों से उत्तर प्रदेश में न्याय की बाट जोत रहे हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार ही बलात्कार की घटनाओं में सजा की दर मात्र 26.4 है.       

तो यह तो साफ़ है कि देशभर में जो रोष फैला वो एक बलात्कार की वजह से नहीं है. यह हर उस बच्ची, युवती या महिला की बात है जो हर 22वे मिनट देश के किसी कोने में बलात्कार का शिकार होती है. यह सिर्फ राजधानी दिल्ली की नहीं बल्कि बुंदेलखंड, झारखंड, गुवाहाटी और इस मुल्क के दूर दराज़ में ऐसी हिंसा का शिकार हो रही हर महिला के बारे में है. यह दिल्ली के सिर्फ उन शोहदों के बारे में न होकर अपने रुतबे, कद, पैसे, जाति, पदवी के नशे में चूर नेताओं, रईसजादों, पुलिसवालों, नौकरशाहों या सेना के जवानों के बारे में भी है.  लेकिन यहाँ यह कहना भी ज़रूरी है कि बात बलात्कार के अलावा होने वाली घटनाओं की भी है. बात उस अजन्मी अबोध बच्ची की भी है जिसे सिर्फ इसलिए मार दिया जाता है या कूड़े के ढेर में फेंक दिया जाता है क्योंकि वो एक लड़की है. बात पैदा होने के बाद हर दिन बढती उस लड़की की भी है जो हर रोज़ भेदभाव को एक नए रूप में देखती और महसूस करती है और ऐसा करते करते वो कब इस दोयम दर्जे को खुद में आत्मसात कर लेती है उसे पता ही नहीं चलता. उसके खेल, खिलौने, कपडे, काम, अगर कर सकी तो पढाई और थोडा और आगे बढ़ सकी तो उसका करियर वरना शादी  कुछ भी तय करने की आजादी या हक आज भी उसके पास नहीं है. बड़े होने की प्रक्रिया में कब उसे बचपन के खेल छोड़कर खुद को अपने ही परिवार के सदस्यों की नज़रों से बचाकर रखना होता है, जिसमें ज़्यादातर वो सफल नहीं हो पाती है, यह भी ज़िम्मेदारी उसी की होती है. 

अगर स्कूल जा पाती  है तो वहां एक ओर पढने की ललक या लालच वहीँ दूसरी ओर अपने ही सहपाठियों, अध्यापकों से खतरा, काम के लिए बाहर निकले तो सड़क पर चलते लोगों, यातायात के साधनों पर सवार लोगों की बेचैन कर देने वाली नज़रों और फब्तियों को झेले, कार्यस्थल में यौन शोषण से खुद को बचाए, शादी करे तो उस घर में कभी शारीरिक तो कभी मानसिक हिंसा का शिकार हो.यह  सच है कि शायद हर लड़की के साथ ये स्थिति न आई हो लेकिन इनमे से कोई भी न आई हों ये संभव नहीं.  तस्वीर बदली है लेकिन ये भी सच है कि अगर एक बड़े फलक पर देखें  तो तस्वीर अब भी बड़ी कुरूप है.  एक लड़की के जीवन में उसे बचपन से ये बता देना कि शर्म ही उसका गहना है, उसे धीरे बोलना चाहिए, धीरे हँसना चाहिए, कैसे चलना चाहिए और उसके लिए उसका शरीर ही उसकी और न सिर्फ उसकी बल्कि पूरे घर भर की इज्ज़त है, ऐसा करके उसकी अस्मिता को महज़ उसके शरीर के दायरे में समेट देना कहाँ तक सही है यह बड़ा सवाल है.

रास्ते चलते छेड़खानी करते, सीटी बजाते लड़कों के खिलाफ जब लड़की खुलकर आवाज़ उठाती है, उसी जगह उसका सामना करती है तो अच्छा लगता है लेकिन ऐसा करने की हिम्मत कम ही लड़कियां जुटा पाती हैं और अगर बात बढ़ जाती है तो अक्सर उन्हें ही चुप हो जाने की हिदायत या सलाह दी जाती है. ऐसी कुछ हिम्मती लड़कियों को आगे अलग किस्म की मुश्किलें भी झेलनी पड़ जाती हैं. जैसे राह चलते उनके चेहरे पर तेजाब फेंक देना, अपहरण करके बलात्कार करना. लखनऊ की ही एक सामाजिक संस्था, साझी दुनिया के सार्वजनिक यातायात के साधनों का इस्तेमाल कर रही महिलाओं के साथ किये गए एक ताज़ा सर्वेक्षण के नतीजे कहते हैं कि 93.72% महिलाओं के साथ छेड़खानी होती है. 62.99% महिलाओं का मानना है की ड्राइवर और उसके साथी भी छेड़खानी करते हैं. और 68.40% महिलाओं का कहना था कि ऐसी स्थिति में आस पास के लोग कोई मदद नहीं करते. तो असल में समस्या कहाँ है, दोषी कौन है और इस स्थिति में क्या किया जा सकता है. 

