इस शहर से ये मेरी पहली मुलाक़ात थी. बहुत समय से यहाँ आना
चाहती थी पर अपनी तमाम महत्वाकांक्षाओं के जाल में फंसे हुए मेरे जैसे लोगों की
प्राथमिकताओं में ‘ज़िन्दगी जीना’ शायद कहीं पीछे छूट गया है. शायद यही वजह थी कि
यहाँ आना हुआ तो वो भी व्यावसायिक कारणों से. अवध की शामों को तो बचपन से देखती आ
रही हूँ. ये अलग बात है की शामें मुझे कभी पसंद नहीं रहीं, वो मुझे एक अलग किस्म
की उदासी से भर देती हैं. रातें मुझे सुकून तो सुबह मुझे ऊर्जा देती है . तो अब
बारी थी बनारस की मशहूर सुनहरी सुबह देखने की.
एक अलग क़िस्म का चुम्बकीय आकर्षण है इस शहर में. आप हर एक
चीज़ की तरफ खिंचते हैं. एक बड़ी वजह ये भी है कि लखनऊ में जिस ज़िन्दगी और देसीपन को
अब दम तोड़ते देख रही हूँ वो यहाँ की हर चीज़ में अब भी दिखाई देती है. मैं इस बात
से इनकार भी नहीं करती कि यहाँ कुछ नहीं बदला होगा. शायद यहाँ के पुराने लोगों के
लिए बनारस भी वैसे ही बदला होगा जैसे मेरे लिए लखनऊ और शायद रह रह के उनके दिल में
भी इस बदलती तस्वीर की टीस ज़रूर उठती होगी.
पतली संकरी गलियाँ, कंचे खेलते, पतंगों के पेंच लड़ाते
बच्चे, लखौडी ईंटों के मकान, दीवारों की दरारों से निकलते पीपल के पौधे, गोल टोपी
और हिना से रंगी दाढ़ी वाले खां साहब की वो रंग बिरंगी पतंगों की दुकान जहाँ वो
पहले तो बच्चों को बनावटी गुस्सा दिखा कर डपटते पर थोड़ी देर में उनकी मासूमियत के
आगे मुस्कुराकर घुटने टेक देते, छतों पर सर्दियों की गुनगुनी धुप में बैठी महिलाओं
की चुहलबाजी, छतों से ही अगल बगल के घरों में कटोरियों की अदला बदली..पीपल के पेड़
वाले चबूतरे पर बैठी बुजुर्गों की मंडली और उनकी गप्पें...मैं अपने बचपन के दिनों
में वापस चली गयी थी. एक लम्बे अरसे बाद मैंने आदाब का जवाब राम राम से सुना. मैं
यहाँ ये साफ़ कर दूँ कि मैं कतई ये नहीं कह रही कि मैं वाराणसी को धार्मिक सौहार्द
के लिए प्रेरणा के तौर पर देख रही हूँ...पर टुकड़े टुकड़े में मिल रहे ये अनुभव मुझे
कहीं मुझे पुराने लखनऊ की, अपने बचपन की याद दिला रहे थे और मुझे वहां लौटना अच्छा
लग रहा था. अच्छा शायद इसलिए भी लग रहा था कि मैं उन दो समुदायों को साथ में इतने
आराम से रहते हुए देख रही थी जिनको आज राजनीतिज्ञों ने एक दूसरे का दुश्मन बनाने
में कोई कसर नहीं छोड़ी है. लखनऊ से इतर यहाँ अल्पसंख्यक समुदाय कुछ हिस्सों तक
सीमित नहीं थे. ये वही बनारस है जहाँ जब एक तरफ काशी विश्वनाथ के कपाट खुल रहे
होते थे तो दूसरी ओर बिस्मिल्ला खां साहब की शहनाई शहरवालों को सुबह होने की खबर
देती थी. ये वही काशी है जिसकी झलक मुझे ‘काशी का अस्सी’ में मिली थी. मैं उस मशहूर गंगा जमुनी तस्वीर को देख रही थी.
जानती हूँ कि ये इतनी संवेदनशील है कि कब बिगड़ जाए पता नहीं चलता पर अभी मैं इसके
बारे में सोचना भी नहीं चाह रही थी.
इस शहर के रंग जिंदगी से भरे थे बिल्कुल बच्चों की तरह. आप
उनकी तरफ देखें और वो एहसास जो आपको ऊर्जा और ज़िन्दगी के साथ आँखों में चमक और
होठों पे मुस्कराहट दे जायें. हमारा अगला पड़ाव था उन लोगों के मोहल्लों में जिनके
हुनर ने इस शहर की पहचान में बड़ा इज़ाफा किया था. बुनकर, जुलाहे, और उनके हर घर में चलता
हथकरघे का संगीत. उस संगीत के साथ चलता उन चटख रंगीन सूती और रेशमी धागों का ताना
बाना किसी को भी मंत्र मुग्ध कर दे. ऐसे ही एक घर में जब उन रंगीन चमकीले धागों को
मैं बच्चों की तरह देख रही थी तो उस कारीगर ने मुस्कुराते हुए मुझसे पुछा कि मैं
कहाँ से आई हूँ. मैंने कहा ‘लखनऊ’ तो उसकी मुस्कराहट और लम्बी हुई और बहुत
गर्मजोशी से उसने मुझे उसका हथकरघा देखने के लिए बुलाया. वो बहुत चाव से मुझे बता
रहा रहा था कि कैसे ये हथकरघा काम करता है, कैसे अलग अलग धागे इस्तेमाल होते हैं,
ताना और बाना क्या होता है वगैरह वगैरह. वो जानता था कि न तो मैं कोई खरीददार हूँ,
न कोई विदेशी और न ही कोई फोटोग्राफर या फ़िल्मकार, फिर भी वो मुझे बता रहा था, मुझे
इसकी उम्मीद नहीं थी. मैं उसकी आत्मीयता व उसके उत्साह से प्रभावित थी. उसने मुझसे
कुछ भी नहीं कहा लेकिन जब मैं उसके घर से निकली तो अपने साथ एक उदासी लेकर लौटी.