शायद ज़्यादातर लोगों के लिए यह बात पुरानी हो चुकी हो लेकिन हमारा सामाजिक ढांचा जिसका कई रुढ़िवादी लोग दंभ भरते हैं इसका मुख्य कारण है.  जो हमारे समाज की हर संस्था, वो चाहे परिवार हो, शिक्षा हो, विवाह हो या और भी कोई ; हर जगह एक गहरी पैठ बना चुका है. साथ ही ज़िम्मेदार है हमारी कथित रूप से महान संस्कृति जो कभी भी महिलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं दे पाई. एक लड़की के जीवन में उसको व उसकी पहचान को एक पुरुष पर ही आश्रित दिखाया गया है, पहले पिता, फिर पति और फिर बेटा. कई लोग इस बात से कतई सहमत नहीं होंगे और मुझे कई वेद पुराणों, धार्मिक ग्रंथों  व मनुस्मृति का हवाला भी देंगे. लेकिन मैं फिर भी यह बात जोर देकर कहूँगी कि ये सभी धार्मिक ग्रन्थ कहीं न कहीं औरत को दोयम दर्जे में धकेलने का काम ही करते हैं. संस्कृति को यह कहकर महान बताने कि आवश्यकता नहीं कि यहाँ औरत देवी होती है क्योंकि आये दिन ऐसी देवियाँ इस देश में या तो कोख में मार दी जाती हैं, राह चलते सड़क से उठाकर किसी आदमी की हैवानियत का शिकार होती है, दहेज़ के लिए जला दी जाती है या ज़ुल्म न सहने की सूरत में घर से निकाल दी जाती है. देवियों की ऐसी कल्पना करना मेरे लिए तो मुश्किल है. मैं और मेरे जैसी तमाम लड़कियां एक आम इंसान की ज़िन्दगी जीना चाहती हैं और अपने हक का इस्तेमाल करना चाहती हैं. 

यह हमारे समाज के हर हिस्से में घर कर चुकी पित्र्सत्ता का ही परिणाम है कि लड़की के साथ कुछ गलत होने की सूरत में हम उसे चुप रहना सिखाते हैं. यह बताने कि ज़रुरत नहीं कि किस प्रकार हमारे समाज में बलात्कार पीडिता और उसके परिवार को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है जबकि दोषी शान के साथ घूमता है. और ऐसी स्थितियां होने पर हर तरह की सलाह लड़की को ही दी जाती है कि वो कैसे खुद को बचाए. मैंने आजतक ऐसी चर्चाएं कहीं भी होते नहीं देखी जहाँ लड़कों को ये बताया जाये कि उन्हें महिलाओं के साथ कैसे पेश आना चाहिए या उन्हें हिंसा नहीं करनी चाहिए. यह सोच किसी एक वर्ग विशेष तक सीमित नहीं है. पिछले कुछ समय में पश्चिम बंगाल, गुजरात, मध्य प्रदेश, दिल्ली में बैठे प्रबुद्धजनों की लड़कियों के लिए हिदायत भरी टिप्पणियां हमे शायद याद होंगी. साथ ही शायद यह भी याद होगा कि महान संस्कृति की मशाल लेकर चलने वाले बड़े धार्मिक संगठनों के ठेकेदारों से लेकर आध्यात्मिक गुरुओं तक के इस विषय पर क्या विचार थे. 

यहाँ एक बार फिर मैं सरकारी आंकड़ों का ही हवाला दूंगी और यह खासतौर पर उनके लिए है जिन्हें लगता है कि परिवार में ऐसी घटनाएं होती नहीं हैं और ऐसी घटनाओं के लिए लड़कियां छोटे कपडे पहन कर खुद ही घटना को निमंत्रण देती हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार इन्सेस्ट रेप  की कुल 267 घटनाएं दर्ज हुई हैं जिनमें 20 घटनाओं में पीडिता की उम्र 10 वर्ष तक और 48 घटनाओं में 10-14 वर्ष थी. साथ ही बलात्कार की अन्य घटनाओं में 855 पीड़ितों की उम्र 10 वर्ष तक व 1659 पीड़ितों की उम्र 10-14 वर्ष के बीच थी.  एक अन्य रिपोर्ट का उल्लेख भी यहाँ करना चाहूंगी. वात्सल्य संस्था द्वारा उत्तर प्रदेश में एक छोटे स्तर पर किये गए एक ताज़ा अध्ययन में ये पाया गया कि 5-10 वर्ष की उम्र की 33.2% बच्चियां किसी न किसी प्रकार की यौनिक हिंसा का शिकार हुई हैं. इस उम्र में एक बच्ची क्या निमंत्रण दे सकती है इसका विचार ज़रा खुद करें. 

कुछ लोगों का यह भी कहना है की लड़कियां देर रात घर से बाहर न निकलें, दिल्ली के स्कूलों में तो नसीहत भी होर्डिंगों में लगा दी गयी की लडकियां स्कूल के बाद सीधे घर जाएँ. ऐसे में बस कुछ  सवाल यह कि राज्य की क्या ज़िम्मेदारी है?? क्या एक लड़की या किसी अन्य  व्यक्ति को भी सुरक्षित माहौल देना राज्य की ज़िम्मेदारी नहीं?? यह कौन सुनिश्चित  करेगा कि मैं अपने घर से किसी भी वक़्त बेख़ौफ़ होकर निकल सकूँ और सुरक्षित वापस भी पहुँच सकूँ. 

ऐसी विषम परिस्थिति में जन आन्दोलन एक हद तक बदलाव तो ला सकता है लेकिन ज़रूरत और बहुत ज्यादा होने की है. ज़रूरत बदलाव को खुद से शुरू करने की है. इस समाज के हर स्तर पर, हर संस्था को संवेदनशील होने की ज़रूरत है. हमारे व्यवहार से पाठ्यपुस्तकों तक, हमारी भाषा से कार्यशैली तक, नेताओं के वादों से नियम बनाने तक, हर जगह बैठी गैरबराबरी को बाहर करना बहुत ज़रूरी है. और इस सबके लिए ज़रूरी है एक मज़बूत इच्छाशक्ति का होना. पित्र्सत्ता या मौजूदा ढांचा ऐसा कभी नहीं चाहेगा लेकिन अब राज्य, न्यायपालिका, प्रशासन तंत्र के साथ सरकार को भी सिर्फ कहने के लिए नहीं बल्कि वास्तविकता में संवेदनशील होना ही होगा. इस तंत्र को अब ये सुनिश्चित करना होगा कि ऐसी घटनाएं बर्दाश्त नहीं की जाएँगी. उन्हें ये भी सुनिश्चित करना होगा कि महिलाएं अपनी बात उन तक बेख़ौफ़ होकर पहुंचा सकें और उनकी शिकायतों का निस्तारण भी जल्दी हो. जिस पूर्ण असहिष्णुता (zero tolerance) की बात को सिर्फ कागजों तक या अपने भाषणों तक सीमित करके रखा गया है उस पर समाज के हर दर्जे में अमल किया जाए.  राजनीतिक  पार्टियों की इसपर मज़बूत इच्छाशक्ति हो और सबसे ज़रूरी बात, इसे महज़ महिलाओं का मुद्दा न समझकर मानवता का मुद्दा समझा जाए. पिछले 7 वर्षों से अगर महिलाओं के प्रति यौन हिंसा से संरक्षण पर बने बिल को मंजूरी नहीं मिली है तो यह हमारी सरकार और इस गंभीर मुद्दे पर अन्य दलों की उदासीनता को ही दिखाता है. आज यह बेहद ज़रूरी हो गया है कि हम अपनी बेटियों को सहना नहीं बल्कि कहना सिखाएं. हम उन्हें वो माहौल दें जिसमें वे खुलकर अपनी परेशानी हमसे साझा कर सकें बिना इस डर के कि इस घटना का ज़िम्मेदार उन्हें ही ठहराया जायेगा या उन पर तमाम तरह की पाबंदियां लगा दी जायेंगी. आज यह ज़रूरत निश्चित तौर पर है कि हमारे देश में सख्त कानून हों लेकिंग उससे भी बड़ी ज़रूरत है कि उनका क्रियान्वयन सुनिश्चित हो क्योंकि कानूनों की कमी देश में आज भी नहीं है.   
 