पर क्यूँ? थोड़ी देर पहले तक ही तो मुझे उसके रंगीन धागों और हथकरघा के संगीत में
ज़िन्दगी दिख रही थी और उसने भी तो मुझसे कुछ नहीं कहा. बस यूँ ही बात करते वक़्त
मैंने सामने घर में रखी मशीन के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो पावरलूम है, उसमें कम मेहनत लगती है और काम
भी जल्दी होता है पर वो महंगी होती है. बेहतरीन और खूबसूरत कपडे बुनने वाला ये
बुनकर एक निम्न स्तरीय जीवन जी रहा था. बुनकरों के पास से ये सामान ‘गद्दी वालों’
के पास जाता है जो उसे देश के बड़े बड़े शहरों में भेजते हैं, विदेशों में निर्यात
करते हैं या बनारस की बड़ी दुकानों में बेचते हैं. ग़ैर बराबरी की ये खाई और इसकी
गहराई किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विचलित कर दे. मैं हैरान हूँ कि हर ख़ूबसूरत दिखने वाली चीज़ या स्थिति के पीछे की तस्वीर इतनी
तकलीफ़ देने वाली क्यों होती है. हज़ारों लाखों में बिकने वाली साड़ियों को बनाने
वालों को अगर उनके श्रम के मुताबिक़ मेहनताना मिलता तो उनकी स्थिति ऐसी तो न ही
होती. पिछले साल जब बाराबंकी के बुनकरों की बस्ती में गयी थी तो उनकी स्थिति इससे
भी बुरी थी पर उनका उद्योग फैशन से नहीं जुड़ा था पर यहाँ ऐसा नहीं है. उसके उस
आदाब का जवाब मैं एक फीकी मुस्कान से ही दे पाई और भारी मन से उसके घर से निकल आई.
इन गली मुहल्लों में पूरा दिन कब निकल गया पता ही नहीं चला.
मेरी साथी मेरी उदासी भांप गयी थी. सो मेरा मन बहलाने के लिए वो मुझे घाट के पास
के बाज़ार में घुमाने ले गयी. तो भीड़ भाड़, चहल पहल, रौनक, रंगों और रौशनी से सराबोर
ये दूसरी तस्वीर थी बनारस की. कभी कभी सोचती हूँ कि यहाँ की धार्मिक पहचान में कौन
सा सुख या मज़ा मिलता है इन विदेशी सैलानियों को.
ये स्थानीय बाज़ार इस शहर के आईने की तरह लग रहा था. भाषा,
बोली, पहनावा, रंग, यहाँ तक कि उस सर्द हवा में भी एक ठसक महसूस की जा सकती थी.
रात में रौशनी से नहाया घाट के किनारे का बाज़ार, सड़क पर चहलकदमी करते विदेशी, उनको
अपनी दुकानों की तरफ रिझाते दुकानदार, खाने पीने, पहनने ओढने से लेकर, फैशन और
ज़रूरत का हर सामान आकर्षक कलेवर में सजा दिख रहा था. पूजा के लिए फूल, धूप और
अगरबत्तियों से महकती दुकानें, झिलमिल सितारों वाली फ्रॉक पहनी उस नन्ही बच्ची की
उँगलियाँ थामे उससे गंगा आरती दिखाने के लिए ले जाती उसकी माँ, गंगा पर उतरता गंगा
आरती का प्रतिबिम्ब, किसी को बाँधने के लिए क्या इतना काफी नहीं? कुछ घुलती सी जाती है ये जगह आपके अन्दर साँसों के साथ.
3 दिन यहाँ बिताने के
बाद जब वापस लखनऊ लौट रही थी तो कुछ अधूरापन सा लगा....जैसे यहाँ वापस आना बहुत
ज़रूरी है....मैं यहाँ से जितना कुछ ले जा सकती हूँ वो अभी अपने अन्दर समेट ही नहीं
पाई थी....वो रंगों की ख़ुशबू, वो चमकीली मुस्कुराहटें, सिन्दूरी सुबहों, रौनक भरी शामों और रूहानी रातों का वो भीना एहसास....बहुत कुछ समेटना
है.....जल्द ही लौटूंगी बनारस तुम्हें अपने साथ और ज्यादा ले जाने...