और इन सब के साथ एक बड़ी ज़रूरत है दायरे तय करने की खासतौर पर हमारे मीडिया को, हमारी फिल्मों, टीवी सीरियलों को और हम सबको भी. कहा जाता है कि अब स्थितियां बदलीं हैं, हाँ बदली तो निश्चित तौर पर हैं लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं कि पित्रसत्ता अब और ज्यादा भयावह रूप से गुप चुप तरीके से काम कर रही है और इससे मजबूती देने का काम बाज़ार ने बखूबी किया है. शीला, मुन्नी, फेविकोल जैसे गानों की भूमिका  औरत को सिर्फ एक  उपभोग की वस्तु दिखाने भर की रह गयी है. साथ ही टीवी सीरियलों से लेकर विज्ञापनों ने जहाँ अपने उत्पादों के लिए खरीदार खड़े कर लिए हैं वहीँ इन्होने भी औरत को उपभोग की वस्तु बनाकर ही प्रस्तुत किया है. सीरियलों ने करवाचौथ, छठ, तीज, अक्षय तृतीया जैसे त्योहारों को क्षेत्र के दायरे से बाहर निकाल दिया है, और हर त्यौहार का अपना मज़बूत बाज़ार है. साथ ही इन कार्यक्रमों ने 'अच्छी' और 'बुरी' औरतों की जो अवास्तविक छवि बनायीं हैं वो कहीं न कहीं पित्रसत्ता और रूढ़ीवाद को ही मज़बूत करती हैं. आज की नायिकाओं और फिल्मकारों  को यह समझने की ज़रूरत है कि समाज में अपने स्तर पर ज़िम्मेदारी वे भी निभा सकते हैं. एक बड़ी तादाद में लोग उनका काम देखते, सुनते और काफी हद तक उससे प्रभावित होते हैं ऐसे में इन आइटम गानों की प्रासंगिकता समझ से परे है. शायद मुनाफा कमाने के अलावा थोडा कुछ और भी सोचा जा सकता है. हमारे पास अश्लील और घटिया गानों से प्रसिद्धि बटोर रहे हनी सिंह  के क्या और कोई विकल्प नहीं हैं. उसको पसंद करने वाले लोग हमारे बीच से ही आते हैं और क्यों ऐसे घटिया गाने लिखने और गानेवाले व्यक्ति के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती. हमारी फिल्म और म्युज़िक इंडस्ट्री को कहीं ज्यादा समझदार होने की ज़रूरत है .

ये सच है ये बदलाव एक दिन में नहीं  आएगा लेकिन अगर इच्छाशक्ति हो तो तस्वीर बहुत जल्द बदल ज़रूर सकती है. मैंने अपने जीवन में पहली बार महिला मुद्दों पर इतनी बड़ी तादाद में पुरुषों, लड़कों और युवाओं को सड़क पर उतरते देखा है. इनकी तरफ से यह पहल स्वागतयोग्य है व इसे सहेज कर रखना ज़रूरी है.  लेकिन हाँ यहाँ पर ये ज़रूर कहना चाहूंगी कि जनता का ये रवैया महज़ चार दिन के मौन जुलूस, मोमबत्ती प्रदर्शन तक सीमित नहीं होना चाहिए. आज अपनी इंसानियत के जज्बे को जिंदा रखने की ज़रूरत है. ये समाज  हम सबसे ही मिलके बना है इसलिए इसमें बदलाव लाने की शुरुआत खुद से ही करनी होगी. ज़रूरत ये हैं कि हमारे आस पास जब भी कोई घटना हो तो हम उस वक़्त मूकदर्शक न बनें और अपनी चुप्पी तोडें क्योंकि हमारी और आपकी ख़ामोशी ही ऐसे अपराधियों के हौसले बढाती है. अगर ये नहीं कर सके तो 4 दिन के प्रदर्शन मात्र का कोई मतलब नहीं रह जाता. इस दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक बात और कुछ नहीं हो सकती कि उसकी आधी आबादी असुरक्षित है और आज भी हर एक पल गैरबराबरी और अमानवीयता का सामना कर रही है. एक नसीहत सालों पहले मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी दे गए थे....आज उसका ज़िक्र प्रासंगिक हो चला है: 

कद्र अब तक तिरी तारीख ने जानी ही नहीं 
तुझमें शोले भी हैं बस अश्कफिशानी ही नहीं 
तू हकीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं 
तेरी हस्ती भी है एक चीज़ जवानी ही नहीं 
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे 
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे